एक माह पहले आगरा में हाईकोर्ट बेंच देने के आश्वासन के बाद वेस्ट यूपी की 3 दशक से भी ज्यादा पुरानी मांग पर केंद्रीय विधि एवं कानून मंत्री पलट गए हैं। सहारनपुर से बसपा सांसद हाजी फजलुर्रहमान के एक सवाल के जवाब में कानून मंत्री किरण रिजिजू ने संसद में बताया कि ऐसा (पश्चिम यूपी में हाईकोर्ट बेंच का) कोई प्रस्ताव सरकार के समक्ष लंबित नहीं है। सांसद हाजी फजलुर्रहमान के सवाल पर विधि एवं न्याय मंत्री ने कहा कि पश्चिमी उप्र में इलाहाबाद हाईकोर्ट की खंडपीठ स्थापित करने का कोई प्रस्ताव सरकार के समक्ष लंबित नहीं है। हालांकि 7 नवंबर 2021 को मेरठ, मुरादाबाद, गौतमबुद्ध नगर और मुजफ्फरनगर की बार एसोसिएशन के अधिवक्ताओं का एक संयुक्त दल विधि एवं न्याय मंत्री से मिला था और पश्चिमी यूपी में खंडपीठ की स्थापना के लिए निवेदन किया था। इसके लिए दशकों से निरंतर आंदोलन चल रहा है और लंबे समय से प्रत्येक शनिवार को वकील हड़ताल पर रहते हैं।
खास है कि पिछले दिनों नवंबर में कानून मंत्री किरण रिजिजू ने एक कार्यक्रम के दौरान पश्चिमी यूपी (आगरा) में हाईकोर्ट बेंच का आश्वाशन दिया था। इसके साथ ही अधिवक्ताओं के आंदोलन पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संज्ञान लेने की बात से भी वेस्ट यूपी को हाईकोर्ट बेंच मिलने की उम्मीद जगी थी और वकीलों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी धन्यवाद कहा था।
हाईकोर्ट को लेकर सहारनपुर सहित वेस्ट यूपी में एक कहावत भी खूब चलती है कि सहारनपुर मुजफ्फरनगर मेरठ से पाकिस्तान का लाहौर हाईकोर्ट नजदीक पड़ता है जबकि उत्तर प्रदेश हाईकोर्ट दूर पड़ता है। दूसरा, भाजपा भी हर चुनाव में वकीलों की इस मांग का समर्थन करती रही है। यहां तक कि खुद योगी आदित्यनाथ पूर्वी (गोरखपुर) और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हाईकोर्ट बेंच की बात करते थे। अबकी बार किसान आंदोलन और कृषि कानूनों की वापसी से भी कयास लगाए जा रहे थे कि भाजपा डैमेज कंट्रोल के तहत वेस्ट यूपी में पकड़ मजबूत करने को हाईकोर्ट बेंच की वकीलों की दशकों पुरानी मांग को पूरा करने का दांव खेल सकती है। पिछले माह कानून मंत्री के आश्वासन से उम्मीदों को पंख लग गए थे। किरन रिजिजू ने बताया था कि विधि मंत्रालय के पास न्यायमूर्ति जसवंत सिंह आयोग की रिपोर्ट के मौजूद है और केंद्र सरकार इस पर विचार कर रही है।
किरन रिजिजू ने भरोसा दिलाते हुए कहा था कि अगर सब सही रहा तो इलाहाबाद उच्च न्यायालय की आगरा खंडपीठ की स्थापना को जल्द मंजूरी मिल जाएगी। इसको लेकर केंद्रीय विधि राज्य मंत्री और स्थानीय सांसद एसपी सिंह बघेल से भी चर्चा हुई है। वहीं बघेल ने कहा था कि आगरा उनका संसदीय क्षेत्र है। प्रदेश की भौगोलिक स्थिति को देखते हुए आगरा में उच्च न्यायालय की खंडपीठ की स्थापना किया जाना व्यावहारिक रूप से उचित है। यदि केंद्र सरकार की ओर से हाईकोर्ट की वेस्ट यूपी में बेंच को मंजूरी मिलती है तो इससे भाजपा को पूरे इलाके को साधने में मदद मिलेगी। दशकों से पश्चिम उत्तर प्रदेश में हाई कोर्ट की अलग बेंच की मांग उठती रही है।
