भारत का अध्यात्म: भारत की एकमात्र समस्या

Written by संजय श्रमण | Published on: May 12, 2018
​भारत का अध्यात्म असल में एक पागलखाना है, एक ख़ास तरह का आधुनिक षड्यंत्र है जिसके सहारे पुराने शोषक धर्म और सामाजिक संरचना को नई ताकत और जिन्दगी दी जाती है.



कई लोगों ने भारत में सामाजिक क्रान्ति की संभावना के नष्ट होते रहने के संबंध में जो विश्लेषण दिया है वो कहता है कि भारत का धर्म इसके लिए जिम्मेदार है. निश्चित ही भारत का धर्म प्रतिक्रान्ति का हथियार है लेकिन सर उपर उपर नजर आने वाले इस धर्म को जिम्मेदार ठहराना पूरी तरह ठीक नहीं है.

धर्म मोटे अर्थों में कर्मकांड, विश्वास और पूजा पद्धति इत्यादि इत्यादि का जमघट होता है, ये स्वयं अपना स्त्रोत नहीं है बल्कि ये भी किसी अन्य गहरी विधा के गर्भ से जन्मता है. ठीक से कहें तो भारतीय धर्म का मूल उसके भाववादी दर्शन में है.

इस लोक के शोषण और सच्चाइयों से भाग कर परलोक में परम शान्ति या मोक्ष को खोजते हुए जन्म मरण (भवचक्र) से बाहर निकलना इस दर्शन का इसका मूल लक्ष्य है. ऐसे लक्ष्य असल में इस जमीन पर चल रहे जीवन को सम्मान नहीं देते बल्कि किसी आसमानी लोक या हवा हवाई स्वर्ग में या मोक्ष या बैकुंठ को सम्मान देते हैं.

जो लोग ये कहते हैं की स्वर्ग या मोक्ष की कल्पना इस जमीन पर घट रहे जीवन के खिलाफ है वे बहुत हद तक सही हैं. इसके बावजूद ये वक्तव्य अधूरा है. मेरा गहरा अनुभव ये है की स्वर्ग या मोक्ष की कल्पना भी तभी उठती है जबकि आपके समाज में जमीनी जीवन के खिलाफ एक निर्णायक मनोवृत्ति बन चुकी हो.

उदाहरण के लिए भारत में सामाजिक और लौकिक जीवन की जमीनी सच्चाइयों को छुपाते हुए उनमे पल रही सडांध और बीमारी को लगातार दबाते हुए समाज में यथास्थिति बनाये रखना ही भारत की परम्परा रही है. भारत में पुरोहित वर्ग, शासक वर्ग और व्यापारी वर्ग ने हमेशा से एक ख़ास तरह की सामाजिक संरचना को मजबूत बनाया है.

इस संरचना में अस्सी प्रतिशत कामगारों मजदूरों, स्त्रीयों और अछूतों को पूरी व्यवस्था के लाभों से वंचित रखने का काम किया है. यह काम सैनिक बल से या लठैतों के जरिये नहीं किया जा सकता. इसे सामाजिक धार्मिक विश्वास के जरिये ही किया जा सकता है. इस ख़ास तरह की अमानवीय सामाजिक संरचना को बनाये रखने के लिए धर्म ने बड़ी चतुराई से हजारों साल तक बढिया काम किया है.

भारत के धर्म ने कर्मकांडों और त्योहारों के जरिये इन अस्सी प्रतिशत बहुजनों के बीच निश्चित ही एक ख़ास तरह की गुलामी, कायरता और भाग्यवाद को फैलाया है. विशेष रूप से बहुजनों की स्त्रीयों को इस धर्म ने व्रत उपवासों, त्योहारों आदि के जरिये एकदम गुलाम और कायर बनाया हुआ है.

ये गुलाम और डरपोक स्त्रीयां एक डरपोक कौम को जन्म देती हैं जो किसी भी बदलाव या तर्क की बात से डरते हैं. ये अस्सी प्रतिशत डरपोक और दिशाहीन लोग वही हैं जिन्हें सामाजिक क्रान्ति की सबसे ज्यादा जरूरत है लेकिन ये खुद उस क्रान्ति को रोकने में सबसे बड़ी भूमिका निभाते हैं.

