सोनभद्र के लिलासी में पुलिस व प्रशासन की अनदेखी से बन रहे आदिवासी और दबंगों के बीच तनाव के हालात

Written by Navnish Kumar | Published on: October 9, 2020
लगता है सोनभद्र के उम्भा कांड से उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने कोई सबक नहीं लिया है। अगर लिया होता तो वह स्थानीय पुलिस प्रशासन के रवैये और कामकाज में नजर आता। खासकर आदिवासी क्षेत्रों में जमीनों पर कब्जे से जुड़े मामलों में बिल्कुल भी चूक या लापरवाही नहीं करते दिखते।



मामला सोनभद्र के दुद्धी तहसील के लीलासी गांव का है जहां पुलिस-प्रशासन की मौन सहमति से आदिवासियों और दबंगों (गैर आदिवासी) के बीच फिर से तनाव के हालात बन रहे हैं। लीलासी में गैर-आदिवासी व गैर-अनुसूचित जाति के दबंग लोग वन भूमि पर जबरदस्ती कब्जा कर रहे हैं, पक्के निर्माण कर ले रहे हैं। वह भी उन ज़मीनों पर, जिन पर आदिवासी समुदाय सालों से काबिज काश्त चला आ रहा हैं और वनाधिकार कानून के तहत ग्राम वनाधिकार समिति की ओर से गोंड आदिवासी समुदाय के लोगों ने अपने व्यक्तिगत और सामूहिक दावे कर रखे हैं।

इसके उलट पुलिसिया मिलीभगत का नमूना और दबंग माफियाओं का हौसला देखिए, कह रहे हैं कि दरोगा जी की इज्जत करते हैं वरना तो अब तक जान से मार देते। 

यही नहीं, वन भूमि पर कब्जा न होने देने को लेकर पूर्व में भी गोंड आदिवासियों और दबंगो में कई बार विवाद हो चुका है। लेकिन इस सबमें यूपी सरकार की स्थानीय पुलिस व वन विभाग के अफसरों का रवैया हतप्रभ करने वाला है। 

वन विभाग जहां साज खाकर जमीनों पर गैर आदिवासी दबंगों के कब्जे को लेकर मौन है तो स्थानीय पुलिस पैसे के बल पर दबंगों के साथ खड़ी दिख रही है और यदा-कदा गरीब आदिवासियों (पुरुष व महिलाओं) को ही झूठे मुकदमों में जेल में ठूसने का काम कर रही है। प्रमुख वनाधिकार कार्यकर्ता व लीलासी ग्राम वनाधिकार समिति के अध्यक्ष गोंड आदिवासी लीडर नंदू गोंड अभी भी जेल में हैं।

दो साल पहले यहां माफिया द्वारा भेजी गई पुलिस और ऑल इंडिया यूनियन ऑफ़ फॉरेस्ट वर्किंग पीपल्स के सदस्यों से झड़प हुई जिसमें किसमतिया गोंड घायल हो गईं। जब संगठन के सदस्यों और अन्य वनवासियों ने अपनी भूमि का प्रभावी ढंग से बचाव किया, तो उन्हें दुर्भावनापूर्ण मामलों में फंसाया गया और लकड़ी चोरी जैसे झूठे मामले बनाकर जेल में डाल दिया गया। जेल से रिहा होने में किस्मतिया गोंड को एक महीना और सुकालो गोंड को पांच महीने का समय लग गया। यह सब भी तब जब हाईकोर्ट ने बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका को लेकर हस्तक्षेप किया।

लीलासी की ग्राम वनाधिकार समिति का कहना है कि बाहर के दूसरे सरईल टोला आरंगपानी गांव के ऊंची जाति (गैर आदिवासी) के दबंग रामवृक्ष, रोहित, राहुल, देविंदर आदि ने गैर कानूनी तरीके से वन भूमि पर, पक्का दो मंजिली मकान बना लिया है। आगे भी बुनियाद (नींव) भर रहा था जिसे वनाधिकार समिति की महिलाओं ने रोक दिया। इस पर स्थानीय पुलिस की शह पर ये दबंग, महिलाओं को गंदी गंदी गालियों के साथ मारपीट पर उतारू हैं। गोली मारने की धमकी दे रहे हैं। उल्टा चोर कोतवाल को डाटे की तर्ज पर मिलीभगत का नमूना और इन माफियाओं का हौसला देखिए, कह रहे हैं कि दरोगा जी की इज्जत करते हैं वरना तो अब तक जान से मार देते। 

