अमरनाथ का ज़िक्र छठी शताब्दी मे लिखे नीलमत पुराण से लेकर कल्हण द्वारा रचित राजतरंगिणी मे भी पाया जाता है जहाँ यह कथा नाग शुर्श्रुवास से जुड़ती है जिसने अपनी विवाहित पुत्री के अपहरण का प्रयास करने वाले राजा नर के राज्य को जला कर खाक कर देने के बाद दूध की नदी जैसे लगने वाली शेषनाग झील मे शरण ली और कल्हण के अनुसार अमरेश्वर की तीर्थयात्रा पर जाने वाले श्रद्धालुओं को इसका दर्शन होता है। सोलहवीं सदी मे कश्मीर आए फ्रेंकोइस बर्नियर के यहाँ भी इसका वर्णन मिलता है और संभवतः सत्रहवीं सदी तक यह यात्रा जारी रही थी। आधुनिक काल मे कोई डेढ़ सौ साल पहले एक मुस्लिम चरवाहे बूटा मलिक ने इस गुफा को फिर से तलाशा तथा आषाढ़ पूर्णिमा से लेकर श्रावण पूर्णिमा के बीच बड़ी संख्या मे यात्रियों का गुफा मे निर्मित हिम शिवलिंग के दर्शन के लिए जाना शुरू हुआ। आज भी अमरनाथ के चढ़ावे का एक हिस्सा उसके परिवार को जाता है। 1991-95 के बीच कश्मीर मे आतंकवाद के चरम स्थितियों के अलावा यह यात्रा लगभग निर्बाध रूप से चलती रही है। अक्तूबर 2000 मे राज्य के तत्कालीन पर्यटन मंत्री एस एस सलातिया ने यात्रा के प्रबंधन के लिए श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड के निर्माण का विधेयक प्रस्तुत किया और फरवरी 2001 मे राज्य सरकार ने बोर्ड का गठन कर दिया। 2004 मे बोर्ड ने पहली बार बालटाल और चंदनवाड़ी मे जंगलात विभाग के अधीन 3642 कैनाल ज़मीन की मांग की और अगले तीन वर्षों तक मामला जंगलात विभाग, हाईकोर्ट और श्राइन बोर्ड के बीच कानूनी टकरावों मे फंसा रहा।
अमरनाथ यात्रा को लेकर विवाद 2008 मे शुरू हुआ जब जम्मू और कश्मीर की कॉंग्रेस और पीडीपी की तत्कालीन साझा सरकार के मुख्यमंत्री ग़ुलाम नबी आज़ाद ने श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड को लगभग 800 कैनाल (88 एकड़) ज़मीन देने का निर्णय लिया और यात्रा के बीच मे ही 17 जुलाई 2008 को राज्यपाल के मुख्य सचिव तथा श्राइन बोर्ड के तत्कालीन सी ई ओ अरुण कुमार ने एक प्रेस कोन्फ्रेंस मे यह घोषणा कर दी ज़मीन का यह अंतरण स्थाई है। अगले ही दिन यह मामला राजनीतिक बन गया, हुर्रियत के दोनों धड़ों ने इसका विरोध किया तो पीडीपी भी स्थाई भू अंतरण के खिलाफ मैदान मे आ गई और दूसरी तरफ़ जम्मू मे भाजपा ने मोर्चा खोल दिया और यह विवाद एक धार्मिक विवाद मे तब्दील हो गया जिसमें हिंसक झड़पों मे कई लोग मारे गए। उधर शिवसेना, भाजपा, विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल तथा नवगठित श्री अमरनाथ यात्रा संघर्ष समिति ने जम्मू से आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति रोक दी तो घाटी के दूकानदारों ने चलो मुज्फ़राबाद का नारा दिया और अंततः 28 जून 2008 को पीडीपी ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया। लालकृष्ण आडवाणी ने इसे चुनाव मे मुद्दा बनाने की घोषणा की तो कश्मीर मे पीडीपी ने इसका उपयोग अपनी अलगाववादी और कट्टर छवि बनाने मे किया। अलगाववादी नेता शेख़ शौकत अज़ीज़ सहित 21 से अधिक लोगों की जान और ग़ुलाम नबी सरकार की बलि लेने के बाद यह मामला 61 दिनों बाद राज्यपाल द्वारा बनाए गए एक पैनल द्वारा अंतरण को अस्थाई बताने तथा बोर्ड को इस ज़मीन के उपयोग की अनुमति के बाद बंद तो हुआ लेकिन कश्मीर के विषाक्त माहौल मे सांप्रदायिकता का थोड़ा और जहर भर गया। मज़ेदार है कि आगे चलकर इस आंदोलन से कट्टरपंथियों के प्रिय बने मुफ़्ती और महबूबा ने इस घटना को देश भर मे हिन्दू वोटों के ध्रुवीकरण के लिए उपयोग करने वाली भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाई!
