भाई साहब (सागर सरहदी जी को मैं आम तौर पर इसी नाम से संबोधित करता था, कई बार कॉमरेड भी) का मार्च 22-23, 2021 को मुंबई में देहांत हो गया। मई 11, 1933 के दिन सूबा सरहद के जिला एबटाबाद [अब पाकिस्तान में] में जन्मे गंगा सागर तलवार ने अपना प्रगतिशील राजनैतिक और साहित्यिक जीवन सागर सरहदी के नामकरण से शुरू किया। वे जहां जन्मे थे उस धरती को अपने नाम में सरहदी जोड़कर अपनी जड़ों से खुद को जोड़े रखा। वे एक प्रतिबद्ध कम्युनिस्ट थे। बंटवारे के बाद लुट पिट कर दिल्ली पहुंचे। फिर काम की तलाश में मुंबई जाकर बस गए। वहां बलराज साहनी और एके हंगल जैसी हस्तियों का साथ मिला और जनपक्षीय नाट्यकर्म से पूरे तौर पर जुड़ गए। पहले अपना नाट्य संगठन ‘द कर्टेन’[पर्दा] बनाया और बाद में ‘इप्टा’के साथ जुड़ गए। बंटवारे की त्रासदी को झेलने के बावजूद प्रगतिशील आंदोलन से जुड़े रहे। हिंदी, उर्दू, पंजाबी नाटक के लिए ख़ूब काम किया और चर्चित हुए।
सागर सरहदी मूलतः उर्दू के लेखक थे। नाटक से फ़िल्मी दुनिया तक पहुंचे और ‘बाज़ार’जैसी फ़िल्म बनाकर अपना अलग स्थान बनाया। वे फ़िल्म जगत की एक ऐसी हस्ती हैं जो निर्माता, निर्देशक एवं लेखक तीनों के रूप में ख़ासे चर्चित रहे हैं।
अनुभव, चांदनी, ‘दिवाना, ‘कभी-कभी’और ‘सिलसिला’जैसी फ़िल्में उनकी की क़लम का ही कमाल रही हैं। फ़िल्म जगत में सफलता के बावजूद नाटक के प्रति उनका जुड़ाव कभी कम नहीं हुआ है। उन्होंने ‘तन्हाई, ‘भूखे भजन न होए गोपाला, भगतसिंह की वापसी’और ‘दूसरा आदमी’जैसे नाटकों को न केवल रचा बल्कि उनकी सैकड़ों सफल प्रस्तुतियों की हैं। फ़िलहाल उनका कहना था कि वे फ़िल्म जगत के मोह से मुक्त हो, केवल नाटक की दुनिया में ही सक्रिय होना चाहते थे।
उन के साथ निम्नलिखित बात-चीत दिल्ली में मई 1993 में हुई थी। मेरे सवालों के जो जवाब, हिंदी फ़िल्मों, फ़िल्मी दुनिया, उर्दू-हिंदी साहित्य, नाटक के बारे में उन्होंने दिए वे आज भी प्रसंगकिक हैं बल्कि ज़्यादा शिद्दत से हमारा ध्यान आकर्षित कर रहे हैं।
सागर सरहदी उस पीढ़ी से आते थे जिस ने धर्म के नाम पर देश के बॅटवारे के नतीजे में भयानक ज़ुल्म, हिंसा, और तबाही झेलने के बावजूद इंसानियत, समाजवाद और शोषण से मुक्त सेकुलर समाज बनाने का सपना नहीं ओझल होने दिया और जीवन भर इन सपनों को साकार करने के लिए लामबंद रहे। इस में कोई शुबह नहीं कि अगर भाई साहब की सेहत इजाज़त देती तो वे दिल्ली की सरहदों पर धरना दे रहे बहादुर किसानों के बीच रह रहे होते।
सवाल: ‘बाज़ार, ‘तेरे शहर में, ‘लोरी, ‘अगला मौसम’जैसी फ़िल्में बनाने के बावजूद बहुत ज़माने से आपने कोई नई फ़िल्म नहीं बनायी। ऐसे क्यों?
