भारतीय लोकतंत्र अपरिवपक्व है क्योंकि सरकार उन लोगों को परेशान कर सकती है जो स्वतंत्र अभिव्यक्ति की आवाज़ बुलंद करते हैं और लोग ख़ुद सरकार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने पर आपत्ति जताते हैं।
भारतीय मीडिया और मुद्दे को लेकर हिंदू और धार्मिक अल्पसंख्यक की भावनाएं और धारणाएं अलग-अलग हैं जो इसकी स्वतंत्रता के लिए महत्वपूर्ण है। सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज के लोकनीति कार्यक्रम द्वारा किए गए एक मीडिया सर्वेक्षण के प्रमुख निष्कर्षों में ये बात सामने आई है।
19 राज्यों में किए गए सर्वेक्षण से पता चलता है कि हिंदुओं की तुलना में ज़्यादातर मुस्लिम, सिख और ईसाई सोचते हैं कि मीडिया पहले की तुलना में कम स्वतंत्र है। सरकारी निगरानी, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के इसके नियमन और इंटरनेट बंदी को लागू करने की बात करने स्वीकार करने के लिए हिंदुओं की तुलना में वे कम इच्छुक हैं।
धार्मिक अल्पसंख्यकों की ये प्रतिक्रियाएं भारी अंधकार के समय एक मामूली किरण की तरह है जो सीएसडीएस दर्शाता है। भारतीय मीडिया उपभोक्ता अनुदार भावनाओं को शरण देता है और यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अपने अधिकार की रक्षा करने का इच्छुक नहीं है और लगता है कि मीडिया द्वारा अपनी स्वतंत्रता खोने की चिंताओं को लेकर अंजान है।
इन आंकड़ों पर विचार किया जाना चाहिए कि समाचार देखने या पढ़ने वालों में से 43% को लगता है कि आज मीडिया "सच्चाई" दिखाने में पहले की तरह स्वतंत्र है या कुछ साल पहले की तुलना में अधिक स्वतंत्र है। सर्वे किए गए लोगों में से केवल 30% सोचते हैं कि मीडिया पहले की तुलना में कम स्वतंत्र है और वहीं 27% की कोई राय नहीं है।
पत्रकारों के ख़िलाफ़ भारतीय सरकार द्वारा कई अदालती मामले दायर करने की पृष्ठभूमि में ये चौंकाने वाले निष्कर्ष सामने आए हैं। 43% और 27% को जोड़ दिया जाए और आप यह सोचने में शायद गलत नहीं होंगे कि सरकार अभी भी बिना किसी प्रतिक्रिया के डर के स्वतंत्र अभिव्यक्ति की आवाज़ बुलंद करने वालों को परेशान कर सकती है और दबाव बना सकती है।
स्वतंत्र होने के लिए, या…
45% हिंदू समाचार उपभोक्ताओं का कहना है कि मीडिया को पहले की तुलना में अधिक स्वतंत्रता मिली है, ऐसे में 33% मुसलमान और केवल 28% अन्य समुदाय (सिख और ईसाई शामिल एक श्रेणी) इस तर्क का समर्थन करते हैं। हालांकि, इन सभी तीन श्रेणियों में जिनकी कोई राय नहीं है उनमें प्रत्येक में 25% से अधिक लोग शामिल हैं। इससे पता चलता है कि वे भारत में घटती मीडिया स्वतंत्रता पर तीखे बहस में भी शामिल नहीं हैं।
इस मुद्दे पर स्थिति और भी निराशावादी हो जाती है कि क्या सरकार सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म और मैसेजिंग प्लेटफॉर्म की निगरानी करने के लिए नैतिक रूप से कितना सही है। क़रीब 45% सोशल मीडिया उपयोगकर्ताओं को लगता है कि सरकार ऐसा करने में सही है, भले ही इस स्थिति के साथ समझौते के अलग-अलग रुप हैं जिसका दायरा "पूरी तरह से सही" से लेकर "कुछ हद तक सही" या "सही, अगर सुरक्षा की बात की जाए तो" तक है। उनमें से केवल 40% लोग सोचते हैं कि यह "पूरी तरह से ग़लत" या "कुछ हद तक ग़लत" है। शेष 16% की कोई राय नहीं है।