हालांकि इस सब के बावजूद, वनाश्रित समुदाय के लोग हक को डटे हैं लेकिन खुद को आदिवासियों का हितैषी बताते न थकने वाली योगी आदित्यनाथ सरकार गोंड आदिवासी समुदाय के वनाधिकार पर चुप बैठी है। 2009 में दावे फार्म भरे गए थे लेकिन 11 साल बाद भी दावों का निपटारा नहीं हो सका है।

यह सब हाल तब है जब, गत वर्ष उम्भा कांड में जहां जमीन पर कब्जे को लेकर दबंगों ने 10 लोगों को गोलियों से भून दिया था, के बाद जानकारों के अनुमान के मुताबिक, सोनभद्र में करीब एक लाख हेक्टेयर से अधिक वन भूमि पर अवैध रूप से नेता, अफसर और दबंग काबिज हैं। इसमें वन और राजस्व विभाग के कार्मिकों की मिलीभगत जगजाहिर है। पीढ़ियों से जमीन जोत रहे लोगों खासकर आदिवासियों का शोषण किसी से छिपा नहीं है।

खास बात यह है कि पांच साल पहले वन विभाग के ही एक मुख्य वन संरक्षक एके जैन ने यह रिपोर्ट दी थी। साथ ही मामले की सीबीआई जांच की सिफारिश भी की थी, लेकिन इस रिपोर्ट के आधार पर आज तक कोई कार्रवाई नहीं हुई।

जैन की रिपोर्ट के मुताबिक, सोनभद्र में जंगल की जमीन की लूट मची हुई है। अब तक एक लाख हेक्टेयर से ज्यादा जमीन अवैध रूप से बाहर से आए ‘रसूखदारों’ या उनकी संस्थाओं के नाम की जा चुकी है। यह प्रदेश की कुल वन भूमि का छह प्रतिशत हिस्सा है। जैन ने पूरे मामले से सुप्रीम कोर्ट को अवगत कराने की सिफारिश भी की थी। 

रिपोर्ट के अनुसार, सोनभद्र में 1987 से लेकर अब तक एक लाख हेक्टेयर भूमि को अवैध रूप से गैर वन भूमि घोषित कर दिया गया है, जबकि भारतीय वन अधिनियम-1927 की धारा-4 के तहत यह जमीन ‘वन भूमि’ घोषित की गई थी। 

सुप्रीम कोर्ट की अनुमति के बिना इसे किसी व्यक्ति या प्रोजेक्ट के लिए नहीं दिया जा सकता। इतना ही नहीं, आहिस्ता-आहिस्ता अवैध कब्जेदारों को असंक्रमणीय से संक्रमणीय भूमिधर अधिकार यानी जमीन एक-दूसरे को बेचने के अधिकार भी लगातार दिए जा रहे हैं। 

इसे वन संरक्षण अधिनियम-1980 का सरासर उल्लंघन बताते हुए बताया गया कि 2009 में राज्य सरकार की ओर से उच्चतम न्यायालय में एक याचिका दायर की गई थी। इसमें कहा गया था कि सोनभद्र में गैर वन भूमि घोषित करने में वन बंदोबस्त अधिकारी (एफएसओ) ने खुद को प्राप्त अधिकारों का दुरुपयोग करके अनियमितता की। 

लेकिन 19 सितंबर 2012 को तत्कालीन सचिव (वन) के मौखिक आदेश पर विभागीय वकील ने यह याचिका चुपचाप वापस ले ली। हालात का अंदाजा इससे लगा सकते हैं कि चार दशक पहले सोनभद्र के रेनूकूट इलाके में 1,75,896.490 हेक्टेयर भूमि को धारा-4 के तहत लाया गया था, लेकिन इसमें से मात्र 49,044.89 हेक्टेयर जमीन ही वन विभाग को पक्के तौर पर (धारा-20 के तहत) मिल सकी। यही हाल ओबरा व सोनभद्र वन प्रभाग और कैमूर वन्य जीव विहार क्षेत्र में है।

भारतीय वन अधिनियम-1927 की धारा-4 के तहत सरकार किसी भूमि को वन भूमि में दर्ज करने की मंशा जाहिर करती है। इस पर आम लोगों से आपत्तियां भी मांगी जाती हैं। इन आपत्तियों की सुनवाई एसडीएम स्तर का अधिकारी करता है। सुनवाई की प्रक्रिया में उसे वन बंदोबस्त अधिकारी का दर्जा दिया जाता है। 