देखा जाए तो मेरठ सहित आगरा में 1956 से हाईकोर्ट बेंच की मांग उठ रही थी। नेशनल कान्फ्रेंस लॉयर्स ने खंडपीठ स्थापना की मांग उठाई थी। तब वकीलों ने दिल्ली तक पैदल मार्च किया था। इंदिरा गांधी सरकार में 1981 को जसवंत आयोग का गठन किया गया था। आयोग ने 1985 में अपनी संस्तुति आगरा के पक्ष में देते हुए रिपोर्ट केंद्र सरकार को दी थी। 26 सितंबर 2001 में खंडपीठ की मांग कर रहे अधिवक्ताओं पर पुलिस ने लाठीचार्ज किया था। वेस्ट यूपी में हाई कोर्ट बेंच स्थापित कराने के लिए वकील लंबे समय से लड़ाई लड़ रहे हैं। 1978 में वकीलों ने एक महीने की हड़ताल कर मांग को जोरों से उठाया गया। 1981-82 में भी बेंच का आंदोलन गरमाया। 1986-87 में वकीलों ने ऋषिकेश से दिल्ली तक पद यात्रा निकाली। तब उत्तराखंड भी यूपी का हिस्सा हुआ करता था। तब से लगातार हाईकोर्ट बेंच की मांग की जा रही है। हाईकोर्ट बेंच की मांग को लेकर मेरठ और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सभी 22 जिलों में आज भी शनिवार को हड़ताल रहती है। यानी पिछले कई दशकों से शनिवार को कचहरी में काम नहीं किया जाता। इसका एकमात्र कारण हाईकोर्ट बेंच की मांग है।
वेस्ट यूपी के 22 जिलों सहारनपुर, मेरठ, बिजनौर, गाजियाबाद, शामली, बागपत, मुजफ्फरनगर, हापुड़, अलीगढ़, हाथरस, आगरा, मथुरा, फिरोजाबाद, एटा, अमरोहा, मुरादाबाद, रामपुर, बुलंदशहर सहित तमाम जिलों की बड़ी आबादी को पश्चिमी यूपी में बेंच आने से न्याय पाने में सुविधा होगी। सहारनपुर की वरिष्ठ अधिवक्ता माया शर्मा व युवा अधिवक्ता आदिल हसन कहते हैं कि पिछले 30 सालों से ज्यादा से वेस्ट में हाईकोर्ट बेंच की मांग हो रही हैं। चुनावी दल घोषणापत्र में बेंच का वादा करते हैं, लेकिन वादा कभी पूरा नहीं हुआ। अंजाम जनता और वकील भुगत रहे हैं। सहारनपुर मेरठ से यूपी के प्रयागराज हाईकोर्ट की दूरी 700 किमी से ज्यादा है, न्याय के लिए आम जनता इतना लंबा सफर करती है। इससे आर्थिक नुकसान के साथ समय की बरबादी होती है। आलम यह है कि पाकिस्तान का लाहौर हाईकोर्ट नजदीक पड़ता है जबकि इलाहाबाद दूर। अब देंखे तो इलाहाबाद हाईकोर्ट में वेस्ट यूपी के 2008 के आंकड़ों के हिसाब से सिविल के 6 लाख से ज्यादा मुकदमे लंबित हैं तो क्राइम के करीब 3 लाख मुकदमे पेंडिंग हैं। यानी करीब 23 करोड़ की आबादी वाले उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद हाईकोर्ट में आज करीब 9 लाख मामले लंबित हैं, जिनमें से लगभग 50 प्रतिशत मामले पश्चिमी उत्तर प्रदेश के 22 जिलों के हैं। वैसे भी उत्तर प्रदेश जितना बड़ा राज्य है, वहां चार स्थानों पर भी उच्च न्यायालय का पीठ स्थापित की जाए तो भी कम होगी।