सरकारी निगरानी के लिए "पूरे समर्थन" की गणना करने के बाद (अर्थात, इसे सही मानने वालों का अनुपात घटाकर इसे ग़लत मानने वालों के अनुपात की गणना करना) सीएसडीएस सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार, "सभी धार्मिक समुदायों में से, हिंदू सोशल मीडिया उपयोगकर्ता सरकार द्वारा सोशल मीडिया गतिविधियों की निगरानी के सबसे कम विरोधी/सबसे अधिक समर्थक हैं। मुसलमान अपेक्षाकृत कम समर्थक हैं और उनमें से कई ने इस मामले पर चुप रहने को तरजीह दिया है।” रिपोर्ट में कहा गया है कि सभी धार्मिक समुदायों में सिख निगरानी को सही की तुलना में ग़लत मानते हैं।
मीडिया इस्तेमाल के माहौल में जहां लोगों का एक बड़ा हिस्सा या तो उदासीन है या राज्य की निगरानी का समर्थन करता है, यह आश्चर्य की बात नहीं है कि वे सरकार के ख़िलाफ़ की गई राय पर भी आपत्ति व्यक्त करते हैं। सर्वेक्षण में उत्तरदाताओं से पूछा गया: "लोगों को सोशल मीडिया या व्हाट्सएप पर अपनी सरकार के बारे में जो कुछ भी महसूस होता है उसे कहने के लिए स्वतंत्र होना चाहिए, भले ही उनकी राय आपत्तिजनक हो। आप इस बात से सहमत हैं या असहमत?"
ख़ैर, ठीक है, चौंकाने वाले 45% सोशल मीडिया उपयोगकर्ताओं का कहना है कि उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए और 40% का कहना है कि वे ऐसा कर सकते हैं। यह कैसा लोकतंत्र है जहां सरकार के ख़िलाफ़ राय देने पर लोग ख़ुद आपत्ति जताते हैं?
फिर, जबकि 45% हिंदुओं और 44% ईसाइयों और सिखों का दावा है कि सोशल मीडिया और व्हाट्सएप राजनीतिक राय व्यक्त करने के लिए सुरक्षित स्थान हैं, केवल 37% मुसलमान सहमत हैं कि वे सुरक्षित हैं। शायद मुसलमानों की प्रतिक्रिया सरकार द्वारा उनके पोस्टों के लिए उन्हें लक्षित करने से काफ़ी हद तक प्रभावित होती है। इसका एक प्रमुख उदाहरण दिल्ली पुलिस का है जिसने मुस्लिम युवा नेताओं के एक समूह पर राजधानी में 2020 के दंगों को भड़काने की साजिश करने का आरोप लगाने के लिए व्हाट्सएप संदेशों पर भरोसा किया था। सीएसडीएस की रिपोर्ट, वास्तव में, कहती है, "कई मुसलमान भी इस सवाल पर चुप रहे और इस मुद्दे पर अपनी राय व्यक्त नहीं की।"
इंटरनेट बंद करना
क़रीब 40% हिंदू सोशल मीडिया उपयोगकर्ता सोचते हैं कि सरकार द्वारा सोशल मीडिया को विनियमित करने में कुछ भी ग़लत नहीं है। तुलनात्मक रूप से, केवल 31% मुसलमान और 34% अन्य धार्मिक समुदाय सरकारी हस्तक्षेप के पक्ष में हैं। ऐसा लगता है कि सिख मीडिया की स्वतंत्रता के पथ प्रदर्शक हैं, क्योंकि सीएसडीएस सर्वेक्षण रिपोर्ट में विशेष रूप से सोशल मीडिया को नियंत्रित करने वाले सरकार के विचार का कड़ा विरोध करने के लिए उनका उल्लेख किया गया है।
