UP: वनटांगिया ग्राम महबूबनगर को राजस्व ग्राम बनाने की कवायद शुरू, जानिए वनटांगिया मजदूरों का इतिहास

Written by sabrang india | Published on: March 2, 2019
लखनऊ। उत्तर प्रदेश के वनटांगिया ग्राम महबूबनगर को राजस्व ग्राम की श्रेणी में परिवर्तित करने के लिए जिलाधिकारी शम्भू कुमार की अध्यक्षता में शनिवार को जिला स्तरीय वन अधिकार समिति की बैठक हुई। इस बैठक के दौरान बताया गया कि 247 दावों में से 144 दावेदार वन अधिकार कानून के तहत मालिकना हक प्राप्त करने के योग्य पाये गये हैं। ग्रामीणों को मालिकाना हासिल करने के लिए कड़ी मशक्कत करनी पड़ी। 

अंग्रेजों के जमाने से हैं वनटांगिया
ज्ञातव्य हो कि ब्रिटिश राज में अंग्रेजों की पैनी नजर हिंदुस्तान के सभी जंगलों पर थी किंतु उत्तर प्रदेश में देहरादून, नैनीताल, पीलीभीत, लखीमपुर खीरी बहराइच, बलरामपुर महाराजगंज, गोरखपुर आदि तराई के जंगलों पर कुछ अधिक ही थी। अंग्रेजों ने अवध फॉरेस्ट रूल्स बनाकर 1961 में ही बहराइच के जंगलों पर अंग्रेजों ने कब्जा कर लिया था और 1885 में वन विभाग बनाकर इनका विधिवत दोहन भी शुरु कर दिया था। इसके लिए मोतीपुर, चकिया, चर्दा और भिनगा चार रेन्ज बनाई गईं। बहराइच के जंगल साखू के मजबूत लिए बहुत प्रसिद्ध थे।

रेल लाइन बिछाने के लिए बड़े पैमाने पर काटे गए थे साखू के पेड़
उन दिनों पूरे देश में रेल लाइन का विस्तार चल रहा था। एक किलोमीटर रेललाइन बिछाने में साठ साखू के पेंडों की कुर्बानी हो जाती थी। अपनी मजबूती वाले गुण के कारण साखू के पेड़ लगातार काटे जा रहे थे। रेलवे लाइन के नीचे लगने वाले साखू के स्लीपर की पूरे देश में मांग थी। इस हेतु ब्रिटिश शासन के वन अधिकारियों ने जबरदस्त तरीके से पुरे देश खासतौर पर तराई के जंगलों से साखू के पेड़ों की कटाई कराई। 

साखू के पेड़ की खासियत होती है कि इसके बीच यदि आधी रात को टपकते हैं और सुबह होने तक यदि इन बीजों को मिट्टी में न दबाया जाए तो इनके पौधे नहीं बन सकते। मोतीपुर, ककरहा, मूर्तिहा, निशान गाड़ा कतरनिया घाट, हर जगह से बड़े पैमाने पर जंगल में कटान हुआ। इसके बाद सूखे के चलते फिर से साखू के पेड़ नहीं उग सके। वानिकी भाषा में किसी पेड़ का अपने आप उत्पन्न होना "प्राकृतिक पुनरूदभवन" कहलाता है। नर्सरी तैयार करके पेड़ों को फिर से उगाना कृतिम पुनरुद्भवन कहलाता है। साखू के पेड़ों को कैसे उगाए जाए, इसके लिए वन विभाग के पास कोई तकनीकी ज्ञान मौजूद नहीं था। इसके लिए बहराइच तथा देश के विभिन्न भागों से कई वन अधिकारी प्रशिक्षण लेने के लिए म्यांमार के जंगलों में गये। वहां के आदिवासियों ने उन्हें साखू लगाने की विधि का प्रशिक्षण दिया। पेड़ लगाने की यह विधि टांगिया पद्धति कहलाती है।

