हिन्दी मीडिया के डिटेंशन सेंटर में बंद हैं हिन्दी प्रदेशों के नौजवान, असम और कश्मीर पर चर्चा ही कहां हैं

Written by Ravish Kumar | Published on: September 1, 2019
सूचना और ज्ञान के सार्वजनिक महत्व के मामलों में हिन्दी प्रदेश अभिशप्त हैं। मीडिया के ज़रिए इस प्रदेश को अ-सूचित रखा जाता है। आप हिन्दी के चैनलों और अख़बारों के कंटेंट का विश्लेषण कर सकते हैं। बल्कि ख़ुद ही चेक कीजिए तो अच्छा रहेगा। कश्मीर में इतनी बड़ी घटना हो गई मगर हिन्दी मीडिया की मुख्यधारा ने उसे बहुलता और विवधता के साथ पाठकों के सामने नहीं रखा। किसी को कश्मीर पर कुछ पता नहीं है लेकिन सबके पास हां या ना में राय है। वही हाल असम को लेकर। हिन्दी मीडिया में असम को लेकर कितनी रिपोर्टिंग है? आप जिन अख़बारों को रोज़ सुबह उठ कर पढ़ते हैं क्या उनका संवाददाता महीने भर से या साल भर से नागरिकता के मसले को कवर कर रहा है? ज़ाहिर है हिन्दी प्रदेश के पाठकों का राजनीतिक स्तर भीड़ और हंगामा से ही ऊपर उठता और गिरता रहता है। मैं बाकी प्रदेशों का नहीं जानता। हो सकता है वहां भी यही हाल हो।



असम जैसा राज्य इतनी बड़ी मानवी त्रासदी से गुज़र रहा है लेकिन कहीं कोई गंभीरता और निरंतरता के साथ रिपोर्टिंग नहीं है। एक फैक्ट्री में बनी हुई राय सबके बीच बांट दी गई है। मूर्खता का आलम यह है कि मनोज तिवारी दिल्ली में बयान देते हैं कि यहां भी नेशनल रजिस्टर की गिनती हो। वो उस राजनीति का बीज बो रहे हैं जो असम में बोया गया। जिससे निकलने की छटपटाहट में वहां का हिन्दू और मुसलमान दोनों आक्रांत है। दोनों बांग्लादेशी और बाहरी की बनाई गई राजनीतिक छवि से निकलना चाहते हैं। नतीजा सब नेशनल रजिस्टर केंद्र के बाहर लाइन में लग गए और उस त्रासदी के कंवेयर बेल्ट पर चढ़ गए जिसे बीजेपी के ही नेता बेकार बता रहे हैं।

यह सारी राजनीति हिन्दी प्रदेशों की अज्ञानता की ताकत पर हो रही है। क्यों चुप्पी है यूपी और बिहार में? क्योंकि जानकारी नहीं है। जानकारी में विविधता नहीं है। यहां के नौजवानों को पढ़ने के नाम पर घटिया स्कूल और कालेज दिए गए। पढ़ाई के नाम पर सिस्टम ने धोखा दिया और नौजवानों ने ख़ुद के साथ धोखा किया। नौकरी के नाम पर कोचिंग सेंटरों में फेंके गए प्लास्टिक पोलिथिन के बैग की तरह बजबजाते नज़र आ रहे हैं। किताब के नाम पर गाइड बुक है। नौकरी के नाम पर सरकारों का इनसे धोखा है। नतीजा वो गाइड बुक और अपने हिन्दी अख़बारों और चैनलों से जो कुछ भी जानते हैं वो सिर्फ राजनीति का दिया हुआ हां या ना जानते हैं। हिन्दी प्रदेशों की दैनिक सूचना पर आधारित बौद्धिकता के पतन का नुकसान इन प्रदेशों को भी हो रहा है और देश को भी। क्योंकि सत्ता के लिए वोट यहीं पर है। यहां के नौजवानों की बौद्धिकता का अपमान रोज़ न्यूज़ चैनलों के द्वारा किया जा रहा है। आज न कल इन नौजवानों को हिन्दी मीडिया के फैलाए अंधकार से बाहर आने के लिए आंदोलन करना ही होगा। जब देश घोर मंदी से गुज़र रहा तब न्यूज़ चैनल का एंकर परमाणु हमले के उससे बचने और किताब पढ़ने जैसी राय दे रहा होता है। समस्या से लगातार शिफ्ट करने की यह राजनीति हिन्दी प्रदेशों के युवा नहीं समझेंगे तो किसी लायक नहीं रहेंगे। वे सिर्फ भीड़ के लायक ही बचे रह जाएंगे।