जवाब: यह सच है कि मैंने कई वर्षों से कोई फ़िल्म नहीं बनाई है, इसके बहुत से कारण हैं। एक सृजनकार की तमाम ख़्वाहिशों के बावजूद फ़िल्म बनाने की प्रक्रिया बहुत जटिल और ढेढ़ी खीर की तरह हो गयी है। पैसा लगाने वाले लोग जल्दी से बहुत पैसा बनाना चाहते हैं। इसलिए किसी भी प्रयोग में पैसा लगाने से कतराते हैं। एक वजह कलाकारों का बहुत ज़्यादा मंहगा होना भी है। सबसे महत्वपूर्ण कारण मेरी अंतिम फ़िल्म ‘लोरी का नाकाम हो जाना था। एक दिवसीय क्रिकेट मैच उन दिनों छाए हुए थे। दर्शक हाल में जा ही नहीं रहे थे। इस फ़िल्म की नाकामी ने मेरा घर-बार बिकवा दिया। नई फ़िल्म बनाने का विचार कई बार दिल दिमाग़ में जोश मारता है लेकिन परिस्थितियां उसकी इजाज़त नहीं देतीं।
सवाल: आम अपनी फ़िल्मों में किस फ़िल्म को सबसे बढ़िया मानते हैं?
जवाब: हर लिहाज़ से ‘बाज़ार’मेरी सबसे बेहतरीन फ़िल्म है। मैं अपनी बाक़ी सब फ़िल्मों को दिखावटी मानता हूं। ‘बाज़ार’फ़िल्म एक सच्ची घटना पर आधारित है जिसका मुझे हैदराबाद में पता लगा था। इस फ़िल्म को प्रतिबद्धता के साथ हम सबने बनया था, सब कलाकार और तकनीशियन बहुत कम मेहनताने और सुविधाओं पर इस फ़िल्म को करने पर सहमत हो गए थे, क्योंकि उन्हें इस बात का एहसास था कि मैं इस फ़िल्म को इंसानी एहसासात को उजागर करने के लिए एक जज़्बे के तह बना रहा हूं। उस दौर का अब लौट पाना बहुत मुश्किल है।
सवाल: आख़िर ऐसा क्यों हुआ है कि बंबई की फ़िल्मी दुनिया में ख़्वाजा अहमद अब्बास, गुरूदत्त, बलराज साहनी, पृथ्वीराज कपूर जैसे प्रतिबद्ध और कम बजट की फ़िल्म बनाने वालों की पीढ़ी लुप्त हो गई है?
जवाब: उसकी वजहें बहुत साफ़ हैं। वे लोग सामाजिक और राष्ट्रीय चितांओ के चलते फ़िल्मों का सृजन करते थे। उनकी फ़िल्मी का सृजन उनके जीवन दर्शन का ही एक हिस्सा था। हर कोई उनकी ललक और प्रतिबद्धता को महसूस करके उनके साथ सहयोग करता था। हर फ़िल्म एक सामूहिक कर्म में बदल जाता था। आजकल लोग फ़िल्म नहीं बनाते हैं बल्कि वो तो एक तरह का उद्योग लगा रहे हैं। फ़िल्म निर्माताओं का एक मात्र उद्देश्य पैसा कमाना है तो अभिनेता और तकनीशियन भी कोई क़ुर्बानी क्यों करें। लोकप्रिय सिनेमा के क्षय का एक कारण फ़िल्मी दुनिया पर तस्करों और अपराधियों के पैसे का बढ़ता नियंत्रण भी है। इस तरह के पैसे के दख़ल ने भारतीय फ़िल्म के साथ दो खिलवाड़ किये हैं। एक तो यह कि इन्होंने फ़िल्मी जगत में इतना धन बहाया है कि कलाकारों की क़ीमतें आसमान छूने लगीं हैं दूसरे यह कि अब लोकप्रिय सिनेमा सिर्फ़ हिंसा और सैक्स पर ही निर्भर है। स्मगलर, फाइनेंसर अपनी जीवन शैली की फ़िल्में पर्दे पर चाहते हैं। ज़ाहिर है जिनका खायेंगे, उनका राग अलापना भी पड़ेगा।
सवाल: फ़िल्मी दुनिया में एक लेखक के तौर पर आपने बहुत काम किया है, आपने कई यादगार फ़िल्में लिखी। क्या आप फ़िल्मी जगत में लेखक की हैसियत से संतुष्ट हैं?
