वन अधिकार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों को अनुपालन शपथ पत्र दाखिल करने का आदेश दिया

Written by sabrang india | Published on: August 7, 2019
वन अधिकार अधिनियम, 2006 के कार्यान्वयन के मामले में एक पखवाड़े के भीतर अनुपालन हलफनामा दायर नहीं करने वाले राज्यों को सुप्रीम कोर्ट ने हलफनामा दायर करने के निर्देश दिए हैं। 2008 में दायर की गई वाइल्ड लाइफ फर्स्ट v/s यूनियन ऑफ इंडिया द्वारा वन अधिकार अधिनियम की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर 6 अगस्त को 3.50 बजे कोर्ट में सुनवाई हुई। मामले की सुनवाई अब 12 सितंबर के लिए निर्धारित की गई है। हस्तक्षेप करने वालों में आदिवासी संगठन, संबंधित नागरिक और शिक्षाविदों को भी अदालत को संबोधित करने और महत्वपूर्ण मुद्दों पर लिखित बहस दर्ज करने की अनुमति दी गई है, जिसमें विचार-विमर्श की आवश्यकता है। विस्तृत तर्क सितंबर के महीने में फिर से शुरू होने की संभावना है। ऑल इंडिया यूनियन ऑफ फॉरेस्ट वर्किंग पीपल्स (AIUFWP) और सिटिजन्स फॉर जस्टिस एंड पीस (CJP) द्वारा समर्थित आदिवासी महिला नेताओं, सुकलो गोंड और निवादा राणा ने भी हस्तक्षेप याचिका दायर की है। 

आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, ओडिशा और तमिलनाडु राज्य पहले ही हलफनामा दायर कर चुके हैं। फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया (एफएसआई) द्वारा दायर एक विवादास्पद हलफनामा भी रिकॉर्ड में होने की सूचना है।

2008 के बाद से इस मामले की सुनवाई हो रही थी, इसी मामले पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 13 फरवरी 2019 को "लाखों आदिवासियों और वनवासियों को बेदखल करने का आदेश दिया।" इस मामले पर विरोध प्रदर्शन बढ़ने के चलते 28 फरवरी को वन अधिकार अधिनियम 2006 (एफआरए) मामले में सुनवाई करते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने अपने 13 फरवरी के निष्कासन आदेश पर रोक लगा दी थी। अदालत ने केंद्र सरकार को भी नींद से जगाते हुए इस मामले में खींच लिया था औऱ दावा किया था कि वनवासियों के खिलाफ अस्वीकृति का आदेश पारित करते समय राज्यों द्वारा उचित प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया था। हालांकि आदेश बाद में सुप्रीम कोर्ट द्वारा रोक दिया गया था। इन लोगों का भाग्य अभी भी अधर में लटका हुआ है और उनका भविष्य अनिश्चित बना हुआ है।  

जब मामला सामने आया, तब से पांच महीनों में, इस मामले में 19 हस्तक्षेप आवेदन दायर किए गए हैं, सभी वन अधिकार अधिनियम 2006 की संवैधानिक वैधता का बचाव करते हुए दायर किए गए हैं। वन अधिकार अधिनियम 2006 एक ऐतिहासिक कानून है जो पारंपरिक वनवासियों, आदिवासियों और दलितों के आजीविका अधिकारों को पहचानने में  एक न्यायिक बदलाव लाता है। सेवानिवृत्त नौकरशाह और शिक्षाविद, शरद लेले और नंदिनी सुंदर द्वारा दायर एक हस्तक्षेप आवेदन शामिल है। 19 हस्तक्षेपों में से एक आवेदन दो आदिवासी महिला नेताओं ने दायर किया है।

आदिवासी मानवाधिकार रक्षक सुकालो गोंड और निवादा राणा ने लाखों वनवासियों, विशेषकर महिलाओं, जिन्हें वन अधिकारों से वंचित रखा गया है, के लिए न्याय की प्रार्थना करते हुए सर्वोच्च न्यायालय का रुख किया है। उन्होंने कहा कि उन्हें अपने पारंपरिक आवासों से बेदखली की संभावना का सामना करना पड़ रहा है। दोनों ने वाइल्डलाइफ फर्स्ट की अगुवाई में चल रहे मामले में हस्तक्षेप का आवेदन दिया है।

सुकालो और निवादा के हस्तक्षेप आवेदन का समर्थन ऑल इंडिया यूनियन ऑफ फॉरेस्ट वर्किंग पीपल (AIUFWP) और सिटिजन फॉर जस्टिस एंड पीस (CJP) द्वारा किया गया है। ये दो संगठन हैं जो वन अधिकारों के लिए सक्रिय रूप से अभियान चला रहे हैं। यह हस्तक्षेप आवेदन को विशेष बनाता है, यह बताता है कि यह कानून संविधान की अनुसूचियों V, VI और IX के साथ वैधानिक पंक्ति में कैसे है। वन अधिकार अधिनियम 2006 पहला और एकमात्र कानून है जो भूमि और खेती पर महिलाओं के स्वतंत्र अधिकारों को मान्यता देता है। 1927 के औपनिवेशिक युग के भारतीय वन अधिनियम द्वारा सशक्त एक दमनकारी वन विभाग के पक्ष में सत्ता के असंतुलन को ठीक करने के लिए यह कानून लाया गया था।

आदिवासियों और वन निवास समुदायों ने पहले से ही ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के हाथों अन्याय का सामना किया है, जिन्होंने उपयुक्त वन भूमि और उत्पादन के लिए क्रूर कानून बनाया। बाद के प्रशासन यह स्वीकार करने में विफल रहे कि ये पारंपरिक वन निवास समुदाय हमारे पर्यावरण और जैव विविधता को लालची निगमों और जलवायु परिवर्तन से होने वाले दोहरे खतरों से बचाते हैं।

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