भारतीय धर्म को और उसके स्वाभाविक परिणाम को इस तरह देखना बहुत आसान है, इसमें कोई कठिनाई नहीं है. लेकिन मेरा अनुभव ये बताता है कि हमें धर्म के बाह्य कर्मकांडीय स्वरूप पर प्रश्न उठाने से या उसे ध्वस्त कर देने भर से कोई स्थाई समाधान नहीं मिलने वाला है. बाहरी कर्मकांड रुक भी जाएँ तो यह जहरीली अमरबेल फिर से पनप जायेगी.

इसका जीवन स्त्रोत कहीं और छुपा हुआ है. आप गौर कीजिये इस समाज के पढ़े लिखे तबके पर, ये शहरी मध्यमवर्ग तबका धर्म के बाहरी कर्मकांड जैसे कि यज्ञ, हवन, बलि, श्राद्ध, तीर्थयात्रा, दान दक्षिणा, ब्राह्मण भोज आदि नहीं करता है. ये तबका – जिसमे सुशिक्षित इंजीनियर, डॉक्टर, वकील, प्रबन्धक, और हर तरह के पेशेवर और नई पीढी के युवा या अप्रवासी भारतीय आते हैं – वे ग्रामीण या कस्बाई कर्मकांड नहीं करते हैं. वे लोग बहुत मौकों पर प्रगतिशील भी नजर आते हैं.

अक्सर वे पार्टी इत्यादि में शराब और मांस का सेवन करते हुए मिल जाते हैं. यही लोग शहरों में लिव इन रिलेशन और समलैंगिक शादियों सहित लोकतंत्र, साम्यवाद, क्रान्ति आदि के झंडे भी लहराता हुआ मिल जायेंगे. ऐसा करते हुए वे खुद की और दूसरों की नजरों में स्वयं को “गैर-रुढ़िवादी” सिद्ध कर देते हैं. लेकिन आत्मा परमात्मा और पुनर्जन्म में इनका विश्वास कभी कम नहीं होता.

सरल भाषा में समझें तो इसका मतलब ये हुआ कि ये प्रगतिशील युवा वर्ग सिगरेट शराब और मांस सहित फ्री सेक्स के बावजूद पूरी ठसक के साथ अंदर से धार्मिक बना रहता है और इस सड़ी हुई सामाजिक व्यवस्था को बनाये रखता है. ये एक विचित्र लेकिन परेशान करने वाला तथ्य है.

इसका ये अर्थ हुआ कि बाहरी आडंबरों से भारत के इस धर्म का या इस धर्म के वास्तविक जहर का कोई अधिक सम्बन्ध नहीं है. बल्कि बाहरी आडंबरों और कर्मकांडों से भी कहीं अधिक गहराई में छुपा इसका जहरीला अध्यात्म या रहस्यवाद ही इसका असली जीवन स्त्रोत है.

उसी स्त्रोत से जहर का वो फव्वारा फूटता है जो हर दौर में हर पीढ़ी में पूरे भारत को पागल बनाये रखता है. इस बात को गहराई से समझना होगा, ये थोड़ी उलझी हुई बात है.

असल में भारत का धर्म कोई एकरूप बात नहीं है इसके हजारों विभिन्न रंग और चेहरे हैं. इसी को विविधता कहके महिमंडित किया जाता है. लेकिन इन विविध रूपों के भीतर एक सा जहर लहू बनके बहता है. वह लहू है इसकी ‘आत्मा परमात्मा और पुनर्जन्म की मान्यता’. इसी जहरीली त्रिमूर्ति के गर्भ से परलोक की महिमा और इस लोक की निंदा जन्म लेती है.

बाहरी आडंबर, कर्मकांड कुछ भी हों अंदर ही अंदर इनमे कर्म का विस्तारित सिद्धांत (इस जन्म का कर्म अगले जन्म को तय करेगा) चलता रहता है. इसी में लपेट कर दान दक्षिणा, पुण्य, पाप आदि की सलाहकारी भी चलती रहती है, इसी से ध्यान साधना के तरीके बनाये जाते हैं और लोगों को व्यर्थ के तन्त्र मन्त्र ध्यान भजन में उलझाया जाता है.

बाहर के कर्मकांड बदल भी जाएँ तो थोड़े दिनों बाद इस जहरीले कुँए से नई जहरीली बेल पनप कर समाज पर फ़ैल जाती है. उदाहरण के आजकल के पूजा पंडाल जगराते जुलूस, सामूहिक भोज आदि भारत में बहुत पुराने नहीं हैं.