जो लोग इंटरनेट के आने से पहले बड़े हुए हैं, वे सोचते हैं कि वे क्या होते थे यदि अपनी युवा अवस्था के दौरान चर्चा में वर्ल्ड वाइड वेब तक उनकी पहुंच होती। उदाहरण के लिए, वे दुनिया भर में होने वाली चर्चा को देखते। या उन्हें अपनी जन्मजात प्रतिभा को निखारने के अधिक अवसर मिलते।
सीएसडीएस सर्वेक्षण से पता चलता है, बल्कि विडंबना यह है कि 47% सक्रिय इंटरनेट उपयोगकर्ता (सर्वेक्षण से पहले दो महीनों में किसी भी उद्देश्य के लिए इंटरनेट के उपयोग की पुष्टि करने वालों के रूप में परिभाषित) मानते हैं कि क़ानून और व्यवस्था के आधार पर सरकार को नेट बंद करने का अधिकार सही (अर्थात, सुरक्षा के आधार पर जिन्होंने पूरी तरह से सही कहा, कुछ हद तक सही कहा, या सही कहा) है। केवल 36% का कहना है कि वे इंटरनेट शटडाउन का समर्थन नहीं करते हैं।
इंटरनेट शटडाउन के प्रति दृष्टिकोण एक समुदाय से दूसरे समुदाय में अलग-अलग है। केवल 36 फ़ीसदी मुसलमान बंद का समर्थन करते हैं जबकि 49 फ़ीसदी हिंदू और 47 फ़ीसदी ईसाई और सिख ऐसा कर रहे हैं। यदि सीएसडीएस ने जम्मू-कश्मीर में भी अपना सर्वेक्षण किया होता, तो यह अंतर संभवतः बढ़ जाता, जहां के लोगों को इंटरनेट बंद होने से भारी नुक़सान हुआ है। इसके विपरीत, हिंदू शायद इंटरनेट बंद का समर्थन करते हैं क्योंकि उन्हें इसका लंबा अनुभव नहीं है।
हिंदू-मुस्लिम की राय भी अलग अलग सामने आती है। मुसलमानों से कहीं अधिक हिंदू उनके द्वारा देखे जाने वाले टीवी चैनलों, उनके द्वारा पढ़े जाने वाले समाचार पत्रों और उनके द्वारा देखे जाने वाले समाचार पोर्टलों पर भरोसा करते हैं।
हालांकि, एक बिंदु पर सभी धार्मिक समुदाय एकमत हैं। उन सभी का मानना है कि मोदी सरकार का मीडिया का वर्णन "अधिक अनुकूल" है। मीडिया भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में पक्षपाती है, यह बिना आधार के नहीं है। लेकिन इस अपवाद के लिए, मीडिया की सरकार की निगरानी पर धार्मिक अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यक समुदाय के रुख के बीच एक स्पष्ट अंतर है।
सरकार की कहानी
सीएसडीएस सर्वेक्षण रिपोर्ट व्याख्यात्मक नहीं है। फिर भी इससे कुछ व्यापक निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। धार्मिक अल्पसंख्यकों की तुलना में अधिक हिंदू सरकार में विश्वास व्यक्त करते हैं कि इसके पास इंटरनेट बंद करने, सोशल मीडिया को विनियमित करने और एक अराजक लेकिन लोकतांत्रिक स्थान को निगरानी में रखने के वैध कारण होने चाहिए। मीडिया की स्वतंत्रता और हमारे लोकतंत्र की गुणवत्ता हिंदुओं पर निर्भर है क्योंकि वे देश की आबादी का 80% हिस्सा हैं।
धार्मिक अल्पसंख्यक सरकार पर सवाल उठाते हैं क्योंकि उन्होंने, विशेष रूप से मुसलमानों ने अपने ऊपर निशाना बनाने वाले भाजपा के दुष्चक्र को सहन किया है। टीवी चैनलों और समाचार पत्रों के एक चुनिंदा समूह ने भाजपा की नफ़रत वाले बयानों को उठाया है, जो अक्सर नफ़रत की आग को भड़काती है। शायद यही वजह है कि मुसलमान मीडिया पर कम भरोसा करते हैं।
