झारखंड में आदिवासियों में फूट की कुटिल चाल, सरकार ने बनाई आदिम जनजातियों की फोर्स

Written by Stan Swamy | Published on: April 14, 2017
आदिवासियों में फूट डालने की एक और कोशिश शुरू हो गई है। झारखंड में पिछले दरवाजे से इस खेल को खेलने की योजना बनाई गई है। आदिवासियों के बीच दरार पैदा करने और उन्हें एक दूसरे से दूर करने की एक बेहद कुटिल चाल चली जा रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 6 मार्च 2017 को झरखंड के संथालपरगना में गंगा पर बनने वाले एक पुल का शिलान्यास किया। यह पुल झारखंड और बिहार को जोड़ेगा। इसके साथ ही उन्होंने स्पेशल प्रिमिटिव ट्राइव पुलिस बटालियन का भी उद्घाटन किया। यह बटालियन विशेष तौर पर मूल आदिवासियों के पुरुषों और महिलाओं से बनी होगी।


Representation Image


झारखंड से मिली रिपोर्टों के मुताबिक इस बटालियन का गठन हो चुका है और इसने काम भी शुरू कर दिया है। लेकिन पीएम से उद्घाटन कराने की गरज से इस बटालियन को एक बार फिर सामने लाया गया। बटालियन में 956 लोग हैं। इनमें 252 महिलाएं हैं। विभिन्न मूल और आदिम जनजाति के लोगों का इसमें चयन किया गया है। महिलाओं को कांस्टेबल के तौर पर तैनात किया जाएगा। पुरुषों की स्पेशल प्रिमिटव ट्राइव पुलिस बटालियन बनाई जाएगी। यह केंद्रीय अदर्धसैनिक बलों के पैटर्न पर काम करेगी। वो क्या काम करेंगे इसके बारे में अभी खुलासा नहीं किया गया है। अहम बात यह है कि उन्हें केंद्र और राज्य सरकारें नौकरी देंगी और स्थायी आय मुहैया कराएगी। दूसरी ओर हालात ये हैं कि राज्य के आम आदिवासी युवा रोजगार के लिए मारे-मारे फिर रहे हैं।

आदिवासी एकता तोड़ने की रणनीति
झारखंड में 32 जनजाति के लोग हैं। नौ जनजातियों को प्रिमिटिव वलनेरेबल ट्राइवल ग्रुप्स (पीवीटीजीएस) यानी उन मूल आदिवासियों के वर्ग में रखा गया है, जो विलुप्त होने की कगार पर पहुंच चुके हैं। इनमें असुर, बिरहोर, हिल खड़िया, बिराजिया, कोरवा, परहिया (बैगा), शबर, माल पहाड़िया और सौरिया शामिल  हैं। कुल 70.87 लाख आदिवासी आबादी में इनकी तादाद 2.23 लाख है।

आदिवासियों की स्पेशल बटालियन बनाने जैसे कदम चिंता पैदा करते हैं क्योंकि इससे उनके बीच फूट पड़ जाएगी। उनके लिए एकताबद्ध होकर अपने आर्थिक, सामाजिक सांस्कृतिक अधिकारों के लिए लड़ना और मुश्किल हो जाएगा। सत्ताधारी वर्ग यही चाहता है। वह चाहता है कि आदिवासी आपस में बंट जाएं ताकि उनका शोषण करना ज्यादा आसान हो जाएगा। इसका एक उदाहरण हाल में दिखा। सत्ताधारी वर्ग की बांटो और राज करो की नीति कैसे काम कर रही है इसका ज्वलंत उदाहरण दिखा। झारखंड में विधानसभा की एक खाली सीट पर निर्दलीय उम्मीदवारों के तौर पर रजिस्टर्ड दो पहाड़िया उम्मीदवारों ने सत्ताधारी बीजेपी का समर्थन कर दिया। यह पीएम की ओर से आदिवासियों के लिए स्पेशल बटालियन के उद्घाटन के ठीक एक दिन बाद हुआ। साफ है कि सरकार रेवड़ी बांट कर हाशिये के लोगों को अपने पाले में करने की कोशिश कर रही है। आगे भी वह इसी तरह का फूट डालो और राज करो की नीति अपना कर अपना उल्लू सीधा करती रहेगी। आदिवासी सरकार के बिछाए इस जाल में फंसते रहेंगे।

 
कौन हैं आदिम जनजातियां
सबसे पहले तो जनजातियों के बीच यह फर्क करना ही गलत है कि कौन आदिम है या कौन इनसे अलग । यह निशानदेही ही गलत कदम है। आदिम हों या आम, ये सभी जनजातियां ही हैं। इसलिए वे एक हैं। उनमें फर्क नहीं करना चाहिए। दरअसल आदिम जनजातियां समूह आबादी के सबसे उपेक्षित वर्ग हैं। इनमें से ज्यादातर के पास जमीन नहीं है और वे वनोपज पर निर्भर हैं। इनमें शिक्षा का प्रसार काफी कम है और ये अक्सर महामारी से जूझते रहते हैं।

