जीएसटी 100 झंझट की एक नई कहानी

Written by Sanjay Kumar Singh | Published on: June 12, 2020
जीएसटी पर मैं लिखता रहा हूं। मेरा मानना है कि नोटबंदी के बाद जीएसटी ने देश की अर्थव्यवस्था को जो नुकसान पहुंचाया है उसकी कल्पना नहीं की जा सकती है। सरकार ने इसके साथ एनजीओ और दूसरे कारोबारों पर सख्ती लागू करके जो हाल बनाया है उसमें सरकार का विरोध करने लायक लोग भी कम हुए। कारोबारी वैसे भी सिर्फ पैसा जानता है। विरोध और राजनीति की दुनिया उनके लिए नहीं है। ऐसे में जो नुकसान हुआ, लोग झेलते रहे। जब नोटबंदी झेल गए तो जीएसटी नए रॉबिनहुड की दुनिया का हिस्सा था। पानी में रहकर मगर से बैर किया जा सकता है पर कारोबारी ऐसी बातें सोचता भी नहीं है। गुजरात विधानसभा चुनाव के समय (केंद्र) सरकार को कारोबारियों के गुस्से का अहसास हुआ और जीएसटी में काम लायक छूट तभी मिली।



अक्सर लोग कहते हैं कि जीएसटी से परेशानी होती तो इतने सारे कारोबार कैसे चलते। पर यह कोई नहीं पूछता कि जो बंद हुए, जिनका काम घटा वह क्यों हुआ। सरकार अगर ईमानदार होती तो एक अध्ययन करवाकर दूध का दूध और पानी का पानी करना कोई मुश्किल नहीं था। सरकार के अपने अहंकार हैं और कारोबारियों की अपनी मजबूरी। मेरा मानना है कि नियम ऐसे हैं कि कंप्यूटर के बिना कोई काम ही नहीं हो सकता है और कंप्यूटर रखना, मेनटेन करना और उसे चलाने वाले की सेवाएं लेना किसी भी छोटे कारोबारी के लिए अतिरिक्त बोझ है। इसी तरह, आयकर रिटर्न, टीडीएस के बाद जीएसटी के बारे में कहा चाहे जो जाए, सच यही है कि चार्टर्ड अकाउंटैंट के बिना काम चल ही नहीं सकता है। और चार्टर्ड अकाउंटैंट की हालत ऐसी है कि वो भी खुश नहीं हैं।

चार्टर्ड अकाउंटैंट मित्रों का कहना है कि जब लोग कमाते हैं तो पैसे लेना अच्छा लगता है। औपचारिकता निभाने वाले रिटर्न फाइल करने के कितने पैसे मिलेंगे और जब पता है कि सामने वाले की कमाई कम हो रही है (भले हमारा काम बढ़ा हो) पैसे ज्यादा कैसे लिए जाएं? उनके लिए तो पहले भी हम सरकारी औपचारिकता पूरी करते थे अब भी यही कर रहे हैं। कमाई बढ़ी होती तो पैसे बढ़ा कर मांगते जब कम हुई है तो पुराना भी नहीं मांगा जाता। सरकार अपनी जगह सही हो सकती है कि नियम हैं तो सख्ती से पालन हो पर नियम ही सख्त हैं। यह वैसे ही है कि छह फीट का आदमी 10 फीट ऊंची छत वाले घर में क्यों रहता है या डेढ़ फीट चौड़ा आदमी तीन फीट चौड़े पलंग पर क्यों सोता। थोड़ी जगह सबको चाहिए होती है पर सरकार तो सरकार है।

मैं विषयांतर हो गया। बताना था पहले कॉरपोरेट के काम की कहानी। मैं सगर्व कहता हूं कि कारपोरेट अनुवादक हूं। हिन्दी और हिन्दी साहित्य से मेरा कोई संबंध नहीं रहा। पत्रकारिता में दाल नहीं गली तो घर चलाने के लिए मैंने कॉरपोरेट के अनुवाद का रास्त चुना और यह देश में उदारीकरण शुरू होने के समय की बात है। देश की लगभग सभी पीआर एजेंसियों और तमाम कॉरपोरेट व सीईओ के लिए लाखों रुपए का अनुवाद किया है। कुछ निजी भी। हर्षद मेहता से लेकर मुकेश अंबानी तक के लिए। लेकिन जीएसटी के बाद दुनिया ही बदल गई। इसलिए नहीं कि मैं बदल नहीं सकता था, कमाता कम था या कोई और समस्या थी। मुझे बदली स्थितियां मंजूर नहीं थीं। गुजरात चुनाव के बाद जीएसटी में छूट मिलने तक मेरे सारे कॉरपोरेट ग्राहक जा चुके थे और दोबारा मैंने कोशिश नहीं की। हालांकि, गाड़ी चलती रही।