जब स्वतन्त्रता संघर्ष के दिनों में आजादी के आन्दोलन के लिए या तथाकथित हिन्दू जीवन दर्शन को प्रचारित करने के लिए हिन्दुओं सहित बहुजन जातियों को संगठित करने की आवश्यकता हुई तब पुराने दर्शन और कर्म के सिद्धांत पर आधारित कर्मकांडों को नये रूप में ढाल दिया गया और नये देवी देवताओं सहित नई आरती, नये पूजा विधान, जुलूस, जगराते, डांडिया, सामूहिक भोज आदि निर्मित कर दिए गये.

इनमे शामिल होने वाले लोगों के मौलिक मनोविज्ञान अभी भी आत्मा, परमात्मा और कर्म के विस्तारित सिद्धांत और पुनर्जन्म की धारणा से ही नियंत्रित करने के उद्देश्य से ही ये इनोवेशन किया गया था. इन नये कर्मकांडों से इन्हें आजाद करवा भी दिया जाए तो कोई बदलाव नहीं होने वाला. उस अमरबेल में से फिर नये अंकुर अपने आप निकल आयेंगे.

यहाँ तक कि हिन्दू धर्म छोड़कर जाने वाले दलितों बहुजनों में भी इसी कारण कोई ख़ास बदलाव नहीं आता है. उनके मन में गहराई में इश्वर आत्मा और पुनर्जन्म सहित मोक्ष या स्वर्ग या जन्नत जैसे अंधविश्वास भरे ही रहते हैं. इन जहरीले बीजों को अपने साथ ले जाकर वे ध्यान समाधी मोक्ष जन्नत आदि के लिए नये कर्मकांड खुद ही बना लेते हैं.

वे भी पुराने देवी देवता छोड़कर नये देवी देवता और तीर्थ, मन्दिर ध्यान केंद्र आदि बना लेते हैं और नये धर्म में भी पुराने भारतीय धर्म की जहरीली खुराक फैला देते हैं. ये एक लाइलाज बीमारी नजर आती है.
अब बड़ा सवाल ये है कि इसका इलाज कैसे हो?
मेरा स्पष्ट मानना है कि भारत का धर्म जिस दर्शन से उपजा है और जिस अध्यात्म या रहस्यवाद को महिमामंडित करके आगे बढ़ता है उसकी तरफ कभी गंभीरता से उंगली नहीं उठाई गयी है.

हमें धार्मिक कर्मकांडों और पूजा पद्धतियों से आगे बढ़कर इस धर्म के मूल दर्शन पर चोट करनी होगी. इस दर्शन पर चोट करने से ही हम ओशो रजनीश, आसाराम, निर्मल बाबा, राम रहीम, श्री श्री, जग्गी इत्यादि बाबाओं को रोक सकेंगे जो कि हर पीढी में पुनर्जन्म के जहरीले दर्शन के आधार पर ध्यान समाधी मोक्ष आदि की अन्धविश्वासी व्याख्याएं फैलाते हैं.

ये ध्यान देने लायक बात है कि जब जब भारत के शोषक धर्म पर संकट आता है, इसमें तरह तरह के बाबा पैदा हो जाते हैं जो क्रान्ति और बदलाव के नाम पर गुमराह करने के लिए खड़े हो जाते हैं.

ओशो रजनीश और राम-रहीम जैसे ये बाबा पुराने दर्शन से विज्ञान और पश्चिमी क्रान्ति को जोड़कर ऐसी भयानक सम्मोहनकारी शराब बनाते हैं कि कई पीढियां इसमें से बाहर नहीं निकल पाती.

आत्मा परमात्मा और पुनर्जन्म के अंधविश्वास को जस का तस बनाये रखते हुए उसके ऊपर ऊपर के बेल बूटों में थोड़ा बदलाव करके ये पाखंडी बाबा नई पीढ़ियों को फिर से उसी दलदल में घसीट लेते हैं.

ये भयानक रूप से धूर्त और अवसरवादी होते हैं, ये विज्ञान मनोविज्ञान लोकतंत्र साम्यवाद समाजवाद आदि की व्याख्या करते हुए आत्मा परमात्मा को भी महिमामंडित करते जाते हैं और ऐसा आभास पैदा करते हैं कि पुनर्जन्म और कर्म का विस्तारित सिद्धांत इन सब आधुनिक क्रांतिकारी सिद्धांतों के साथ फिट होता है.