बर्मा से आया टांगिया शब्द
टांगिया शब्द शब्द बर्मा भाषा का शब्द है। इसका अर्थ है जंगल की खेती। यह दो शब्दों से बना है "टांग" अर्थात खेती और "या" अर्थात जंगल। यदि आप को किसी स्थान के नाम में पीछे "या" शब्द दिखाई पड़े तो आप मान सकते हैं कि वहां कभी जंगल रहा होगा - जैसे बिछिया, ढकिया, टेडिया, चफरिया बडखडिया, कतरनिया आदि। इसे "झूम खेती" या "शिफ्टिंग कल्टीवेशन" भी कहा जाता है।

कड़ी मेहनत करते हैं वन टांगिया
टांगिया पद्धति में लोगों को खाली जमीन दी जाती है। उन्हें साफ सफाई करके जमीन को तोड़ना होता है और पहले साल हल बैलों के माध्यम से जुताई करके फिर लाइन से पौधे लगाने होते हैं। एक पेड़ से दूसरे पेड़ के बीच में 15 फुट की दूरी होती है। उसमें उन्हें अपनी फसल उगानी होती है। कुल उपज का आधा हिस्सा वन विभाग ले लेता था और आधे में अपना जीवन चलाना होता था। दूसरे साल जब पेड़ बढ़ने लगते थे तो कुल पेड़ों के बीच की खेती को फावड़ा से गोड़ना होता था और पांचवें वर्ष में फसल लेना बंद करके वहां से हटकर दूसरी खाली जमीन में जाकर इसी प्रक्रिया को दोहराना होता था। इसके लिए कई स्थानों पर लोग अपने खेतों में ही रहते थे जबकि कुछ स्थानों पर टांगिया मजदूरों के इकट्ठा निवास केंद्र भी बनाए गए थे। महबूबनगर इसी तरह का टांगिया वन मजदूरों का केंद्र था। तारानगर और नाजिर गंज भी मजदूरों के केंद्र थे।, इन सभी स्थानों पर शुद्ध पेयजल की प्राप्ति बड़ी चुनौती थी। एक पुराने कच्चे कुंए को 1935 में महबूबनगर में पक्का कर दिया गया। सैकडों वन मजदूरों को पानी पिलाने के लिए इस कुंए का निर्माण किया गया था।

वन विभाग कराता था बेगार
तारानगर और नाजिर गंज में पानी के अभाव में मजदूर भाग गए। टांगिया मजदूरों को वन विभाग की कड़ी बेगार करनी होती थी। उन्हें दूध दही, घी, अनाज तथा साल में एक बार भैंस के पांच पड़वे शिकार के लिए को देने होते थे। उनके छप्पर पर लगी सब्जी पर भी वन कर्मचारियों का पूरा अधिकार था। टांगिया मजदूरों के बच्चों को पहले पढ़ने के लिए मनाही थी और यह तर्क था कि यदि टांगिया मजदूर के बच्चे पढ़ लिख गये तो फिर मजदूरी कौन करेगा?

आजादी के बाद मिला बोरिंग का पानी
देश आजाद होने के बाद टांगिया मजदूरों को किसानी के लिए बोरिंग दी गई थी। कुछ स्थानों पर टांगिया मजदूरों के बच्चों को पढ़ाने के लिए स्कूल भी वन विभाग की ओर से शुरु किए गए जिसमें वन विभाग के कर्मचारी पढ़ाने के लिए तैनात होते थे। शुरुआत के दिनों में इन वन मजदूरों को शराब दिए जाने का भी प्रावधान था। 1904 के वनग्रामों के स्थापना कानून में इस बात का अंतिम पैराग्राफ में जिक्र भी किया गया है।