सभी हिन्दी पाठकों से आग्रह करूंगा कि आप एक घंटे के लिए SCROLL.IN की वेबसाइट पर जाएं। वहां पर THE FINAL COUNT के नाम से बने लिंक चटकाएं। शोएब दनियाल,अरुणाभ सैकिया, नित्या सुब्रमण्यिन,रोहिणी मोहन, इप्शिता चक्रवर्ती की रिपोर्टिंग बता रही है कि इस प्रक्रिया के कारण आम लोगों पर क्या बीती है। स्क्रोल की तरफ से ज़्यादातर रिपोर्टिंग अरुणाभ सैकिया ने की है। आप एक एक कहानी पढ़ें। तभी आप समझ सकेंगे कि असम के सवालों को लेकर यह साइट अपने पाठकों को कितनी गंभीरता से शिक्षित कर रहा है। The Wire की संगीता बरुआ पिशारोती की रिपोर्ट पढ़िए। एनडीटीवी के रत्नदीप चौधरी भी लगातार रिपोर्ट कर रहे हैं। बीबीसी हिन्दी की प्रियंका दुबे की रिपोर्ट है। आप टेलिग्राफ में भी असम की रिपोर्टिंग देख सकते हैं। फिर आप अपने हिन्दी अख़बारों और चैनलों की रिपोर्टिंग देखिए। वो क्या बोल रहे हैं, कितना बोल कर समय भर रहे हैं, उन सबका हिसाब लगाइये, आपको पता चलेगा कि आप यानि हिन्दी प्रदेश की जनता अपनी जेब से पैसा देकर हिन्दी मीडिया से अंधेरा ख़रीद रहे हैं। स्क्रोल की पूरी टीम को शानदार बधाई।

1985 में केंद्र की राजीव गांधी सरकार और ऑल असम छात्र संघ(आसू) के बीच समझौता हुआ था कि 1951 में बने नेशनल रजिस्टर आफ सिटिजन को अपडेट किया जाएगा। इसके लिए 27 मार्च 1971 के बाद आए लोगों को छांटा जाएगा। 2010 में असम की कांग्रेस सरकार ने पायलट प्रोजेक्ट किया मगर हिंसा के कारण टाल दिया। इसके बाद 2013 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर यह काम शुरू हुआ न कि केंद्र और राज्य सरकार की पहल पर। सुप्रीम कोर्ट ही इसकी निगरानी कर रहा है। 31 अगस्त को जो अंतिम सूची आई है उससे मिला क्या ? असम की राजनीति बाहरी बाहरी के नाम पर होती रही जिसे बीजेपी ने बदल कर बांग्लादेशी घुसपैठिया कर दिया ताकि सिर्फ मुसलमानों को निशाना बनाया जा सके और हिन्दू बंगालियों को नागिरकता दे दी जाए। इसीलिए केंद्र सरकार नागरिता संसोशधन कानून लेकर आई मगर असम में मूलनिवासियों के विरोध और विद्रोह को देखते हुए टाल दिया गया। अमित शाह ने कहा है कि यह बिल उनकी प्राथमिकता में है। क्या वो इस बिल को कश्मीर की तरह रातों रात लाना चाहेंगे? या टालने का बहाना खोजते रहेंगे?

