BSP के मंच से 'जय भीम', 'जय परशुराम' के नारों के साथ 'जय श्रीराम' का उद्घोष, दलित-बहुजन राजनीति का बैरोमीटर है?

Written by Navnish Kumar | Published on: August 2, 2021
23 जुलाई को अयोध्या में बहुजन समाज पार्टी के प्रबुद्ध (ब्राह्मण) सम्मेलन में ''जय भीम'' और ''जय परशुराम'' के नारों के साथ ''जय श्रीराम'' का उदघोष क्या कहता है और इसके राजनीतिक निहितार्थ क्या हैं? ये बसपा का सॉफ्ट हिंदुत्व है या महज ब्राह्मणों को लुभाने का एक दांव भर है। दरअसल बसपा संस्थापक कांशीराम ने बहुजन समाज की जो राजनीति शुरू की थी, उसमें हिंदुत्व के प्रतीकों पर परोक्ष प्रहार भी था लेकिन मायावती ने हिंदुत्व या सनातन परंपरा से दूरी दिखाने की कभी आक्रामक कोशिश नहीं की। लेकिन अगर मायावती ब्राह्मण सम्मेलन के लिए राम की जन्मभूमि अयोध्या को चुनती हैं और उसमें जय श्रीराम के उद्घोष के साथ मंदिर निर्माण कराने की घोषणा करती है तो उसके पीछे के राजनीतिक निहितार्थ को लेकर सवाल लाजिमी है। देखा जाए तो मायावती, अयोध्या को ब्राह्मण सम्मेलन के लिए चुनकर साफ संदेश देने की तैयारी में हैं, कि वे भी राम के साथ हैं, राम मंदिर के प्रति उनकी पार्टी का भी रवैया सकारात्मक है। हाल ही में उन्होंने एक बयान भी दिया था कि ब्राह्मणों को सोचना चाहिए कि वे कब तक भाजपा पर भरोसा करते रहेंगे। वे ब्राह्मणों को यह संदेश भी देना चाहती हैं कि भले आज वे भारतीय जनता पार्टी के वोटर हों, लेकिन ब्राह्मण समुदाय का वाजिब हक, भाजपा उन्हें नहीं दे पा रही है। 



2007 विधानसभा चुनाव में उन्होंने ब्राह्मणों को जोड़ने की सफल कोशिश की थी। तब ''हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्म, विष्णु, महेश है'' का नारा दिया था। हाथी बसपा का चुनाव निशान है। इसका नतीजा भी उनके पक्ष में रहा। उन्हें 2002 के विधानसभा चुनाव की तुलना में 7.1 प्रतिशत वोटों की बढ़त मिली थी। बसपा को 30.43 प्रतिशत वोटों के साथ 206 सीटें हासिल हुई थीं और 1991 के बाद उत्तर प्रदेश में स्पष्ट बहुमत वाली सरकार बनी। लेकिन इसके बाद 2012 विधानसभा चुनाव में बसपा को दूसरे स्थान पर संतोष करना पड़ा। तब उसे 2007 के मुकाबले 4.52 प्रतिशत वोटों की कमी के साथ 25.91 प्रतिशत वोट मिला था और वह महज 80 सीटें हासिल करके सत्ता से बाहर हो गई थी। तब माना गया था कि ब्राह्मणों ने बसपा का साथ छोड़ दिया है। 

ऐसे में अब फिर नए सिरे से ब्राह्मणों को जोड़ने की बात तो समझ आती है लेकिन 'राम मंदिर निर्माण' की बात करके बसपा कौन सी राजनीति साधने वाली है। यह राजनीतिक समीक्षकों की भी समझ से परे है। क्योंकि भव्य राम मंदिर बनाने की बात करके बसपा अपने संभावित वोटर्स मुसलमानों को नाराज करने का कुचक्र क्यों रचेगी? इससे उसे क्या हासिल होगा? ये माना कि यूपी में मुस्लिम वोट समाजवादी पार्टी और कांग्रेस को मिलते रहे हैं पर जहां बसपा जीत रही होती है वहां मुसलमान बसपा को खुले दिल से वोट देते रहे हैं। ऐसे में आखिर भव्य राम मंदिर की बात कहकर बसपा अपने मुस्लिम वोटर को क्यों नाराज कर रही है? 

