हलाल बैन: एक विभाजनकारी एजेंडे के निशाने पर उत्तर प्रदेश के धार्मिक अल्पसंख्यक

Written by Ram Puniyani | Published on: November 24, 2023
योगी आदित्यनाथ के सत्ता में आने के बाद से हालात बदतर हुए हैं। हेट स्पीच बढ़ी है, मांस विक्रेताओं के लिए अपना पेट भरना मुहाल हो गया है और मुसलमानों के एक तबके की आर्थिक रीढ़ टूट गई है। इसके अलावा बुलडोजर न्याय, धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए नई मुसीबत बन गया है।



उत्तर प्रदेश देश का सबसे बड़ी आबादी वाला सूबा है। उत्तर प्रदेश ने देश को सबसे ज्यादा प्रधानमंत्री दिए हैं। उत्तर प्रदेश में ही पवित्र नगरी अयोध्या है, जो देश को धार्मिक आधार पर ध्रुवीकृत करने के लिए चलाये गए अभियान की धुरी थी। यह आन्दोलन राममंदिर के नाम पर चलाया गया था। अब काशी विश्वनाथ मंदिर को लेकर राजनीति की जा रही है। बीफ के मुद्दे ने पहले ही कई लोगों की जान ले ली है। अखलाक, जुनैद और रकबर खान की लिंचिंग हो चुकी है।

उत्तर प्रदेश में आवारा मवेशियों की संख्या शायद देश के किसी भी राज्य से ज्यादा है। वे सड़कों पर दुर्घटनाओं का सबब बन रहे हैं और खेतों में खड़ी फसलों को चट कर रहे हैं। इस राज्य में लव जिहाद भी एक मसला बना दिया गया है, जिसके चलते 2013 में मुजफ्फरनगर में हिंसा हुई थी। योगी आदित्यनाथ के सत्ता में आने के बाद से हालात बदतर हुए हैं। हेट स्पीच बढ़ी है, मांस विक्रेताओं के लिए अपना पेट भरना मुहाल हो गया है और मुसलमानों के एक तबके की आर्थिक रीढ़ टूट गयी है। इसके अलावा बुलडोजर न्याय, धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए नई मुसीबत बन गया है।

हाल में (नवम्बर 2023) वहां की सरकार ने राज्य में हलाल सर्टिफाइड उत्पादों पर तुरंत प्रभाव से प्रतिबन्ध लगा दिया है। यह प्रतिबन्ध केवल स्थानीय बाज़ार के लिए है और निर्यात किये जाने वाले मांस पर यह लागू नहीं होगा। हलाल सर्टिफिकेशन सौंदर्य प्रसाधनों सहित कई उत्पादों को दिया जाता है, परन्तु मुख्यतः यह मांस पर लागू होता है।

हलाल एक अरबी शब्द है जिसके मायने है कोई ऐसी चीज़ जो इस्लामिक धार्मिक आचरण के अनुरूप है या कुरान द्वारा निर्धारित इस्लामिक कानून के मुताबिक खाद्य पदार्थ। हलाल शब्द जानवरों या पक्षियों को खाने के लिए मारने के इस्लामिक तरीके के लिए भी प्रयोग किया जाता है। इस तरीके में जानवर की गर्दन की रक्त शिराओं और साँस की नली को काट कर उसका खून बहा दिया जाता है।

हलाल उत्पादों का व्यापार बहुत महत्वपूर्ण और बहुत बड़ा है। यह उद्योग करीब 35 ख़रब डॉलर का है। पर्यटन और निर्यात क्षेत्रों में इसे बढ़ावा देना भारत के लिए भी फायदेमंद है। इन उत्पादों के मुख्य ग्राहकों में दक्षिण एशियाई देश और इस्लामिक सहयोग संगठन (ओआईसी) के सदस्य देश शामिल हैं। उत्तर प्रदेश सरकार का दावा है कि कुछ कंपनियां फर्जी हलाल सर्टिफिकेट जारी कर रही थीं। मसले को सांप्रदायिक रंग देने के लिए यह भी कहा गया कि इन कंपनियों के कारण सामाजिक विद्वेष बढ़ रहा है और वे जनता के विश्वास को तोड़ रही हैं।

अगर मसला यही था कि कुछ कंपनियां फर्जी सर्टिफिकेट जारी कर रही थीं तो उन्हें रोकने के तरीके ढूंढे जा सकते थे। फिर, प्रतिबन्ध केवल घरेलू बाज़ार के लिए क्यों? आखिर निर्यात भी तो इसी कथित फर्जी प्रमाणीकरण के आधार पर हो रहा है।    

हलाल कौंसिल ऑफ़ इंडिया के अध्यक्ष मुफ़्ती हबीब यूसुफ कासमी ने कहा है कि हलाल के मुद्दे पर विवाद हर चीज़ को हिन्दू बनाम मुस्लिम नज़रिए से देखने की प्रवृत्ति का नतीजा है। उन्होंने कहा, “हलाल का सम्बन्ध साफ़-सफाई और शुद्धता से है। यह हिन्दू-मुस्लिम मसला नहीं है। यह भोजन का मसला है।”

