क्या तीन तलाक के फौजदारी कानून से महिलाओं का भला होगा

Written by Nasiruddin | Published on: December 12, 2017
क्या सारे सामाजिक दु:खों का सिर्फ-सिर्फ एक इलाज है कि एक और नया कानून बना दिया जाए? वैसे, हर परेशानी के लिए नए कानून की बात करना या इसका ख्याल बहुत इंकलाबी लगता है. मगर एक और नया कानून जिंदगी की पेचीदगियों का हल दे ही देगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है. अब तीन तलाक के नाम पर भी नया कानून बनाने की चर्चा जोरों पर हैं.  



मगर नए कानून से पहले यह देखना निहायत जरूरी है कि क्या बीमारी के इलाज के सारे मौजूदा उपाय नाकाम, नकारा या बेअसर हो गए हैं? तो क्या यह उपाय मुसलमान महिलाओं के दुखों का इलाज कर देगा? और क्या जो उपाय पहले से हैं, उनका कारगर इस्तेमाल किया गया है?

इक्ट्ठी तीन तलाक और सुप्रीम कोर्ट का फैसला
महीनों गर्मागरम बहस और सामाजिक-राजनीतिक तनाव के बीच, इसी साल अगस्त में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने एक मजलिस की तलाक (तलाक-ए-बिद्दत) को खारिज कर दिया था. हालांकि वह यह काम दूसरे तरीके से 15 साल पहले भी कर चुका था. यानी कानूनी एतबार से इस तरह का तलाक अब हमारे देश में बेमानी है. यह लागू नहीं होगा.

फिर अचानक चंद दिनों से इस तरह के तलाक को रोकने के लिए एक कानून का जिक्र शुरू हो गया. कहा जा रहा है कि चूँकि कोर्ट के फैसले के बाद ऐसे तलाक रुके नहीं हैं, इसलिए सख्त कानून जरूरी है. ऐसा कहा जा रहा है कि यह सब मुसलमान महिलाओं के हकों की हिफाजत के लिए किया जा रहा है.

... तो सहज सवाल जहन में उठता है कि क्या तलाक का कोई नया कानून मुसलमान महिलाओं की चिंताएं खत्म कर देगा?  क्या यह नया कानून मुसलमान महिलाओं के हकों की हिफाजत की गारंटी कर देगा? मगर इस सवाल तक पहुँचने से पहले कुछ और बातें करनी जरूरी हैं.

हम इस तरह के तलाक का विरोध क्यों करते हैं?
हमारे मौजूदा समाज में आज भी ज्यादातर लड़कियों की जिंदगी शादी से ही जोड़ कर देखी जाती है. इस शादी के नतीजे के रूप में दुनिया में आई औलाद का लालन-पालन भी स्त्री की ही जिम्मेदारी मानी जाती है. शादी वाले घर या पिया के घर में उसके पास अपना कहने, उस पर हक जताने और हक का इस्तेमाल करने के लिए बहुत कुछ नहीं रहता है. यहाँ तक कि शादी के साथ ही नैहर पर भी उसका हक खत्म मान लिया जाता है. इसी वास्ते से तलाकशुदा/विधवा जैसे लफ्ज हमारे समाज में स्त्र‍ियों के लिए कलंक वाले माना जाते हैं. महिलाओं की यह शादीशुदा सामाजिक हालत उन पर एक नहीं वरन कई मुसीबतों की वजह बनती है. हमारे मुल्क की हर मज़हब की महिलाओं की जिंदगी का यह कड़वा सच है.

ऐसे मर्दाना निजाम वाले समाज में एक मजलिस की तलाक, लड़कियों को पल भर में बेसहारा बना, दोराहे पर खड़ा कर देती है. दाने-दाने को मोहताज बना देती है. उसके लिए अपनी और अपनी औलाद की जिंदगी गुजर-बसर मुश्क‍िल हो जाती है. कुल मिलाकर वह सबके लिए अनचाही बन अधर में लटक जाती है.

एक मजलिस में दिया जाने वाला तलाक मनमाना भी है. इकतरफा भी है. इसलिए गैर इंसानी है. स्त्री मुखालिफ है. इंसाफ और बराबरी के मजहबी उसूल के सख्त खि‍लाफ है. यह रिश्ते में गैरबराबरी पैदा करने वाला है और हिंसा की वजह है. इसलिए इसका खत्म होना जरूरी है. मगर इसके खत्म होने के साथ ही जरूरी है- सम्मान से जिंदगी जीने की महिलाओं की हकों की हिफाजत की गारंटी.