जवाब: फ़िल्मी जगत में पटकथा लेखकों को लेकर बहुत से लतीफ़े मशहूर हैं। एक बार शूटिंग के दौरान एक अभिनेत्री ने लेखक से कहा कि फ़लां डायलाग बदल दीजिए। लेखक तैयार नहीं हुआ, जब अभिनेत्री ने ज़िद्द की तो लेखक ने रुहांसा होकर कहा यही तो एक उनका डायलाग है। पटकथा में बचा है बाक़ी तो सब का सब निर्माता और निर्देशक बदल चुके हैं। लेकिन हिंदी फ़िल्मों में अपवाद भी रहे हैं। सआदत हसन मंटों ने भारतीय फ़िल्मों के लिए यादगार पटकथाएं लिखीं। राजेंद्र सिंह बेदी ने विमल दा और ऋषिकेष के लिए ज़बरदस्त पटकथायें लिखीं। इस सच को भी नहीं झुठलाया जा सकता कि सलीम-जावेद ने हिंदी फ़िल्म के पटकथा लेखन को एक महत्वपूर्ण दर्जा दिलवाया। इन दोनों ने लेखक को फ़िल्मी सितारों के रूप में उभरने का मौक़ा दिया, कसकर पैसे वसूले। आज हिंदी फ़िल्म में पटकथा, लेखक जो खा कमा रहे हैं उसकी वजह भी सलीम-जावेद ही हैं।
सवाल: फ़िल्म के पटकथा लेखन के क्षेत्र में आप अपनी भूमिका को लेकर संतुष्ट हैं?
जवाब: नहीं, पटकथा लेखन बहुत चीजों से तय होता है। मैंने यह ईमानदार प्रयास ज़रूर किया है कि अपनी पसन्द की फ़िल्में लूं, मेरे थैले में हर तरह का माल नहीं है। मैं किसी भी ऐसी फ़िल्म के लिए काम नहीं करता जो औरत के खिलाफ़ हो। मेहनतकशों के खिलाफ़ हो, या जातिवादी और साम्प्रदायिक घृणा का शिकार हो। मैं अपने लेखन में अश्लील लटकों का प्रयोग नहीं करता। यह सचेतन प्रयास होता है कि मैं अपनी फ़िल्मों में इंसानी मान्यताओं को उभारुं। आप देखेंगे कि मेरी फ़िल्मों में महिला पात्र बहुत सशक्त होते हैं।
सवाल: फ़िल्म और रंगकर्म में आपको ज़्यादा क्या पसंद है?
जवाब: मैं दरअसल थियेटर का ही आदमी हूं, हमेशा नाटक ही करना चाहता था। मैंने अपना ग्रुप ‘द कर्टेन’और बलराज साहनी ने अपना ड्रामा संगठन ‘जुहू थियेटर’बंद करके बंम्बई में ‘इप्टा’शुरू किया था। हम लोग बस्तियों में जाते, छोटे-मोटे हॉलों में जाकर नाटक करते। जब पैसे की बहुत तंगी होने लगी तो मैने थियेटर को नहीं त्यागने का फ़ैसला किया और ख़र्चा निकालने के लिए टैक्सी ड्राइवर बनना तय किया। उसके लिए लाईसेंस भी बनवाया। दोस्तों के मजबूर करने पर मैंने बसु भट्टाचार्य की पहली फ़िल्म ‘अनुभव’के डायलाग लिखना मंजूर किया। फ़िल्मी दुनिया में मैं इसलिए आया कि मैं सार्थक रंगमंच करना चाहता था। अपने उसी लगाव के चलते मैंने यह भी फ़ैसला कर लिया था कि मैं शादी नहीं करूंगा।
सवाल: प्रगतिशील नाट्यकर्मियों के सामने आज क्या चुनौतियां हैं?