बर्मा से सीखकर आए अंग्रेजों ने शुरू कराई थी टांगिया खेती
बर्मा से प्रशिक्षण प्राप्त कर वनों के प्रबंधन के लिए अंग्रेज अफसरों ने प्रथम बार 1925-26 में मोतीपुर रेंज में टांगिया पद्धति से वृक्षारोपण शुरु किया। यह कार्य प्रायोगिक था, जिसके लिए तीन केंद्रों की स्थापना की गई- घूमना, महबूबनगर, मोतीपुर। शुरुआती कार्य वृत में मोतीपुर के वह साखू (साल) वन रखे गए जिसमें 1915-16 के सूखे का भयानक प्रकोप हुआ था। इन क्षेत्रों में वृक्षों का प्राकृतिक पुनरुदभवन नहीं आ रहा था।  

आरक्षित वनों के प्रबंध का इतिहास पढ़ने से पता चलता है कि 1925-26 में बहराइच वन प्रभाग के मोतीपुर रेन्ज के इन तीनों केंद्रों पर प्रथम बार जो टांगिया पद्धति से वृक्षारोपण कार्य किया गया वह काफी सफल रहा। घूमना और मोतीपुर के टांगिया केंद्र तो 1954 के आसपास बंद हो गये किन्तु देश की आजादी के बाद भी महबूबनगर के टांगिया मजदूरों ने सैकड़ों हेक्टेयर में वृक्षारोपण का कार्य पूरा किया। इन लोगों ने 140 वर्ग किलोमीटर में साखू सहित कई मिश्रित प्रजातियों के पेड़ लगाकर जंगल को फिर से जिंदा किया।

बेगार करने से मना किया तो मिली जमीन छीनने की धमकी
1984 तक जंगल को लगाया और बचाया। जब कार्य पूरा हो गया और वन विभाग से की कड़ी बेकार से तंग आकर महबूबनगर के टांगिया मजदूरों ने बेगार कार्यों में अरुचि दिखाई तो वन विभाग ने उत्पीड़न करना शुरु कर दिया। लोगों से जमीन वापस लिये जाने की कार्यवाही शुरु हुई और उन्हें इस वनभूमि से बाहर निकालने की धमकी दी जाने लगी। कार्य योजना में योजना निर्माता ने लिखा कि चूंकि महबूबनगर के वन टांगिया श्रमिक वानिकी कार्यों में अब रुचि नहीं लेते हैं अत: इनको उजाड़ देना ही बेहतर होगा।  

वन अधिकार कानून अस्तित्व में आने के बाद मिली राहत
इसके बाद वन विभाग इस गांव को हटाने की गुप्त योजना बना रहा था। उन दिनों जंग हिन्दुस्तानी के नेतृत्व में वन अधिकार आन्दोलन पूरे शबाब पर था। महबूबनगर के लिए बारे में वन प्रबंध कार्य योजनाओं को पढ़ने के बाद उन्होंने बिछिया के नवयुवकों के साथ महबूबनगर जाकर लोगों को इसकी जानकारी दी और उन्हें संगठित करना शुरु कर दिया। वर्ष 2006 में वन अधिकार कानून अस्तित्व में आया तो उसने इन टांगिया मजदूरों की बहुत बड़ी मदद की। महबूबनगर पर आते खतरे को भांपकर वन ग्राम अधिकार मंच बनाकर भवानीपुर बिछिया टेडिया ढकिया गोकुलपुर आदि गांव के लोगों के साथ कई बार महबूबनगर जाकर बैठक की गई। 

अब गांव में दिखता है विकास
महबूबनगर के लोग राजनीतिक व्यक्तियों पर बहुत निर्भर थे और उन्हें लगता था कि बड़ी आसानी से वन अधिकार प्राप्त हो जाएगा लेकिन यह उनका भ्रम था। उनके गांव में भी कई राजनैतिक शक्तियों का उदय भी हुआ और पतन भी, किंतु वह जहां पर थे वहीं पर रह गए थे। वनवासी जनता यूनियन बनने के बाद महबूबनगर का आंदोलन और मजबूत हुआ। सेवार्थ फाउंडेशन ने सभी परिवारों का घरवार घूमकर सर्वे किया गया है प्राप्त आंकड़ों का विश्लेषण करके शासन के समझ रखा गया। साथ ही अखिल वन जनजीवी यूनियन के सभी आन्दोलन में महबूबनगर की समस्या को देश के विभिन्न मंच तक पहुंचाया गया। महबूबनगर में वर्तमान में 256 परिवार रहते हैं। गांव की कुल जनसंख्या 1374 है, जिसमें 599 महिलाएं और 775 पुरुष हैं। गांव में प्राथमिक विद्यालय तथा पक्की सड़क भी हैं। यहां लोध, कुर्मी, दलित, यादव, बोट, गोसाईं और मुस्लिम निवास करते हैं।  

