"रेप की घटना कुत्सित पुरुष मानसिकता और राजनीतिक गठजोड़ का प्रतीक"

Written by Dr. Amrita Pathak | Published on: August 6, 2021
भारत विचित्रताओं का देश है. यहाँ महिलाओं की स्थिति पर स्याही ज़रूर उड़ेली जाती रही है लेकिन उनके साथ हो रहे रेप पर विवेकशील बात करने की हालत में हमारा समाज अभी भी नहीं है. इसे इस बात से समझा जा सकता है कि भारत में स्त्री देवी भी है और दासी भी है. महान वीरांगना भी है और दोषिजा डायन भी इसी समाज की देन है.



स्त्री की कोख़ से जन्म लेकर पुरुष की मानसिकता इस कदर कुत्सित हो जाती है कि महज स्त्री या बच्ची के शरीर को देख लेने से उनके साथ बलात्कार करने की इच्छा जागृत हो जाती है. इस देश में पितृसत्ता जाति, धर्म से परे एक मानसिक बीमार पुरुष की कुत्सित मानसिकता का सूचक है. दिल्ली के नांगल गाँव में दलित बच्ची के साथ किया गया बीभत्स बलात्कार और हत्या इस देश में कोई पहली घटना नहीं है. बलात्कारी मानसिकता के लोगों का हर दिन बढ़ता मनोबल हत्या और रेप को सामान्य करता जा रहा है. आज का नग्न सच यह है कि हर दिन सैकड़ों बच्चियां, महिलाऐं बलात्कार, छेड़ छाड़, एसिड अटैक का सामना कर रही है.  

गौरतलब है कि दिल्ली कैंट के नांगल इलाके में एक 9 साल की बच्ची पानी लाने के लिए नजदीक के शमशान घाट के वाटर कूलर के पास गयी. उस बच्ची का कथित तौर पर रेप के बाद हत्या और जबरन उसके शव का अंतिम संस्कार किए जाने का मामला सामने आया है. हालाँकि घटना के बाद से लगभग सभी राजनीतिक दलों का समर्थन पीड़ित परिवार को मिल रहा है परन्तु सोचनीय बात यह है कि तमाम सामाजिक, राजनीतिक, पारिवारिक, घार्मिक, सास्कृतिक ढांचों में रेप के लिए आज भी जगह मौजूद है. पिछले कुछ वर्षों में रेप का भी एक पैटर्न देखा गया है जिसमें एक खास सोच के लोग या उनके शागिर्दों की भूमिका प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप में पायी जाती रही है जबकि अधिकांश मामलों में पीड़िता दलित अल्पसंख्यक समुदाय से होती है. 

क्रूरता और भयावहता की सीमा पार कर चुकी नांगल दिल्ली की घटना, हाल में उतर प्रदेश में हुई हाथरस केस की याद दिलाती है. केवल बलात्कार का नाम सुनते ही सिहर जाने वाला समाज आज वीभत्स घटना होने की राह देख रहा है. दिल्ली की निर्भया और हेदराबाद की प्रियंका के साथ हुई घटना अभी हम भूल नहीं पाए हैं. अगर केवल गिनती की जाए तो भारत में महिलाओं के साथ हो रहे अत्याचार और बलात्कार की घटना किसी भी सभ्य समाज को शर्मिंदा कर सकती है. 

बलात्कार और शोषण का यह पैटर्न भारतीय समाज को लगातार कलंकित कर रहा है. उतर प्रदेश के उन्नाव में रेप के आरोपी भाजपा विधायक कुलदीप सेंगर है लेकिन केस दर्ज किया गया रेप पीड़ित बच्ची और उसके परिवार के ऊपर और अंततः बच्ची के पिता पर ट्रक से हमला करवा कर उसकी हत्या भी कर दी गयी. बीजेपी के गृहराज्य मंत्री स्वामी चिन्मयानन्द पर रेप का आरोप लगा लेकिन एफआईआर हुआ पीड़ित बच्ची पर, दिल्ली में हुए दंगों में खुले आम भाजपा के नेताओं को दंगा भड़काते देखा गया लेकिन जेलों में बंद किया गया बेकसूर नौजवानों को, भीमा कोरेगांव में साजिशन हिंसा करवाया गया हिन्दू घर्म के कथित ठेकेदार संम्भा जी भीड़े के द्वारा लेकिन इस हिंसा के लिए अपनी मौत तक सजा काट रहे हैं देश के बुद्धिजीवी और आदिवासी हितों के लिए काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्त्ता जिन्हें अर्बन नक्सल घोषित कर बदनाम किया गया. डॉ कफील को गोरखपुर में आक्सीजन की कमी से मरते 100 बच्चों को बचाने की सजा जेल में रह कर भुगतनी पड़ी तो छतीसगढ़ की आदिवासी कार्यकर्ता सोनी सोरी पर तेज़ाब फेकने की घटना को अंजाम दिया गया. समाज में बढ़ता यह खतरनाक पेटर्न शोषक और अत्याचारी वर्ग के साथ राजनीतिक गठजोड़ को उजागर करता है. 

