CM त्रिवेंद्र रावत के खिलाफ घूसखोरी की CBI जांच के हाईकोर्ट आदेशों से BJP में खलबली, SC से राहत

Written by Navnish Kumar | Published on: October 29, 2020
एक पत्रकार की याचिका पर सुनवाई में नैनीताल हाईकोर्ट ने उत्तराखंड के सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत के खिलाफ घूसखोरी के आरोपों की सीबीआई जांच के आदेश दिए। हालांकि नैनीताल हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ मुख्यमंत्री और राज्य सरकार दोनों ने सुप्रीम कोर्ट की शरण ली लेकिन इसको लेकर सरकार और भाजपा दोनों में भारी खलबली मच गई है। वहीं सुप्रीम कोर्ट ने उनके खिलाफ लगाए गए आरोपों की सीबीआई जांच के आदेश पर गुरुवार को रोक लगा दी। त्रिवेंद्र रावत का यह मामला मुख्यमंत्री बनने से पहले का है। 



बता दें कि कांग्रेस समेत विपक्षी दलों ने निष्पक्ष जांच के लिए नैतिकता के आधार पर त्रिवेंद्र रावत से तत्काल इस्तीफा देने की मांग की थी। कुल मिलाकर फैसले ने भाजपा के लिए राजनीतिक और नैतिक दोनों तरह का संकट खड़ा हो गया है।

मामले में समाचार प्लस चैनल के मालिक व पत्रकार उमेश शर्मा ने आरोप लगाए हैं कि 2016 में जब सीएम त्रिवेंद्र रावत भाजपा के झारखंड के प्रभारी थे तब उन्होने एक व्यक्ति (एएस चौहान) को गौ सेवा अयोग का अध्यक्ष बनाये जाने को लेकर 25 लाख की घूस ली थी और पैसे अपने रिश्तेदारों (हरिंदर रावत आदि) के खातों में ट्रान्सफर कराये थे। जिस पर नैनीताल हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति रवींद्र मैथानी ने मंगलवार को मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के खिलाफ घूसखोरी के आरोपों की सीबीआई जांच का आदेश दिया था।

हाईकोर्ट ने पत्रकार उमेश शर्मा के खिलाफ दर्ज एफआईआर को रद्द करने का भी आदेश दिया। हाईकोर्ट ने यह आदेश, पत्रकार उमेश कुमार शर्मा और शिव प्रसाद सेमवाल द्वारा दायर अलग-अलग रिट याचिकाओं (आपराधिक) की सुनवाई में दिया। पत्रकारों द्वारा दायर याचिका में इस साल जुलाई में देहरादून के नेहरू कॉलोनी पुलिस स्टेशन में आईपीसी की विभिन्न धाराओं के तहत दर्ज़ की गई एफ़आईआर को रद्द करने की मांग की गई थी।

यह एफ़आईआर सेवानिवृत्त प्रोफेसर और देहरादून के एक कॉलेज के प्रबंधक हरिंदर सिंह रावत द्वारा दर्ज़ कराई गई थी। हरिंदर की शिकायत के अनुसार, उमेश ने आरोप लगाया था कि हरिंदर की पत्नी सविता रावत, जो एक एसोसिएट प्रोफेसर हैं वह सीएम रावत की पत्नी की बहन हैं और 2016 में नोटबंदी के दौरान अमृतेश सिंह चौहान नाम के एक व्यक्ति ने विभिन्न बैंक खातों में कुछ पैसे ट्रान्सफर किए थे, जो उनकी पत्नी के नाम पर थे। हरिंदर ने अपनी शिकायत में कहा कि उमेश ने आरोप लगाया कि चौहान को गौ सेवा आयोग का अध्यक्ष नियुक्त करने के लिए रावत को रिश्वत के रूप में पैसे दिए गए थे। हरिंदर ने सभी आरोपों को खारिज किया है और कहा है कि उनके परिवार का सीएम के साथ कोई संबंध नहीं है।

हरिंदर ने शिकायत में कहा कि उमेश ने अपने वीडियो में बैंक खातों में नकद जमा से संबंधित जो दस्तावेज दिखाए हैं वह फर्जी हैं। पुलिस ने पूछताछ के बाद एफ़आईआर दर्ज की थी। सेमवाल के समाचार पोर्टल, पर्वतजन और एक अन्य पत्रकार राजेश शर्मा के मीडिया आउटलेट, क्राइम स्टोरी का नाम भी एफ़आईआर में है।