यही नहीं, सेंटर फ़ॉर द स्टडी ऑफ़ डेवलपिंग सोसाइटीज (CSDS) के आंकड़ों के मुताबिक़, 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को उत्तर प्रदेश में 41 फ़ीसदी वोट मिले थे, लेकिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश में औसत से ज़्यादा 43-44 फ़ीसदी वोट मिले। 2019 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में बीजेपी को 50 फ़ीसदी से ज़्यादा वोट मिले थे, पश्चिम उत्तर प्रदेश के इलाक़े में बीजेपी को 52 फ़ीसदी वोट मिले थे। इसके बाद भी भाजपा बेंच की मांग को अनसुना कर रही है, नकार रही है तो शायद उसे (बीजेपी को) अपने कैराना मॉडल पर ज्यादा भरोसा है। पिछले दिनों कैराना में एक सभा को संबोधित करते हुए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा भी था कि, "मुज़फ़्फ़रनगर का दंगा हो या कैराना का पलायन, यह हमारे लिए राजनीतिक मुद्दा नहीं, बल्कि प्रदेश और देश की आन, बान और शान पर आने वाली आंच का मुद्दा रहा है।" जब हम सत्ता में नहीं थे, तब भी कहते थे कि इस तरह की कायराना हरकत को हम स्वीकार नहीं करेंगे और सत्ता में आए तो अपराध और अपराधियों के प्रति ज़ीरो टॉलरेंस की नीति के तहत कार्य प्रारंभ हुआ। कभी कैराना कस्बे में व्यापारी और कारोबारी को पलायन करने को मजबूर करने वाले को अपराधी गत 4 वर्षों में ख़ुद पलायन करने को मजबूर हो गए।"
उधर, ग्रामीण इलाके के लोगों को उनकी चौखट पर न्याय दिलाने को ग्राम न्यायालयों की स्थिति पर संसद में पूछे गए सवाल के जवाब में केंद्र सरकार ने कहा है कि आंकड़ों के मुताबिक वर्तमान समय में देश के 10 राज्यों में 256 ग्राम न्यायालय कार्यरत है। सबसे ज्यादा सक्रिय संचालित ग्राम न्यायालय मध्यप्रदेश (89) में हैं। दूसरे नंबर पर राजस्थान (45) और तीसरे पर उत्तर प्रदेश (43) हैं। संसद में पूछे गए सवाल के जवाब में सरकार ने कहा कि वो देश के दूसरे राज्यों में ऐसे न्यायालयों की स्थापना के लिए राज्य सरकारों के संपर्क में है।
खास है कि संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान बीजेपी सांसद विद्युत वरण महतो और शिवसेना के सांसद संजय सदाशिव राव मांडलिक ने विधि एवं न्यान मंत्री से पूछा था कि देश में ग्राम न्यायालयों की स्थिति क्या है और क्या सरकार वंचित और सुविधा विहिन लोगों को त्वरित और सुलभ न्याय दिलाने के लिए न्यायिक अधिकारियों के लिए इन ग्राम न्यायालयों में सेवाएं देना अनिवार्य करने पर विचार कर रही है? इसके जवाब में विधि एवं न्याय मंत्री ने कहा कि देश में 15 राज्यों में अब तक 476 ग्राम न्यायालय प्रस्तावित हैं, जिनमें से 10 राज्यों में 256 ग्राम न्यायालय कार्यरत हैं। सरकार ने गोवा, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, जम्मू-कश्मीर और लद्धाख में एक भी ग्राम न्यायालय अब तक संचालित नहीं हो पाया है। सरकार ने कहा कि हाल ही में नीति आयोग द्वारा ग्राम सचिवालय योजना का मूल्याकंन किया है और इसे 31 मार्च 2026 तक तारी रखने का फैसला किया गया है। इसके लिए सरकार ने 50 करोड़ का बजट तय निर्धारित किया है।
