UP की जनसंख्या नीति: मोहसिन रज़ा का 'पंचर' बयान और वर्तमान राजनीति

Written by Navnish Kumar | Published on: July 14, 2021
उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री मोहसीन रज़ा जब यह कहते हैं कि 8 बच्चे होंगे तो पंचर ही लगाएंगे, नई जनसंख्या नीति के माध्यम से हम मुसलमान को टोपी से टाई तक लाना चाहते हैं, तो वे जनसंख्या नीति के पीछे के छुपे अपने राजनीतिक एजेंडा को भी साफ कर दे रहे हैं। इस पोस्ट की चालाकी देखिए! मुसलमानों को कितनी चालाकी के साथ मुंह खोलने पर मजबूर कर दिया गया! वो भी एक मुस्लिम के खिलाफ… अब पढ़ने वाले समझेंगे कि मुसलमान बहुत बिलबिला रहे हैं, इस कानून से! यही मैसेज तो देना चाहते हैं भगवा ब्रिगेड वाले हिंदुओं को! कि देखो मुसलमान कैसे बिलबिला रहे हैं, और हिन्दू खुश! सच भी है कि जब तक मुस्लिम यूं ही बेजरूरत प्रतिक्रिया देते रहेंगे, तब तक ये राजनीतिक रोटियां सेंकने में कामयाब रहेंगे! जनसंख्या की हकीकत एजुकेशन है। जो पढ़ लिख गया, वहां जनसंख्या बिल्कुल कम हो गई! चाहे हिंदू हो या मुस्लिम! वैसे ये कानून कम पढ़े ओबीसी, दलित के लिए है... मुस्लिम तो सिर्फ पानी का गिलास हैं जिसके जरिये कुनैन की कड़वी गोली खिलाई जानी है... इसी से सवाल जनसंख्या नीति के राजनीतिक एजेंडा का है। 


 
हालांकि इसमें कोई दो-राय नहीं हो सकती कि भारत के लिए आबादी को नियंत्रित करना कई कारणों से बहुत जरूरी है। तभी देश में पहली सरकार ने 1952 में जनसंख्या नियंत्रण कानून बनाया था। भारत दुनिया का पहला देश है, जिसने जनसंख्या नियंत्रण की जरूरत समझी थी और उसके लिए कानून बनाया था। लेकिन वह कानून बाध्यकारी नहीं था और अनुपालन नहीं करने वालों के लिए किसी सख्त कार्रवाई का प्रावधान नहीं किया गया था। इमरजेंसी के दो साल को छोड़ दें तो भारत में लोगों को जागरूक बना कर, स्वास्थ्य समस्याओं व संसाधनों के सीमित होने की जानकारी देकर और समझा-बूझा कर ही जनसंख्या रोकने के उपाय किए गए। देर से ही सही लेकिन इन स्वैच्छिक उपायों ने काम भी किया और जनसंख्या वृद्धि की दर तेजी से स्थिर होने की तरफ बढ़ने लगी। 
 
सरकारी आंकड़ों के अनुसार, भारत में राष्ट्रीय स्तर पर औसत प्रजनन दर 2.2 फीसदी है। किसी भी देश में अगर प्रजनन दर 2.1 फीसदी हो जाती है तो वहां जनसंख्या का बढ़ना बंद हो जाता है। 1992-93 में भारत में प्रजनन दर 3.4 फीसदी थी। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे 2015-16 के मुताबिक प्रजनन दर घट कर 2.2 फीसदी हो गई थी। उत्तर प्रदेश में प्रजनन दर 2.7 फीसदी थी, लेकिन 2015-16 के नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के अनुमान के मुताबिक 2025 में वहां प्रजनन दर 2.1 फीसदी यानी रिप्लेसमेंट लेवल तक पहुंच जाएगी। इसका मतलब है कि सिर्फ चार साल के बाद उत्तर प्रदेश में आबादी का बढ़ना अपने आप रुक जाना है। चार साल में वहां आबादी स्थिर हो जाएगी, फिर भी 2030 तक के लिए जनसंख्या नीति जारी की गई है!
 