महिलाओं के प्रति पुरुषों की यह मानसिकता एक दिन की उपज नहीं है. यह हमारे पारिवारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक परिवेश में पुरुषों को वर्चस्ववादी बनाने के लिए लगातार किया जा रहा प्रयास है. स्त्रियों को कमतर समझने, उनके प्रति संरक्षणवादी रवैया अपनाने और उसे स्त्री बनाने में उदारतावादी समाज लिप्त है. औरत को बेटी, बहू, बहन, माँ, बिटिया के रूप में हम देखते हैं जिसके प्रति हमें सम्मान कम और सहानुभूति ज्यादा मिलती है. हमारे समाज में माँ, बहन, बहू, बेटियां के रिश्तों का ये ताल मेल सामाजिक सत्ता में स्त्रियों को कमतर समझने वाली श्रेणियां हैं. औरतों को स्वतंत्र इंसान के रूप में स्वीकार करना आज भी भारत में मुश्किल है. महिलाओं को छात्र, युवा, मजदूर, किसान, के रूप में संबोधित करना आज भी अधिकांश पुरुषों को नागवार गुजरता है. चूँकि हमारा समाज स्त्री अधीनता का हिमायती है इसलिए हमारे चुने हुए प्रतिनिधि में बलात्कारी से लेकर महिलाओं पर हिंसा करने वाले लोग बड़ी संख्यां में मौजूद हैं. यहाँ तक कि जब सुप्रीम कोर्ट के जज पर यौन उत्पीडन का आरोप लगता है तो वो खुद ही मामले की सुनवाई करके खुद को क्लीन चिट दे देते हैं. इसी तरह समाज में बनाए गए ताने-बाने में पुरुष स्त्री के साथ गलत करने के बाद भी खुद को क्लीन चिट दे देते हैं. 

विचारधारात्मक रूप से देखा जाए तो बड़ी सख्यां में रेप के समर्थन में खड़ी महिलाओं को देखा जा सकता है जो औरतों को पुरुषों के अधीन समझने और मानने की आदि हो चुकी है आशाराम की स्त्री भक्तों को उनके लिए जुलुस निकालते हुए देखा जा चुका है. 

देश की बिडंवना यह है कि यहाँ के लोग जातिगत सोच से ऊपर उठ कर समाज को नहीं देखना चाहते हैं. भारतीय महिला हाकी टीम की मजबूत ख़िलाड़ी वंदना कटारिया के घर के सामने जाकर जातिगत टिपण्णी करना बीमार सवर्ण मानसिकता का परिचायक है. टोक्यो ओलम्पिक में सेमीफाइनल मैच में भारतीय महिला टीम के अर्जेंटीना के हाथों परास्त होने के बाद टीम की सदस्य वंदना कटारिया के ख़िलाफ़ जातिगत टिप्पणी का मामला सामने आया है. वैचारिक और सांस्कृतिक सोच के पतन के शिकार इन लोगों का कहना है कि टीम इंडिया में दलितों की संख्यां ज्यादा होने के कारण भारत मैच हार गया. किसी भी देश के लिए यह बहुत ही शर्म की बात है कि वह टीम जो पूरी दुनिया में देश का नाम रौशन कर रही है उनके खिलाडियों के लिए ऐसे निचले स्तर की टिप्पणी की जा रही है. यह घटना भारत में जातिवाद की मजबूत जड़ को दिखाती है जो आधुनिक लोकतंत्र में सबका साथ सबका विकास को भी कलंकित कर रहा है. 

हालाँकि भारत के राजनीतिक गलियारों में दलितों की राजनीति करने वाले सांसद और राजनेता बड़ी संख्यां में मौजूद हैं. देश के राष्ट्रपति सहित 85 सांसद, और कई दलों के सर्वेसर्वा भी दलित समुदाय से आते हैं. बावजूद इसके दलितों पर लगातार बढ़ रहे अत्याचार पर उनकी चुप्पी जातिगत राजनीति करने के उनके नैतिक अधिकार पर सवाल खड़े करती है. आज राजनीतिक रूप से खोखला हो चुके समाज को मानसिक और वैचारिक रूप से भी पंगु बनाया जा रहा है. समाज में फैली बुराइयों को राजनीतिक और वैचारिक तरीके से ही ठीक किया जा सकता है लेकिन जब राजनीतिक संस्थाओं में रेप कल्चर को बढ़ावा देने और उसे समर्थन करने वाले लोग शामिल हो तो लोकतान्त्रिक संस्कृति का धराशायी होना अवश्यंभावी हो जाता है.

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