क्या बिहार के साढ़े तीन लाख से अधिक शिक्षकों के व्हाट्स एप करने से उनकी समस्या का समाधान हो जाएगा? कल सुबह से इन शिक्षकों ने मुझे ट्रोल करने का फैसला किया है। हज़ारों की संख्या में व्हाट्स एप पर मेसेज आए जा रहे हैं। जिन्हें पढ़ने और डिलिट करने में काफी वक्त लग जाएगा। मैं समझ सकता हूं कि इस वक्त वे परेशान हैं लेकिन मुझे क्यों परेशान कर रहे हैं, यह समझ से बाहर है। बिहार का मामला है। सभी हिन्दी अख़बारों ने उनकी ख़बर को विस्तार से जगह दी है। जब-जब उन्होंने संघर्ष किया है, धरना दिया है, उसका भी कवरेज़ हुआ है।
तो ऐसा नहीं है कि उनकी समस्या से सरकार, सांसद, विधायक या कोई राजनीतिक दल अवगत नहीं है। मैं डिबेट करता नहीं मगर गोदी मीडिया के फार्मेट ने उनके दिमाग़ में इतना गोबर भर दिया है कि अब शिक्षकों को भी ख़बर का मतलब डिबेट नज़र आता है। हम सभी को अब मीडिया का मतलब वही नज़र आने लगा जो मीडिया चाहता है। कायदे से इन शिक्षकों को हज़ारों की संख्या में मुझे मेसेज नहीं करना चाहिए था। दो चार लोग मेसेज करते रहते, उनता काफी था।
अब मैं जो उन्हें कहना चाहता हूं, उन्हें ध्यान से सुनना चाहिए। उन्हें देखना चाहिए कि इस मुद्दे को लेकर नैतिक बल और आत्म बल है या नहीं। गांधी को पढ़ना चाहिए। अगर उन्हें लगता है कि उनका मुद्दा सही है। नैतिकता के पैमाने पर सही है तो उन्हें सत्याग्रह का रास्ता चुनना चाहिए। बार-बार बताने की ज़रूरत नहीं है कि वे साढ़े तीन लाख से अधिक हैं। अगर हैं तो इनमें से एक-एक को गांधी मैदान में जमा हो जाना चाहिए और सत्याग्रह करना चाहिए। सत्याग्रह क्या है, इसके बारे में अध्ययन करना चाहिए। पांच हज़ार की रैली को नेता दिन भर ट्विट करते रहते हैं कि जन-सैलाब उमड गया है।
सोचिए,
अगर आपने लाखों की संख्या में जमा होकर सत्याग्रह कर दिया तो क्या होगा। यह फ़ैसला तभी करें जब सभी साढ़े तीन लाख शिक्षक सत्याग्रह के लिए तैयार हों। सत्याग्रह के लिए तभी तैयार हों जब उन्हें लगे कि उनके साथ अन्याय हुआ है। यह ध्यान में रखें कि उनकी बात को सुप्रीम कोर्ट ने सुना है। कमेटी बनवाई है। राज्य सरकार की कमेटी को भी शिक्षकों के साथ बात करनी पड़ी है। तो उनके पक्ष के बारे में भी सोचें और फिर भी लगता है कि यह ग़लत हुआ है तो मुझे मेसेज न करें।
किसी मीडिया को मेसेज न करें। बल्कि मैंने तो कहा है कि आप टीवी देखना बंद कीजिए। अख़बार पढ़ना बंद कीजिए। आपने अपने केस में देख लिया कि जब आप परेशान हुए तो इनके छापने और नहीं छापने से आपकी समस्या पर कोई फर्क नहीं पड़ा। इसलिए फर्क नहीं पड़ता है कि क्योंकि आपमें नैतिक बल और आत्मबल नहीं है।