सवाल टाइमिंग का भी है, इस समय जनसंख्या नीति लाने की क्या जरूरत है? क्यों दो बच्चों की नीति लाई जा रही है और इसे नहीं मानने वालों पर सख्त कार्रवाई की चेतावनी दी जा रही है? असल में यह “8 बच्चे होंगे तो पंचर लगाएंगे”, के राजनीतिक एजेंडे के तहत किया जा रहा है। दशकों से यह दुष्प्रचार किया जा रहा है कि मुसलमान देश की आबादी बढ़ा रहे हैं, और अगर ऐसे ही उनकी आबादी बढ़ती रही तो एक दिन अपने ही देश में हिंदू अल्पसंख्यक हो जाएंगे। इस सांप्रदायिक नैरेटिव को कई तरह के झूठे-सच्चे आंकड़ों के सहारे स्थापित किया गया है।
 
हॉल में अमेरिकी संस्था प्यू रिसर्च के मुताबिक 2050 में हिंदू आबादी 77 फीसदी और मुस्लिम आबादी 18 फीसदी तक पहुंचेगी। इसका मतलब है कि भविष्य में लंबे समय तक देश के पांच लोगों में से एक व्यक्ति हिंदू रहने वाला है। तभी जनसंख्या वृद्धि का सांप्रदायिक नैरेटिव बुनियादी समस्याओं से ध्यान भटकाने और ध्रुवीकरण का राजनीतिक एजेंडा मात्र ज्यादा लगता है।
 
यह समझना मुश्किल भी नहीं है कि उत्तर प्रदेश की सरकार ऐसा क्यों कर रही है। अगले साल चुनाव होने वाले हैं और उसमें उपलब्धियों की बजाय ध्रुवीकरण कराने वाले भावनात्मक मुद्दों पर ही वोट लेने हैं। इसके अलावा इस नीति की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि इस नीति से फायदा कुछ नहीं होना है जबकि दो बच्चे की नीति न मानने पर दंडात्मक कार्रवाई से लैंगिक असमानता जैसे कई नुकसान हैं। राज्य सरकार भी इससे अनजान नहीं है। वैसे भी देश के कई राज्यों में दो बच्चों की नीति लागू की गई है, जिसका कोई फायदा नहीं हुआ है। महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार आदि राज्यों में कई साल पहले यह नियम लागू किया गया था कि दो से ज्यादा बच्चे वालों को स्थानीय निकाय चुनाव में नहीं लड़ने दिया जाएगा या दूसरी सुविधाओं से वंचित किया जाएगा। इसके बावजूद इन राज्यों में जनसंख्या उसी दर से बढ़ी, जिससे अन्य राज्यों में। ऐसे में लैंगिक असमानता जरूर बढ़ती है। 
 
इसी से सवाल उठता है, कि क्या भारत को अब भी दो बच्चों की नीति की जरूरत है? उत्तर प्रदेश में जनसंख्या नियंत्रण के लिए 'दो बच्चों की नीति' लागू करने को उत्तर प्रदेश पॉपुलेशन (कंट्रोल, स्टेबलाइजेशन एंड वेलफेयर) बिल का मसौदा तैयार किया गया है। इसके मुताबिक दो बच्चों की नीति का उल्लंघन करने वालों को तमाम सुविधाओं से वंचित करने का प्रावधान है। बिल के मुताबिक दो से ज्यादा बच्चे पैदा करने वाले स्थानीय चुनावों में हिस्सा नहीं ले सकेंगे। उनके सरकारी नौकरियों के लिए आवेदन करने और प्रमोशन पाने पर भी रोक होगी और उन्हें सरकार से सब्सिडी का लाभ भी नहीं मिलेगा। राज्य के स्वास्थ्य मंत्रालय के बजाए कानून मंत्रालय की ओर से तैयार किया गया यह जनसंख्या नियंत्रण कानून का प्रस्ताव जबरदस्त चर्चा का विषय बना हुआ है। 
 