अमरनाथ यात्रा पर हमले पहले भी हुए हैं। वर्ष 2000 मे हिजबुल मुजाहिदीन ने यात्रा के समय युद्ध विराम की घोषणा की तो बाहरी आतंकवादियों ने इसका विरोध करते हुए पहलगाम के यात्रा बेस कैंप पर हमला करके 21 से अधिक यात्रियों की जान ले ली थी। इसके बाद 2001 मे शेषनाग के पास हमले मे 6 लोग मारे गए थे तो 2002 मे नुनवान कैंप पर लश्कर ए तय्यबा के आतंकवादियों ने हमला करके 8 लोगों की जान ली थी। लेकिन इसके बाद श्राइन बोर्ड विवाद के बावजूद पिछले 15 सालों से यह यात्रा शांतिपूर्ण तरीके से सम्पन्न हो रही थी। कश्मीर मे यात्रा और पर्यटकों पर हमला न करने का अलिखित नियम पालन होता रहा है।
इस बार 8 जुलाई को बुरहान वानी के इंकाउंटर की बरसी के मद्देनज़र पहले से ही हमले की आशंका जताई जा रही थी जिसकी वजह से सुरक्षा के भारी इंतजाम किए गए थे और इस हमले के कुछ घंटे पहले ही राज्य के मुख्यमंत्री डॉ निर्मल सिंह सुरक्षा इंतज़ामों के पुख्ता होने की बात कर रहे थे लेकिन जिस तरह नियम तोड़कर यह बस 7 बजे के बाद यात्रा कर रही थी, समूह के साथ न होने के कारण इसके साथ सुरक्षा के कोई इंतज़ामात नहीं थे, बस टूरिस्ट परमिट पर चल रही थी और यात्रियों का अमरनाथ यात्रा के लिए पंजीकरण नहीं था, ज़ाहिर है कि दावों से उलट सुरक्षा के इंतजाम संतोषजनक नहीं थे। वैसे जम्मू और कश्मीर पुलिस द्वारा जारी बयान को माने तो आतंकवादियों ने पहले बाटेंगू मे पुलिस के बनकर पर हमला किया जिसमें कोई हताहत नहीं हुआ उसके बाद खानबल के पुलिस नाके पर हमला किया गया जिसके जवाब मे पुलिस ने भी गोलियां चलाईं और इसी गोलीबारी मे टूरिस्ट परमिट पर चल रही इस बस के 8 यात्री मारे गए तथा कई घायल हुए। इन्हीं अनियमितताओं के कारण जम्मू और कश्मीर पुलिस इसे अमरनाथ यात्रा का हिस्सा नहीं मान रही और उसके अनुसार आतंकवादियों का निशाना यात्री नहीं थे, लेकिन इसके उलट यात्रियों का कहना है कि पाँच या छह लोगों ने बस पर ताबड़तोड़ गोलियां चलाईं और अगर बस ड्राइवर सलीम ने सूझबूझ के साथ लगातार बस न भगाई होती तो और अधिक लोगों की जान जा सकती थी।