फिर भी हमें यहां एक चेतावनी देने की ज़रूरत है: जिस वर्ष मोदी सत्ता में आए यानी मई 2014 से मुसलमानों के अनुभवों को देखते हुए यह अभी भी आश्चर्यजनक है कि उनमें से 36% इंटरनेट बंद का समर्थन करते हैं; या कि उनमें से 37% को लगता है कि सोशल मीडिया और व्हाट्सएप राजनीतिक राय व्यक्त करने के लिए सुरक्षित स्थान हैं। ये सिर्फ़ वे स्थान हैं जो उनके ख़िलाफ़ नफ़रत से भरे हुए हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि हिंदुओं की तरह, उनका भी सरकार में स्थायी विश्वास है, जिससे उन्हें लगता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार पर अंकुश लगाने के लिए इसके पास उचित कारण होने चाहिए।
शायद बड़ी संख्या में भारतीय मानते हैं कि सरकार उनकी माई-बाप है, जो माता-पिता की तरह, बच्चों के कल्याण के लिए उसे बच्चों के साथ सख़्त होना चाहिए। यह रुख बताता है कि लोग ग़ैरक़ानूनी गतिविधियों की रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) जैसे कठोर क़ानूनों को लेकर सड़कों पर क्यों नहीं उतरते हैं, या सुप्रीम कोर्ट क्यों असंगत है, मनी लॉन्ड्रिंग रोकथाम अधिनियम को लेकर अलोकतांत्रिक संशोधनों के मामले में शोर शराबा नहीं होता है। या फिर असंतुष्टों को धड़ल्ले से जेल में बंद किए जाने के विरोध में लोग इतने उदासीन क्यों हैं।
हमारे लोकतंत्र को विशाल माना जाता है। यह केवल हाशिए के सामाजिक समूहों को लोकतांत्रिक प्रक्रिया में खींचे जाने और दशकों पहले उन्हें प्रतिनिधित्व की डिग्री हासिल करने से वंचित करने के विचार में है। विचारों और विचारधारा के मामले में हमारा लोकतंत्र अपरिपक्व है। यह निस्संदेह सीएसडीएस सर्वेक्षण का सबसे तकलीफ़देह हिस्सा है और शायद भारत के लोगों में लोकतांत्रिक भावना पैदा करने की दिशा में प्रयास करने की एक प्रेरणा है।
Courtesy: Newsclick
भारतीय मीडिया और मुद्दे को लेकर हिंदू और धार्मिक अल्पसंख्यक की भावनाएं और धारणाएं अलग-अलग हैं जो इसकी स्वतंत्रता के लिए महत्वपूर्ण है। सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज के लोकनीति कार्यक्रम द्वारा किए गए एक मीडिया सर्वेक्षण के प्रमुख निष्कर्षों में ये बात सामने आई है।
19 राज्यों में किए गए सर्वेक्षण से पता चलता है कि हिंदुओं की तुलना में ज़्यादातर मुस्लिम, सिख और ईसाई सोचते हैं कि मीडिया पहले की तुलना में कम स्वतंत्र है। सरकारी निगरानी, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के इसके नियमन और इंटरनेट बंदी को लागू करने की बात करने स्वीकार करने के लिए हिंदुओं की तुलना में वे कम इच्छुक हैं।
धार्मिक अल्पसंख्यकों की ये प्रतिक्रियाएं भारी अंधकार के समय एक मामूली किरण की तरह है जो सीएसडीएस दर्शाता है। भारतीय मीडिया उपभोक्ता अनुदार भावनाओं को शरण देता है और यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अपने अधिकार की रक्षा करने का इच्छुक नहीं है और लगता है कि मीडिया द्वारा अपनी स्वतंत्रता खोने की चिंताओं को लेकर अंजान है।
इन आंकड़ों पर विचार किया जाना चाहिए कि समाचार देखने या पढ़ने वालों में से 43% को लगता है कि आज मीडिया "सच्चाई" दिखाने में पहले की तरह स्वतंत्र है या कुछ साल पहले की तुलना में अधिक स्वतंत्र है। सर्वे किए गए लोगों में से केवल 30% सोचते हैं कि मीडिया पहले की तुलना में कम स्वतंत्र है और वहीं 27% की कोई राय नहीं है।