चिंता की बात यह भी है कि भारत सरकार की ओर से हाल ही में जारी किए गए राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (2019-20) के मुताबिक भारत के 22 में से 19 राज्यों में पहले ही जनसंख्या में गिरावट आ रही है. यानी 15 से 49 साल की महिलाओं के दो से कम बच्चे हैं। ऐसे में हाल ही में कई बीजेपी शासित राज्यों की ओर से ऐसे कानूनों को प्रस्तावित किया जाना गले नहीं उतरता। 2019-20 में स्वास्थ्य मंत्रालय की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि 2025 तक भारत में प्रजनन दर गिरकर 1.9 हो जाएगी। जबकि जनसंख्या स्थिरता के लिए इसे कम से कम 2.1 होना चाहिए। कोरोना के चलते इसमें और गिरावट आ सकती है। इसके बावजूद सरकारें जनसंख्या नियंत्रण कानून क्यों चाहती हैं? यह भी तब, जब देश की आर्थिक वृद्धि भी इससे सीधे जुड़ी हुई है। बच्चे कम होने का असर यह होगा कि देश में उपभोग स्तर में भी गिरावट आ सकती है।
 
जानकारों के मुताबिक असली समस्या लोगों को इस बात पर जागरूक करने की नहीं है कि उन्हें दो ही बच्चे पैदा करने चाहिए बल्कि यह जागरूकता लाने की है, कि तीसरे बच्चे से कैसे बचें। अब ज्यादातर माता-पिता दो ही बच्चे चाहते हैं लेकिन उनको इस बात की जानकारी नहीं होती कि तीसरे गर्भ से कैसे बचना है। जिसके चलते महिला तीसरी व कई मर्तबा चौथी बार भी गर्भवती हो जाती है। यही वजह है कि जनसंख्या नीति के समर्थन के बावजूद जानकार इसके लिए कानूनी सख्ती के खिलाफ हैं। उनका मानना है कि राज्यों को पहले के सिस्टम, यानी शिक्षा, स्वास्थ्य व जागरूकता पर ध्यान देना चाहिए। फिलहाल ग्रामीण इलाकों में परिवार नियोजन का काम आशा, आंगनवाड़ी और एएनएम स्वास्थ्य कर्मियों के जिम्मे होता है। जिन्हें बच्चा पैदा होने के बाद माता-पिता को परिवार नियोजन के बारे में जानकारी देनी होती है। 1-2 हफ्ते के अंदर यह मीटिंग जरूरी होती है क्योंकि बच्चे को जन्म देने के 3-4 हफ्ते के अंदर महिला फिर गर्भवती हो सकती है। जानकार बताते हैं कि यह प्रक्रिया जमीन पर सही से काम नहीं कर रही और सिर्फ कागजी हो गई है।

ठेकेदारी प्रथा के चलते सरकारी उपायों की घटिया गुणवत्ता ने सरकारी अस्पतालों में मौजूद गर्भनिरोध के उपायों से लोगों का विश्वास उठाया है जिसमें सुधार जरूरी है। इंडिया स्पेंड की एक रिपोर्ट में भी इसका प्रभाव दिखा। रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में 2008 से 2016 के बीच कंडोम के इस्तेमाल में 52 फीसदी की और पुरुष नसबंदी में 73 फीसदी की कमी आई। जिससे देश में कराए जाने वाले गर्भपातों की संख्या बढ़ी। रिपोर्ट में बताया गया कि भारत में अब भी आधे से ज्यादा गर्भपात असुरक्षित तरीकों से कराए जाते हैं। जानकार कहते हैं, सरकारी गर्भनिरोधक उपायों से लोगों का भयभीत होना भी बेवजह नहीं है। इससे जुड़ी बुरी खबरें अक्सर आती रहती हैं। मसलन 2014 में छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में एक ही दिन में 83 महिलाओं की नसबंदी की गई थी, जिसमें से 13 की मौत हो गई थी।
 
जानकारों के मुताबिक जनसंख्या नियंत्रण का सबसे अच्छा और सही तरीका है, सेक्स एजुकेशन। हालांकि उत्तर प्रदेश के कानून में इसके लिए प्रावधान नहीं है। इसमें हाई स्कूल लेवल से ही 'जनसंख्या नियंत्रण पर जागरूकता' की पढ़ाई कराने की बात कही गई है लेकिन सेक्स एजुकेशन का जिक्र नहीं है। जानकार कहते हैं, “हर किशोर-किशोरी को इंसानी प्रजनन की पूरी जानकारी होना जरूरी है। इसके बिना जनसंख्या नियंत्रण के सारे उपाय नाकाम रहेंगे।” लेकिन समस्या यह है कि वर्तमान बीजेपी सरकारों में जब मंत्री खुलकर इसके बारे में बात ही नहीं कर सकते तो यह जागरूकता कहां से आएगी? वे जमीनी उपाय नहीं करते और जनता को दोषी ठहराकर बलपूर्वक जनसंख्या पर लगाम लगाना चाहते हैं। 
 
