गॉव आत्मनिर्भर होते तो, प्रधानमंत्री को माफी नहीं मांगनी पड़ती

Written by Ravikant Singh | Published on: April 10, 2020
जब दुनिया में कोरोना के खौफ से लोग जिन्दगी और मौत की जंग लड़ रहे हैं। और नागरिक अपनी- अपनी सरकारों की आज्ञा का पालन कर रहे हैं। ऐसे समय में भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ‘मन की बात’ कर रहे हैं। उनके ‘मन की बात’ देश के नागरिक शुरु से सुनते व मानते रहे है। लेकिन प्रधानमंत्री ने कभी ‘जन की बात’ नहीं सुनी। आरोप है कि ‘जन की बात’ को सुनाने का जो माध्यम है उस पर, प्रधानमंत्री मोदी का ही कब्जा है।




यह आरोप सत्य इसलिए भी माना जा सकता है कि बीजेपी के सांसद, प्रधानमंंत्री से संसद में सवाल-जबाब नहीं करते हैं। जनता ने अपनी आवाज संसद में उठाने के लिए जिन सांसदों को चुना है वे, केवल सरकार के अच्छे-बूरे फैसलों पर सहमति देते रहे हैं। सांसदों के पास ग्रामीण विकास से जुड़ा उनका अपना विजन (नजरिया) प्रश्नोत्तरों में शामिल नहीं होता है। जबकि दो तिहाई सांसद न केवल ग्रामीण पृष्ठभूमि से है बल्कि, ग्रामीण क्षेत्रों के मतदाताओं द्वारा चुने गये हैं। ‘जन की बात’ करने वाली मीडिया अधिकांश समय प्रायोजित खबरों और बकवास की बातों पर गम्भीर रही वो इसलिए की, प्रधानमंत्री के ‘मन की बात’ जनता पर बेअसर न हो जाय।

‘मन की बात’ में अज्ञानतावश प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी ने जरुरतों की बात भी कर दी है। उन्होंने कहा कि ‘‘कोरोना वैश्विक महामारी से आया हुआ ये भयंकर संकट है। ऐसे में, मैं और कुछ बातें करुं वो उचित नहीं होगा। लेकिन सबसे पहले सभी देशवासियों से क्षमा मांगता हूं। और मेरी आत्मा कहती है कि आप मुझे जरुर क्षमा करेंगे। क्योंकि कुछ ऐसे निर्णय लेने पड़े हैं। जिसकी वजह से आपको कई तरह की कठिनाईयां उठानी पड़ रही है।’’

उपरोक्त बातों से पता चलता है कि हताशा और निराशा ने प्रधानमंत्री के मन को घेर रखा है। क्या इस हताशा और निराशा का कारण महामारी कोरोना है? या जनहित की वे जरुरतें, जिसे प्रधानमंत्री पुरी करने में असमर्थ साबित हुए हैं। देश में इतने पापाचार हुए लेकिन आज तक प्रधानमंत्री को ‘द्रष्टा’ ने माफी मांगते हुए नहीं देखा है। प्रधानमंत्री बुद्धिमान है उनको ऐहसास हुआ होगा कि लॉक डाउन के दौरान सरकारी अव्यवस्था ने सीधा गरीब मेहनतकश मजदूरों के दिलों पर घाव किया है। उनसे माफी मॉंग लेने में ही सरकार की भलाई है। इसलिए, प्रधानमंत्री ने कहा कि विशेष रुप से मेरे गरीब भाईयों से क्षमा मांगता हूँ।

 ग्रामीण विकास के नाम पर प्रधानमंत्री मोदी की ‘मन की बात’ उसी तरह बेमानी साबित हुयी जिस तरह, उन्होंने कोरोना को खत्म करने लिए जनता से घंटी बजवाया और थाली पीटवाया। बहरहाल, इन बेकार की बातों के लिए अब समय अनकूल नहीं है। तथ्य ये है कि परिस्थितिया असामान्य दिखाई दे रही हैं। और प्रधानमंत्री ने भी कहा है कि आने वाले कई दिनों तक स्थिति गम्भीर रहने वाली है।