राजनीतिक टीकाकारों के भी अनुसार उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों की जनसंख्या बामुश्किल 10-12 फ़ीसद है। सवाल है कि क्या मायावती पर पूरा ब्राह्मण समाज इतना विश्वास करेगा कि वह 2007 की तरह बीएसपी के साथ आए। सिर्फ 4-6 महीने में वह ब्राह्मणों का विश्वास इतना जीत लेंगी कि ब्राह्मण बीजेपी की हिंदुत्व की राजनीति छोड़ कर उनके साथ आ जाएंगे। जमीनी स्तर पर तो ऐसा होता हुआ नहीं दिखाई दे रहा है। दरअसल किसी भी समाज को साथ जोड़ने को उसके लिए, काफी समय से काम करने की जरूरत होती है। 2007 में ब्राह्मणों का बसपा के साथ आने का सबसे बड़ा कारण था कि उस वक्त उत्तर प्रदेश में मायावती के पक्ष में लहर थी। दूसरा 2005 या उससे पहले से मायावती सरकार ने ब्राह्मणों को अपने पक्ष में करने के लिए काम करने शुरू कर दिए थे। लेकिन अब उस फासले को सिर्फ 4 से 6 महीनों के अंदर भर लिया जाएगा, वह भी तब जब हवा उसके पक्ष में उतनी नहीं हैं। बेहद मुश्किल है।

दूसरा क्या मुसलमानों को दरकिनार करके यूपी जैसे राज्य में सरकार बन सकती है। ये काम हिंदुत्व आधार वाली बीजेपी को छोड़, शायद ही कोई दूसरी पार्टी कर सकती है। जानकारों के अनुसार, हिंदुत्व (सॉफ्ट हिंदुत्व) का चोला पहनकर बसपा कुछ हिंदू वोट तो पा सकती है पर निश्चित है कि उसे मुसलमानों के वोट की कुर्बानी देनी पड़ेगी। जी हां, अगर पार्टी के प्रबुद्ध मंचों से जयश्रीराम के नारे लगेंगे तो निश्चित है कि मुसलमान समाजवादी पार्टी और कांग्रेस पार्टी में भविष्य देखेगा। 2007 की विजय के पीछे बहुत बड़ा हाथ मुस्लिम वोटों का भी था। भारी संख्या में मुस्लिम कैंडिडेट को टिकट दिए गए थे जो बड़ी संख्या में जीतकर विधानसभा भी पहुंचे थे।

अयोध्या के ब्राह्मण सम्मेलन में जिस तरह से बहुजन समाज पार्टी के महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा ने कहा कि 13 और 23 फ़ीसद की राजनीति बीएसपी को सत्ता तक लेकर आएगी। सवाल उठता है कि क्या पूरी 23 फ़ीसद दलित आबादी उनके साथ है? दरअसल हकीकत यह है कि उत्तर प्रदेश में मायावती के साथ और उनकी पार्टी की विचारधारा के साथ दलितों का एक वर्ग 'जाटव' ही उनके साथ हमेशा खड़ा रहा है। जबकि सोनकर, लोधी, पासी, वाल्मीकि, धोबी जैसी दलित उपजातियां कब की बसपा से खुद को अलग कर चुकी हैं। यानी साफ है कि उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले भाजपा को हराने के लिए बसपा जिस तरह जय श्रीराम और ब्राह्मण वोट बैंक का राग अलाप रही है, उससे उसके साथ का दलित और मुस्लिम वोट बैंक के भी बिछड़ने का खतरा है। उत्तर प्रदेश की हालिया राजनीतिक स्थिति को भी देखें तो इस बीच सवर्णों और दलितों के बीच कई बार संघर्ष देखने को मिले। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में तो उसी के नाम पर चंद्रशेखर ने भीम आर्मी भी खड़ी कर दी जो भी पुरजोर तरीके से दलितों के हके में खड़ी होती दिखाई देती है।