पत्रकारों के ख़िलाफ़ भारतीय सरकार द्वारा कई अदालती मामले दायर करने की पृष्ठभूमि में ये चौंकाने वाले निष्कर्ष सामने आए हैं। 43% और 27% को जोड़ दिया जाए और आप यह सोचने में शायद गलत नहीं होंगे कि सरकार अभी भी बिना किसी प्रतिक्रिया के डर के स्वतंत्र अभिव्यक्ति की आवाज़ बुलंद करने वालों को परेशान कर सकती है और दबाव बना सकती है।
स्वतंत्र होने के लिए, या…
45% हिंदू समाचार उपभोक्ताओं का कहना है कि मीडिया को पहले की तुलना में अधिक स्वतंत्रता मिली है, ऐसे में 33% मुसलमान और केवल 28% अन्य समुदाय (सिख और ईसाई शामिल एक श्रेणी) इस तर्क का समर्थन करते हैं। हालांकि, इन सभी तीन श्रेणियों में जिनकी कोई राय नहीं है उनमें प्रत्येक में 25% से अधिक लोग शामिल हैं। इससे पता चलता है कि वे भारत में घटती मीडिया स्वतंत्रता पर तीखे बहस में भी शामिल नहीं हैं।
इस मुद्दे पर स्थिति और भी निराशावादी हो जाती है कि क्या सरकार सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म और मैसेजिंग प्लेटफॉर्म की निगरानी करने के लिए नैतिक रूप से कितना सही है। क़रीब 45% सोशल मीडिया उपयोगकर्ताओं को लगता है कि सरकार ऐसा करने में सही है, भले ही इस स्थिति के साथ समझौते के अलग-अलग रुप हैं जिसका दायरा "पूरी तरह से सही" से लेकर "कुछ हद तक सही" या "सही, अगर सुरक्षा की बात की जाए तो" तक है। उनमें से केवल 40% लोग सोचते हैं कि यह "पूरी तरह से ग़लत" या "कुछ हद तक ग़लत" है। शेष 16% की कोई राय नहीं है।
सरकारी निगरानी के लिए "पूरे समर्थन" की गणना करने के बाद (अर्थात, इसे सही मानने वालों का अनुपात घटाकर इसे ग़लत मानने वालों के अनुपात की गणना करना) सीएसडीएस सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार, "सभी धार्मिक समुदायों में से, हिंदू सोशल मीडिया उपयोगकर्ता सरकार द्वारा सोशल मीडिया गतिविधियों की निगरानी के सबसे कम विरोधी/सबसे अधिक समर्थक हैं। मुसलमान अपेक्षाकृत कम समर्थक हैं और उनमें से कई ने इस मामले पर चुप रहने को तरजीह दिया है।” रिपोर्ट में कहा गया है कि सभी धार्मिक समुदायों में सिख निगरानी को सही की तुलना में ग़लत मानते हैं।
मीडिया इस्तेमाल के माहौल में जहां लोगों का एक बड़ा हिस्सा या तो उदासीन है या राज्य की निगरानी का समर्थन करता है, यह आश्चर्य की बात नहीं है कि वे सरकार के ख़िलाफ़ की गई राय पर भी आपत्ति व्यक्त करते हैं। सर्वेक्षण में उत्तरदाताओं से पूछा गया: "लोगों को सोशल मीडिया या व्हाट्सएप पर अपनी सरकार के बारे में जो कुछ भी महसूस होता है उसे कहने के लिए स्वतंत्र होना चाहिए, भले ही उनकी राय आपत्तिजनक हो। आप इस बात से सहमत हैं या असहमत?"
ख़ैर, ठीक है, चौंकाने वाले 45% सोशल मीडिया उपयोगकर्ताओं का कहना है कि उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए और 40% का कहना है कि वे ऐसा कर सकते हैं। यह कैसा लोकतंत्र है जहां सरकार के ख़िलाफ़ राय देने पर लोग ख़ुद आपत्ति जताते हैं?
