रवीश बड़े नहीं ये वक्त बहुत छोटा है

Written by Rakesh Kayasth | Published on: April 5, 2017
बड़ी शख्सियतों की परछाइयों तक से मुझे  डर लगता है या खुलकर कहूं तो एलर्जी है। अनगिनत नामचीन लोगो से टकराने के बावजूद कभी निजी पीआर में नहीं पड़ा। मेरे व्यकित्व की अपनी सीमाएं, मेरा इगो, आप जो भी मानें। ऐसे में मुझे अपने किसी समकालीन या हमपेशा आदमी पर लेख लिखना पड़े तो ये वाकई बहुत कष्टप्रद है। कष्ट के साथ थोड़ी सी मात्रा ईर्ष्या की भी कहीं ना कहीं ज़रूर होगी ये मैं स्वीकार करता हूं। फिर भी मैं रवीश कुमार पर लिख रहा हूं, क्योंकि लिखना मजबूरी है। 

Ravish Kumar

आदमी आजकल बात करता हैं तो उसके आगे पीछे पांच-छह डिस्क्लेमर चिपके होते हैं और बीच में कहीं एक लाइन में बात होती है। क्या करें समय ही ऐसा है। मेरा पहला डिस्क्लेमर ये है कि एक संस्थान के रूप में मैं एनडीटीवी को कतई पसंद नहीं करता। बावजूद इसके कि वो एकमात्र ऐसा चैनल है, जो ऑन एयर शालीन  दिखता है। एनडीटीवी के एलीट स्वभाव, कुछ खास सत्ता प्रतिष्ठानों से उसकी नज़दीकी, आर्थिक घपलो-घोटालों के इल्जाम, संस्थान के कई बड़े पत्रकारों के कुछ दागदार लोगों से रिश्ते, कई ऐसी बातें हैं, जिनकी वजह से मैं कोशिश करके भी अपने मन में एनडीटीवी के लिए कोई सम्मान का भाव नहीं ला सकता। लेकिन एनडीटीवी के लिए मेरे मन में नफरत भी नहीं है, कंटेट की कसौटी पर कसें, तो रोज-ब-रोज की रिपोर्टिंग में वो बाकी चैनलों के मुकाबले वो आज भी कहीं ज्यादा साफ-सुथरा है। 

दूसरा डिस्क्लेमर ये है कि बेशक मैं रवीश कुमार के काम को पसंद करता हूं, लेकिन उनसे व्यक्तिगत तौर पर कभी नहीं मिला। मैने लंबे समय तक दिल्ली में मुख्य धारा की पत्रकारिता की। हंस के मीडिया विशेषांक में हमारी कहानियां साथ-साथ आईं। एक समय काम के सिलसिले में या नंबरों के आदान-प्रदान जैसी चीज़ों के लिए फोन पर बातचीत होती थी। लेकिन इस बात को भी अरसा हो गया। फिर रवीश कुमार पर मैं क्यों लिख रहा हूं? इसलिए लिख रहा हूं कि मैं हिंदी या अंग्रेजी के ज्यादातर मीडिया संस्थानों और उनमें काम करने वाले सैकड़ों लोगो को निजी और पेशेवर तरीके से बहुत अच्छी तरह जानता हूं। मुझे यह देखकर बहुत तकलीफ है कि अंडरवियरधारियों का एक बड़ा समूह बीच बाज़ार रवीश कुमार के कपड़े फाड़ने पर तुला है। जिनकी पेशेवर  परवरिश हरम से भी बदतर हो चुकी मीडिया की मंडियों में हुई है, वो लगातार चीख रहे हैं— रवीश कुमार अग्नि-परीक्षा दो। अग्नि कुंड में कूदो तो जाने।

रवीश कुमार कपड़े फाड़ने पर आमादा अंडरवियर धारियों का सामना कैसे करते हैं या रवीश कुमार अग्नि-परीक्षा देते हैं या नहीं देते हैं, ये उनका निजी मामला है, ये मानकर मैं अब तक इस पचड़े से दूर रहा। लेकिन फिर लगा कि ये रवीश कुमार की व्यक्तिगत समस्या नहीं है, यह एक राष्ट्रीय समस्या है। देश भर के कितने पत्रकार और ना जाने कितने प्रबुद्ध नागरिक इस बात को लेकर चिंतित हैं कि रवीश कुमार प्राइम टाइम में पूरे कपड़े पहने बिना पिटे-पिटाये रोज़ वक्त पर  क्यों  और कैसे पहुंच जा रहे हैं। पिछले आठ साल से मैं सोशल मीडिया पर सक्रिय हूं, लेकिन एकाध बार को छोड़कर मैने रवीश कुमार की तारीफ में कभी कुछ नहीं लिखा, हालांकि मौके बहुत थे। इसके बावजूद हर तीसरे दिन मुझे चैलेंज किया जा रहा है— हिम्मत है तो रवीश कुमार के ख़िलाफ कुछ लिखकर दिखाओ? ये कैसा रवीश फोबिया है जो अनजान लोगो को मेरे इनबॉक्स में आने को मजबूर कर रहा है? सवाल लोगो की मानसिक सेहत है या फिर कुछ और? कहीं रवीश कुमार ने सचमुच एनडीटीवी की पार्किंग के नीचे से कोई सुरंग तो नहीं बनाई, जहां से वो प्राइम टाइम खत्म करने के बाद किसी अनजान टापू पर चले जाते हैं और रोजाना देशद्रोहियों को ब्रीफ करते हैं कि कल सरकार के ख़िलाफ क्या करना है? इसका जवाब राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार दे सकते हैं, लेकिन जब मुझ जैसे लोगो से भी मांगा जाता है।ऐसे में यही लगता है कि यह समय बीमार ही नहीं बहुत बीमार है।
 
