लोग पूछते हैं, राजग को प्रचंड जनादेश मिला है। आप अब भी आलोचक क्यों हैं? कोई बताए कि क्या जनादेश आलोचना का हक़ छीन लेता है?
मेरा गिला राजनेताओं से उतना नहीं, पत्रकारों, बुद्धिजीवियों की अपनी ही बिरादरी से है। आपको याद होगा, जब पत्रकार मोदी के गिर्द सेल्फ़ी के लिए झूमने लगे, उनकी कितनी फ़ज़ीहत हुई थी। पर आज घर बैठे जयकारे लगाने में भी उन्हें (या साथियों को) कोई झिझक नहीं।
किसे शक कि मोदी की वक्तृता बहुत लोक-लुभावन है। लिंग-दोष के बावजूद शब्दों और अभिव्यक्ति के हुनर पर उनका अधिकार है। उनका आत्मविश्वास और बढ़ा है। मगर साथ में अहंकार भी: "मोदी ही मोदी का चैलेंजर (चुनौती) है"!
जो हो, परसों के सुदीर्घ भाषण में "छल को छेदना है" जुमला सुनकर पत्रकार मित्र इतने फ़िदा हुए कि तमाम पुराने वादों की पोल, बड़ी पूँजी के बढ़ावे, कालेधन की मरीचिका, बेक़ाबू महँगाई और बेरोज़गारी, नोटबंदी-जीएसटी के प्रकोप में उद्योग-व्यापार और खेतीबाड़ी के पतन, किसानों के आत्मदाह, लोकतांत्रिक संस्थाओं के विचलन, शासन में संघ परिवार के दख़ल, रफ़ाल के रहस्य, पुलवामा की विफलता और बालाकोट के रेडार के छल तक को भुला गए।
प्रधानमंत्री ने ग़रीबी और ग़रीबों की बड़ी बात की। संविधान पर श्रद्धा उँडेली। क्या 2014 संविधान न था? या महँगाई, ग़रीबी और बेरोज़गारी? क्या संविधान की शपथ में उसके प्रति आदर और ज़िम्मेदारी का तत्त्व निहित नहीं होता है? फिर यह दिखावा क्यों?
उन्होंने राजग के साढ़े तीन सौ मौजूद सांसदों (और प्रकारान्तर छोटे-बड़े अन्य नेताओं) को "छपास और दिखास" से आगाह किया। पर इसके सबसे आला प्रमाण तो वे ख़ुद हैं। रोज़ कौन बंडी-कुरते बदलता है? कैमरा-क्रू के साथ जाकर कौन केदारनाथ की गुफा में ध्यान लगाता है? बग़ैर मुखारविंद खोले लाइव प्रेस काँफ़्रेंस में और कौन आ बैठता है? कभी मीडिया से बेरुख़ी और कभी साक्षात्कारों की झड़ी कौन लगा देता है? तो, इस एकाधिकार में अपने सहयात्रियों को उनका संदेश आख़िर क्या है? बस यही, कि आप सब परदे में रहें। मैं हूँ ना।
अपने भाषण में ठीक एक घंटे बाद जाकर उन्होंने अल्पसंख्यकों की बात की। पत्रकार मित्र इस समावेशी पुट पर और लट्टू हुए हैं। मोदी अचानक उनके लिए सर्वधर्मसमभावी हो गए। कितने आराम से पत्रकार भूल गए कि प्रधानमंत्री ही पहले गुजरात के मुख्यमंत्री थे, जब वहाँ क़त्लेआम हुआ।
पिछले चुनाव में उन्होंने श्मशान-क़ब्रिस्तान का राग छेड़ा था। इस दफ़ा पाकिस्तान (जिसे चुनाव बाद के भाषण में सिरे से छिटका दिया) और सर्जिकल के शोर के पीछे हिंदू राष्ट्रवाद की पुकार थी। और अभी, सेंट्रल हॉल में, उनके सामने बैठे भाजपा के नवनिर्वाचित सांसदों में सिर्फ़ एक मुसलमान था, पश्चिम बंगाल में बिष्णुपुर से जीते सौमित्र ख़ान।
आदित्यनाथ, साक्षी महाराज, गिरिराज सिंह, संगीत सोम आदि के साथ अब आतंक की मौतों वाले मालेगांव बमकांड की ज़मानतयाफ़्ता साध्वी प्रज्ञासिंह पार्टी की शोभा बढ़ा रही है। गांधीजी के हत्यारे गोडसे को उसने देशभक्त कहा। चुनाव का नाज़ुक दौर था, मोदी ने कहा वे साध्वी को माफ़ नहीं करेंगे। पर पार्टी के मार्गदर्शक आडवाणी ने साध्वी के सर पर हाथ रख दिया है।
क्या ऐसे क्षुद्र और कट्टर ‘नेताओं’ को साथ रखकर जीतेंगे मोदी अल्पसंख्यकों का विश्वास? इन्हें साथ लेकर घृणा और सांप्रदायिकता की क्या वही हरकतें नहीं होंगी, जो पिछले पाँच दिनों में मुसलमानों के साथ हिंसा की वारदातों में लगभग हर रोज़ हुई हैं?