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, लोकसभा सें लिखित जवाब में विधि एवं मंत्री किरण रिजिजू ने कहा कि नागरिकों को उनकी दहलीज पर न्याय दिलाने के लिए केंद्रीय सरकार ने ग्राम न्यायालय अधिनियम, 2008 अधिनियमित किया है। राज्य सरकारें संबंधित उच्च न्यायालय के परामर्श से, ग्राम न्यायालयों की स्थापना के लिए उत्तरदायी हैं। न्याय विभाग ने इन ग्राम पंचायतों में सेवा करने के लिए न्यायिक अधिकारियों के संबंध में कोई निर्देश जारी नहीं किए हैं। क्योंकि ग्राम न्यायालयों में न्यायाधिकारी की नियुक्ति राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र में आती है। केंद्र सरकार ग्राम न्यायलयों की स्थापना के लिए राज्य सरकारों को प्रोत्साहित करती है। योजना के तहत केंद्र सरकार प्रति ग्राम न्यायालय 18 लाख रुपए अनावर्ती व्यय के लिए राज्य सरकार को तुरंत देती है जबकि केंद्र सरकार ग्राम न्यायालय के संचालन के लिए पहले तीन साल तक 3.20 लाख रुपए की प्रति वर्ष अतिरिक्त सहायता देती है।
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हाईकोर्ट को लेकर सहारनपुर सहित वेस्ट यूपी में एक कहावत भी खूब चलती है कि सहारनपुर मुजफ्फरनगर मेरठ से पाकिस्तान का लाहौर हाईकोर्ट नजदीक पड़ता है जबकि उत्तर प्रदेश हाईकोर्ट दूर पड़ता है। दूसरा, भाजपा भी हर चुनाव में वकीलों की इस मांग का समर्थन करती रही है। यहां तक कि खुद योगी आदित्यनाथ पूर्वी (गोरखपुर) और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हाईकोर्ट बेंच की बात करते थे। अबकी बार किसान आंदोलन और कृषि कानूनों की वापसी से भी कयास लगाए जा रहे थे कि भाजपा डैमेज कंट्रोल के तहत वेस्ट यूपी में पकड़ मजबूत करने को हाईकोर्ट बेंच की वकीलों की दशकों पुरानी मांग को पूरा करने का दांव खेल सकती है। पिछले माह कानून मंत्री के आश्वासन से उम्मीदों को पंख लग गए थे। किरन रिजिजू ने बताया था कि विधि मंत्रालय के पास न्यायमूर्ति जसवंत सिंह आयोग की रिपोर्ट के मौजूद है और केंद्र सरकार इस पर विचार कर रही है।
किरन रिजिजू ने भरोसा दिलाते हुए कहा था कि अगर सब सही रहा तो इलाहाबाद उच्च न्यायालय की आगरा खंडपीठ की स्थापना को जल्द मंजूरी मिल जाएगी। इसको लेकर केंद्रीय विधि राज्य मंत्री और स्थानीय सांसद एसपी सिंह बघेल से भी चर्चा हुई है। वहीं बघेल ने कहा था कि आगरा उनका संसदीय क्षेत्र है। प्रदेश की भौगोलिक स्थिति को देखते हुए आगरा में उच्च न्यायालय की खंडपीठ की स्थापना किया जाना व्यावहारिक रूप से उचित है। यदि केंद्र सरकार की ओर से हाईकोर्ट की वेस्ट यूपी में बेंच को मंजूरी मिलती है तो इससे भाजपा को पूरे इलाके को साधने में मदद मिलेगी। दशकों से पश्चिम उत्तर प्रदेश में हाई कोर्ट की अलग बेंच की मांग उठती रही है।
देखा जाए तो मेरठ सहित आगरा में 1956 से हाईकोर्ट बेंच की मांग उठ रही थी। नेशनल कान्फ्रेंस लॉयर्स ने खंडपीठ स्थापना की मांग उठाई थी। तब वकीलों ने दिल्ली तक पैदल मार्च किया था। इंदिरा गांधी सरकार में 1981 को जसवंत आयोग का गठन किया गया था। आयोग ने 1985 में अपनी संस्तुति आगरा के पक्ष में देते हुए रिपोर्ट केंद्र सरकार को दी थी। 26 सितंबर 2001 में खंडपीठ की मांग कर रहे अधिवक्ताओं पर पुलिस ने लाठीचार्ज किया था। वेस्ट यूपी में हाई कोर्ट बेंच स्थापित कराने के लिए वकील लंबे समय से लड़ाई लड़ रहे हैं। 1978 में वकीलों ने एक महीने की हड़ताल कर मांग को जोरों से उठाया गया। 1981-82 में भी बेंच का आंदोलन गरमाया। 