योगी आदित्यनाथ ने दिया था राजस्व गांव का दर्जा
अधिकतर परिवारों के पास वन विभाग की पुरानी लगान रसीद है। पहले मात्र 5 परिवारों का राशन कार्ड बना हुआ था जो अब लगभग सभी परिवारों तक पहुंच रहा है। 53 परिवार भूमिहीन हैं। 90 प्रतिशत परिवारों के पास पक्का मकान नहीं है। समीपस्थ ग्राम पंचायत हंसुलिया की मतदाता सूची में इनके नाम थे। अक्सर चुनाव में इनके नाम बाहर कर दिए जाते हैं और पंचायत चुनाव में शामिल होने के लिए जद्दोजहद करते रहते हैं। वन अधिकार कानून लागू होने के बाद इस वर्ष जब मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने गोरखपुर के 5 वनटांगिया गांव, महाराजगंज के 18, गोंडा के पांच, बलरामपुर के 5  तथा बहराइच के लिए एक गांव गोकुलपुर को राजस्व गांव का दर्जा दिया तो महबूबनगर में भी प्रकिया को शुरू किया गया। प्रशासन ने इस कार्य में बिना कोई प्रचार प्रसार किए लोगों से आधे अधूरे दावा फार्म भरवाए और फिर उन्हें खारिज भी कर दिया। बाद में जब इस बात की जानकारी हुई तो जंग हिन्दुस्तानी ने गहन पड़ताल की। 

इस पड़ताल में पता चला कि उपखंड स्तरीय वन अधिकार समिति ने यह दर्शाया है कि इनका गांव 75 साल से बसे होने का मानक पूरा नहीं करता है। चूंकि उन्होंने इन गांव में काम किया था और सूचना का अधिकार तथा फारेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट, देहरादून से महबूबनगर के संबंध में बहुत सारे दस्तावेज जुटा रखे थे, इसलिए इसके बाद उनके पास इनके गांव का सैकड़ों साल से बसे होने का प्रमाण मौजूद था। प्रमाण के साथ वे जिला अधिकारी, मुख्य विकास अधिकारी और अपर जिलाधिकारी-वित्त/राजस्व कार्यालय, बहराइच पहुंचे और उन्हें जब सारे दस्तावेज दिखाए और उनकी छायाप्रति भी दी तो उन्होंने स्वीकार कर लिया। महबूबनगर में जिले के सभी अधिकारियों को जाकर चौपाल लगाकर जनसुनवाई करनी पड़ी और तत्कालीन उप जिलाधिकारी कीर्ति प्रसाद भारती ने गावं में जाकर पड़ताल की और 144 लोगों को मालिकाना हक देने की बात मानी गई किंतु सामाजिक कार्यकर्ताओं की मांग है कि महबूबनगर के प्रत्येक पात्र परिवार वन अधिकार के तहत मालिकाना हक दिया जाय।

जिलाधिकारी शम्भू कुमार ने कहा कि वनटांगिया ग्राम महबूबनगर को शीघ्र ही राजस्व ग्राम का दर्जा दिलाए जाने के प्रस्ताव शासन को शीघ्र भेजा जाएगा।

बैठक में एडीएम राम सुरेश वर्मा, जिला समाज कल्याण अधिकारी आरपी सिंह, डीएफसी जेपी सिंह, जिला पंचायत सदस्य सतीश पोरवाल, उषा देवी, नफीसा खातून व सामाजिक कार्यकर्ता जंग हिंदुस्तानी मौजूद रहे।

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