‘द्रष्टा’ ‘समय की बात’ करता रहा है। जिसमें ‘मन की बात’ और ‘जन की बात’ शामिल है। दुनिया में हर व्यक्ति का पेट भरने लायक पर्याप्त भोजन मौजूद होने के बावजूद आज हर नौ में से एक व्यक्ति भूखा रहता है। इन लाचार लोगों में से दो-तिहाई एशिया में रहते हैं। अगर हमने दुनिया की आहार और कृषि व्यवस्थाओं के बारे में गहराई से नए सिरे से नहीं सोचा तो अनुमान है कि 2050 तक दुनियाभर में भूख के शिकार लोगों की संख्या दो अरब तक पहुँच जाएगी। दुनियाभर में, विकासशील क्षेत्र में अल्पोषित लोगों की संख्या में 1990 से लगभग आधे की कमी आई है। 1990-1992 में यह 23।3% थी जो 2014-2016 में 12।9% रह गई। किंतु 79।5 करोड़ लोग आज भी अल्पपोषित हैं।
खेती दुनिया में रोजगार देने वाला अकेला सबसे बड़ा क्षेत्र है

दक्षिण एशिया पर भुखमरी का बोझ अब भी सबसे अधिक है। 28।1 करोड़ अल्पपोषित लोगों में भारत की 40 प्रतिशत आबादी शामिल है। हम अपना आहार कैसे उगाते और खाते हैं इस सबका भूख के स्तर पर गहरा असर पड़ता है, पर ये बात यहीं खत्म नहीं हो जाती। अगर सही तरह से काम हो तो, खेती और वन विश्व की आबादी के लिए आमदनी के अच्छे स्रोत, ग्रामीण विकास के संचालक और जलवायु परिवर्तन से हमारे रक्षक हो सकते हैं।

खेती दुनिया में रोजगार देने वाला अकेला सबसे बड़ा क्षेत्र है, दुनिया की 40% आबादी और भारत में कुल श्रमशक्ति के 54।6% हिस्से को खेती में रोजगार मिला है। देश की आधी से अधिक आबादी को रोजगार देने के बावजूद भारत के जीडीपी में कृषि क्षेत्र का योगदान मात्र 15% है। भारत सरकार ने सिंचाई, फसल बीमा और बेहतर किस्मों के मामले में कदम उठाकर खेती को मजबूत करने को प्राथमिकता दी है।

भारत सरकार पूरी दुनिया से यह उपरोक्त जानकारी साझा करता है। लेकिन यह केवल कागजी तथ्य है, व्यवहारिक सत्य उद्देश्यों से दूर है। यदि गॉवों से शहरों की ओर हो रहे लगातार पलायन सरकार की प्राथमिकता होती तो, कोरोना जैसी महामारी से मरने के लिए यूं मजदूर गाजियाबाद की सड़कों पर इकठ्ठा न होते। वह गॉवों में ही खेती और रोजगार कर जिविकोेपार्जन कर रहे होते। और कुछ रुपये दान देकर अमीर उनकी खुद्दारी को यूं जलील न करते। अमीरों को विदेशों से लाने के लिए देश की हुकुमत सारी ताकतें लगा देती है और गरीब मजदूर को अपने ही देश में घर जाने के लिए सैकड़ों किमी पैदल चलने के लिए मजबूर होना पड़ता है। शायद, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इसी अव्यवस्था से हताश और निराश हैं।

सरकार ने 2030 तक भुखमरी मिटाने और सभी लोगों, विशेषकर गरीब और शिशुओं सहित लाचारी की स्थिति में जीते लोगों को पूरे वर्ष सुरक्षित, पौष्टिक तथा पर्याप्त भोजन सुलभ कराने की व्यवस्था करने की बात कही है।

‘द्रष्टा’ नकारात्मक बात बिल्कुल नहीं करना चाहता है। 2030 से पहले भी भारत सरकार उपरोक्त लक्ष्य हासिल कर सकती है। इसकी एक ही शर्त है कि सरकार, ‘पंचायती राज’ व्यवस्था को मजबूत करे। नहीं तो, उपरोक्त लक्ष्य तय समय में सरकार हासिल नहीं कर सकती है। ‘पंचायती राज’ व्यवस्था में महात्मा गॉंधी के ग्राम स्वराज की संकल्पना की झलक है। गॉंवों को आत्मनिर्भर बनाने के उद्देश्य से बनी ‘पंचायती राज’ व्यवस्था देश की धड़कन है।