1986-87 में वकीलों ने ऋषिकेश से दिल्ली तक पद यात्रा निकाली। तब उत्तराखंड भी यूपी का हिस्सा हुआ करता था। तब से लगातार हाईकोर्ट बेंच की मांग की जा रही है। हाईकोर्ट बेंच की मांग को लेकर मेरठ और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सभी 22 जिलों में आज भी शनिवार को हड़ताल रहती है। यानी पिछले कई दशकों से शनिवार को कचहरी में काम नहीं किया जाता। इसका एकमात्र कारण हाईकोर्ट बेंच की मांग है।
वेस्ट यूपी के 22 जिलों सहारनपुर, मेरठ, बिजनौर, गाजियाबाद, शामली, बागपत, मुजफ्फरनगर, हापुड़, अलीगढ़, हाथरस, आगरा, मथुरा, फिरोजाबाद, एटा, अमरोहा, मुरादाबाद, रामपुर, बुलंदशहर सहित तमाम जिलों की बड़ी आबादी को पश्चिमी यूपी में बेंच आने से न्याय पाने में सुविधा होगी। सहारनपुर की वरिष्ठ अधिवक्ता माया शर्मा व युवा अधिवक्ता आदिल हसन कहते हैं कि पिछले 30 सालों से ज्यादा से वेस्ट में हाईकोर्ट बेंच की मांग हो रही हैं। चुनावी दल घोषणापत्र में बेंच का वादा करते हैं, लेकिन वादा कभी पूरा नहीं हुआ। अंजाम जनता और वकील भुगत रहे हैं। सहारनपुर मेरठ से यूपी के प्रयागराज हाईकोर्ट की दूरी 700 किमी से ज्यादा है, न्याय के लिए आम जनता इतना लंबा सफर करती है। इससे आर्थिक नुकसान के साथ समय की बरबादी होती है। आलम यह है कि पाकिस्तान का लाहौर हाईकोर्ट नजदीक पड़ता है जबकि इलाहाबाद दूर। अब देंखे तो इलाहाबाद हाईकोर्ट में वेस्ट यूपी के 2008 के आंकड़ों के हिसाब से सिविल के 6 लाख से ज्यादा मुकदमे लंबित हैं तो क्राइम के करीब 3 लाख मुकदमे पेंडिंग हैं। यानी करीब 23 करोड़ की आबादी वाले उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद हाईकोर्ट में आज करीब 9 लाख मामले लंबित हैं, जिनमें से लगभग 50 प्रतिशत मामले पश्चिमी उत्तर प्रदेश के 22 जिलों के हैं। वैसे भी उत्तर प्रदेश जितना बड़ा राज्य है, वहां चार स्थानों पर भी उच्च न्यायालय का पीठ स्थापित की जाए तो भी कम होगी।
यही नहीं, सेंटर फ़ॉर द स्टडी ऑफ़ डेवलपिंग सोसाइटीज (CSDS) के आंकड़ों के मुताबिक़, 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को उत्तर प्रदेश में 41 फ़ीसदी वोट मिले थे, लेकिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश में औसत से ज़्यादा 43-44 फ़ीसदी वोट मिले। 2019 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में बीजेपी को 50 फ़ीसदी से ज़्यादा वोट मिले थे, पश्चिम उत्तर प्रदेश के इलाक़े में बीजेपी को 52 फ़ीसदी वोट मिले थे। इसके बाद भी भाजपा बेंच की मांग को अनसुना कर रही है, नकार रही है तो शायद उसे (बीजेपी को) अपने कैराना मॉडल पर ज्यादा भरोसा है। पिछले दिनों कैराना में एक सभा को संबोधित करते हुए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा भी था कि, "मुज़फ़्फ़रनगर का दंगा हो या कैराना का पलायन, यह हमारे लिए राजनीतिक मुद्दा नहीं, बल्कि प्रदेश और देश की आन, बान और शान पर आने वाली आंच का मुद्दा रहा है।" जब हम सत्ता में नहीं थे, तब भी कहते थे कि इस तरह की कायराना हरकत को हम स्वीकार नहीं करेंगे और सत्ता में आए तो अपराध और अपराधियों के प्रति ज़ीरो टॉलरेंस की नीति के तहत कार्य प्रारंभ हुआ। कभी कैराना कस्बे में व्यापारी और कारोबारी को पलायन करने को मजबूर करने वाले को अपराधी गत 4 वर्षों में ख़ुद पलायन करने को मजबूर हो गए।"