आंकड़े भी इस बात का समर्थन करते हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (2015-16) के आंकड़ों के मुताबिक देश में 15 से 49 साल के बीच की 3 करोड़ में से 13 प्रतिशत महिलाएं अपनी प्रेग्नेंसी में अंतर को बढ़ाना या उसे रोकना चाहती थीं लेकिन रोकथाम के उपायों तक उनकी पहुंच नहीं थी। तभी जानकार कहते हैं, “ऐसे हवा-हवाई कदमों के चलते ही सरकार पर चुनावी राजनीतिक एजेंडा चलाने के आरोप लग रहे हैं कि यह कदम राजनीतिक दांव है और मुस्लिम समुदाय को निशाना बनाने की कोशिश है। भारत में आज भी मुस्लिम समुदाय में बहुविवाह का प्रचलन है। और उत्तर प्रदेश के कानून में खासतौर से स्पष्ट किया गया है कि दो शादियों से भी दो से ज्यादा बच्चे पैदा होने पर ऐसे लोग तमाम सरकारी लाभों से वंचित कर दिए जाएंगे।”
 
दूसरी ओर, सभी एक्सपर्ट ये मानते हैं कि परिवार नियोजन को जब भी बलपूर्वक लागू कराने की कोशिश की जाएगी, यह लिंग की पहचान कर गर्भपात कराने में बढ़ोतरी करेगा। यह भारत के महिला-पुरुष अनुपात को भी बिगाड़ने का काम करेगा। जनसंख्या के तेजी से बूढ़े होने में भी इसकी भूमिका होगी। इससे महिलाओं की तस्करी और जबरदस्ती कराए जाने वाले देह व्यापार के मामले भी बढ़ सकते हैं। यह भी हो सकता है कि महिलाएं गर्भपात के लिए गैरकानूनी दवाओं का इस्तेमाल करें, जिनके बुरे प्रभाव उन्हें जीवन भर झेलने पड़ें। वे गर्भपात कराने के लिए फर्जी डॉक्टर के चंगुल में भी फंस सकती हैं जिससे उनकी प्रजनन क्षमता खत्म होने का भी डर रहेगा।
 
पहले ही लिंगानुपात में भारत का राष्ट्रीय औसत बहुत खराब है और कई राज्यों में तो स्थिति बदतर है। अगर दो बच्चों का नियम लागू होता है या एक बच्चा करने वालों को प्रोत्साहित किया जाता है, जैसा कि उत्तर प्रदेश सरकार ने किया है तो चयनात्मक गर्भपात यानी लिंग परीक्षण करा कर लड़कियों को गर्भ में मारने की घटनाएं बढ़ेंगी। यह जनसंख्या असंतुलन को जन्म देगा। जानकार कहते हैं, “अगर दो से ज्यादा बच्चे पैदा होने पर सरकारी लाभ खत्म किए जाने की बात होगी तो पहले बच्चे पर कोई खास असर नहीं होगा लेकिन दूसरे बच्चे के तौर पर लोग किसी भी हाल में लड़का ही चाहेंगे और इससे निश्चित तौर पर गर्भपात बढ़ेंगे। जिससे दूसरे बच्चे का लिंगानुपात और खराब होगा। जो पहले ही भारत में बहुत खराब है। हाल ही में की गई एक रिसर्च में सामने आया था कि दूसरे और तीसरे बच्चों के मामले में लड़कियों का लिंगानुपात तेजी से गिर रहा है। दूसरा, इस कदम से समाज में हाशिए पर मौजूद लोगों को ज्यादा नुकसान का डर है।” 
 
