कृषि बिल: जनविरोधी ‘मास्टर स्ट्रोक’ के मसीहा की कॉर्पोरेट घरानों को एक और सौगात

Written by Dr. Amrita Pathak | Published on: September 21, 2020
सांसदों का वोटिंग हक़ छिनना, राज्य सभा टीवी का म्यूट हो जाना, उपसभापति के लिए अविश्वास प्रस्ताव लाना ऐतिहासिक.



पिछले तीन वर्षों से कर्ज मुक्ति और स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुसार कुल लागत का डेढ़ गुना दाम की मांग पर चल रहे देश के किसानों का आन्दोलन अब नए मोड़ पर आकर खड़ा हो गया है.

संसद में विपक्ष और सड़कों पर किसानों के जोरदार हंगामे के बीच कृषि सुधार से सम्बंधित दो बिल राज्यसभा में ध्वनि मत से पारित हो गए जिसे एक अध्यादेश के तहत 20 जून 2020 को लाया गया था. बिल पारित होने के बाद नाराज विपक्षी पार्टियां राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश नारायण सिंह के ख़िलाफ़ अविश्वास प्रस्ताव ले आए. कांग्रेस ने उपसभापति पर आरोप लगाया है कि बिल पर चर्चा के दौरान उनके रवैये ने लोकतांत्रिक परम्पराओं और प्रक्रियाओं को नुक्सान पहुचाया है. विपक्ष के मत विभाजन की मांग को नहीं माना गया, विपक्ष ने इसे संसदीय नियमों का उलंघन और लोकतंत्र की हत्या बताया लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि जब इस मुद्दे पर हंगामा हो रहा था तो संसद की कार्यवाही का सीधा प्रसारण करने वाला राज्यसभा टीवी बेआवाज यानि म्यूट कर दिया गया जो उपसभापति को सवालों के घेरे में रखता है. राज्यसभा चैनल के पूर्व सीईओ ‘गुरदीप सप्पल’ के मुताबिक ऐसा सिर्फ़ वही कर सकता है जो पीठ पर बैठा हो। यानी उपसभापति हरिवंश की मेज़ के नीचे मौजूद बटन को दबाकर ही ऐसा किया जा सकता है।



क्या है अध्यादेश (ordinance)? 
अध्यादेश एक ऐसी प्रक्रिया है जब संसद का सत्र नहीं चल रहा होता है और सरकार को कोई महत्वपूर्ण कानून बनाना होता है तो अध्यादेश लाकर कानून बनाने की प्रक्रिया को शुरू कर दिया जाता है जिसे संसद सत्र शुरू होने के बाद संसद के दोनों सदनों से पास करा लिया जाता है. बाद में उस कानून पर राष्ट्रपति की मुहर लगने के बाद लागु करने की प्रक्रिया को शुरू कर दिया जाता है. गौरतलब है कि 5 जून 2020 को जब पूरा देश कोरोना महामारी की परेशानियों से घिरा हुआ था और लॉक डाउन को ख़त्म करने की शुरुआत हो चुकी थी. जब महामारी से त्रस्त जनता को राहत देना सरकार की प्राथमिकता थी तब ऐसी क्या मज़बूरी थी कि कृषि बिल के लिए अध्यादेश लाने की जरुरत आन पड़ी?  

कृषि सुधार बिल क्या है और क्यूँ हो रहा है इसका विरोध?
कृषि सुधार से सम्बंधित तीन बिल लोकसभा में पारित किया गया था जिसमे से दो बिल को राज्यसभा में 20 सितम्बर 2020 को ध्वनिमत से पारित कर दिया हालाँकि इस बिल का विरोध किसानों और विपक्षी दलों द्वारा बड़े पैमाने पर किया जा रहा है वहीं सरकार इस बिल को किसानों के लिए लाभकारी बता रही है. 

इन तीनों विधेयकों में मुख्य प्रावधान क्या है?

• कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक, 2020 
इस बिल में यह प्रावधान किया गया है कि किसानों और व्यापारियों को मंडी से बाहर फ़सल को बेचने की आजादी होगी. साथ ही राज्य के भीतर और दो राज्यों के बीच व्यापार को बढाने की बात कही गयी है. इसके तहत केंद्र सरकार “एक देश, एक कृषि मार्केट” बनाने की बात कह रही है. इस बदलाव के तहत किसानों की फसलों की जिस खरीद को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सरकार की एजेंसियों को मंडियों में लेना पड़ता था, वह व्यवस्था खत्म की जाएगी. अब व्यापारी व बिचौलिए मंडी के बाहर किसानों की फसल को टैक्स चुकाए बिना अपने भाव पर खरीदने के लिए स्वतंत्र होंगे. इससे मंडी समितियां घाटे में चली जाएंगी. अनाज के भंडारण की जो व्यवस्था पहले भारतीय खाद्य निगम करता था, उसकी जगह अब प्राइवेट कंपनियों को यह अधिकार सौंपा जा रहा है. इससे भारतीय खाद्य निगम जैसी इतनी बड़ी संस्था ख़त्म हो जाएगी. इस तरह से फसलों की खरीद, भंडारण और विपणन पर पूरी तरह कारपोरेट का कब्जा हो जाएगा.

• कृषि (सशक्तिकरण व् संरक्षण) क़ीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार विधेयक, 2020 
इस प्रावधान में कृषि पर होने वाले करारों पर राष्ट्रीय फ्रेमवर्क बनाने की बात की गयी है. इस बिल में अनुबंधित किसानों को गुणवत्ता वाले बीज की आपूर्ति सुनिश्चित करना, तकनीकी सहायता और फ़सल स्वास्थ्य की निगरानी, ऋण की सुविधा और फ़सल बीमा की सुविधा उपलब्ध कराए जाने की बात की गयी है. साथ ही  कृषि उत्पादक की बिक्री, फार्म सेवाओं कृषि बिजनेस, थोक विक्रेताओं, बड़े खुदरा विक्रेताओं और निर्यातकों के साथ किसानों को जुड़ने  की बात भी हुई है.

या यूँ कहें कि मोदी सरकार के अनुसार यह कृषि क्षेत्र के लिए एक “जोखिम रहित क़ानूनी ढांचा” है ताकि किसान को फ़सल बोते समय उससे प्राप्त होने वाले मूल्य की जानकारी मिल जाए और किसानो के फसलों की गुणवत्ता सुधरे. यह जोखिम रहित क़ानूनी ढांचा और कुछ नहीं देश में खेती के कारपोरेटीकरण की जमीन तैयार करने के लिए पुरे देश में कॉन्ट्रैक्ट खेती को थोपना है. कॉन्ट्रैक्ट (अनुबंध) खेती भारत जैसे विशाल आबादी वाले देश की खाद्य सुरक्षा और संप्रभुता पर सीधा हमला है. खेती में उत्पादन का अधिकार अनुबंध के जरिए जब कॉर्पोरेट और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथों में चला जाएगा तब ये कम्पनियाँ अपने मुनाफे को ध्यान में रख कर ही उत्पादन करवाएंगी या जनता की जरूरतों को ध्यान में रख कर. इसके लिए उत्पादन, भण्डारण और पुरे बाजार पर से सरकारी हस्तक्षेप को ख़त्म करना तथा उपभोक्ता उत्पादों की तरह खाधान को भी मुनाफे के उत्पाद में बदल देना आज कॉर्पोरेट कंपनियों की सबसे बड़ी जरुरत है.



अनुबंध खेती से किसानों को सीधे होने वाले नुकसान को अगर समझना है तो 2019 चुनाव के दौरान चर्चा में आए अनुबंध खेती के एक बड़े विवाद को समझना जरुरी है. अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनी पेप्सिको ने गुजरात के साबरकांठा जिले में किसानों के साथ चिप्स के लिए आलू की खेती करने का अनुबंध किया. कंपनी ने किसानों के विरुद्ध पेटेंट कानून का उलंघन करने के आरोप में मुकद्दमा दायर किया था हालांकि बाद में इस मामले में कम्पनी और किसानों के बीच समझौता हो गया लेकिन यह घटना अनुबंध खेती पर कई सारे सवाल खड़े करती है.

• आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक, 2020 
इस बिल में अनाज, दलहन, तिलहन, खाद्य तेल, प्याज, आलू को आवश्यक वस्तुओं की सूचि से हटाने का प्रावधान है माना यह जा रहा है कि बिल के इस प्रावधानों से किसानों को सही मूल्य मिल सकेगा क्यूंकि बाजार में स्पर्धा बढ़ेगी.