जवाब: मुझे लगता है कि प्रगतिशील नाट्य आंदोलन की समस्याएं संगठन सम्बंधी उतनी नहीं है जितनी कि बौद्धिक और वैचारिक हैं। हम में से ज्यादातर लोग भूतकाल में ही जी रहे हैं। हम सच्चाई की आंखों मे ऑंखें डालने से कतराते हैं। पढ़ना-लिखना तो हम लोगों ने बंद ही कर दिया है। ज़्यादातर
नाट्यकर्मियों की समस्या यह है कि वे यूरोपीय नमूनों की नक़ल करते हैं। इब्सन से शुरू करते हैं और अलगाववाद से होते हुए एब्सर्ड थियेटर तक पहुंचते हैं और अंत सनसनी फैलाने वाले नाटकों पर होता है। हमें इन सबसे बचना है। हमारे देश के नाट्य कर्मियों की इस देश की सच्चाई के सबक खड़े करना होगा। हमें अपने देश की परिस्थितियों के संदर्भ में ही एक वैकल्पिक थियेटर विकसित करना होगा। मैं अपना बाकी समय इसी काम में लगाना चाहता हूं।
[इसका एक संक्षिप्त रूप दिल्ली के जनसत्ता में मई 14, 1993 छपा था।]
सागर सरहदी मूलतः उर्दू के लेखक थे। नाटक से फ़िल्मी दुनिया तक पहुंचे और ‘बाज़ार’जैसी फ़िल्म बनाकर अपना अलग स्थान बनाया। वे फ़िल्म जगत की एक ऐसी हस्ती हैं जो निर्माता, निर्देशक एवं लेखक तीनों के रूप में ख़ासे चर्चित रहे हैं।
अनुभव, चांदनी, ‘दिवाना, ‘कभी-कभी’और ‘सिलसिला’जैसी फ़िल्में उनकी की क़लम का ही कमाल रही हैं। फ़िल्म जगत में सफलता के बावजूद नाटक के प्रति उनका जुड़ाव कभी कम नहीं हुआ है। उन्होंने ‘तन्हाई, ‘भूखे भजन न होए गोपाला, भगतसिंह की वापसी’और ‘दूसरा आदमी’जैसे नाटकों को न केवल रचा बल्कि उनकी सैकड़ों सफल प्रस्तुतियों की हैं। फ़िलहाल उनका कहना था कि वे फ़िल्म जगत के मोह से मुक्त हो, केवल नाटक की दुनिया में ही सक्रिय होना चाहते थे।
उन के साथ निम्नलिखित बात-चीत दिल्ली में मई 1993 में हुई थी। मेरे सवालों के जो जवाब, हिंदी फ़िल्मों, फ़िल्मी दुनिया, उर्दू-हिंदी साहित्य, नाटक के बारे में उन्होंने दिए वे आज भी प्रसंगकिक हैं बल्कि ज़्यादा शिद्दत से हमारा ध्यान आकर्षित कर रहे हैं।
सागर सरहदी उस पीढ़ी से आते थे जिस ने धर्म के नाम पर देश के बॅटवारे के नतीजे में भयानक ज़ुल्म, हिंसा, और तबाही झेलने के बावजूद इंसानियत, समाजवाद और शोषण से मुक्त सेकुलर समाज बनाने का सपना नहीं ओझल होने दिया और जीवन भर इन सपनों को साकार करने के लिए लामबंद रहे। इस में कोई शुबह नहीं कि अगर भाई साहब की सेहत इजाज़त देती तो वे दिल्ली की सरहदों पर धरना दे रहे बहादुर किसानों के बीच रह रहे होते।
सवाल: ‘बाज़ार, ‘तेरे शहर में, ‘लोरी, ‘अगला मौसम’जैसी फ़िल्में बनाने के बावजूद बहुत ज़माने से आपने कोई नई फ़िल्म नहीं बनायी। ऐसे क्यों?
जवाब: यह सच है कि मैंने कई वर्षों से कोई फ़िल्म नहीं बनाई है, इसके बहुत से कारण हैं। एक सृजनकार की तमाम ख़्वाहिशों के बावजूद फ़िल्म बनाने की प्रक्रिया बहुत जटिल और ढेढ़ी खीर की तरह हो गयी है। पैसा लगाने वाले लोग जल्दी से बहुत पैसा बनाना चाहते हैं। इसलिए किसी भी प्रयोग में पैसा लगाने से कतराते हैं। एक वजह कलाकारों का बहुत ज़्यादा मंहगा होना भी है। सबसे महत्वपूर्ण कारण मेरी अंतिम फ़िल्म ‘लोरी का नाकाम हो जाना था। एक दिवसीय क्रिकेट मैच उन दिनों छाए हुए थे। दर्शक हाल में जा ही नहीं रहे थे। इस फ़िल्म की नाकामी ने मेरा घर-बार बिकवा दिया। नई फ़िल्म बनाने का विचार कई बार दिल दिमाग़ में जोश मारता है लेकिन परिस्थितियां उसकी इजाज़त नहीं देतीं।
सवाल: आम अपनी फ़िल्मों में किस फ़िल्म को सबसे बढ़िया मानते हैं?