यही नहीं, भीम आर्मी मुस्लिम दलित एकता की बात करती है लेकिन इसके ठीक विपरीत बसपा 'जय श्रीराम' के नारे लगा रही हैं और ब्राह्मणों को रिझाने में जुटी हैं। ऐसे में कहीं धोखा ना हो जाए कि ब्राह्मणों का साथ लेने के चक्कर में उनका दलित बहुजन वोट बैंक भी उनसे से कटकर भीम आर्मी की ओर शिफ्ट हो जाए। ऐसे में अगर बसपा का ब्राह्मण दांव फेल होता है तो उत्तर प्रदेश में बीएसपी की स्थिति 'ना माया मिली ना राम' वाली ही हो जाएगी।

पसमांदा मूवमेंट से जुड़े व ग्लोकल यूनिवर्सिटी में कानून व राजनीति के जानकार प्रोफेसर डॉ खालिद अनीस अंसारी बसपा के नए ब्राह्मण प्रेम पर अपनी फेसबुक पोस्ट में सवाल उठाते हैं कि बसपा के एक पोस्टर पर "जय भीम" और "जय परशुराम" के नारे एक साथ देखे। तब से सोच ही रहा हूँ यह मास्टरस्ट्रोक है या ब्रेनस्ट्रोक है। नवक्रांति है या प्रतिक्रांति है? बहरहाल मन में बहुत अशांति है। खैर, राजनीति तो अब वैसे भी मुझे समझ में नहीं आती और जितनी समझ में आती है उससे बहुत डर लगता है। उनकी इस पोस्ट पर बड़ी दिलचस्प प्रतिक्रियाएं भी देखने को मिलती हैं। मसलन, इसरार वारसी लिखते हैं कि जब समाज बुनियादी तालीम से दूर हो जाए तो जय भीम और जय परशुराम के नारे का गडमड होना लाजिमी हो जाता है। प्रशांत नेमा कहते हैं कि ऐसा लगता है कि यह एंटी क्षत्रिय पार्टी दोनों एंड से अटैक करने की कोशिश कर रही हैं। रविंद्र कुमार गोलिया लिखते हैं कि आजकल पोस्टर बहुत सस्ते में छपते हैं और उनका लाइफस्पान (जीवन) भी कम होता है। एहतेशाम खान कहते हैं कि क्रांति और बसपा? एक वक्ता कहते हैं कि यह प्रतिक्रांति है तो वहीं मशहूर दलित चिंतक एसआर दारापुरी इसे बसपा की राजनीति का दिवलियापन बताते हैं।

दलित-आदिवासी हितों की राजनीति पर बारीक नजर रखने वाले अशोक चौधरी कहते हैं कि बसपा का यह दांव एक खोटे सिक्के की तरह है। इसमें कोई दम नहीं है। बसपा को अपने घर यानी पारंपरिक वोट दलित ओबीसी यानी बहुजन को एकजुट करने पर ध्यान देना चाहिए था। ब्राह्मण या अन्य को जोड़े लेकिन इसके लिए उन पर पूरी तरह निर्भर होने के प्रदर्शन यानी ब्राह्मण सम्मेलन जैसे आयोजनों से बचना चाहिए। चौधरी कहते हैं कि भाजपा तो कभी ब्राह्मण सम्मेलन नहीं करती हैं फिर बसपा ही क्यों? सामाजिक दृष्टि से विचार करें, तो बसपा के इस अंतर्विरोध को हम दलित-बहुजन राजनीति की प्रगति का बैरोमीटर भी मान सकते हैं। दलित राजनीति के कई अन्य जानकार भी मानते हैं कि, बेहतर होता कि बसपा बहुजन जनजागरण का आंदोलन शुरू करती, तो भाजपा का सिंहासन जरूर डोल गया होता।