बुधवार को, हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है। इसके अलावा उत्तराखंड सरकार ने भी विशेष अनुमति याचिका दाखिल कर हाईकोर्ट के आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है। रावत ने हाईकोर्ट के आदेश का विरोध करते हुए याचिका में कहा है कि वह चुने हुए मुख्यमंत्री हैं और राजनैतिक लाभ लेने के लिए इस विवाद में बेवजह उनका नाम घसीटा गया है। 

उत्तराखंड हाईकोर्ट ने 27 अक्टूबर को पत्रकार उमेश शर्मा की याचिका पर फैसला सुनाते हुए मुख्यमंत्री पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाने वाले सोशल मीडिया पर डाले गए वीडियो के संबंध में दर्ज मामला रद्द कर दिया था। सोशल मीडिया पर डाले गए वीडियो के संबंध में सेवानिवृत प्रोफेसर हरेंद्र सिंह रावत ने उमेश शर्मा के खिलाफ एफआइआर दर्ज कराई थी। हाईकोर्ट ने आदेश में उक्त एफआइआर को रद करने के साथ ही सीबीआइ को पत्रकार की याचिका में लगाए गए आरोपों पर मामला दर्ज कर जांच करने का आदेश दिया था। 

मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत और प्रदेश सरकार ने हाईकोर्ट के आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है। साथ ही यह भी कहा है कि उमेश शर्मा की हाईकोर्ट में दाखिल याचिका में उनके (त्रिवेन्द्र सिंह रावत) खिलाफ किसी भी तरह की जांच या सीबीआइ जांच की मांग नहीं की गई थी। याचिका में उमेश ने सिर्फ यह मांग की थी कि उसके खिलाफ देहरादून में दर्ज एफआइआर 265/2020 रद्द की जाए। हाईकोर्ट ने अप्रत्याशित ढंग से उस याचिका पर फैसला सुनाया हैं। 

याचिका में दलील दी गई है कि हाईकोर्ट ने न केवल उमेश के खिलाफ दर्ज एफआइआर रद की बल्कि उनके (त्रिवेन्द्र सिंह रावत) के खिलाफ सीबीआइ को भ्रष्टाचार के आरोपों में एफआइआर दर्ज करके जांच करने का भी आदेश दिया जो कि बिल्कुल गलत और आधारहीन है क्योंकि जो आरोप लगाए गए हैं वे पहली निगाह में फर्जी और आधारहीन हैं। मुख्यमंत्री की याचिका मे कहा गया है कि उमेश शर्मा ने हाईकोर्ट में स्वीकार किया था कि उसने डॉ. हरेन्द्र सिंह रावत और सविता रावत के जरिये रिश्वत लेने के और उनके मुख्यमंत्री के रिश्तेदार होने के गलत आरोप लगाए थे। 

याचिका में आगे कहा गया है कि इसके बावजूद हाईकोर्ट ने उनके खिलाफ सीबीआइ जांच के आदेश दिए। यहां तक कि हाईकोर्ट में उन्हें पक्षकार भी नहीं बनाया गया था। मुख्यमंत्री ने कहा है कि हाईकोर्ट ने उनके खिलाफ जांच का आदेश देने से पहले उनका पक्ष सुनना भी जरूरी नहीं समझा हैं। ऐसे मे हाईकोर्ट का आदेश बना रहने लायक नहीं है। हाईकोर्ट का आदेश प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के खिलाफ है। 

याचिका में कहा गया है कि मुख्यमंत्री पर फर्जी दस्तावेजों के आधार पर व्‍हाट्स एप संवाद के आधार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए गए हैं। वहीं उत्तराखंड सरकार की याचिका में भी हाईकोर्ट के आदेश का विरोध करते हुए कहा गया है कि उमेश शर्मा के खिलाफ फर्जीवाड़ा आदि धाराओं में मुकदमा दर्ज था। उस पर गंभीर आरोप थे। हाईकोर्ट को एफआइआर रद करने की अपनी सन्निहित शक्ति का इस्तेमाल विरले मामलों में करना चाहिए। हाईकोर्ट का एफआइआर रद करने और सीबीआइ को अन्य मामला दर्ज कर जांच करने का आदेश देना ठीक नहीं है।