तो मर्दों के जेल जाने से महिलाओं को सम्मानजनक जिंदगी मिल जाएगी

अब सवाल है, अगर किसी शौहर नामी मर्द ने एक साथ तीन तलाक दे दिया और खबर के मुताबिक, नए कानून के तहत उसे सजा हो गई तो क्या इससे स्त्री को सम्मान से जिंदगी जीने का हक मिल जाएगा? वह बेघर और बेसहारा नहीं होगी? उसकी संतान सड़क पर नहीं आएगी?

जैसे ही पारिवारिक मामला दीवानी से निकलकर फौजदारी केस बनता है, आमतौर पर वह रिश्ता टूटन की ओर ही बढ़ता है. इसीलिए आमतौर पर पारिवारिक मामलों में सलाह-मश्व‍िरा, बातचीत, झगड़े की हालत में मध्यस्थता की बात की जाती है. इस्लाम भी रिश्ते को पूरी तरह खत्म करने से पहले बातचीत की प्रक्रिया पर जोर देता है.

सजा का मुद्दा तो आपराधि‍क मामलों में आता है. सोचने वाली बात है कि अगर एक मजलिस के तीन तलाक का मामला आपराधि‍क दायरे में आ गया तो वह रिश्ता जुड़ा रहेगा या टूटेगा? यही नहीं, इसमें तो कई और एजेंसियों की दखलंदाजी बढ़ जाएगी. जैसे- पुलिस.

मगर क्या तलाक-ए-बिद्दत दोनों को हमेशा के लिए अलग कर देंगे...  

तलाक और तलाक-ए-बिद्दत के मामले में सजा की पूरी सोच ही भ्रम से भरी है. इसका हमारे समाज और खासकर स्त्र‍ियों की जिंदगियों की जमीनी हकीकत से कम ही वास्ता लगता है. एक मजलिस की तीन तलाक को अपराध बनाने और उसके लिए सजा तजवीज करने का मतलब क्या है? क्या इसका मतलब यह मान लेना नहीं है कि इकट्ठी तीन तलाक बोलने से तलाक प्रभावी हो गया? स्त्री-पुरुष में अब निकाह का करार हमेशा के लिए टूट गया? मगर इस मुल्क के संविधान के तहत अब ऐसा मुमकिन है?

चलन में चाहे जो पर अब इस मुल्क के संविधान के दायरे में असल में ऐसा नहीं हो सकता है. सुप्रीम कोर्ट ने 2002, 2017 में और कई हाईकोर्ट अपने फैसलों में साफ तौर पर कह चुके हैं कि इस इकट्ठा तीन तलाक, तलाक ही नहीं होगा. तलाक बिना सुलह की प्रक्रिया और स्त्री की सम्मानजनक जिंदगी की गारंटी किए बिना लागू नहीं होगी. तब इसके लागू होने का सवाल ही कहाँ उठता है. इन फैसलों की रोशनी में महिलाओं के हक, पहले जैसे ही रहेंगे. उनके निकाह नहीं खत्म होंगे. वे तलाकशुदा नहीं होंगी. मसला तो तब खड़ा होगा, जब कोई मर्द इस तरह तलाक आधार पर स्त्री से अपना पिंड छुड़ाना चाहेगा. उसे, उसके हक नहीं देगा.  

तो क्या ऐसे मामलों में हमारे मौजूदा कानून कोई रास्ता बताते हैं?

क्या मुसलमान महिलाओं के पास अभी कोई कानूनी रास्ता है?

जी. कई रास्ते हैं. बशर्ते आम महिलाओं को वे रास्ते पता हों और वे उनका इस्तेमाल कर पाने की हालत में हों.

पहली बात तो यही है कि अब तलाक का यह तरीका गैर कानूनी है. इसका कोई असर नहीं होगा. उनकी शादीशुदा समाजी हालत पहले जैसी ही रहेगी.  

दूसरी बात, घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण विधेयक, घर के अंदर हिंसा से बचाने का दीवानी कानून है. हिंसा के खि‍लाफ दीवानी कानून महिला आंदोलन के लम्बे जद्दोजेहद और जमीनी हकीकत से निकला कानून है. यह इस मुल्क की सभी महिलाओं को सबसे बड़ी और जरूरी कानूनी हिफाजत देता है. इसमें वह सारी बातें शामिल हैं, जो किसी भी स्त्री को किसी भी हालत में बेघर, बेसहारा और दाने-दाने का मोहताज होने से बचा सकती हैं. यह सम्मानजनक जीवन जीने के लिए जरूरी हर तरह के हकों की हिफाजत करता है. चूंकि, तलाक की धमकी या एक साथ तीन तलाक देना भी हिंसा की ही एक शक्ल है, तो यह उस हालत में भी लागू होगा.