उधर, ग्रामीण इलाके के लोगों को उनकी चौखट पर न्याय दिलाने को ग्राम न्यायालयों की स्थिति पर संसद में पूछे गए सवाल के जवाब में केंद्र सरकार ने कहा है कि आंकड़ों के मुताबिक वर्तमान समय में देश के 10 राज्यों में 256 ग्राम न्यायालय कार्यरत है। सबसे ज्यादा सक्रिय संचालित ग्राम न्यायालय मध्यप्रदेश (89) में हैं। दूसरे नंबर पर राजस्थान (45) और तीसरे पर उत्तर प्रदेश (43) हैं। संसद में पूछे गए सवाल के जवाब में सरकार ने कहा कि वो देश के दूसरे राज्यों में ऐसे न्यायालयों की स्थापना के लिए राज्य सरकारों के संपर्क में है।
खास है कि संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान बीजेपी सांसद विद्युत वरण महतो और शिवसेना के सांसद संजय सदाशिव राव मांडलिक ने विधि एवं न्यान मंत्री से पूछा था कि देश में ग्राम न्यायालयों की स्थिति क्या है और क्या सरकार वंचित और सुविधा विहिन लोगों को त्वरित और सुलभ न्याय दिलाने के लिए न्यायिक अधिकारियों के लिए इन ग्राम न्यायालयों में सेवाएं देना अनिवार्य करने पर विचार कर रही है? इसके जवाब में विधि एवं न्याय मंत्री ने कहा कि देश में 15 राज्यों में अब तक 476 ग्राम न्यायालय प्रस्तावित हैं, जिनमें से 10 राज्यों में 256 ग्राम न्यायालय कार्यरत हैं। सरकार ने गोवा, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, जम्मू-कश्मीर और लद्धाख में एक भी ग्राम न्यायालय अब तक संचालित नहीं हो पाया है। सरकार ने कहा कि हाल ही में नीति आयोग द्वारा ग्राम सचिवालय योजना का मूल्याकंन किया है और इसे 31 मार्च 2026 तक तारी रखने का फैसला किया गया है। इसके लिए सरकार ने 50 करोड़ का बजट तय निर्धारित किया है।
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, लोकसभा सें लिखित जवाब में विधि एवं मंत्री किरण रिजिजू ने कहा कि नागरिकों को उनकी दहलीज पर न्याय दिलाने के लिए केंद्रीय सरकार ने ग्राम न्यायालय अधिनियम, 2008 अधिनियमित किया है। राज्य सरकारें संबंधित उच्च न्यायालय के परामर्श से, ग्राम न्यायालयों की स्थापना के लिए उत्तरदायी हैं। न्याय विभाग ने इन ग्राम पंचायतों में सेवा करने के लिए न्यायिक अधिकारियों के संबंध में कोई निर्देश जारी नहीं किए हैं। क्योंकि ग्राम न्यायालयों में न्यायाधिकारी की नियुक्ति राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र में आती है। केंद्र सरकार ग्राम न्यायलयों की स्थापना के लिए राज्य सरकारों को प्रोत्साहित करती है। योजना के तहत केंद्र सरकार प्रति ग्राम न्यायालय 18 लाख रुपए अनावर्ती व्यय के लिए राज्य सरकार को तुरंत देती है जबकि केंद्र सरकार ग्राम न्यायालय के संचालन के लिए पहले तीन साल तक 3.20 लाख रुपए की प्रति वर्ष अतिरिक्त सहायता देती है।
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