देश मे पहले से ही सांप्रदायिक हो चुके माहौल मे जिस दिन मानवाधिकार आयोग ने ह्यूमन शील्ड की तरह इस्तेमाल किए गए फारूक अहमद डार को दस लाख के मुआवज़े की संस्तुति की उसी दिन निर्दोष लोगों की यह हत्या एक भयावह विडम्बना की ओर इशारा करती है, जब यह राशि देकर कश्मीरियों के जख्मों पर मरहम लगाया जा सकता था तो आतंकवादियों ने इस जघन्य हत्याकांड से वह अवसर छीनने की कोशिश की है। ऐसे मे राज्य और केंद्र सरकारों से उम्मीद की जानी चाहिए कि आतंकवादियों और देश के अन्य सांप्रदायिक तत्त्वों की साज़िशों को नाकाम करते हुए एक तरफ़ कश्मीरी जनता मे भरोसा जगाए तो दूसरी तरफ़ हत्यारों को कड़ी से कड़ी सज़ा देकर हालात पर काबू करे।
अमरनाथ यात्रा को लेकर विवाद 2008 मे शुरू हुआ जब जम्मू और कश्मीर की कॉंग्रेस और पीडीपी की तत्कालीन साझा सरकार के मुख्यमंत्री ग़ुलाम नबी आज़ाद ने श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड को लगभग 800 कैनाल (88 एकड़) ज़मीन देने का निर्णय लिया और यात्रा के बीच मे ही 17 जुलाई 2008 को राज्यपाल के मुख्य सचिव तथा श्राइन बोर्ड के तत्कालीन सी ई ओ अरुण कुमार ने एक प्रेस कोन्फ्रेंस मे यह घोषणा कर दी ज़मीन का यह अंतरण स्थाई है। अगले ही दिन यह मामला राजनीतिक बन गया, हुर्रियत के दोनों धड़ों ने इसका विरोध किया तो पीडीपी भी स्थाई भू अंतरण के खिलाफ मैदान मे आ गई और दूसरी तरफ़ जम्मू मे भाजपा ने मोर्चा खोल दिया और यह विवाद एक धार्मिक विवाद मे तब्दील हो गया जिसमें हिंसक झड़पों मे कई लोग मारे गए। उधर शिवसेना, भाजपा, विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल तथा नवगठित श्री अमरनाथ यात्रा संघर्ष समिति ने जम्मू से आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति रोक दी तो घाटी के दूकानदारों ने चलो मुज्फ़राबाद का नारा दिया और अंततः 28 जून 2008 को पीडीपी ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया। लालकृष्ण आडवाणी ने इसे चुनाव मे मुद्दा बनाने की घोषणा की तो कश्मीर मे पीडीपी ने इसका उपयोग अपनी अलगाववादी और कट्टर छवि बनाने मे किया। अलगाववादी नेता शेख़ शौकत अज़ीज़ सहित 21 से अधिक लोगों की जान और ग़ुलाम नबी सरकार की बलि लेने के बाद यह मामला 61 दिनों बाद राज्यपाल द्वारा बनाए गए एक पैनल द्वारा अंतरण को अस्थाई बताने तथा बोर्ड को इस ज़मीन के उपयोग की अनुमति के बाद बंद तो हुआ लेकिन कश्मीर के विषाक्त माहौल मे सांप्रदायिकता का थोड़ा और जहर भर गया। मज़ेदार है कि आगे चलकर इस आंदोलन से कट्टरपंथियों के प्रिय बने मुफ़्ती और महबूबा ने इस घटना को देश भर मे हिन्दू वोटों के ध्रुवीकरण के लिए उपयोग करने वाली भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाई!
