बिहार की आशा और आंगनवाड़ी वर्करों की आशा

Written by Ravish Kumar | Published on: December 28, 2018
प्रणाम सर,



"मेरी माताजी बिहार में आँगनवाड़ी सेविका हैं। उन्हें पिछले 12 महीने से मानदेय नहीं मिला है। मानदेय की राशि मात्र 3000 रुपये केंद्र सरकार की ओर से तथा मात्र 750 रुपये बिहार सरकार की ओर से है (कुल 3750 रुपये)। इसी तरह 2016 में भी 8 महीने मानदेय नहीं दिया गया था। माँ की कमाई के वो 3000 रुपये उनके लिए बड़ी बात है, आजीवन काम कर अपना गुज़ारा चलाने की अभ्यस्त रही हैं। सरकारी आँकड़ों के अनुसार बिहार में क़रीब 81000 आंगनवाड़ी केंद्र हैं, और उनमें 1 सेविका और 1 सहायिका कार्यरत हैं। क्या सेविकाओं का 3750 और सहायिकाओं का करीब 2000 ही इतनी बड़ी रक़म है, जिसे हर महीने न देने से सरकारी खज़ाना भर जाएगा और उससे विज्ञापन होगा?

सरकार इतना कम मानदेय देना तय करने के बाद इन मजबूर महिलाओं से बेगारी क्यों करवा रही है? क्या इसलिए क्योंकि यह महिलाएँ वहां हो रहे भ्रष्टाचार पर कभी आवाज़ नहीं उठा सकेंगी? उसके बाद यह दावा कर सको कि मेरी सरकार में 1 रुपया चलता है तो पूरा 1 रुपया पहुँच जाता है? चुनाव आने से पहले ढपोरशंख की तरह मानदेय बढ़ा कर 4500 भी कर दिया गया है। जबकि इसे 1 लाख किया जाना चाहिए था।"

बिहार की एक आंगनवाड़ी सेविका की बेटी का पत्र आया है। मैं सोच रहा था कि इस पत्र को आपके सामने कैसे रखूं। इतने मामूली पैसे से कोई महिला अपने वजूद की रक्षा कर पाती है, तो यह पैसा कितना मायने रखता होगा। स्टेट की समीक्षा की ज़रूरत आ पड़ी हैं। हमारी राज्य व्यवस्थाएं सड़ गईं हैं। उनके भीतर संभावनाओं का विस्तार नहीं हो रहा है।

प्राइम टाइम में दो बार आशा वर्कर पर विस्तार से कार्यक्रम किया है। मालूम नहीं, सामान्य दर्शकों की जनता के अपने हिस्से से हो रही नाइंसाफ़ी को लेकर कितना दर्द होता होगा। फिर भी हमने इसलिए दिखाया कि कोई देखे न देखे, पर्दे पर अपना ही दर्द देखिए। ज़माना हमदर्द नहीं है तो क्या हुआ। अब एक दूसरा पत्र पढ़िए। मैं क्यों कहता हूं कि भारत का मीडिया अर्जित लोकतंत्र को बर्बाद करने पर तुला हुआ है। यह पत्र आशा वर्करों से संबंधित है।

“रवीश सर. बिहार की आशा करीब एक महीने से प्रदर्शन कर रही हैं. एक महीने से टीकाकरण और स्वास्थ्य विभाग की पूरी व्यवस्था बुरी तरह चौपट है. वहां की लोकल मीडिया बिल्कुल इस ख़बर को नहीं दिखा रहे. लोकल पत्रकार अख़बारों में ख़बर छापने के लिए 500 रुपए मांगते हैं. पटना में दो दिनों तक 40 हज़ार आशाओं का प्रदर्शन हुआ था. लेकिन, मुख्यमंत्री या उनके किसी प्रतिनिधि ने इनकी ख़बर नहीं ली. जिला प्रशासन ने प्रदर्शन करने वाली आशाओं पर एफ़आईआर करने का आदेश दिया है. मैंने इस पर कुछ रिपोर्ट की है, लेकिन हमारे ख़बर का कोई असर नहीं हो रहा. आप प्लीज़ Primetime में एक बार इनके प्रदर्शन का ज़िक्र कर दें, बड़ी मेहरबानी होगी.”

बिहार में आशा वर्कर 1 दिसंबर से हड़ताल पर हैं। पटना में अब धरना-प्रदर्शन गर्दनीबाग़ इलाक़े में होता है। 12 और 13 दिसंबर को राज्य भर की आशा वर्कर जमा हुई थीं। अब वहां से हट कर राज्य भर के सदर अस्पतालओं और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में उनका प्रदर्शन चल रहा है। 27 दिसंबर को आशा वर्कर ने राज्य भर में रेल-चक्का जाम किया था। नेशनल न्यूज़ चैनलों का अब कोई कुछ नहीं कर सकता है। वहां हिन्दू मुस्लिम और सरकार का प्रोपेगैंडा ही चलेगा। जनता का मुद्दा नहीं चलेगा। चैनलों के ज़रिए मुद्दों के होने वाले खेल को समझने की योग्यता आम पत्रकारों में नहीं है, जनता से क्या उम्मीद करें। खुद हम लोगों को इनका गेम समझने में कई साल लग गए। क्या हम वो दिन देखने जा रहे हैं कि जनता मीडिया के सामने गिड़गिड़ा रही है कि हमारा दिखा दो, हमारा छाप दो, तुम्हीं माई बाप हो। ईश्वर करे ये दिन न आए।

बहरहाल, आशा वर्करों का काम बेहद महत्वपूर्ण है। हमें बताया गया है कि अस्पतालों में डॉक्टर उसे तू तड़ाक करके बातें करते हैं। शर्मनाक है। गर्भवती महिलाओं को अस्पताल तक ले जाने का काम भी आशा वर्कर करती हैं। एक डिलिवरी के 600 मिलते हैं। नसबंदी कराने के 150। मगर कभी भी इन्हें 1500 रुपये से अधिक नहीं मिलता वो भी समय से नहीं मिलता है।सोचिए किसी का इतने कम पैसे में कैसे चलता होगा। बिहार में कई बार बढ़ाने के नाम पर आशा सुपरवाइज़रों की राशि बढ़ा दी जाती है। जिनके नीचे कई सारी आशा वर्कर होती हैं। इन्हें भी कम मिलता है। 4000-5000 से अधिक नहीं मिलता है। अलग-अलग राज्यों में आशा वर्करों को अलग-अलग वेतन मिलता है।

इनकी मांग है कि सरकारी कर्मचारी घोषित किया जाए और सैलरी 18000 की जाए। प्रधानमंत्री ने अक्तूबर में दो हज़ार प्रोत्साहन राशि का एलान किया था जो बहुतों को मिला ही नहीं। इनकी एक मांग यह भी है कि प्रोत्साहन राशि की नौटंकी बंद की जाए। इसकी जगह सैलरी दी जाए। आप इन तस्वीरों में देख सकते हैं कि आशा वर्कर एकजुट होकर प्रदर्शन कर रही हैं। यहां मीडिया नहीं है। कहीं खबर छपी भी होगी तो किसी किनारे में। मीडिया को लोकतंत्र का प्रहरी कहा जाता है मगर आप देख सकते हैं कि मीडिया के बग़ैर लोकतंत्र धड़क रहा है। बल्कि मीडिया वहां है ही नहीं जहां लोक अपने तंत्र से सवाल पूछ रहे होते हैं।

बाकी ख़बरें