आदिम जनजातियों को अन्य जनजातियों से अलग करना एक चालाक और क्रूर कदम है। सत्ताधारी वर्ग अपने स्वार्थ के लिए आदिवासियों को ही एक दूसरे के खिलाफ खड़ा कर रहा है। जबकि आदिम जनजातियों के लोगों के हालात को देखते हुए सरकार को उनको घोर गरीबी से बाहर लाने की कोशिश करनी चाहिए थी। उनकी सामाजिक स्थिति बेहद कमजोर है। लिहाजा सरकार को समाज में उनकी हैसियत बढ़ाने की कोशिश करनी चाहिए।

इस दिशा में वनाधिकार कानून, 2006 को पूरी मुस्तैदी से लागू करना बेहद कारगर साबित हो सकता है। वनाधिकार कानून के तहत निर्धारित दो हेक्टयेर यानी पांच एकड़ जमीन का पट्टा देने से आदिवासी अपने पैरों पर खड़े हो सकते हैं। सिर्फ कुछ आदिम जनजातीय लोगों को पैरामिलिट्री सर्विस जैसे किसी अर्धसैनिक बल में भर्ती कर देने भर से (2.23 लाख आदिम जनजातीय लोगों में से 956 लोगों इसमें रोजगार देने से क्या उनका भला हो सकता है) से उनका भला नहीं हो सकता है। इससे उनके बीच असमानता ही पनपेगी।

आदिवासियों के विकास को नए नजरिये से देखने की जरूरत है। उनकी बेहतरी सिर्फ कृषि विकास से ही हो सकती है। इसके लिए हर आदिवासी परिवार के पास जमीन होनी चाहिए और उन्हें सिंचाई सुविधा से लैस होना चाहिए। उनके बच्चों को मातृभाषा में शिक्षा मुहैया करानी होगी। उनके युवाओं को बेसिक हेल्थ सर्विस में प्रशिक्षित करना चाहिए ताकि वे अपने पारंपरिक ज्ञान का इस्तेमाल जड़ी-बूटियों से इलाज में कर सकें।

दरअसल समतावादी आदिवासी समाज का तेजी से लोप होता जा रहा है।  परंपरागत आदिवासी समाज समानता, सहकार, सामुदायिक भावना और आम सहमति से फैसले लेने के गुणों पर आधारित होता है। पूंजीवादी व्यवस्था के जरिये सामुदायिकता और सहकार की इस भावना को तोड़ा जा रहा है। अब यह व्यक्तिवादी सोच को बढ़ावा दे रही है। जबकि पारंपरिक आदिवासी मूल्य में समुदाय सर्वोपरि होता है। उसके बाद परिवार और व्यक्ति होता है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो आदिवासी शख्स की पहचान समुदाय के सदस्य के तौर पर होती है। आदिवासी समाज मूल रूप से कृषक समाज है और जल, जंगल और जमीन उनके जीवन स्त्रोत हैं।

लेकिन सरकार उनके जीवन स्त्रोतों पर हो चोट कर रही है। इससे आदिवासियों की जीविका के लिए बहुत कम स्त्रोत बचते हैं। मजबूर होकर वे गांव की कृषि अर्थव्यस्था से बाहर जाकर जीविका खोजते हैं। वे शहरी अर्थव्यवस्था का अंग बन कर अलग-थलग पड़ जाते हैं। और विस्थापन और अलग-थलग किए जाने की सरकार की कोशिश के खिलाफ संघर्ष में अकेले पड़ जाते हैं। विभाजन की इस नीति से प्रभावित आदिवासी अब अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है।

इसमें आश्चर्य नहीं है कि सत्ताधारी पूंजीवादी व्यवस्था के शोषण और अत्याचार के खिलाफ संघर्ष में आदिवासी खुद को कमजोर पा रहा रहा है। सरकार चाहती है कि आदिवासी उसकी मशीनरी से जुड़ जाए और वह उनका इस्तेमाल कर खनिजों से हासिल होने वाला अकूत राजस्व हासिल करे। कॉरपोरेट से लेकर, कारोबारी, शहरी मध्य वर्ग, नौकरशाही, अदर्धसैनिक बल, ज्यादातर प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, राजनेता आज आदिवासियों के अधिकारों के खिलाफ खड़ा है।

आखिर पीवीटीजी पारा-मिलिट्री फोर्स को क्या काम सौंपा जाएगा? हम उम्मीद करते हैं कि उन्हें कथित माओवादी विरोधी ऑपरेशन में नहीं झोंका जाएगा। इस ऑपरेशन में वे अपने ही लोगों के खिलाफ लड़ेंगे। अगर ऐसा हुआ तो यह सरकार का क्रूरतम कदम होगा।
 
 

बाकी ख़बरें