नैतिक बल के लिए ज़रूरी है कि आप यह भी देखें कि आपमें योग्यता है या नहीं। आदर्श और योग्य शिक्षक बनने की पात्रता आपमें से दो चार में है या सभी में है। अगर आप सभी पूर्ण योग्यता और आदर्श से इस काम को कर रहे हैं, तो फिर आपमें नैतिक बल होना चाहिए। अगर आपकी बहाली रिश्वत देकर हुई है या आप पढ़ाने लायक नहीं है तो ऐसे लोगों को खुद ही पीछे हट जाना चाहिए। सिर्फ उन लोगों को सामने आना चाहिए जिनकी बहाली में किसी तरह की अपवित्रता नहीं हुई है। जिनकी योग्यता असंदिग्ध है। ऐसे शिक्षक शपथ लें। सामने आएं और सत्याग्रह पर बैठें। बाकी शिक्षक उनके सामने जाकर स्वीकार करें कि उन्होंने नौकरी के लिए अनैतिक रास्ता अपनाया। प्रायश्चित करें और फिर वे भी सत्याग्रह में शामिल हों। ऐसा करेंगे तो फिर कोई आप पर उंगली नहीं उठाएगा। आपकी सफलता निश्चित है।
इसलिए आप मीडिया में कवरेज देखकर व्हाट्स एप में सरकार को भला-बुरा कहने का सुख प्राप्त करना चाहते हैं। मैंने पुरानी ख़बरें सर्च की हैं। आप सभी ने ख़ूब मेहनत की है। धरना भी दिया है। सुप्रीम कोर्ट तक लड़ाई लड़ी है। मगर उसमें नैतिक बल और आत्म बल की कमीं नज़र आई है। आपकी संख्या अप्रांसगिक हो चुकी है। मैंने पिछले डेढ़ साल में यही जाना है कि किस तरह लोकतंत्र में संख्या अप्रासंगिक होती जा रही है। संख्या का मतलब सिर्फ सरकार बनाने के लिए ज़रूर सांसद और विधायक तक सिमट कर रह गया है। तो आप सरकार की नज़र में ज़ीरो हैं। ख़ुद को ज़ीरो बनाने में आपकी भी भूमिका है। जब आपकी तरह की समस्या से दूसरे समूह परेशान होते हैं तो आप उनकी ख़बरों को पढ़ते तक नहीं। उनसे सहानुभूति नहीं रखते। उनके संघर्ष में शामिल नहीं होते। यही काम वे भी आपके साथ करते हैं।
इस तरह हर संख्या चाहे वो हज़ारों में हो या लाखों में सिस्टम के सामने शून्य है। शून्य को संख्या की योग्यता हासिल करने के लिए नैतिक बल और आत्म बल की ज़रूरत है। आप सत्याग्रह करें। अख़बार और न्यूज़ चैनल बंद कर दें। मुझे मेसेज करना बंद कर दें। मुझे फोन करना बंद कर दें। मैं आपसे नाराज़ नहीं हूं। टीवी पर आने से कुछ नहीं होगा। सरकारों का दुस्साहस इतना बढ़ गया है कि वे अपना प्रतिनिधि ऐसे प्रश्नों के डिबेट में भेजते नहीं हैं। उन्हें भी आपकी ख़बर मालूम है। उन्हें यह भी मालूम है कि आपमें नैतिक बल नहीं है। एक दिन ख़बर छपने से न तो समाज पर फर्क पड़ता है और न सरकार पर। फिर भी आपकी ख़बरें काफी छपी हैं। ज़ाहिर है डिबेट या ख़बर आपकी समस्या का समाधान नहीं है। जो लिखा है, उसे बार बार पढ़िए। आप मेरी बात समझ पाएंगे।
मेरा यह पत्र अपने सभी व्हाट्स एप ग्रुप में पहुंचा दें। निवेदन है कि मुझे हज़ारों की संख्या में मेसेज न करें। यह अशिष्टता है। मैं आपकी परेशानी से सहानुभूति रखता हूं। टीवी में डिबेट की चाह बहुत आलसी चाहत है। किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैट को याद करें। वे ऐसे ही जमा हो जाते थे। सरकारें हिल जाती थीं। सत्याग्रह करें। सरकार भी आएगी और मीडिया भी। मीडिया को दूर रखें अपने संघर्ष से। तभी नैतिक बल विकसित होगा। आप सफल होंगे।