शोषण की चक्की में पिसते शरणार्थी


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आगामी पांच अगस्त 2016 को रियो डि जेनेरो के माराना स्टेडियम में दस शरणार्थी एथलीट दुनिया के अन्य खिलाड़ियों के साथ कदम से कदम मिला कर चलेंगे। अन्य खिलाड़ियों की तरह ये एथलीट अपने उन देशों का प्रतिनिधित्व नहीं करेंगे, जहां उनका जन्म हुआ था या वे जहां के नागरिक हैं। ये एथलीट दरअसल ओलंपिक के इतिहास में शरणार्थियों के लिए बनी पहली टीम का हिस्सा होंगे और ओलंपिक खेलों के झंडा वाले मार्च-पास्ट में शिरकत करेंगे।

अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिती के अध्यक्ष पालम बाक ने बताया कि हम दुनिया भर के शरणार्थियों के बीच उम्मीद का एक संदेश देना चाहते हैं। निश्चित रूप से, दुनिया भर में विस्थापित कुल 65 मिलियन आबादी में से इक्कीस मिलियन शरणार्थियों को भोजन और आवास की तरह उम्मीद की भी बेहद जरूरत है।

ये दस एथलीट निश्चित तौर पर मीडिया का ध्यान पर्याप्त रूप से खींचेंगे। लेकिन टेलीविजन के लोगों द्वारा सामान समेट लेने, स्टेडियम की बत्तियां बंद होने और दर्शकों के घर लौट जाने के बाद इन एथलीटों का क्या होगा? शरणार्थियों की दुर्दशा से अवगत होने के बाद दर्शक इस जानकारी का क्या करेंगे?

युद्ध, गृहयुद्ध, कत्लेआम, आपराधिक कृत्यों, पर्यावरणीय विभीषका, अकाल, गरीबी और महामारी ने दुनिया भर में बहुत सारे लोगों को शरणार्थी बनने पर मजबूर किया है।

शरणार्थियों की समस्या के एक अध्येता के तौर पर मेरा मानना है कि अमेरिका सरीखे धनी देश इस मामले में बहुत कुछ कर सकते हैं। लेकिन वहां के राजनीतिकों को अपने समर्थक और मतदाताओं से एक स्पष्ट जनादेश की जरूरत होगी। आपात सहायता पहुंचाने वाले अंतरराष्ट्रीय संगठनों को ये धनी देश और अधिक आर्थिक सहायता मुहैया करा सकते हैं।

स्थायी हल के रास्ते की खोज
शरणार्थियों से संबद्ध संयुक्त राष्ट्र उच्चायुक्त (यूएनएचसीआर) इस समस्या के स्थायी समाधान के पक्ष में हैं, चाहे वह पुनर्वापसी के रूप में हो, मेजबान देश में सामाजिक एकीकरण के रूप में हो या फिर पुनर्वास के रूप में।

शरणार्थियों के बीच काम करने वाले और उन्हें राहत पहुंचाने वाले कार्यकर्ताओं को शरणार्थियों के आवास, भोजन, पानी और चिकित्सा सेवा संबंधी तात्कालिक जरूरतों का ध्यान रखना पड़ता है। एक ऐसी दुविधा में जहां शरणार्थियों के पुनर्वास के विकल्प सीमित होते हैं, इस किस्म की मानवीय सहायता बेहद महत्त्वपूर्ण हो जाती है। और मानवीय सहायता के अवरुद्ध या सीमित करने वाली विदेश नीति पर सवाल उठते हैं। दशकों से यूएनएचसीआर और ऐसे अन्य संगठन अपने सिकुड़ते संसाधनों के बूते शरणार्थियों की जरूरतों को पूरा करने का भरसक प्रयास कर रहे हैं।

यूएनएचसीआर के कुल बजट का मात्र तीन प्रतिशत हिस्सा ही संयुक्त राष्ट्र से आता है। बाकी सत्तानबे प्रतिशत हिस्सा सरकारों, औद्योगिक घरानों और व्यक्तिगत रूप से दिए गए स्वैच्छिक दान से पूरा होता है। विश्व के दस अग्रणी दानकर्ता देशों में अमेरिका भी शामिल है, जहां मानवाधिकार संबंधी कुल सहायता का तीस प्रतिशत हिस्सा भी है।

एक मोटे अनुमान के मुताबिक अंतरराष्ट्रीय सीमा लांघ कर भागने वाले कुल लोगों का चालीस प्रतिशत हिस्सा शरणार्थी शिविरों में बसता है। यह आबादी अमेरिका के कई शहरों की जनसंख्या से भी ज्यादा है। इन शिविरों में रहने वाले लोगों की तात्कालिक जरूरतों को तो पूरा कर दिया जाता है, लेकिन उन्हें कानूनी रूप से काम करने का अवसर नहीं दिया जाता है। वे न तो कोई व्यवसाय कर सकते हैं, न संपत्ति खरीद सकते हैं और न ही नागरिक बनने का मौका पा सकते हैं। उनको मुहैया कराई जाने वाली शिक्षा और चिकित्सा व्यवस्था नाममात्र की होती है। उनकी सुरक्षा के साथ हमेशा खिलवाड़ होता है और उन्हें मानव-तस्करी और अन्य संगठित अपराधों से जूझना पड़ता है। अस्थायी मान कर तैयार किए गए उनके आवास अब लगातार स्थायी होते जा रहे हैं। मोटे तौर पर, साठ प्रतिशत शरणार्थी इन शिविरों को किसी तरह निकल कर शहरों में अपना भाग्य आजमा रहे हैं। उनमें से अधिकांश असंगठित क्षेत्रों में काम करते हैं और शोषण के शिकार होते हैं।

अगर शरणार्थी समस्या का कोई ठोस हल नहीं निकाला गया तो वे देशों और क्षेत्रों का राजनीतिक और आर्थिक रूप से अहित कर सकते हैं। कारण साफ है। समय बीतने के साथ-साथ मेजबान देश की आबादी के साथ जमीन, नौकरी, आवास और अन्य संसाधनों को लेकर शरणार्थियों की प्रतियोगिता होने लगती है। इस किस्म का सामाजिक दबाव जातीय, नस्ली और सांस्कृतिक तनाव जन्म देता है। फिर स्थानीय और राष्ट्रीय समस्याओं का ठीकरा शरणार्थियों पर फोड़ दिया जाता है। कई बार यह स्थिति आगे बढ़ कर राजनीतिक संघर्षों में तब्दील हो जाती है। लिहाजा, समय रहते शरणार्थी समस्या का समाधान भविष्य के राजनीतिक बखेड़ों से बचा सकता है। 

 

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