कबीर और कबीर जैसों को इस बर्बर और असभ्य देश ने कभी बर्दाश्त नहीं किया। उनके जीते जी और उनके जाने के बाद भी लगातार उनकी आग पर मिट्टी डाली गई है।
कबीर की परम्परा भी बनी तो उसमें बीमारी लग गयी, पहली पीढ़ी के गुरुओं से ही यह बीमारी चल पड़ी।
अब इतिहास का मुआयना करने पर साफ जाहिर होता है कि आत्मा, परमात्मा और पुनर्जन्म को स्पष्ट तौर पर नकारे बिना कोई कुछ भी कर ले - वह भारत मे फैली ऐतिहासिक कोढ़ को नही मिटा सकता।
कबीर और उनकी परम्परा इसी जहरीली त्रिमूर्ति की भेंट चढ़ गए। आज भी वह पतन जारी है।
आत्मा परमात्मा और पुनर्जन्म में भीगे अध्यात्म की प्रशंसा में गाने या लिखने वालों ने कबीर को कमजोर करने में और भारत मे बदलाव की संभावना को खत्म करने में बड़ी भूमिका निभाई है।
कई लोग पूछते हैं कि अंबेडकर ने कबीर की बजाय बुध्द को क्यों चुना? इसका उत्तर आज के कबीरपंथ को देखकर मिल जाता है।
हालांकि अंबेडकर ने बुद्ध को भी परम्परासम्मत ढंग से नहीं मांगा या स्वीकार किया। उन्होंने अपने बुद्ध की स्वयं खोज की और अपना बौद्ध धम्म स्वयं बनाया।
कबीर की सफलताएं और असफलताएं दोनों बहुत कुछ सिखाती हैं, जैसे कि बौद्ध धर्म का पतन हमें बहुत कुछ सिखाता है।
आज कबीर और उनकी क्रांति को नमन करें।
कबीर की परम्परा भी बनी तो उसमें बीमारी लग गयी, पहली पीढ़ी के गुरुओं से ही यह बीमारी चल पड़ी।
अब इतिहास का मुआयना करने पर साफ जाहिर होता है कि आत्मा, परमात्मा और पुनर्जन्म को स्पष्ट तौर पर नकारे बिना कोई कुछ भी कर ले - वह भारत मे फैली ऐतिहासिक कोढ़ को नही मिटा सकता।
कबीर और उनकी परम्परा इसी जहरीली त्रिमूर्ति की भेंट चढ़ गए। आज भी वह पतन जारी है।
आत्मा परमात्मा और पुनर्जन्म में भीगे अध्यात्म की प्रशंसा में गाने या लिखने वालों ने कबीर को कमजोर करने में और भारत मे बदलाव की संभावना को खत्म करने में बड़ी भूमिका निभाई है।
कई लोग पूछते हैं कि अंबेडकर ने कबीर की बजाय बुध्द को क्यों चुना? इसका उत्तर आज के कबीरपंथ को देखकर मिल जाता है।
हालांकि अंबेडकर ने बुद्ध को भी परम्परासम्मत ढंग से नहीं मांगा या स्वीकार किया। उन्होंने अपने बुद्ध की स्वयं खोज की और अपना बौद्ध धम्म स्वयं बनाया।
कबीर की सफलताएं और असफलताएं दोनों बहुत कुछ सिखाती हैं, जैसे कि बौद्ध धर्म का पतन हमें बहुत कुछ सिखाता है।
आज कबीर और उनकी क्रांति को नमन करें।