‘लोकतंत्र का अर्थ है, एक ऐसी जीवन पद्धति जिसमें स्वतंत्रता, समता और बंधुता समाज-जीवन के मूल सिद्धांत होते हैं।’ –बाबा साहब अम्बेडकर
‘लोकतंत्र, अपनी महंगी और समय बर्बाद करने वाली खूबियों के साथ सिर्फ भ्रमित करने का एक तरीका भर है जिससे जनता को विश्वास दिलाया जाता है कि वह ही शासक है जबकि वास्तविक सत्ता कुछ गिने-चुने लोगों के हाथ में ही होती है।’ –जॉर्ज बर्नार्ड शॉ
(courtesy: ugta-bharat.com)
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उपरोक्त दोनों कथन एक-दूसरे के विपरीत होते हुए भी लोकतंत्र की विशेषता को दिखाते हैं! आजादी के बाद लगभग दो दशक तक, लोकसभा और ज्यादातर राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ आयोजित किए गए थे। उस वक्त, मतदाताओं ने विधानसभा उम्मीदवारों को ज्यादा महत्व दिया; लोकसभा उम्मीदवारों की तुलना में विधानसभा उम्मीदवार ‘करीब’ और ‘नजदीक’ माना जाता था। आम मतदाताओं को स्पष्ट रूप से ये पता नहीं होता था कि लोकसभा क्या कर रही है या उनके लिए इसका क्या मतलब था। लेकिन 1969 में अखंड कांग्रेस में ऐतिहासिक विभाजन हुआ जिस कारण लोकसभा का समयपूर्व विघटन हुआ और अंततः राज्य विधानसभाओं के साथ-साथ लोकसभा के चुनाव में बाधा पहुंची ! उसके बाद भारत में अक्सर राज्य विधानसभाओं और लोकसभा चुनाव अलग-अलग समय पर हुए !
प्रचंड बहुमत से केंद्र में सत्तासीन श्री नरेंद्र मोदी ने लोकसभा के साथ ही राज्य विधानसभाओं के चुनावों की वकालत की और राष्ट्रपति श्री राम नाथ कोविंद ने भी संसद को दिए अपने संबोधन में एक साथ चुनाव करवाने के बारे में कहा ! इसी अनुरूप कदम उठाते हुए भारतीय चुनाव आयोग ने 4 फरवरी को कानून मंत्रालय को केंद्र में ‘एक साथ’ चुनाव कराने और 29 राज्यों और सात संघ शासित प्रदेशों इस तरह की नीति के कार्यान्वयन के लिए कुछ प्रस्ताव दिए !
एक साथ चुनाव के फायदे
एक साथ चुनावों के पक्ष में अक्सर यह कहा जाता है कि सरकार – विशेषकर प्रधान मंत्री और उनके मंत्रियों – पांच साल की अवधि के लिए शासन पर ध्यान केंद्रित करने में सक्षम हो सकते हैं। इस तरह सरकार की ऊर्जा विभाजित नहीं होगी! अगर चुनाव पांच साल में सिर्फ एक बार आयोजित किए जाते हैं तो बहुत पैसा बचाया जा सकता है !
क्यों नहीं संभव भारत में एक साथ चुनाव ?
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 83, 172 और 174 के अनुसार राज्य सभा, लोक सभा और राज्य विधानसभा की अवधि पांच साल की होती है ! ऐसी दशा में राज्यों की सरकारों को भंग करके लोकसभा के साथ चुनाव करवाना संविधान और संघवाद की भावना के खिलाफ है। इसके अलावा, एक व्यावहारिक कठिनाई है मान लीजिए कि एक साथ चुनाव हो जाते हैं लेकिन सरकार लोकसभा में अल्पमत में आ जाती है, तो क्या ऐसी दशा में पूर्ण बहुमत से बनी राज्य सरकारों, को भंग करके फिर सभी 29 राज्यों में भी एक साथ चुनाव का आयोजन करना लोकतान्त्रिक प्रणाली के अनुकूल होगा ? इस बात को अनदेखा नहीं किया जा सकता की भारतीय लोकतान्त्रिक प्रणाली में अक्सर राज्यों और केंद्र में गठबंधन की सरकारें बनती है यह भारतीय राजनीति और बहु-पक्ष व्यवस्था की वास्तविकता है कि पांच साल तक गठबंधन की सरकार चल पाना निश्चित नहीं होता !