    दिन भर में ना जाने कितने व्हाट्स एप मैसेज, फर्जी और अनजान वेबसाइट पर फोटो शॉप के ज़रिये बनाई गई कितनी ख़बरें मुझ तक पहुंचती हैं, जो रवीश कुमार के भाई और बहन के कथित आपराधिक कारनामों पर होती हैं। मेरा तीसरा डिस्क्लेमर ये है कि जब मैं रवीश कुमार को ठीक से नहीं जानता तो उनके किसी भाई या बहन से मेरा क्या लेना-देना? अपराध जिसने भी किया हो  उसे उसकी सज़ा मिलनी ही चाहिए। लेकिन भाई या बहन ने कथित तौर पर अपराध किया है, इसलिए रवीश कुमार की पेशेवर प्रतिबद्धता सवालों के घेरे में हैं, इस बात का क्या मतलब? बकायदा राष्ट्रीय अभियान चल रहा है कि रवीश कुमार का भाई ट्रैफिकिंग में पकड़ा गया है और उनकी बहन किसी कथित आपराधिक गतिविधि में संलग्न पाई गईं है, इसलिए रवीश को वो सवाल उठाने का कोई हक नहीं है, जो अपने कार्यक्रमों लगातार उठा रहे हैं। कहा जा रहा है कि रवीश कुमार अपने भाई या बहन से जुड़ी ख़बर प्राइम टाइम में क्यों नहीं दिखाते? चलिये इस तर्क को देश के प्रधानमंत्री पर भी लागू करते हैं। भक्तजनों ज़रा सोच कर देखिये कि मोदीजी को कैसा लगेगा अगर कोई उनसे कहे कि देश की महिलाओं पर कोई बात करने से पहले आप ये बताइये कि जसोदाबेन के साथ ऐसा सलूक क्यों? जसोदा बेन की स्थिति के लिए सीधे मोदीजी जिम्मेदार हैं, लेकिन अपने भाई या बहन की कथित कारगुजारियों के लिए रवीश कुमार नहीं। 

अगर देशभक्त पत्रकारों का समूह ये मानता है कि भाई या बहन के कथित अपराधों में रवीश कुमार की कोई भूमिका है तो फिर तथ्य परक रिपोर्टिंग करे और पूरे देश को बताये। सुबह से शाम तक फर्जी तस्वीरों, फेसबुक अपडेट्स और व्हाट्स ऐप मैसेज फैलाकर घृणित अभियान चलाने का क्या औचित्य है? दरअसल समस्या रवीश कुमार के भाई या बहन नहीं है। समस्या रवीश कुमार का कंटेट है।

 रवीश कुमार के कंटेट में विलक्षण कुछ भी नहीं है। क्रांति का जयघोष नहीं है, सरकार को ललकार नहीं है, कोई ऐसी शोधपरक रिपोर्टिंग भी नहीं है, जिससे सत्ता के कंगूरे कांप उठें। बस कुछ सवाल हैं, ऐसे  सवाल जो हर दौर में  सरकार, सिस्टम और समाज से पूछे जाते हैं और पूछे जाने चाहिए। यही मीडिया का बुनियादी काम है। अनगिनत मौके ऐसे आये जब रवीश ने सरकारी कामकाज को बाकी भोंपू पत्रकारों के मुकाबले बेहतर और सकारात्मक ढंग से रखा। उत्तर प्रदेश सरकार की किसान कर्ज माफी इसका ताजा उदाहरण है। पैनल डिस्कशन में रवीश ने हमेशा तमाम प्रतिभागियों को एक बराबर मौका देने की कोशिश की है। रोजान बीस बार वो सफाई देते नज़र आते हैं— फलां चीज़ के बारे में मुझे ठीक से पता नहीं है, आपलोग भी लाइब्रेरी में चेक कीजियेगा। ये सब एक पत्रकार के बुनियादी काम हैं। अगर   अपना बेसिक काम करने वाला एक आदमी सैकड़ों पत्रकारों  के मन में ऐसी कुंठा पैदा कर रहा है कि वो उसे अपना जानी दुश्मन मान रहे हैं तो  इसका मतलब यही है कि इंस्टीट्यूशन के तौर पर मीडिया मरा ही नहीं बल्कि उसकी तेरहवीं भी हो चुकी है। मुझे खुशी होती अगर  कोई पत्रकार रवीश कुमार कंटेट पर तर्कपूर्ण ढंग से सवाल उठाता और उनकी आलोचना करता। लेकिन तर्क और तथ्य से किसी क्या लेना-देना?

मंटो ने कहा था— अगर आप मुझे बर्दाश्त नहीं कर सकते तो इसका मतलब ये है कि ये जमाना ही नाकाबिल-ए- बर्दाश्त है। मैं अनजाने में रवीश कुमार को मंटों के बराबर खड़ा कर रहा हूं और अपनी इस हरकत के लिए शर्मिंदा भी हूं। लेकिन क्या करें ये वक्त इतना छोटा है कि औसत लोग भी ढूंढे नहीं मिलते। इसीलिए ईमानदारी से अपना काम करने की कोशिश कर रहा एक अकेला पत्रकार सत्ता प्रतिष्ठान और उसके समर्थकों को दैत्याकार लग रहा है।

 
Disclaimer: 
The views expressed here are the author's personal views, and do not necessarily represent the views of Sabrangindia.

बाकी ख़बरें