नेशनल रिजस्टर ऑफ सिटिज़न के लिए 3 करोड़ 30 लाख ,27,661 लोगों ने आवेदन किया था। इसमें से 3,11,21,004 लाख नागरिक सूची में आ गए हैं। मात्र 6 फीसदी बाहर हुए। 19,06,657 लोग बाहर रह गए हैं। इनमें कितने हिन्दू और मुसलमान हैं कहा तो नहीं जा सकता मगर दोनों हैं। नेशनल रजिस्टर को लेकर शेष भारत खासकर हिन्दी प्रदेशों में भ्रम फैलाया गया कि यह मुसलमानों के खिलाफ है। बांग्लादेशी घुसपैठियों के खिलाफ है। जब जुलाई 2018 में अस्थायी सूची निकली तो लाखों की संख्या में यूपी बिहार से असम गए भोजपुरी वासी भी बाहर हो गए। अंतिम सूची में भी कई बंगाली हिन्दू हैं और मुसलमान भी हैं। किसी के पिता का नाम है तो मां का नहीं। किसी की मां का नाम है तो बेटी नहीं। मानवीय त्रासदी का अंबार लगा है वहां। आप हिन्दी प्रदेश के पाठकों को हिन्दी मीडिया की मुख्यधारा ने गोबर समझ रखा है। इस त्रासदी के डिटेल से वंचित कर दिया है। तभी आपके बीच आकर कोई भी नेता बोल जाता है कि यहां भी नेशनल रजिस्टर होगा।

स्क्रोल की कई रिपोर्टिंग को पढ़कर लगता है कि रजिस्टर को लेकर मुसलमानों के ख़िलाफ जो धारणा बनाई गई वो ठीक नहीं है। इससे सभी परेशान हुए हैं। हर रिपोर्ट में आपको पता चलेगा कि इतनी बड़ी कार्रवाई कैसे हो रही है। कोई अनजान आपत्ति कर जाता है, लोग दस्तावेज़ लेकर पहुंच रहे हैं तो आपत्ति करने वाला भाग गया है। सूची प्रकाशित होती है तो आपत्ति सही मान ली जाती है। असली समस्या फोरेनर ट्रिब्यूनल को लेकर है। उसके कई फैसलों पर सवाल उठे हैं। करगिल युद्ध में लड़ने वाले समानुल्लाह को भी विदेशी घोषित कर दिया गया था। इस ट्रिब्यूनल के ज़्यादातर फ़ैसले मुसलमानों के ख़िलाफ़ नज़र आते हैं। इसे लेकर लोग ज़्यादा आशंकित हैं।

असम के मूल निवासियों की मांग थी कि उनके इलाके का लैंड स्केप बाहरी लोगों से बदल गया है। उनके लिए बाहरी का बंटवारा हिन्दू या मुसलमान के नाम पर नहीं था। बंगाली भाषी, हिन्दी भाषी और कुछ हद तक नेपाली भाषी के ख़िलाफ़ उनकी मांग थी। अब बीजेपी इसमें कूदती है और बांग्लादेशी घुसपैठियों की राजनीति ले आती है ताकि बिना मुसलमान कहे, मुसलमानों को निशाना बनाया जा सके। लेकिन जब रजिस्टर की अंतिम सूची प्रकाशित हुई तो बड़ी संख्या में हिन्दू बंगाली भी बाहर हो गए हैं। मूलनिवासी भी सदमे में होंगे कि जिन लोगों को वे बाहरी समझते रहे उनमें से ज्यादातर अब स्थानीय हैं। उनके लिए बंगाली हिन्दू और मुसलमान दोनों बाहरी हैं जो 1971 के बाद आए हैं लेकिन मिले कितने, मात्र 19 लाख। उसमें से भी बंगाली हिन्दुओं को केंद्र सरकार नागरिकता दे देगी तो बचेंगे ही कितने। बीजेपी ने घुसपैठियों के नाम पर क्या क्या नहीं कहा। असम में 40 लाख घुसपैठियां हैं। दिल्ली और राजस्थान मे भी रजिस्टर की बात हो रही है। जैसे पूरा बांग्लादेश भारत आ गया हो। भले ही बीजेपी नागरिकता कानून के ज़रिए इन्हें नागरिक बना दे लेकिन असम के मूलनिवासियों में यह बात हमेशा के लिए रह जाएगी कि उन पर यह थोपा गया है। ज़ाहिर है इस समस्या का सांप्रदायिक राजनीतिकरण असम को आने वाले समय में भी परेशान करता रहेगा। अगर