यह बिल लोकसभा में जरुर पास करा लिया गया लेकिन राज्य सभा में इसके अलावा बाकि के दो बिल पास कराए गए. कृषि मामलों के जानकार ‘देवेन्द्र शर्मा’ के अनुसार ये “विधेयक किसान के लिए नहीं बाजार के लिए बनाया गया है”

आज कोरोना महामारी के कारण दुनिया के साथ ही भारत की अर्थव्यवस्था भी पूरी तरह चरमरायी हुई है. उद्योग, सेवा क्षेत्र, ऑटोमोबाईल, ट्रांसपोर्ट, निर्माण, व्यापार, पर्यटन  जैसे जीडीपी को गति देने वाले प्रमुख क्षेत्र लगभग पूरी तरह से तबाह हो गया है. भारत में कोरोना काल से पूर्व ही जनविरोधी आर्थिक नीतियों के कारण जीडीपी गोते खाने लगी थी. देश में बेरोजगारी बढ़ रही है, लोगों की क्रय शक्ति लगातार घट रही है. इससे दुनिया भर में उपभोक्ता उत्पादों की मांग में भारी कमी आई है सिर्फ एक क्षेत्र है खाद्य वस्तुएं जिनकी मांग मनुष्य के जीवित रहने तक बनी रहेगी इसलिए दुनिया की बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों और देशी कॉर्पोरेट कंपनियों की नजर अब खेती की जमीन और खाद्य पदार्थों के व्यवसाय की तरफ है. विश्व व्यापी मंदी के इस दौर में भी कृषि क्षेत्र दुनिया भर में एक बड़ा व्यवसाय बना हुआ है.

भारत में कृषि आधारित उद्योगों की भी तीन श्रेणियां हैं – 
1) कृषि प्रसंस्करण इकाईयां- फल, सब्जी, डेयरी संयंत्रों, चावल, दाल मिलों आदि को शामिल करते हैं.
2) कृषि निर्माण इकाईयां – चीनी, बेकरी, कपडा, जुट इकाईयों आदि को रखते हैं.
3) कृषि इनपुट निर्माण इकाईयां- कृषि औजार, बीज, सिचाई उपकरण,उर्वरक, कीटनाशक आदि को शामिल करते हैं. 

भारत के कृषि व्यवसाय में नेस्ले, केडबरी, गोदरेज, डाबर  जैसी कंपनियों ने पहले से ही पैर जमाए हुए है अब रिलाइंस, पतंजलि, वालमार्ट, बिगबास्केट, अदानी, रिलाईंस फ्रेश और सफल जैसी कई बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपना जड़ जमाने की पहल कर चुके है, बिडंवना यह है कि सरकार निजी कंपनियों के खिदमत में पुरे देश की जनता को लगाने के लिए तैयार है. 

भारत का खाद्य प्रसंस्करण उद्योग देश के कुल खाद्य बाजार का 32 प्रतिशत है यह भारत के कुल निर्यात में 13 प्रतिशत और कुल उद्योग में 6 प्रतिशत हिस्सा रखता है. पिछले वर्ष तक भारत का खाद्य बाजार लगभग 10.1 लाख करोड़ रूपये का था जिसमे खाद्य प्रसंस्करण उद्योग का हिस्सा ५३ प्रतिशत अर्थात 5.3 लाख करोड़ रूपये का था.

भारत जैसे कृषि प्रधान देश और बड़ी आबादी वाले देश की खेती, अन्न भडारण और अन्न बाजार को अपने नियंत्रण में लेने के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों और कॉर्पोरेट जगत में होड़ मची हुई है. यही वह क्षेत्र है जहाँ इस वैश्विक संकट के दौर में अभी भी ‘मांग’ बने रहने की सम्भावना बची हुई है. निजी घरानों के हितेषी भारत की सरकार किसी भी हालत में निजी कंपनियों के लिए राह आसान करना चाहती है. यह बिल सरकार द्वारा नोटबंदी, जीएसटी, लॉक डाउन के बाद अगला जनविरोधी मास्टर स्ट्रोक है जो हर बार की तरह निजी घरानों के किए एक सौगात की तरह है.

बाकी ख़बरें