वैसे उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण वोट बैंक भी कभी किसी एक पार्टी का बंधुआ वोट नहीं रहा है। समय और सुविधा के अनुसार वह पार्टी बदलता रहा है। कभी उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों का पूरा वोट कांग्रेस पार्टी को जाता था। 2007 में बसपा में शिफ्ट हुआ और उसके बाद भाजपा। कहा भी जाता है कि ब्राह्मण हमेशा उस राजनीतिक पार्टी की ओर होते हैं जिसकी प्रदेश में सरकार बनने की संभावना होती है। लेकिन बीते कुछ समय से ब्राह्मण उत्तर प्रदेश में अपने आप को ठगा हुआ महसूस कर रहा है। इस समुदाय को लगता है कि योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंपकर भाजपा द्वारा उत्तर प्रदेश में उनके समुदाय की उपेक्षा हो रही है। ब्राह्मणों को लगता है कि योगी के मुख्यमंत्री बनने से सूबे में राजपूतों का वर्चस्व ज्यादा हो गया है। ऊपर से कुछ समय में कई ब्राह्मण माफियाओं के खिलाफ की गई कार्यवाहियों ने इस आग में घी डालने का काम किया है, चाहे वह विकास दुबे का एनकाउंटर हो या विजय मिश्रा के ठिकानों पर ताबड़तोड़ कार्रवाई। इसी को लेकर ब्राह्मण समुदाय का एक धड़ा योगी सरकार पर आरोप लगाता रहा है कि यह सब कुछ समुदाय को टारगेट बनाकर किया जा रहा है।

बिकरु कांड के ज़रिये भी यूपी में यह धारणा बनाने की कोशिश हुई कि राज्य में ब्राह्मणों को नियोजित रूप से निशाना बनाया जा रहा है। बिकरु कांड के बाद पुलिस की कार्रवाई में विकास दुबे गैंग के जो लोग मारे गए संयोग से वे सभी ब्राह्मण ही थे, और फिर विकास दुबे के सरेंडर करने के बाद मध्यप्रदेश से यूपी लाने के दौरान 'गाड़ी पलटने', और फिर पुलिस फायरिंग में उसके मारे जाने की जो कहानी रही, उसकी वजह से भी ब्राह्मण समाज की नाराज़गी की बात कही जाती है। विश्वंभर नाथ मिश्र ने नवभारत टाइम्स को दिए गए इंटरव्यू में कहा था कि 'बात विकास दुबे की नहीं है, बल्कि 2017 से 2021 के बीच राज्य शासन में बहुत कुछ ऐसा घटित हुआ है और हाल ही में केंद्रीय मंत्रिपरिषद के फेरबदल में बीजेपी जिस तरह के जातीय समीकरण बनाती दिखी, उसकी वजह से ब्राह्मणों में बेचैनी है। यहीं से विपक्ष को अपने लिए भी गुंजाइश बनती दिखने लगी है। बसपा सहित विपक्षी पार्टियों को लगता है कि 10 से 12 फ़ीसदी वोट बैंक को अपनी और लाया जा सकता है। 

योगी सरकार में ब्राह्मणों का उपेक्षित महसूस करने के चलते ही, प्रबुद्ध सम्मेलन में, बसपा नेता सतीश मिश्रा ने राज्य में ब्राह्मणों के उत्पीड़न, राम मंदिर निर्माण में देरी और मारे गए गैंगस्टर अमर दुबे की पत्नी खुशी दुबे की कैद के भावनात्मक मुद्दों को जोर-शोर से उठाया। 17 वर्षीय खुशी दुबे, गैंगस्टर विकास दुबे के करीबी सहयोगी अमर दुबे की पत्नी हैं। कानपुर के बिकरू गांव में ड्यूटी के दौरान 8 पुलिसकर्मियों की हत्या के 3 दिन पहले ही इनकी शादी हुई थी। खुशी को विवाह के 3 दिन बाद यानी 3 जुलाई को हिरासत में ले लिया गया था। 8 जुलाई को खुशी के पति अमर दुबे को पुलिस ने मुठभेड़ में मार गिराया था और उसी दिन खुशी दुबे को भी अधिकारिक तौर पर गिरफ्तार कर लिया गया। तब से वह जेल में है।