फिर, जबकि 45% हिंदुओं और 44% ईसाइयों और सिखों का दावा है कि सोशल मीडिया और व्हाट्सएप राजनीतिक राय व्यक्त करने के लिए सुरक्षित स्थान हैं, केवल 37% मुसलमान सहमत हैं कि वे सुरक्षित हैं। शायद मुसलमानों की प्रतिक्रिया सरकार द्वारा उनके पोस्टों के लिए उन्हें लक्षित करने से काफ़ी हद तक प्रभावित होती है। इसका एक प्रमुख उदाहरण दिल्ली पुलिस का है जिसने मुस्लिम युवा नेताओं के एक समूह पर राजधानी में 2020 के दंगों को भड़काने की साजिश करने का आरोप लगाने के लिए व्हाट्सएप संदेशों पर भरोसा किया था। सीएसडीएस की रिपोर्ट, वास्तव में, कहती है, "कई मुसलमान भी इस सवाल पर चुप रहे और इस मुद्दे पर अपनी राय व्यक्त नहीं की।"
इंटरनेट बंद करना
क़रीब 40% हिंदू सोशल मीडिया उपयोगकर्ता सोचते हैं कि सरकार द्वारा सोशल मीडिया को विनियमित करने में कुछ भी ग़लत नहीं है। तुलनात्मक रूप से, केवल 31% मुसलमान और 34% अन्य धार्मिक समुदाय सरकारी हस्तक्षेप के पक्ष में हैं। ऐसा लगता है कि सिख मीडिया की स्वतंत्रता के पथ प्रदर्शक हैं, क्योंकि सीएसडीएस सर्वेक्षण रिपोर्ट में विशेष रूप से सोशल मीडिया को नियंत्रित करने वाले सरकार के विचार का कड़ा विरोध करने के लिए उनका उल्लेख किया गया है।
जो लोग इंटरनेट के आने से पहले बड़े हुए हैं, वे सोचते हैं कि वे क्या होते थे यदि अपनी युवा अवस्था के दौरान चर्चा में वर्ल्ड वाइड वेब तक उनकी पहुंच होती। उदाहरण के लिए, वे दुनिया भर में होने वाली चर्चा को देखते। या उन्हें अपनी जन्मजात प्रतिभा को निखारने के अधिक अवसर मिलते।
सीएसडीएस सर्वेक्षण से पता चलता है, बल्कि विडंबना यह है कि 47% सक्रिय इंटरनेट उपयोगकर्ता (सर्वेक्षण से पहले दो महीनों में किसी भी उद्देश्य के लिए इंटरनेट के उपयोग की पुष्टि करने वालों के रूप में परिभाषित) मानते हैं कि क़ानून और व्यवस्था के आधार पर सरकार को नेट बंद करने का अधिकार सही (अर्थात, सुरक्षा के आधार पर जिन्होंने पूरी तरह से सही कहा, कुछ हद तक सही कहा, या सही कहा) है। केवल 36% का कहना है कि वे इंटरनेट शटडाउन का समर्थन नहीं करते हैं।
इंटरनेट शटडाउन के प्रति दृष्टिकोण एक समुदाय से दूसरे समुदाय में अलग-अलग है। केवल 36 फ़ीसदी मुसलमान बंद का समर्थन करते हैं जबकि 49 फ़ीसदी हिंदू और 47 फ़ीसदी ईसाई और सिख ऐसा कर रहे हैं। यदि सीएसडीएस ने जम्मू-कश्मीर में भी अपना सर्वेक्षण किया होता, तो यह अंतर संभवतः बढ़ जाता, जहां के लोगों को इंटरनेट बंद होने से भारी नुक़सान हुआ है। इसके विपरीत, हिंदू शायद इंटरनेट बंद का समर्थन करते हैं क्योंकि उन्हें इसका लंबा अनुभव नहीं है।
हिंदू-मुस्लिम की राय भी अलग अलग सामने आती है। मुसलमानों से कहीं अधिक हिंदू उनके द्वारा देखे जाने वाले टीवी चैनलों, उनके द्वारा पढ़े जाने वाले समाचार पत्रों और उनके द्वारा देखे जाने वाले समाचार पोर्टलों पर भरोसा करते हैं।