हम अक्सर मांस के व्यापार और निर्यात से मुसलमानों को जोड़ते हैं। मगर तथ्य यह है कि मांस और बीफ का व्यापार कर रहीं कई बड़ी कंपनियों के मालिक हिन्दू है। भारत से मांस की सबसे बड़ी निर्यातक कंपनी अल कबीर एक्सपोर्ट्स के मालिक सतीश सब्बरवाल हैं और अरेबियन एक्सपोर्ट्स प्राइवेट लिमिटेड का स्वामित्व सुनील कपूर के हाथों में है। ये तो केवल कुछ उदाहरण हैं।

मांस के छोटे व्यापारियों, जिनमें से अधिकांश मुसलमान हैं, के प्रति योगी सरकार के पूर्वाग्रहपूर्ण रवैये का अंदाज़ सबको उसी समय हो गया था जब सत्ता में आने के कुछ ही समय बाद, कई दुकानों को इस आधार पर बंद करवा दिया गया था कि उनके पास लाइसेंस नहीं है। इस मनमानी पर टिप्पणी करते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट ने योगी सरकार और लखनऊ नगर निगम से पूछा था कि आखिर किस प्रावधान के अंतर्गत राजधानी लखनऊ में मांस की दुकानों को बंद करवाया जा रहा है। अदालत ने लखनऊ नगर निगम को लताड़ते हुए कहा था कि अधिकारियों ने समय रहते मांस की दुकानों के लाइसेंस का नवीनीकरण क्यों नहीं करवाया।

मांस की दुकानें, समाज को सांप्रदायिक आधार पर विभाजित करने में बहुत उपयोगी सिद्ध हुईं। योगी ने बिना कोई शर्म-लिहाज के 80:20 का विघटनकारी फार्मूला ईजाद किया। साफ़ तौर पर उनका इरादा अल्पसंख्यकों को निशाना बनाना था। उन्होंने एक राष्ट्रीय अख़बार में प्रकाशित विज्ञापन में इस फार्मूला को सामने रखा था। इसका उद्देश्य सांप्रदायिक विभाजन को और गहरा करना था।

उन्होंने ही मुस्लिम समुदाय को निशाना बनाने के लिए ‘अब्बाजान’ शब्द का प्रयोग शुरू किया और यह आरोप लगाया कि मुसलमान अन्य सभी समुदायों के लिए निर्धारित राशन खा रहे हैं। वे ‘अब्बाजान’ शब्द का इस्तेमाल लगातार करते हैं। वे मुज्जफरनगर में हिंसा के लिए मुसलमानों को दोषी ठहराते हैं। यह इस तथ्य के बावजूद कि तमाम तथ्यान्वेषण रपटों से यही सामने आया है कि “हिन्दू लड़कियों की सुरक्षा’ के बहाने भड़काई गई इस हिंसा के कारण बड़ी संख्या में मुसलमान किसानों का इस इलाके से विस्थापन हुआ और जाटों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा। योगी बिना किसी आधार के यह कह रहे हैं कि कैराना से हिन्दुओं के दूसरी जगह चले जाने के लिए मुसलमान ज़िम्मेदार हैं। जबकि सामने यह आया है कि 346 हिन्दुओं ने मुख्यतः आर्थिक कारणों से पलायन किया था।

योगी ने मुसलमानों को दुःख देने का एक और तरीका ईज़ाद किया है, जिसकी नक़ल अन्य बीजेपी-शासित प्रदेशों के मुख्यमंत्री कर रहे हैं। और वह तरीका है मुसलमानों के घरों को बुलडोज़र के जरिये गिरवाना। बताया यह जाता है कि ये घर ‘अवैध’ हैं। अवैध इमारतों और घरों के मामले में क्या किया जाना चाहिए, यह सुस्थापित है। और ऐसा भी नहीं है कि सभी गैर-मुसलमानों ने नियम-कानूनों का पालन करते हुए अपने घर बनाए हैं। मगर बुलडोजर केवल मुसलमानों के घर ढहा रहे हैं। आदित्यनाथ तो बुलडोज़र को विकास और शांति का प्रतीक बताते हैं। वे कहते हैं कि बुलडोज़र कानून को लागू करने में मददगार हैं। मगर प्रतिपक्ष कहता है कि बुलडोज़र न्याय एकतरफ़ा है।

अब हलाल उत्पादों पर प्रतिबन्ध लगाकर उत्तर प्रदेश की बीजेपी सरकार ने यह साबित कर दिया है कि वह लोगों को बांटने वाली अपनी नीतियों से तौबा नहीं करेगी। हलाल सर्टिफिकेशन को अंतर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त है। समाज के सभी तबकों की भावनाओं का सम्मान, किसी भी बहुवादी समाज के मूलभूत मूल्यों का हिस्सा होता है। हलाल उत्पादों से मतलब केवल मांस नहीं है। उत्तर प्रदेश सरकार का यह कदम, सांप्रदायिक विभाजनों को और गहरा करेगा।

हमें यह समझना होगा कि बीजेपी को समय-समय पर विभाजक मुद्दे उठाते रहने पड़ते हैं। आम चुनाव कुछ ही महीने दूर हैं और यह मुद्दा भी सांप्रदायिक राजनीति के लिए काम का है। सच तो यह कि किसी भी समुदाय के खानपान और व्यक्तिगत जीवन से संबंधित पसंद का सम्मान किया जाना चाहिए, विशेषकर यदि उनके पीछे धार्मिक भावनाएं हों। शर्त एक ही है कि वे एक बहुवादी, विविधवर्णी समाज के मूल्यों के खिलाफ नहीं होने चाहिए।

(लेख का अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)

बाकी ख़बरें