स्क्रोल पर सारा डिटेल है। भारत ने औपचारिक रूप से इस मसले पर बांग्लादेश से बात नहीं की है। नेशनल रजिस्टर की अंतिम सूची आने से पहले विदेश मंत्री जयशंकर बांग्लादेश गए थे, उन्होंने कोई बात नहीं की। उन्होंने कहा कि नेशनल रजिस्टर आंतरिक मामला है। बांग्लादेश कहता रहा है कि उसका यहां से घुसपैठ नहीं हुई है। ये उसके नागरिक नहीं हैं। फिर ये लोग पहचान के बाद कैसे भेजे जाएंगे। अगर सरकार सीरीयस थी तो बांग्लादेश से बात क्यों नहीं की। इसी जुलाई में गृहमंत्री अमित शाह कहते हैं कि अंतर्राष्ट्रीय कानून के हिसाब से जो भी भारत का नहीं है, उसे उस देश में भेजा जाएगा। लेकिन बांग्लादेश के साथ ऐसी कोई संधि आज तक नहीं हुआ। नए डिटेंशन सेंटर बनाए जा रहे हैं। यह देखना कितना भयावह होगा कि इस तरह के केंद्र में लोगों को रखा जाएगा। वसुधैव कुटुंबकम कहने वाले देश में अपने ही लोगों के साथ ऐसा होता रहे, यह उस हिन्दी प्रदेशों के कभी बुरा नहीं लगेगा जिसके सोचने समझने की शक्ति और संवेदनशीलता हिन्दी मीडिया और सांप्रदायिक राजनीति के ज़रिए ख़त्म कर दी गई है।

दरअसल डिटेंशन सेंटर में अगर कोई है तो ये हिन्दी प्रदेश हैं। इनके युवा हैं। जब तक हिन्दी प्रदेशों के युवा ख़ुद को इस मीडिया और राजनीति के डिटेंशन सेंटर से नहीं निकालेंगे उनके भीतर कभी उजाला नहीं आएगा। वे हमेशा हमेशा के लिए अभिशप्त रहेंगे। अपनी संकीर्णता को महानता समझते रहेंगे। इसलिए ज़रूरी है कि हिन्दी प्रदेशों के नौजवान अपने घरों से इन अख़बारों को फेंक दें। चैनलों का कनेक्शन कटवा दें जो उन्हें बोगस जानकारियों के डिटेंशन सेंटर में रखने का तंत्र बना चुके हैं। मैं भी जानता हूं कि आप बग़ैर सूचना के नहीं रह सकते। कोई नहीं रह सकता। लेकिन इनमें तो सूचना है ही नहीं। आप इन अख़बारों को फेंकेगे तो इनकी जगह अच्छा अख़बार आएगा। अच्छे चैनल आएंगे। अंधेरे से निकलने की ज़रूरत आप नौजवानों को है। अच्छी पत्रकारिता के लिए आपको हर दिन की आदत और आलस से निकलना ही होगा। हिन्दी मीडिया के इस मौजूदा स्वरूप को ठुकराना ही होगा। उनके बनाए डिटेंशन सेंटर से निकलना ही होगा। कल नहीं, बल्कि आज से निकलना होगा। आप इनके कुछ अच्छे कामों के अपवाद पर मत जाइये, उस घाव और मवाद को देखिए जो रोज़ ये बना रहे हैं, फैला रहे हैं।

जय हिन्द।

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