इन आपत्तियों पर सुनवाई के बाद धारा-20 के तहत कार्यवाही होती है, जिसमें भूमि को अंतिम रूप से बतौर वन भूमि दर्ज कर लिया जाता है। आपत्तियां जायज होने पर वन बंदोबस्त अधिकारी को यह अधिकार होता है कि धारा-4 की जमीन को वादी के पक्ष में गैर वन भूमि घोषित कर दे।

तब वन मंत्री दारा सिंह चौहान ने भी कहा था कि वह विभागीय अधिकारियों से बात करेंगे और मुख्यमंत्री के संज्ञान में लाकर उचित कार्यवाही भी करवाएंगे।

अखिल भारतीय वन जन श्रम जीवी यूनियन की राष्ट्रीय उप महासचिव व प्रमुख वनाधिकार कार्यकर्ता रोमा कहती हैं कि “देश भर में लंबे संघर्ष के बाद आदिवासी और वन आश्रित लोगों के लिए वनाधिकार एक्ट 2006 बना लेकिन उसे ईमानदारी से लागू करने की जगह किस तरह उससे मिलने वाले लाभ से लोगों को वंचित कर दिया जा रहा हैं। यही नहीं, जिस तरह उल्टे षड्यंत्र के तहत पुलिस-प्रशासन आदिवासियों को ही जेल में ठूंसने में लगा हैं, वह बेहद दुखद और हैरानी भरा है। माननीय उच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद चंदौली, मिर्जापुर, सोनभद्र जिले में प्रशासन, वनाधिकार कानून के तहत पुश्तैनी बसे हुए आदिवासियों और वन निवासियों को उनका अधिकार देने की जगह उनको जमीनों से बेदखल कर रहा है, और जिन जमीनों पर उनका कब्जा था, उन पर उन्हें खेतीबाड़ी से भी रोका जा रहा है जबकि उनका दावा अभी निरस्त नहीं हुआ है और कानूनी तौर पर वे उन जमीनों के मालिक हैं।

2018 में भी समुदाय पर हुआ था हमला
खास है कि 2018 में भी दबंगों की शह पर वन विभाग और पुलिस ने आदिवासी समुदाय के लोगों पर हमला किया गया था। घरों में घुसकर तोड़फोड़ भी की थी। पुरूष पुलिसकर्मियों द्वारा महिलाओं से मारपीट, अभद्रता आदि जमकर कहर बरपाया गया था। इस सब के बावजूद, उल्टे संगठन व किस्मतिया गोंड आदि महिलाओं के खिलाफ ही लकड़ी चोरी जैसे झूठे मुकदमे बना दिए गए। 

दमन और उत्पीड़न की यह सारी कार्रवाई मार्च 2018 में तब शुरू हुई जब वनाधिकार कानून के तहत 16 ग्राम सभाओं की ग्राम वनाधिकार समितियों द्वारा वन भूमि पर अपने  सामुदायिक दावे किए गए। उत्पीड़न को लेकर आदिवासी समुदाय के एक प्रतिनिधिमंडल ने वन मंत्री दारा सिंह चौहान से मिल कर झूठे मुकदमे वापस लेने व दोषी अफसरों पर कार्रवाई, वनाधिकार कानून के प्रभावी क्रियान्वयन तथा दावे फार्मो के त्वरित निपटान व आदिवासियों को अधिकार पत्र दिए जाने की मांग के साथ-साथ, सोनभद्र में वन भूमि व उस पर अवैध कब्जों की क्या स्थिति हैं, की विस्तृत जांच की भी मांग की गई थी। लेकिन यह सब कार्रवाई तो हुई नहीं, उल्टे मंत्री से मिलकर लौट रही महिलाओं आदि वनाधिकार समिति सदस्यों को रेलवे स्टेशन से ही गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया था। 

अब एक बार लीलासी में दबंग हावी हैं और तनाव की स्थिति हैं, ऐसे में सरकार को तत्काल प्रभावी कदम उठाने चाहिए। ताकि उम्भा जैसी घटनाओं की पुनरावृत्ति की संभावनाओं को रोका जा सके और आदिवासी समुदाय को उसका हक़ मिल सके। आदिवासी महिलाओं का कहना है कि वह संगठन के साथ मिलकर कानूनी हकों की लड़ाई लड़ रही हैं और हक (वन भूमि पर अधिकार) वह लेकर रहेंगी।

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