राष्ट्रीय और स्थानीय मुद्दे अलग हैं गरीब ब्यक्ति के पास केवल वोट एकमात्र शक्ति है। लोकसभा और राज्य विधानसभा के चुनाव अलग-अलग समय पर होने से जनता के प्रति चुने हुए प्रतिनिधियों की जवाबदेही बढ़ती है वरना अगले पांच साल तक ये लोग जनता को मुंह नहीं दिखायेंगे।
अगर 2018 की वर्तमान परस्थितियों के सन्दर्भ में बात करें तो मात्र एक साथ चुनाव करवाने के लिए क्या हम राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, या उत्तर-पूर्व राज्यों में चुनाव को बाधित करके सरकारों का कार्यकाल पांच वर्ष से बढ़ाकर 2019 में केंद्र की सरकार के कार्यकाल के बराबर कर सकते हैं ताकि जब केंद्र सरकार का कार्यकाल पूरा हो तभी राज्यों के चुनाव हों या यूँ कह लीजिये कि हम केंद्र सरकार के कार्यकाल को अल्प अवधि करके और अन्य राज्यों की सरकारों को भंग करके जिनकी सरकारें अभी हाल ही में बनी है, सबका चुनाव राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, या उत्तर-पूर्व राज्यों के चुनाव के साथ रखवा सकते है ? इस बात की न तो भारतीय संविधान इजाज़त देता है और न ही ऐसा करना व्यावहारिक और लोकतान्त्रिक प्रणाली के अनुकूल होगा !
इस विषय पर संविधान में संशोधन के लिए आम सहमति बनाना भी एक कठिन काम है कोई भी राज्य नहीं चाहेगा की उनकी विधानसभा का कार्यकाल पूरा होने से पहले और केवल लोकसभा के विघटन होने पर समाप्त हो और फिर से चुनाव हो ताकि लोकसभा के साथ-साथ राज्य विधानसभा के चुनाव निरंतर चलते रहें ! वर्तमान सरकार को ‘एक साथ’ चुनावों के विचार को लागू करने से पहले संविधान में संशोधन के लिए एक राष्ट्रीय सहमति बनाने की आवश्यकता है लेकिन क्या मोदी सरकार संविधान में आपातकालीन प्रावधान को हटाने के लिए, खासकर राष्ट्रपति शासन को लागू करने और निर्वाचित राज्य विधानसभाओं का समय से पहले विघटन, के लिए सभी प्रमुख दलों के बीच आम सहमति का प्रबंधन कर सकती है ? ये नरेंद्र मोदी के लिए सबसे बड़े चुनौती होगी.
बाबा साहेब अंबेडकर और जॉर्ज बर्नार्ड शॉ की लोकतंत्र की परिभाषा जितनी एक दूसरे के साथ विरोधाभास में हैं उतनी एक दूसरे की पूरक भी है। अब ये वर्तमान सरकार पर है की वो किस परिभाषा के साथ खड़ी होती है। देखने वाली बात होगी कि समानांतर चुनाव की बहस 'लोकतांत्रिक' ढांचे को मजबूत करने के लिए है या किसी खास राजनीतिक दल को मजबूत करने के लिए।
लेखक पंजाब एवं हरियाणा में पूर्व सीनियर डिप्टी एडवोकेट जनरल, एडवोकेट, इंग्लैंड में सोलीसीटर व सोशल एक्टिविस्ट हैं, विचार लेखक की निजी है ! लेखक को इस पते पर संपर्क किया जा सकता है :-solicitor.nara@gmail.com