चीन जैसा देश इस समस्या से जूझ रहा है और तभी उसने अपनी सिंगल चाइल्ड पॉलिसी को बदला है। इसी से जनसंख्या दर को निगेटिव करना किसी भी सरकार का लक्ष्य नहीं होना चाहिए क्योंकि इससे देश के सामने चीन जैसा संकट खड़ा होगा। चीन में बड़ी आबादी बूढ़ी हो रही है, युवाओं की आबादी घट रही है और कामकाजी लोगों या श्रमिकों की कमी हो रही है। यूरोप के भी कई देश इस संकट से जूझ रहे हैं। 
 
भारत के पास प्राकृतिक रूप से यह संसाधन है। दुनिया की सर्वाधिक युवा आबादी भारत में है। उसे सकारात्मक दिशा देने, संसाधन के रूप में इस्तेमाल करने और आर्थिक विकास को गति देने में उसकी भूमिका बनवाने की बजाय सरकार उसे समस्या के रूप में देख रही है। भारत एक विकासशील देश है और इसकी बड़ी आबादी समस्या नहीं है, बल्कि शक्ति और संसाधन है, जिसका सही इस्तेमाल करने में सरकारें विफल रही हैं और अब राजनीतिक फायदे के लिए इसका इस्तेमाल किया जा रहा है। सरकारों को शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार पर ध्यान देना चाहिए और युवा आबादी के सकारात्मक इस्तेमाल के उपाय करना चाहिए, जनसंख्या अपने आप स्थिर हो रही है।
 
यही नहीं, सवाल इस बात का भी है, कि क्या भारत में जनसंख्या विस्फोट है और ऐसी नीतियों का अब तक क्या प्रभाव पड़ा है? ''द हिन्दू'' की जागृति चंद्रा ने ई-मेल पर कार्यकारी निदेशक, पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया, पूनम मुत्तरेजा का साक्षात्कार लिया। जिसका हिंदी अनुवाद आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट के राष्ट्रीय प्रवक्ता एसआर दारापुरी ने किया। उसके अनुसार, देश में ऐसे कौन से राज्य हैं जिन्होंने दो-बच्चों के मानदंड को एक या दूसरे तरीके से लागू किया है? हम उनके अनुभवों के बारे में क्या जानते हैं?

राज्यों द्वारा अब तक शुरू की गई दो बाल-मानदंड नीति के तहत, दो से अधिक बच्चे वाले किसी भी व्यक्ति को पंचायत और अन्य स्थानीय निकायों के चुनावों के लिए निर्वाचित या नामित नहीं किया जा सकता है। कुछ राज्यों में, नीति ने दो से अधिक बच्चों वाले व्यक्तियों को सरकारी नौकरियों में सेवा करने या विभिन्न सरकारी योजनाओं का लाभ उठाने से प्रतिबंधित कर दिया है। हालांकि, यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि राज्य अपनी प्राथमिकताओं के अनुसार दो बच्चों के मानदंड के विभिन्न पहलुओं को लागू कर रहे हैं। अब तक 12 राज्यों ने दो बच्चों का मानदंड लागू किया है। इनमें शामिल हैं, राजस्थान (1992), ओडिशा (1993), हरियाणा (1994), आंध्र प्रदेश (1994), हिमाचल प्रदेश (2000), मध्य प्रदेश (2000), छत्तीसगढ़ (2000), उत्तराखंड (2002), महाराष्ट्र (2003) , गुजरात (2005), बिहार (2007) और असम (2017)। इनमें से चार राज्यों ने मानदंड को रद्द कर दिया है। छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश और हरियाणा।
 
जनसंख्या विस्फोट की चिंताओं के कारण अक्सर इन उपायों का सुझाव दिया जाता है। क्या ये मान्य हैं?
इस बात का कोई सबूत नहीं है कि देश में जनसंख्या विस्फोट हुआ है। भारत ने पहले ही जनसंख्या वृद्धि में मंदी और प्रजनन दर में गिरावट का अनुभव करना शुरू कर दिया है, जनसंख्या पर भारतीय जनगणना के आंकड़े इस बात की पुष्टि करते हैं कि 2001-2011 के दौरान दशकीय विकास दर 1991-2001 के 21.5% से घटकर 17.7% हो गई थी। इसी तरह, भारत में कुल प्रजनन दर (टीएफआर) घट रही है, जो 1992-93 में 3.4 से घटकर 2015-16 में 2.2 हो गई (एनएफएचएस डेटा)।
 