बता दें कि सेवानिवृत प्रोफेसर हरेन्द्र सिंह रावत ने देहरादून के राजपुर थाने में पत्रकार उमेश शर्मा के खिलाफ ब्लैकमेलिंग, दस्तावेजों की कूट रचना और गलत तरीके से बैंक खातों की जानकारी हासिल करने का आरोप लगाते हुए एफआइआर दर्ज कराई थी। आरोप लगाया गया था कि उमेश ने सोशल मीडिया पर वीडियो डाला था जिसमें प्रोफेसर रावत और उनकी पत्नी सविता रावत के खाते में नोटबंदी के दौरान झारखंड के अमृतेश चौहान ने 25 लाख रुपये की रकम जमा कराई थी। 25 लाख की यह रकम रावत को देने को कहा गया। 

कथित वीडियो में सविता रावत को मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत की पत्नी की सगी बहन बताया गया था। प्रोफेसर रावत के अनुसार, सभी तथ्य असत्य हैं और उमेश ने फर्जीवाड़ा करके उनके बैंक के कागजात बनवाए। बैंक खाते की सूचना भी गैरकानूनी तरीके से हासिल की। बता दें कि उमेश शर्मा ने उक्‍त एफआईआर रद कराने के लिए हाईकोर्ट में उक्त याचिका दाखिल की थी जिस पर नैनीताल उच्‍च न्‍यायालय ने फैसला दिया है और जिसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में मुख्यमंत्री और राज्य सरकार दोनों पहुंची हैं।

खास हैं कि न्यायमूर्ति रवींद्र मैथानी की पीठ ने उस मामले में यह फैसला दिया जिसमें पत्रकार उमेश शर्मा (स्थानीय समाचार चैनल 'समचार प्लस' के मालिक) ने रावत से संबंधित एक वीडियो (जुलाई 2020 में) बनाया था जो वर्ष 2016 में गौ सेवा आयोग झारखंड में एक व्यक्ति (एएस चौहान) की नियुक्ति के लिए उनके रिश्तेदारों के खातों में रुपये ट्रांसफर करने में रावत (भाजपा के झारखंड प्रभारी के रूप में) की कथित भूमिका के लिए था। 

खास यह भी हैं कि उमेश शर्मा के खिलाफ यह इकलौता मामला नहीं था। उमेश पर पूर्व में कई एफआईआर दर्ज की गई थीं। 2018 में उमेश शर्मा और चार अन्य लोगों के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज की गई थी जो पुलिस स्टेशन राजपुर, जिला देहरादून में एफआईआर नंबर 100/ 2018 में आईपीसी की धारा 386, 388, 120B के तहत दर्ज की गई थी।
इस एफआईआर में न्यूज चैनल समचार प्लस के एक पूर्व कर्मचारी ने आरोप लगाया था कि उमेश शर्मा अन्य लोगों के साथ मिलकर स्टिंग ऑपरेशन करते थे और उसके बाद ये लोग खुफिया कैमरे के जरिए मंत्रियों और अधिकारियों को फंसाते थे।
यह आरोप लगाया गया कि उमेश शर्मा अपने चैनल पर समाचार प्रसारित नहीं करते हैं और एक पूर्व नियोजित साजिश के तहत वह उन्हें ब्लैकमेल करके पैसा कमाते हैं।

इसी का संज्ञान हाईकोर्ट ने लिया है। उमेश की ओर से न्यायालय के समक्ष यह तर्क दिया गया कि एक ही अपराध के संबंध में जिसमें समान लेनदेन किए गए थे, जब पहले से 2018 में एफआईआर दर्ज थी तो अब जुलाई 2020 में नई एफआईआर पंजीकृत नहीं की जानी चाहिए थी।

गौरतलब है 2018 की एफआईआर में उमेश शर्मा पर राज्य सरकार को अस्थिर करने और राज्य में अशांति और हिंसा फैलाने की साजिश में शामिल होने आदि के साथ पूर्व नियोजित साजिश के भी आरोप थे।