कोरोना काल में संकट कॉरपोरेट के लिए भी है। और काम कराने वाले सब जानते ही हैं। झगड़े मैंने खूब किए पर लड़ाई निजी नहीं रही और सिद्धांत की बात सबको पता है। मुझे काम तो करना ही था पर अपने नियम नहीं छोड़ने थे। जीएसटी पंजीकरण नहीं है, कराऊंगा नहीं, झूठ नहीं बोलूंगा और बिना पर्चेज ऑर्डर के काम शुरू भी नहीं करूंगा। इस शर्त पर पहला ऑर्डर पिछले दिनों पूरा हुआ। पर्चेज ऑर्डर जिस तारीख का था उसी तारीख को काम पूरा चाहिए था। क्योंकि देरी पहले ही हो चुकी थी। और काम छोटा-मोटा नहीं आधे लाख से ज्यादा का। कर दिया और नियमानुसार बिल कंपनी के सिस्टम में अपलोड कर दिया। यह इतना मुश्किल, टेढ़ा या झंझट भरा काम था कि पांच - सात हजार का बिल होता तो शायद मैं छोड़ ही देता। आखिरकार एक मित्र की मदद लेनी पड़ी और मदद लेता रहा तब जाकर एक महीने में पैसे मिले। काम उसी दिन, पैसे एक महीने में। हालांकि, कॉरपोरेट के लिहाज से यह जल्दी ही है।

यहां जो मामला दिलचस्प है वह यह कि कंपनी के सिस्टम ने मेरे बिल को न जाने कितनी दफा रीजेक्ट किया। चूंकि क्लाइंट का नाम बताना नहीं है इसलिए बहुत विस्तार में नहीं जाउंगा पर संक्षेप में मामला यह है कि सरकारी नियम ऐसे हैं कि बिल पर खरीदने बेचने वाले के नाम, पूरे पते, पैन, टैन, सीआईएन, फोन, संबंधित अधिकारी के नाम आदि आदि के साथ न जाने क्या क्या लिखा होना चाहिए। काम कंप्यूटर से होना है, पैसे खाते में जाने हैं फिर भी बाथरूम में 10 कैमरे लगाने की तरह सब कुछ सरकार जी को पता होना चाहिए। कितना देखा जाता है और क्या हाल है वह अलग मुद्दा है पर इस चक्कर में व्यावहारिक दिक्कत यह है कि पर्चज ऑर्डर में जीएसटी नंबर गलत लिखा हुआ था। ‘शिप टू’ लिखने के लिए कहा गया और इसके लिए जीएसटी नंबर के साथ प्लांट कोड बताया गया। इसके बाद रीजेक्ट हुआ तो मैंने मिलाया – दो जीएसटी नंबर लिखे थे। शिप टू के लिए जीएसटी नंबर कंपनी वालों ने अलग बताया था। मैंने अनुवाद ई मेल से भेजा था शिप तो ई-मेल आईडी को हुआ पर नियम तो नियम है। मुख्य बात यह रही कि कंपनी के दो जीएसटी नंबर है और कंपनी के लिए खरीद करने वाले लोगों के एक ही समूह को इन दोनों नंबरों से जूझना है।

एक कंपनी को दो जीएसटी नंबर की जरूरत कच्चा माल खरीदने और सेवा खरीदने के लिए चाहिए होते हैं। ऐसा मुझे बताया गया कुछ और चाहिए होते हों तो मैं नहीं जानता। दो लोगों ने दो नंबर बताए ऐसे ही और भी कोड के साथ हुआ और एक महीना लग गया। अब अगर एक दिन का काम एक महीने में हो तो आप समझ सकते हैं कि जीएसटी कितनी बड़ी बाधा है। पर सरकार मानेगी नहीं, कारोबारी बताएंगे नहीं और बड़े कॉरपोरेट के बड़े अधिकारियों को यह सब पता ही नहीं नहीं है। शिकायत करो तो किसी की नौकरी जाएगी फालतू के नियम पर सवाल कौन उठाए। इसलिए आप मान कर चलिए कि अर्थव्यवस्था सुधारने की कोशिश चाहे जितनी हो असर तब शुरू होगा जब मानसिकता बदलेगी और वह चुनाव हारे बिना तो नहीं बदलती। हार के डर से जितनी बदल सकती थी बदल चुकी है।

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