अमरनाथ यात्रा पर हमले पहले भी हुए हैं। वर्ष 2000 मे हिजबुल मुजाहिदीन ने यात्रा के समय युद्ध विराम की घोषणा की तो बाहरी आतंकवादियों ने इसका विरोध करते हुए पहलगाम के यात्रा बेस कैंप पर हमला करके 21 से अधिक यात्रियों की जान ले ली थी। इसके बाद 2001 मे शेषनाग के पास हमले मे 6 लोग मारे गए थे तो 2002 मे नुनवान कैंप पर लश्कर ए तय्यबा के आतंकवादियों ने हमला करके 8 लोगों की जान ली थी। लेकिन इसके बाद श्राइन बोर्ड विवाद के बावजूद पिछले 15 सालों से यह यात्रा शांतिपूर्ण तरीके से सम्पन्न हो रही थी। कश्मीर मे यात्रा और पर्यटकों पर हमला न करने का अलिखित नियम पालन होता रहा है।
इस बार 8 जुलाई को बुरहान वानी के इंकाउंटर की बरसी के मद्देनज़र पहले से ही हमले की आशंका जताई जा रही थी जिसकी वजह से सुरक्षा के भारी इंतजाम किए गए थे और इस हमले के कुछ घंटे पहले ही राज्य के मुख्यमंत्री डॉ निर्मल सिंह सुरक्षा इंतज़ामों के पुख्ता होने की बात कर रहे थे लेकिन जिस तरह नियम तोड़कर यह बस 7 बजे के बाद यात्रा कर रही थी, समूह के साथ न होने के कारण इसके साथ सुरक्षा के कोई इंतज़ामात नहीं थे, बस टूरिस्ट परमिट पर चल रही थी और यात्रियों का अमरनाथ यात्रा के लिए पंजीकरण नहीं था, ज़ाहिर है कि दावों से उलट सुरक्षा के इंतजाम संतोषजनक नहीं थे। वैसे जम्मू और कश्मीर पुलिस द्वारा जारी बयान को माने तो आतंकवादियों ने पहले बाटेंगू मे पुलिस के बनकर पर हमला किया जिसमें कोई हताहत नहीं हुआ उसके बाद खानबल के पुलिस नाके पर हमला किया गया जिसके जवाब मे पुलिस ने भी गोलियां चलाईं और इसी गोलीबारी मे टूरिस्ट परमिट पर चल रही इस बस के 8 यात्री मारे गए तथा कई घायल हुए। इन्हीं अनियमितताओं के कारण जम्मू और कश्मीर पुलिस इसे अमरनाथ यात्रा का हिस्सा नहीं मान रही और उसके अनुसार आतंकवादियों का निशाना यात्री नहीं थे, लेकिन इसके उलट यात्रियों का कहना है कि पाँच या छह लोगों ने बस पर ताबड़तोड़ गोलियां चलाईं और अगर बस ड्राइवर सलीम ने सूझबूझ के साथ लगातार बस न भगाई होती तो और अधिक लोगों की जान जा सकती थी।
देश मे पहले से ही सांप्रदायिक हो चुके माहौल मे जिस दिन मानवाधिकार आयोग ने ह्यूमन शील्ड की तरह इस्तेमाल किए गए फारूक अहमद डार को दस लाख के मुआवज़े की संस्तुति की उसी दिन निर्दोष लोगों की यह हत्या एक भयावह विडम्बना की ओर इशारा करती है, जब यह राशि देकर कश्मीरियों के जख्मों पर मरहम लगाया जा सकता था तो आतंकवादियों ने इस जघन्य हत्याकांड से वह अवसर छीनने की कोशिश की है। ऐसे मे राज्य और केंद्र सरकारों से उम्मीद की जानी चाहिए कि आतंकवादियों और देश के अन्य सांप्रदायिक तत्त्वों की साज़िशों को नाकाम करते हुए एक तरफ़ कश्मीरी जनता मे भरोसा जगाए तो दूसरी तरफ़ हत्यारों को कड़ी से कड़ी सज़ा देकर हालात पर काबू करे।