इसी से, न्यायालय ने कहा हैं कि यदि लेन-देन एक था, तो पुलिस पिछली 2018 की प्राथमिकी के तहत ही, हालिया जुलाई 2020 की एफआईआर के आरोपों की भी जांच कर सकती थी। नई एफआईआर दर्ज करने की आवश्यकता नहीं थी।
कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि एक ही लेन-देन के तहत किए अपराधों के संबंध में लगातार एफआईआर स्वीकार्य नहीं है। विशेष रूप से, 2020 की इस प्राथमिकी में, बाद में उन पर राजद्रोह का आरोप लगाया गया था। राज्य ने तर्क दिया कि शर्मा का इरादा राज्य में अशांति पैदा करना है।

इसके लिए, अदालत ने कहा कि धारा 124-ए (राजद्रोह) को जोड़ना यह दर्शाता है कि आलोचना की आवाज़ को दबाने का प्रयास किया जा रहा है और यह समझ से परे है कि ये धारा क्यों जोड़ी गई थी।

इसी से कोर्ट ने उमेश शर्मा के खिलाफ मामले में प्रथम दृष्टया मामला नहीं बनने और राज्य की कार्रवाई दुर्भावनापूर्ण होने की बात कहते हुए, प्राथमिकी को खारिज करने के आदेश भी दिए है।

जहां तक उमेश शर्मा द्वारा मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपो की बात हैं तो उन्होंने व्हाट्सएप संदेश, रिकॉर्ड की गई बातचीत, बैंक जमा रसीदें आदि दी हैं जिनकी कभी जांच नहीं की गई हैं। 

न्यायमूर्ति रविंद्र मैथानी ने कहा कि क्या कोर्ट को याचिकाकर्ता (उमेश शर्मा) द्वारा लगाए गए बिना जांच के आरोपों को, लोगों की स्मृति में डूबने देना चाहिए या अदालत को इस मामले की जांच के लिए कुछ कार्यवाही करनी चाहिए ताकि हवा को साफ़ किया जा सके?। 

इसी सब को आधार मानते हुए कोर्ट ने कहा कि मुख्यमंत्री, त्रिवेंद्र सिंह रावत के खिलाफ लगाए गए आरोपों की प्रकृति को देखते हुए, सच को उजागर करना उचित होगा। यह राज्य के हित में होगा कि संदेह साफ हो जाए।"

इसलिए, कोर्ट ने कहा कि उमेश शर्मा के खिलाफ आरोपों की जांच पूर्व 2018 में दर्ज एफआईआर के तहत की जा सकती हैं। नई एफआईआर की जरूरत नही है और पुलिस स्टेशन नेहरू कॉलोनी, जिला देहरादून में जुलाई 2020 में दर्ज एफआईआर को रद्द किया जाता है। वहीं, पुलिस अधीक्षक, सीबीआई देहरादून को निर्देश दिया जाता है कि वह याचिका में लगाए गए आरोपों के आधार पर एक प्राथमिकी दर्ज करें और कानून के अनुसार मामले की जांच तत्परता से करें।

मुख्यमंत्री के खिलाफ सीबीआई जांच को लेकर उत्तराखंड की राजनीति भी गरमा गई हैं। कांग्रेस आदि विपक्षी दलों ने नैतिकता के आधार पर मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत का इस्तीफा मांगा हैं। कांग्रेस महासचिव एवं पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत तथा उत्तराखंड में पार्टी मामलों के नवनियुक्त प्रभारी देवेंद्र यादव के साथ यहां एक संयुक्त संवाददाता सम्मेलन में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष प्रीतम सिंह ने कहा, ‘‘ एक ऐसा मुख्यमंत्री, जो भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी सरकार की ‘जीरो टॉलरेंस’ (कतई बर्दाश्त नहीं करने) की नीति का बखान करने से नहीं थकता, उसे (अदालत का) ऐसा (सीबीआई जांच का) आदेश आने के बाद अब एक मिनट भी पद पर बने रहने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है। पार्टी ने राज्यपाल बेबी रानी मौर्य से मिलने का समय मांगा है जिससे वह उनके सामने इस मुददे को रख सके और इस मामले में उनसे दखल देने का अनुरोध कर सके।

पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने उच्च न्यायालय के आदेश को 'गंभीर' बताया और मुख्यमंत्री से मामले की निष्पक्ष जांच के लिए पद छोडने को कहा। उन्होंने कहा, ‘'उच्च न्यायालय के आदेश के बाद मुख्यमंत्री को तत्काल पद छोड देना चाहिए, ताकि उनके खिलाफ लगे आरोपों की निष्पक्ष जांच का रास्ता साफ हो सके।

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