राम मंदिर को लेकर सतीश मिश्रा ने कहा कि राम मंदिर का भूमि पूजन अशुभ मुहूर्त में करने के कारण भाजपा के लोग मंदिर की नींव भी पूरी नहीं कर सके हैं। मायावती सरकार आने पर राम मंदिर बहुत जल्दी पूरा किया जाएगा। सम्मेलन में सतीश मिश्र ने आरोप लगाते हुए कहा- मौजूदा सरकार आने के बाद उत्तर प्रदेश में चार सौ ब्राह्मणों की हत्या हुई है। कभी उन्हें शूटआउट में मारा जाता है तो कभी उनकी गाड़ी पलटा दी जाती है। एनकाउंटर भी जाति देखकर हो रहा है। सतीश मिश्रा ने कहा कि इतना बड़ा चिट्ठा है। अगर गिनाने चलेंगे तो एक घंटा लग जाएगा, खाली उनके किस्से बताने में कि कहां-कहां, कैसे-कैसे चार सौ से ज्यादा ब्राह्मण समाज के लोगों को मार गिराया गया है। कहते हैं कि रोको और ठोंको। लेकिन पहले जात पूछ लो। जात पूछ लो और उसके बाद ठोंक दो। ब्राह्मण सम्मेलन से पहले सतीश मिश्रा ने हनुमानगढ़ी और राम जन्मभूमि में दर्शन किया और उसके बाद सरयू के किनारे आरती की और सरयू में दुग्धाभिषेक किया। 

यही नहीं, पिछले 2 सालों में मायावती के राजनीतिक रवैए में भी काफी बदलाव देखा गया है। अनेकों ऐसे मुद्दे हैं जहां बीएसपी ने अन्य विपक्षी दलों की तरह मोदी या योगी सरकार का विरोध नहीं किया, बल्कि उनका पक्ष ही लिया है। अनुच्छेद 370 से लेकर सीएए तक के मुद्दों पर बीएसपी सुप्रीमो मायावती ने खुलकर अपना कोई विरोध दर्ज नहीं किया है, जोकि कुछ राजनीतिक पंडितों के हिसाब से एक संकेत है कि मायावती बीजेपी से अपनी करीबियों को विस्तार देने की कोशिश में हैं।

दूसरी ओर, खास यह भी है कि आजादी के बाद यूपी की सियासत में 1989 तक ब्राह्मणों और कांग्रेस का वर्चस्व रहा। नारायण दत्त तिवारी आदि 6 ब्राह्मण मुख्यमंत्री बने। कांग्रेस के अधिकतर बड़े चेहरे ब्राह्मण ही रहे। उसका प्रमुख वोट बैंक भी ब्राह्मण, दलित और मुसलमान था लेकिन 90 के दशक के बाद मंडल और कमंडल की पॉलिटिक्स ने यूपी का राजनीतिक परिदृश्य ही बदल दिया। कांग्रेस हाशिए पर चली गई। कांग्रेस के हाशिए पर जाते ही ब्राह्मण बीजेपी में शिफ्ट हो गया। उधर, नए सामाजिक समीकरणों ने सूबे में पिछड़ा और दलित नेतृत्व की जमीन तैयार की। बीजेपी को भी कल्याण सिंह की शक्ल में अपने ओबीसी चेहरे को आगे करना पड़ा था, वह बीजेपी के पहले मुख्यमंत्री बने थे। इसके बाद मुलायम सिंह यादव और मायावती ही अदल-बदल कर यूपी के मुख्यमंत्री होते रहे। यही नहीं, इसके साथ ही बसपा के सॉफ्ट हिंदुत्व की राह पर जाने का एक कारण यह भी लगता है कि भाजपा की हिंदुत्व की राजनीति के पुष्प पल्लवित होने के बाद देश व प्रदेश में मुसलमान राजनीतिक दलों के लिए, पहले के जैसा वोट बैंक मैंटीरियल नहीं रह गया हैं। शायद यह भी एक कारण है कि बसपा के साथ सपा, भाजपा व कांग्रेस सभी राजनीतिक दल, ब्राह्मण वोट बैंक को साधने की कोई कोशिश छोड़ना नहीं चाहते हैं।

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