इस बात का भी कोई सबूत नहीं है कि जबरदस्ती की नीतियां काम करती हैं। भारत में मजबूत पुत्र-वरीयता को देखते हुए, कड़े जनसंख्या नियंत्रण उपायों से संभावित रूप से लिंग चयन प्रथाओं में वृद्धि हो सकती है।

यहां यह नोट करना महत्वपूर्ण है कि केरल और तमिलनाडु जैसे राज्यों ने बिना किसी जबरदस्ती के प्रजनन दर में उल्लेखनीय कमी का अनुभव किया है। यह महिलाओं को सशक्त बनाने और बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं प्रदान करके हासिल किया गया है।
 
किसी भी राज्य में दो बच्चों के मानदंड पर नीति का स्वतंत्र रूप से मूल्यांकन नहीं किया गया है और इसकी प्रभावशीलता को कभी प्रदर्शित नहीं किया गया है। एक पूर्व वरिष्ठ भारतीय प्रशासनिक सेवा अधिकारी आईएएस निर्मला बुच द्वारा पांच राज्यों के एक अध्ययन में पाया गया कि, इसके बजाय, दो-बाल नीति अपनाने वाले राज्यों में, लिंग-चयनात्मक और असुरक्षित गर्भपात में वृद्धि हुई थी; स्थानीय निकाय चुनाव लड़ने के लिए पुरुषों ने अपनी पत्नियों को तलाक दे दिया; और परिवारों ने अयोग्यता से बचने के लिए बच्चों को गोद लेने के लिए छोड़ दिया।
 
हाल ही में, असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने अपने राज्य में मुसलमानों से “सभ्य जनसंख्या नियंत्रण उपायों” को अपनाने का आग्रह किया, जो दक्षिणपंथी लोगों के डर को मुखर करते थे। क्या यह डर जायज है?
असम के मुख्यमंत्री का बयान तथ्यों पर आधारित नहीं है। किसी भी आधुनिक गर्भनिरोधक विधियों [महिला और पुरुष नसबंदी, आईयूडी (अंतर्गर्भाशयी उपकरण)/पीपीआईयूडी (प्रसवोत्तर आईयूडी), गोलियां और कंडोम] का उपयोग वर्तमान में विवाहित मुस्लिम महिलाओं में सबसे अधिक है, ईसाई महिलाओं के लिए 45.7% की तुलना में 49% और राज्य में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2019-20 के अनुसार, हिंदू महिलाओं के लिए 42.8%। यदि हम असम में विभिन्न धार्मिक समूहों के बीच अपूर्ण आवश्यकता को देखें, तो एनएफएचएस-5 के आंकड़ों के अनुसार, हिंदू महिलाओं (10.3%) और ईसाई महिलाओं (10.2%) की तुलना में मुस्लिम महिलाओं की पूरी जरूरत 12.2 फीसदी है। यह इंगित करता है कि मुस्लिम महिलाएं गर्भनिरोधक विधियों का उपयोग करना चाहती हैं, लेकिन परिवार नियोजन विधियों तक पहुंच की कमी या एजेंसी की कमी के कारण ऐसा करने में सक्षम नहीं हैं। असम में वर्तमान में 77% विवाहित महिलाएं और 15-49 वर्ष की आयु के 63% पुरुष और बच्चे नहीं चाहते हैं, जिनकी पहले से ही नसबंदी हो चुकी है या उनका जीवनसाथी पहले से ही निष्फल है। 82% से अधिक महिलाएं और 79% पुरुष आदर्श परिवार के आकार को दो या उससे कम बच्चे मानते हैं (NFHS-5 डेटा)।

हालांकि, परिवार नियोजन की उनकी जरूरत पूरी नहीं होती है। राज्य को गर्भनिरोधक विकल्पों की टोकरी का विस्तार करने की आवश्यकता है, विशेष रूप से अंतराल विधियों, जो हमारी आबादी में युवा लोगों के बड़े प्रतिशत को देखते हुए महत्वपूर्ण हैं, और उन्हें अंतिम मील तक उपलब्ध कराने की भी आवश्यकता है। युवा लोगों के लिए बेहतर पहुंच और स्वास्थ्य देखभाल की गुणवत्ता प्रदान करने से न केवल स्वास्थ्य में सुधार होगा, बल्कि शैक्षिक परिणामों में भी सुधार होगा, उत्पादकता और कार्यबल की भागीदारी में वृद्धि होगी, और इसके परिणामस्वरूप राज्य के लिए घरेलू आय और आर्थिक विकास में वृद्धि होगी।
 
संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि भारत 2027 तक सबसे अधिक आबादी वाले देश के रूप में चीन को पीछे छोड़ देगा, जबकि चीनी विशेषज्ञों ने कहा है कि यह 2024 तक हो सकता है। क्या हमें चिंतित होना चाहिए?
भारत, जिसकी वर्तमान जनसंख्या 1.37 बिलियन है, की जनसंख्या विश्व की दूसरी सबसे बड़ी है। 2027 तक, भारत के सबसे अधिक आबादी वाले देश (यूएन वर्ल्ड पॉपुलेशन प्रॉस्पेक्ट्स 2019) बनने के लिए चीन से आगे निकलने की उम्मीद है। जनसंख्या का समग्र आकार कुछ और समय तक बढ़ता रहेगा क्योंकि भारत की दो-तिहाई जनसंख्या 35 वर्ष से कम है। यहां तक कि अगर युवा आबादी का यह समूह प्रति जोड़े केवल एक या दो बच्चे पैदा करता है, तब भी यह स्थिर होने से पहले जनसंख्या के आकार में एक मात्रा में वृद्धि करेगा, जो कि वर्तमान अनुमानों के अनुसार 2050 के आसपास होगा।
 
द लैंसेट में प्रकाशित इंस्टीट्यूट फॉर हेल्थ मेट्रिक्स एंड इवैल्यूएशन, वाशिंगटन विश्वविद्यालय, सिएटल द्वारा हाल ही में किए गए एक अध्ययन से संकेत मिलता है कि भारत के 2048 तक 1.6 बिलियन की अपनी चरम आबादी तक पहुंचने की उम्मीद है, जो विश्व जनसंख्या की तुलना में 12 साल तेजी से आता है। संयुक्त राष्ट्र की संभावनाएं अनुमान। भारत में भी कुल प्रजनन दर में लगातार भारी गिरावट का अनुमान है, जो 2100 में 1.1 अरब की कुल आबादी के साथ तक पहुंच जाएगी। चिंतित होने का कोई कारण नहीं है। स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार के अवसरों तक पहुंच में व्याप्त व्यापक अभाव, असमानता और सामाजिक और लैंगिक भेदभाव के बारे में हमें चिंतित होने की आवश्यकता है, जिसे संबोधित करने की आवश्यकता है। परिवार नियोजन को मोटे तौर पर एक महिला की जिम्मेदारी माना जाता है, जो परिवार नियोजन कार्यक्रमों में कम पुरुष जुड़ाव में परिलक्षित होता है। NFHS-4 के आंकड़ों के अनुसार, 6% से कम पुरुष कंडोम का उपयोग करते हैं और पुरुष नसबंदी भी कम (1% से कम) होती है। परिवार की एकमात्र जिम्मेदारी के बोझ तले दबी महिलाएं अक्सर गर्भनिरोधक के रूप में गर्भपात का सहारा लेती हैं। द लैंसेट में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, 2015 में भारत में 15.6 मिलियन गर्भपात हुए।
 
चीन के अनुभव से भारत के लिए क्या सबक हैं, जिसने हाल ही में अपने दो बच्चों के मानदंड में ढील दी है और जोड़ों को तीन बच्चे पैदा करने की अनुमति दी है?
भारत को चीन के दुष्परिणामों से सीखना होगा कि हमें क्या नहीं करना चाहिए। चीन में 35 साल तक राज्य के कानून के रूप में एक बच्चे की नीति थी, जब तक कि देश को 2016 में इसे उठाने के लिए मजबूर नहीं किया गया, जब उसने दो-बाल नीति पेश की। चीन ने अब (मई 2021 में) घोषणा की है कि वह दंपतियों को तीन बच्चे पैदा करने की अनुमति देगा, क्योंकि जनगणना के आंकड़ों में जन्म दर में भारी गिरावट देखी गई है क्योंकि देश खुद को जनसंख्या संकट के बीच में पाता है।

बाकी ख़बरें