सजा हो गई तो उनका क्या होगा, जो रिश्ता बचाना चाहते हैं...
यही नहीं, एक मजलिस की तीन तलाक की वजह से टूटती शादी में बड़ी तादाद उन लोगों की भी है, जो बाद में पछताते हैं. वे इस दर से उस दर शादी बचाने के लिए मत्था टेकते हैं. फतवा लाते हैं. यह जमीनी हकीकत है. यानी वे गुस्से या किसी और वजह से तलाक बोल तो देते हैं पर वे असलियत में अलग नहीं होना चाहते हैं. हलाला की वजह यही है.

एक मजलिस की तीन तलाक की छुरि की धार कुंद करने का अर्थ यही है कि ऐसे लोगों के रिश्ते टूटे नहीं ब‍ल्क‍ि रिश्ते बने रहे. हलाला जैसी अपमानजनक हालत से किसी महिला को न गुजरना पड़े. अब अगर ऐसी हालत में ऐसे लोगों को जेल की सजा होगी तो क्या रिश्ते बने रहेंगे? महिलाओं का क्या होगा? क्या यह महिलाओं के साथ जुल्म नहीं होगा?

और अगर रिश्ता खत्म ही होना है तब...
और अगर रिश्ता टूटना ही है या रिश्ते में हिंसा ही हिंसा है तो उस हालत में भी मौजूदा आपराधि‍क कानून बखूबी काम आएँगे. क्या पति या उसके परिवारीजनों के उत्पीड़न से बचाव के लिए 498 ए या इस तरह की दूसरी धाराएं मुसलमान महिलाओं पर लागू नहीं होती हैं? होती हैं न. शौहर का जुल्म जुर्म है. उसके जुर्म की सजा उसे मिलनी चाहिए. यही नहीं, अगर किसी वजह से रिश्ता खत्म हो गया तो शाहबानो केस के बाद तलाकशुदा महिलाओं के लिए बना कानून भी है. अपने हकों की हिफाजत के लिए स्त्री उसका सहारा ले सकती है.   
हां, जिनकी जिंदगियाँ इस जालिमाना तलाक की वजह से तबाह हुई हैं, वे जरूर चाहेंगी कि तीन तलाक बोलने वालों को सजा मिले. उनका गुस्सा जायज है. उनकी जिंदगी का कीमती हिस्सा तबाह हुआ. मगर सवाल उनसे भी संवाद करने का है. यह कौन करेगा?

महिला अधि‍कार आंदोलन और खासकर मुसलमान महिलाओं के साथ काम करने वाली तंजीमें भी कानून बनाए जाने के सवाल पर एक राय नहीं हैं. मुसलमान स्त्र‍ियों की जिंदगियों से सीधा वास्ता रखने वाली फ्लेविया एग्न‍िस या रजिया पटेल जैसी अनेक महिला अधि‍कार कार्यकर्ता, ऐसे किसी कानून के हक में नहीं हैं, जो महिलाओं को और मुसीबत में डाल दे.

इसलिए महज तीन तलाक के लिए फौजदारी कानून बनाने का ख्याल, अभी तो तार्किक नहीं लगता है. अगर कुछ होना ही है तो काफी गौर ओ फिक्र के बाद पूरे पारिवारिक निजी कानून को संहिताबद्ध करने पर विचार करना चाहिए. ऐसा करने से पहले इस पर खुली चर्चा होनी चाहिए. जाहिर है, मुखालिफ आवाज भी होंगी. मगर भरोसे के साथ ईमानदारी से उठाए गए कदम के साथ ढेरों खड़े भी होंगे. इस वक्त तो सबसे बड़ा सवाल भरोसे का ही है. डॉक्टर ईमानदार हो और भरोसे कायम हो तो साथ कड़वी से कड़वी दवा आसानी से पी जा सकती है.  

नोट: इस सीरिज के पहले हिस्से को यहाँ देखा जा सकता है.

(नासि‍रूद्दीन वरिष्ठ पत्रकार/ शोधकर्ता हैं. सामाजिक मुद्दों और खास तौर पर महिला मुद्दों पर लिखते हैं.)  

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