हालांकि, एक बिंदु पर सभी धार्मिक समुदाय एकमत हैं। उन सभी का मानना है कि मोदी सरकार का मीडिया का वर्णन "अधिक अनुकूल" है। मीडिया भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में पक्षपाती है, यह बिना आधार के नहीं है। लेकिन इस अपवाद के लिए, मीडिया की सरकार की निगरानी पर धार्मिक अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यक समुदाय के रुख के बीच एक स्पष्ट अंतर है।
सरकार की कहानी
सीएसडीएस सर्वेक्षण रिपोर्ट व्याख्यात्मक नहीं है। फिर भी इससे कुछ व्यापक निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। धार्मिक अल्पसंख्यकों की तुलना में अधिक हिंदू सरकार में विश्वास व्यक्त करते हैं कि इसके पास इंटरनेट बंद करने, सोशल मीडिया को विनियमित करने और एक अराजक लेकिन लोकतांत्रिक स्थान को निगरानी में रखने के वैध कारण होने चाहिए। मीडिया की स्वतंत्रता और हमारे लोकतंत्र की गुणवत्ता हिंदुओं पर निर्भर है क्योंकि वे देश की आबादी का 80% हिस्सा हैं।
धार्मिक अल्पसंख्यक सरकार पर सवाल उठाते हैं क्योंकि उन्होंने, विशेष रूप से मुसलमानों ने अपने ऊपर निशाना बनाने वाले भाजपा के दुष्चक्र को सहन किया है। टीवी चैनलों और समाचार पत्रों के एक चुनिंदा समूह ने भाजपा की नफ़रत वाले बयानों को उठाया है, जो अक्सर नफ़रत की आग को भड़काती है। शायद यही वजह है कि मुसलमान मीडिया पर कम भरोसा करते हैं।
फिर भी हमें यहां एक चेतावनी देने की ज़रूरत है: जिस वर्ष मोदी सत्ता में आए यानी मई 2014 से मुसलमानों के अनुभवों को देखते हुए यह अभी भी आश्चर्यजनक है कि उनमें से 36% इंटरनेट बंद का समर्थन करते हैं; या कि उनमें से 37% को लगता है कि सोशल मीडिया और व्हाट्सएप राजनीतिक राय व्यक्त करने के लिए सुरक्षित स्थान हैं। ये सिर्फ़ वे स्थान हैं जो उनके ख़िलाफ़ नफ़रत से भरे हुए हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि हिंदुओं की तरह, उनका भी सरकार में स्थायी विश्वास है, जिससे उन्हें लगता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार पर अंकुश लगाने के लिए इसके पास उचित कारण होने चाहिए।
शायद बड़ी संख्या में भारतीय मानते हैं कि सरकार उनकी माई-बाप है, जो माता-पिता की तरह, बच्चों के कल्याण के लिए उसे बच्चों के साथ सख़्त होना चाहिए। यह रुख बताता है कि लोग ग़ैरक़ानूनी गतिविधियों की रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) जैसे कठोर क़ानूनों को लेकर सड़कों पर क्यों नहीं उतरते हैं, या सुप्रीम कोर्ट क्यों असंगत है, मनी लॉन्ड्रिंग रोकथाम अधिनियम को लेकर अलोकतांत्रिक संशोधनों के मामले में शोर शराबा नहीं होता है। या फिर असंतुष्टों को धड़ल्ले से जेल में बंद किए जाने के विरोध में लोग इतने उदासीन क्यों हैं।
हमारे लोकतंत्र को विशाल माना जाता है। यह केवल हाशिए के सामाजिक समूहों को लोकतांत्रिक प्रक्रिया में खींचे जाने और दशकों पहले उन्हें प्रतिनिधित्व की डिग्री हासिल करने से वंचित करने के विचार में है। विचारों और विचारधारा के मामले में हमारा लोकतंत्र अपरिपक्व है। यह निस्संदेह सीएसडीएस सर्वेक्षण का सबसे तकलीफ़देह हिस्सा है और शायद भारत के लोगों में लोकतांत्रिक भावना पैदा करने की दिशा में प्रयास करने की एक प्रेरणा है।
Courtesy: Newsclick