बोलने के अलावा प्रधानमंत्री मोदी ने व्यवहारिकता में पंचायती राज की भ्रष्टाचार रुपी महामारी को खत्म करने में सफल नहीं हुए हैं। पंचायती राज चहुंमुखी विकास की विकेन्द्रित व्यवस्था है। पंचायती राज में गॉंवों को अपनी व्यवस्था अपनी जरुरतों के हिसाब से बनाने की जिम्मेदारी दी गयी है। 1992 में संविधान में 73 वॉं संशोधन करके तृस्तरीय पंचायत को संवैधानिक संस्था का दर्जा दे दिया गया। इसमें मोटे तौर पर कहा गया कि गॉंव के लोग अपनी जरुरतों के हिसाब से विकास योजनाएं तैयार करेंगे। और विकास कार्यों को पूर्ण करने के लिए सरकार धन से सहयोग करेगी। लेकिन स्वार्थी भ्रष्ट अधिकारियों ने गॉव की व्यवस्था को अब तक अपने हिसाब से ही चलाते रहे हैं।  

10 और 24 वर्ष की आयु के बीच 36 करोड़ से अधिक युवाओं के साथ भारत में दुनिया की सबसे युवा आबादी निवास करती है। इस जनांककीय लाभ के उपयोग पर ही देश के लिए संपन्न और जानदार भविष्य की रचना का सारा दारोमदार है। भारत में श्रम शक्ति हर वर्ष 80 लाख से अधिक बढ़ जाने का अनुमान है और इस देश को अब से लेकर 2050 तक 28 करोड़ रोजगार जुटाने की जरूरत होगी, किन्तु उच्चतर शिक्षा में भारत का सिर्फ 23% का सकल भर्ती अनुपात दुनिया में सबसे कम अनुपातों में से एक है।

भारत में कुल श्रमशक्ति के 54।6% हिस्से को खेती से रोजगार मिलता है और जीडीपी में कृषि क्षेत्र का योगदान केवल 15% है। इसका मतलब साफ है कि सरकारों का ध्यान कृषि और किसानों पर नहीं है। देश की नब्ज को टटोलने वाली ऐसी संस्थाओं की अनदेखी और सांसदों में जागरुकता की कमी, चहुंमुखी विकास की प्रमुख बाधा है। ‘पंचायती राज’ व्यवस्था काम कैसे करती है? किन उद्देश्यों के लिए क्रांतिकारी नेताओं ने इसकी संरचना की? सरकार की ‘पंचायती राज’ में भूमिका कितनी है? इन प्रश्नों का उत्तर व्यवहारिकता में मजदूरों व किसानों तक प्रदर्शित करने के लिए सरकार ने कभी गम्भीरता से नहीं लिया। जिसका परिणाम है कि ‘मन की बात’ में मुसीबत के समय गरीब जनता से माफी मांग रहे है। प्रधानमंत्री मोदी ‘जन की बात’ करते तो शायद, माफी मांगने की आवश्यकता न पड़ती।

अब भी समय है प्रधानमंत्री जी , गाँवालों को गांव की जरूरतों के हिसाब से योजनाएं और नीतियां बनाने दें । ग्राम पंचायत को गैर जरुरी अधिकारी तंत्र से मुक्त कर प्रशासनिक  व्यवस्था को विकेन्द्रित करें और विकास का मुख शहरों से गॉवों की ओर मोड़ दें तो, राष्ट्रीय कौशल विकास मिशन, दीन दयाल उपाध्याय अंत्योदय योजना, राष्ट्रीय सेवा योजना और महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना जैसे सरकार के कुछ प्रमुख कार्यक्रमों का उद्देश्य पूरा होगा। पलायन रुकेगा और गॉव आत्मनिर्भर बनेगा तो, भारत 5 ट्रीलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था का भी लक्ष्य हासिल कर सकता है।

(रविकांत सिंह 'द्रष्टा' अखिल भारतीय पंचायत परिषद के राष्ट्रीय सलाहकार हैं।)
 

 

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