इसके लिए वे अध्यात्म और रहस्यवाद का सहारा लेते हैं. पुरानी पूजा और कर्मकांडों के बदले वे आधुनिक पश्चिमी ढंग के नाईट क्लब और नाईट क्लब कल्चर की तरह जगराते, कीर्तन, ध्यान, समाधि आदि के नये कर्मकांडों की रचना करते हैं.

युवा वर्ग इससे एकदम से सम्मोहित हो जाता है. अपने परिवारों, गाँवों, कस्बों में जाति, वर्ण, अमीर गरीब आदि के विभाजन की चोट से सताए हुए इस युवा वर्ग को इन पाखंडी बाबाओं के ध्यान केन्द्रों और डेरों में थोड़ा अपनेपन और भाईचारे एहसास होता है. इस विभाजित समाज में एकसाथ बैठने, खाने, नाचने का मौक़ा उन्हें पहली बार मिलता है.

इस तरह नई पश्चिमी जीवन शैली के कुछ टुकड़ों को पुरानी जहरीली खुराक में मिलाकर एक नया कहीं अधिक जहरीला काकटेल बनाया जाता है जो पुराने कर्मकांड से भरे धर्म की तुलना में आधुनिक नजर आते हुए भी उससे कही अधिक मारक और भयानक होता है. इस तरह ओशो रजनीश जैसे ये पाखंडी बाबा धर्म के साथ आधुनिकता को जोड़कर पुराने जहरीले दर्शन को एक नई जिन्दगी दे देते हैं और नये युवाओं, शहरी माध्यम वर्ग और पेशेवरों को फुसलाते हुए उसी सनातन सुरंग में खींच ले जाते हैं.

इसलिए सभी बहुजनों, दलितों, मजदूरों, स्त्रीयों आदिवासियों को मेरी यही सलाह होती है कि वे धार्मिक कर्मकांड का विरोध करते हुए वहीं तक न रुक जाएँ. भारत के पुनर्जन्मवादी अध्यात्म से ध्यान, समाधि, साधना और मोक्ष के नाम पर जितने बाबा और ध्यान केंद्र आदि चल रहे हैं उनसे भी बचकर रहें.

ये ध्यान समाधि सिखाने वाले लोग असल में पुराने कर्मकांडीय लुटेरों के ही प्रगतिशील एजेंट हैं. आप एक बार इनके चंगुल में फंसकर ध्यान समाधि सीखने जाइए, धीरे धीरे ये आपको भूत प्रेत, श्राद्ध, देवी देवता पौराणिक बकवास का महात्म्य आदि सिखाने लगते हैं और कुछ ही महीनों में अच्छे खासे सुशिक्षित पेशेवर लोग तोते वाले ज्योतिषी की तरह बकवास करने लगते हैं.

ये जहरीले धर्म का नई परिस्थिति में खुद को ज़िंदा बनाये रखने का हथकंडा है. पश्चिमी क्रांतियों के प्रभाव में जीने वाले भारत में धर्म और कर्मकांड अब उतने आकर्षक नहीं रह गये हैं. अगर धोती कुर्ता या तिलक कुमकुम लगाने वाला संस्कृत बोलने वाला कोई पंडित खड़ा हो जाए तो उसे सुनने के लिए आज का युवा वर्ग उत्सुक न होगा.

लेकिन वही पोंगा पंडित अगर फेंसी गाउन, चोगे, रोल्स रोयस या मर्सिडीज कार लेकर फाइव स्टार आश्रम में खड़ा हो जाए और इंग्लिश में बात करते हुए फ्रायड, नीत्शे, मार्क्स और डार्विन के तर्क देने लगे तो शहरी मध्यम वर्ग का पेशेवर युवा उससे प्रभावित होने लगेगा. एक बार ये युवा इनके चक्कर में फस जाएँ फिर ये बाबा लोग उन्हें कहीं का नहीं छोड़ते.

यही असली खेल है. इस खेल को समझे बिना भारत में बहुजन और स्त्री मुक्ति की कोई संभावना नहीं हो सकती. ये बात भारत के मुक्तिकामियों को गहराई से नोट कर लेनी चाहिए.

(ये लेखक के निजी विचार हैं। संजय श्रमण टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज)

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