गाय के नाम पर हत्याएँ जब पहले बढ़ीं तब हिंसक तत्त्वों को प्रधानमंत्री ने देर से सही, पर चेतावनी दी थी। लेकिन उसे उन तत्त्वों ने मानो आशीर्वाद समझा और बेख़ौफ़ अपने मन और (कथित गोरक्षा) मत के वशीभूत सामूहिक हिंसा करते चले गए। उन्होंने मुसलमानों और दलितों पर कायराना नृशंस अत्याचार के वीडियो भी बेख़ौफ़ प्रचारित किए। समाज के ताने-बाने को द्वेष और दुष्प्रचार से उधेड़ने वाला इससे घृणित काम और क्या होगा?
गुज़रे पाँच सालों में दादरी से राजसमंद तक मुसलमानों के साथ इतना ख़ूनख़राबा हो गया है कि देश के नागरिक के नाते मोदी सरकार से उन्हें "भ्रम और भय" के अलावा कोई विश्वास हासिल नहीं हुआ है। अब उन्होंने अगर समावेशी समाज और विश्वास की बात की है तो हमें ज़रूर इसे एक बार उम्मीद की नज़र से देखना चाहिए।
लेकिन छल-छलावे और संदेह के ऐसे विकट परिवेश में लट्टू पत्रकारिता से किस सरोकारी को कोफ़्त न होगी, जिसका ज़िक्र मैंने शुरू में किया। इसीलिए मुझसे कहे बिना रहा न गया। हालाँकि अब नए काम में टीका करने को वक़्त कहाँ मिलता है।
राजनीति की दशा जैसी हो, बोलने वालों को ज़रूर बोलना चाहिए। विवेकशील पत्रकार और बुद्धिजीवी अपना मनोबल क्यों खोएँ?
(नोट- ये आलेख वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी के सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक अकाउंट पर पूर्व में प्रकाशित किया जा चुका है।)
मेरा गिला राजनेताओं से उतना नहीं, पत्रकारों, बुद्धिजीवियों की अपनी ही बिरादरी से है। आपको याद होगा, जब पत्रकार मोदी के गिर्द सेल्फ़ी के लिए झूमने लगे, उनकी कितनी फ़ज़ीहत हुई थी। पर आज घर बैठे जयकारे लगाने में भी उन्हें (या साथियों को) कोई झिझक नहीं।
किसे शक कि मोदी की वक्तृता बहुत लोक-लुभावन है। लिंग-दोष के बावजूद शब्दों और अभिव्यक्ति के हुनर पर उनका अधिकार है। उनका आत्मविश्वास और बढ़ा है। मगर साथ में अहंकार भी: "मोदी ही मोदी का चैलेंजर (चुनौती) है"!
जो हो, परसों के सुदीर्घ भाषण में "छल को छेदना है" जुमला सुनकर पत्रकार मित्र इतने फ़िदा हुए कि तमाम पुराने वादों की पोल, बड़ी पूँजी के बढ़ावे, कालेधन की मरीचिका, बेक़ाबू महँगाई और बेरोज़गारी, नोटबंदी-जीएसटी के प्रकोप में उद्योग-व्यापार और खेतीबाड़ी के पतन, किसानों के आत्मदाह, लोकतांत्रिक संस्थाओं के विचलन, शासन में संघ परिवार के दख़ल, रफ़ाल के रहस्य, पुलवामा की विफलता और बालाकोट के रेडार के छल तक को भुला गए।
प्रधानमंत्री ने ग़रीबी और ग़रीबों की बड़ी बात की। संविधान पर श्रद्धा उँडेली। क्या 2014 संविधान न था? या महँगाई, ग़रीबी और बेरोज़गारी? क्या संविधान की शपथ में उसके प्रति आदर और ज़िम्मेदारी का तत्त्व निहित नहीं होता है? फिर यह दिखावा क्यों?