जवाब: हर लिहाज़ से ‘बाज़ार’मेरी सबसे बेहतरीन फ़िल्म है। मैं अपनी बाक़ी सब फ़िल्मों को दिखावटी मानता हूं। ‘बाज़ार’फ़िल्म एक सच्ची घटना पर आधारित है जिसका मुझे हैदराबाद में पता लगा था। इस फ़िल्म को प्रतिबद्धता के साथ हम सबने बनया था, सब कलाकार और तकनीशियन बहुत कम मेहनताने और सुविधाओं पर इस फ़िल्म को करने पर सहमत हो गए थे, क्योंकि उन्हें इस बात का एहसास था कि मैं इस फ़िल्म को इंसानी एहसासात को उजागर करने के लिए एक जज़्बे के तह बना रहा हूं। उस दौर का अब लौट पाना बहुत मुश्किल है।
सवाल: आख़िर ऐसा क्यों हुआ है कि बंबई की फ़िल्मी दुनिया में ख़्वाजा अहमद अब्बास, गुरूदत्त, बलराज साहनी, पृथ्वीराज कपूर जैसे प्रतिबद्ध और कम बजट की फ़िल्म बनाने वालों की पीढ़ी लुप्त हो गई है?
जवाब: उसकी वजहें बहुत साफ़ हैं। वे लोग सामाजिक और राष्ट्रीय चितांओ के चलते फ़िल्मों का सृजन करते थे। उनकी फ़िल्मी का सृजन उनके जीवन दर्शन का ही एक हिस्सा था। हर कोई उनकी ललक और प्रतिबद्धता को महसूस करके उनके साथ सहयोग करता था। हर फ़िल्म एक सामूहिक कर्म में बदल जाता था। आजकल लोग फ़िल्म नहीं बनाते हैं बल्कि वो तो एक तरह का उद्योग लगा रहे हैं। फ़िल्म निर्माताओं का एक मात्र उद्देश्य पैसा कमाना है तो अभिनेता और तकनीशियन भी कोई क़ुर्बानी क्यों करें। लोकप्रिय सिनेमा के क्षय का एक कारण फ़िल्मी दुनिया पर तस्करों और अपराधियों के पैसे का बढ़ता नियंत्रण भी है। इस तरह के पैसे के दख़ल ने भारतीय फ़िल्म के साथ दो खिलवाड़ किये हैं। एक तो यह कि इन्होंने फ़िल्मी जगत में इतना धन बहाया है कि कलाकारों की क़ीमतें आसमान छूने लगीं हैं दूसरे यह कि अब लोकप्रिय सिनेमा सिर्फ़ हिंसा और सैक्स पर ही निर्भर है। स्मगलर, फाइनेंसर अपनी जीवन शैली की फ़िल्में पर्दे पर चाहते हैं। ज़ाहिर है जिनका खायेंगे, उनका राग अलापना भी पड़ेगा।
सवाल: फ़िल्मी दुनिया में एक लेखक के तौर पर आपने बहुत काम किया है, आपने कई यादगार फ़िल्में लिखी। क्या आप फ़िल्मी जगत में लेखक की हैसियत से संतुष्ट हैं?
जवाब: फ़िल्मी जगत में पटकथा लेखकों को लेकर बहुत से लतीफ़े मशहूर हैं। एक बार शूटिंग के दौरान एक अभिनेत्री ने लेखक से कहा कि फ़लां डायलाग बदल दीजिए। लेखक तैयार नहीं हुआ, जब अभिनेत्री ने ज़िद्द की तो लेखक ने रुहांसा होकर कहा यही तो एक उनका डायलाग है। पटकथा में बचा है बाक़ी तो सब का सब निर्माता और निर्देशक बदल चुके हैं। लेकिन हिंदी फ़िल्मों में अपवाद भी रहे हैं। सआदत हसन मंटों ने भारतीय फ़िल्मों के लिए यादगार पटकथाएं लिखीं। राजेंद्र सिंह बेदी ने विमल दा और ऋषिकेष के लिए ज़बरदस्त पटकथायें लिखीं। इस सच को भी नहीं झुठलाया जा सकता कि सलीम-जावेद ने हिंदी फ़िल्म के पटकथा लेखन को एक महत्वपूर्ण दर्जा दिलवाया। इन दोनों ने लेखक को फ़िल्मी सितारों के रूप में उभरने का मौक़ा दिया, कसकर पैसे वसूले। आज हिंदी फ़िल्म में पटकथा, लेखक जो खा कमा रहे हैं उसकी वजह भी सलीम-जावेद ही हैं।
सवाल: फ़िल्म के पटकथा लेखन के क्षेत्र में आप अपनी भूमिका को लेकर संतुष्ट हैं?
जवाब: नहीं, पटकथा लेखन बहुत चीजों से तय होता है। मैंने यह ईमानदार प्रयास ज़रूर किया है कि अपनी पसन्द की फ़िल्में लूं, मेरे थैले में हर तरह का माल नहीं है। मैं किसी भी ऐसी फ़िल्म के लिए काम नहीं करता जो औरत के खिलाफ़ हो। मेहनतकशों के खिलाफ़ हो, या जातिवादी और साम्प्रदायिक घृणा का शिकार हो। मैं अपने लेखन में अश्लील लटकों का प्रयोग नहीं करता। यह सचेतन प्रयास होता है कि मैं अपनी फ़िल्मों में इंसानी मान्यताओं को उभारुं। आप देखेंगे कि मेरी फ़िल्मों में महिला पात्र बहुत सशक्त होते हैं।
सवाल: फ़िल्म और रंगकर्म में आपको ज़्यादा क्या पसंद है?
जवाब: मैं दरअसल थियेटर का ही आदमी हूं, हमेशा नाटक ही करना चाहता था। मैंने अपना ग्रुप ‘द कर्टेन’और बलराज साहनी ने अपना ड्रामा संगठन ‘जुहू थियेटर’बंद करके बंम्बई में ‘इप्टा’शुरू किया था। हम लोग बस्तियों में जाते, छोटे-मोटे हॉलों में जाकर नाटक करते। जब पैसे की बहुत तंगी होने लगी तो मैने थियेटर को नहीं त्यागने का फ़ैसला किया और ख़र्चा निकालने के लिए टैक्सी ड्राइवर बनना तय किया। उसके लिए लाईसेंस भी बनवाया। दोस्तों के मजबूर करने पर मैंने बसु भट्टाचार्य की पहली फ़िल्म ‘अनुभव’के डायलाग लिखना मंजूर किया। फ़िल्मी दुनिया में मैं इसलिए आया कि मैं सार्थक रंगमंच करना चाहता था। अपने उसी लगाव के चलते मैंने यह भी फ़ैसला कर लिया था कि मैं शादी नहीं करूंगा।
सवाल: प्रगतिशील नाट्यकर्मियों के सामने आज क्या चुनौतियां हैं?
जवाब: मुझे लगता है कि प्रगतिशील नाट्य आंदोलन की समस्याएं संगठन सम्बंधी उतनी नहीं है जितनी कि बौद्धिक और वैचारिक हैं। हम में से ज्यादातर लोग भूतकाल में ही जी रहे हैं। हम सच्चाई की आंखों मे ऑंखें डालने से कतराते हैं। पढ़ना-लिखना तो हम लोगों ने बंद ही कर दिया है। ज़्यादातर
नाट्यकर्मियों की समस्या यह है कि वे यूरोपीय नमूनों की नक़ल करते हैं। इब्सन से शुरू करते हैं और अलगाववाद से होते हुए एब्सर्ड थियेटर तक पहुंचते हैं और अंत सनसनी फैलाने वाले नाटकों पर होता है। हमें इन सबसे बचना है। हमारे देश के नाट्य कर्मियों की इस देश की सच्चाई के सबक खड़े करना होगा। हमें अपने देश की परिस्थितियों के संदर्भ में ही एक वैकल्पिक थियेटर विकसित करना होगा। मैं अपना बाकी समय इसी काम में लगाना चाहता हूं।
[इसका एक संक्षिप्त रूप दिल्ली के जनसत्ता में मई 14, 1993 छपा था।]