उन्होंने राजग के साढ़े तीन सौ मौजूद सांसदों (और प्रकारान्तर छोटे-बड़े अन्य नेताओं) को "छपास और दिखास" से आगाह किया। पर इसके सबसे आला प्रमाण तो वे ख़ुद हैं। रोज़ कौन बंडी-कुरते बदलता है? कैमरा-क्रू के साथ जाकर कौन केदारनाथ की गुफा में ध्यान लगाता है? बग़ैर मुखारविंद खोले लाइव प्रेस काँफ़्रेंस में और कौन आ बैठता है? कभी मीडिया से बेरुख़ी और कभी साक्षात्कारों की झड़ी कौन लगा देता है? तो, इस एकाधिकार में अपने सहयात्रियों को उनका संदेश आख़िर क्या है? बस यही, कि आप सब परदे में रहें। मैं हूँ ना।
अपने भाषण में ठीक एक घंटे बाद जाकर उन्होंने अल्पसंख्यकों की बात की। पत्रकार मित्र इस समावेशी पुट पर और लट्टू हुए हैं। मोदी अचानक उनके लिए सर्वधर्मसमभावी हो गए। कितने आराम से पत्रकार भूल गए कि प्रधानमंत्री ही पहले गुजरात के मुख्यमंत्री थे, जब वहाँ क़त्लेआम हुआ।
पिछले चुनाव में उन्होंने श्मशान-क़ब्रिस्तान का राग छेड़ा था। इस दफ़ा पाकिस्तान (जिसे चुनाव बाद के भाषण में सिरे से छिटका दिया) और सर्जिकल के शोर के पीछे हिंदू राष्ट्रवाद की पुकार थी। और अभी, सेंट्रल हॉल में, उनके सामने बैठे भाजपा के नवनिर्वाचित सांसदों में सिर्फ़ एक मुसलमान था, पश्चिम बंगाल में बिष्णुपुर से जीते सौमित्र ख़ान।
आदित्यनाथ, साक्षी महाराज, गिरिराज सिंह, संगीत सोम आदि के साथ अब आतंक की मौतों वाले मालेगांव बमकांड की ज़मानतयाफ़्ता साध्वी प्रज्ञासिंह पार्टी की शोभा बढ़ा रही है। गांधीजी के हत्यारे गोडसे को उसने देशभक्त कहा। चुनाव का नाज़ुक दौर था, मोदी ने कहा वे साध्वी को माफ़ नहीं करेंगे। पर पार्टी के मार्गदर्शक आडवाणी ने साध्वी के सर पर हाथ रख दिया है।
क्या ऐसे क्षुद्र और कट्टर ‘नेताओं’ को साथ रखकर जीतेंगे मोदी अल्पसंख्यकों का विश्वास? इन्हें साथ लेकर घृणा और सांप्रदायिकता की क्या वही हरकतें नहीं होंगी, जो पिछले पाँच दिनों में मुसलमानों के साथ हिंसा की वारदातों में लगभग हर रोज़ हुई हैं?
गाय के नाम पर हत्याएँ जब पहले बढ़ीं तब हिंसक तत्त्वों को प्रधानमंत्री ने देर से सही, पर चेतावनी दी थी। लेकिन उसे उन तत्त्वों ने मानो आशीर्वाद समझा और बेख़ौफ़ अपने मन और (कथित गोरक्षा) मत के वशीभूत सामूहिक हिंसा करते चले गए। उन्होंने मुसलमानों और दलितों पर कायराना नृशंस अत्याचार के वीडियो भी बेख़ौफ़ प्रचारित किए। समाज के ताने-बाने को द्वेष और दुष्प्रचार से उधेड़ने वाला इससे घृणित काम और क्या होगा?
गुज़रे पाँच सालों में दादरी से राजसमंद तक मुसलमानों के साथ इतना ख़ूनख़राबा हो गया है कि देश के नागरिक के नाते मोदी सरकार से उन्हें "भ्रम और भय" के अलावा कोई विश्वास हासिल नहीं हुआ है। अब उन्होंने अगर समावेशी समाज और विश्वास की बात की है तो हमें ज़रूर इसे एक बार उम्मीद की नज़र से देखना चाहिए।
लेकिन छल-छलावे और संदेह के ऐसे विकट परिवेश में लट्टू पत्रकारिता से किस सरोकारी को कोफ़्त न होगी, जिसका ज़िक्र मैंने शुरू में किया। इसीलिए मुझसे कहे बिना रहा न गया। हालाँकि अब नए काम में टीका करने को वक़्त कहाँ मिलता है।
राजनीति की दशा जैसी हो, बोलने वालों को ज़रूर बोलना चाहिए। विवेकशील पत्रकार और बुद्धिजीवी अपना मनोबल क्यों खोएँ?
(नोट- ये आलेख वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी के सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक अकाउंट पर पूर्व में प्रकाशित किया जा चुका है।)