देश ऐसे तो मत ही चलाइए, जिससे एक तबके को लगे कि 2019 के चुनाव के बाद मुक्ति मिले तो आजाद होने का जश्न मनाया जायेगा। और सत्ता को पसंद करने वाले एक तबके को लगे वाकई अर्से बाद करप्ट और शाही व्यवस्था से मुक्ति मिली है। तो ऐसी सत्ता तो दस बरस और रहनी चाहिये। चार दिन पहले ही टेलीकम्यूनिकेशन के एक कार्यक्रम में मुकेश अंबानी मोदी सरकार के गुण गाते हुये 5 जी जल्द लाने का जिक्र कर रहे थे। तो उसी कार्यक्रम में भारती मित्तल सरकार की टेलीकाम नीतियों को कोस रहे थे। इसी तरह देश के इतिहास में पहली बार सीवीसी सरीखे स्वायत्त संस्था की जांच को लेकर सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज को जब चीफ जस्टिस गोगोई ने नियुक्त करने का निर्देश दिया तो अटोर्नी जनरल का सवाल था क्या ऐसा संभव है ?
ऐसा तो पहले कभी हुआ नहीं। तो चीफ जस्टिस को कहना पड़ा, नहीं ये सिर्फ सीबीआई केस के मद्देनजर है। यानी इसे एक्सेप्शनल माना जाये। यानी पंरपरा स्थापित नहीं की जा रही है लेकिन देश हित में तात्कालिक जरुरत है तो फिर इसे सिर्फ अभी भर के लिये माना जाये। यानी सत्ता को लेकर कारपोरेट तक बंट चुका है। सुप्रीम कोर्ट तक सीबीआई सरीखे केस पर अपनो फैसले के मद्देनजर कहना पडा रहा कि ये देशहित में है। तो फिर हम किस दिशा में जा रहे है या हम कितने दिशाहीन हो चुके है और हम लगातार चुनावी लोकतंत्र में ही देश का भाग्य खोज रहे है। तो फिर इससे ज्यादा त्रासदी कुछ हो नहीं सकती। और शायद यही वह दौर है जब राजनीति के आगे नतमस्क होता समाज और सत्ता के आगे नतमस्तक किया जा चुका संविधान देश का अनूठा सच बनाया जा रहा है और हम आप नंगी आंखो से देख रहे है। सोशल मीडिया के बहसों को देश के लिये सबसे महत्वपूर्ण बनाकर या कहे बताकर खामोश हो चले है। इस खामोशी को तोड़ने के लिये क्या किसी भी राजनीतिक दल के पास कोई पॉलिटिकल नैरेटिव है।
सरल शब्दों में कहे तो कोई दृष्टि या विजन है। क्योंकि सत्ता विरोध के स्वर खून में उबाल तो पैदा कर देते है पर रास्ता जायेगा किधर ये किसी को नहीं पता। हां पहली बार ये धीरे धीरे हर किसी को समझ जरुर आ रहा है कि बीमारी का कोई विकल्प नहीं होता। यानी देश को सत्ता की बिमारी लग गई है तो इस जीवाणु को खत्म करना है। यानी ये बहस बेकार है कि एक बीमारी के बदले दूसरी कौन सी बीमारी आपको अच्छी लगती है। ध्यान दीजिये हालात बद से बदतर क्यों हो रहे है या फिर देश का नजरिया है क्या।
सरकार हर जिम्मेदारी से मुक्त होकर मुनाफे कमाने वालो के हाथों में यानी निजी सेक्टर के हाथ में सबकुछ क्यों सौप रही है। एयर इंडिया यूं ही डूबता हुआ जहाज नहीं बना है। तकनीकी दौर में सबसे विस्तारित रहने वाला बीएसएनएल यूं ही सबसेज्यादा सिकुडा नहीं है। सबकुछ सरकार ने बेचा है। मनमोहन सिंह के दौर में एयर इंडिया का भट्टा बैठा तो मोदी के दौर में जियो कुलांचे मार रहा है। यानी सार्वजनिक निगमों में छेद सत्ता ही करती है। सत्ता ही सरकारी ढांचे में छेद कर प्राइवेट सेक्टर को बढ़ावा देती है। प्राइवेट सेक्टर देश के ही संस्थानों की लूट में से कुछ कमीशन राजनीतिक फंड के तौर पर तो कही नेताओ के पीछे समाम सुविधाओं को जुटाने के नाम पर खड़े नजर आते हैं। और ध्यान दीजिये हर सरकारी निगमों में डायरेक्टर की कुर्सी पर ऐसे ऐसे नेता मिल जायेंगे जो उस क्षेत्र को जानते तक नहीं है।
आलम ये हो चला है कि सार्वजनिक क्षेत्र के नौरत्न कंपनियों में डायरेक्टर पद पर ऐसे ऐसे छुटभैये नेता या सत्ता के करीबी नियुक्त है कि उनके ज्ञान को जानकर आपको या तो तरस आ जायेगा या आपका खून खौलने लगेगा। देश की तमाम सरकारी कंपनियो में 109 डायरेक्टर ऐसे नियुक्त हुए हैं, जिन्हें उस कंपनी का क...ख तक नहीं आता जिस कंपनी के वह डायरेक्टर हैं। मानवसंसाधन मंत्रालय जिसका जिम्मा देश की शिक्षा व्यवस्था को बनाना है उस मंत्रालय में 60 से ज्यादा अधिकारी पद पर ऐसे ऐसे व्यक्ति नियुक्त कर दिये गये जिनकी क्वालिटी स्वसंसेवक होना ही है। यानी संघ से जुडे थे तो शिक्षा मंत्रालय में बैठ जाइये। और इस दौर का सच ये भी है कि 2014 में जब सरकार आई तो सबसे पहले नई शिक्षा नीति बनाने की ही बात कही गई पर 2019 जब दस्तक देने आ पहुंचा है तब भी नई शिक्षा नीति कहां अटकी पड़ी है, ये बताने के लिये देश के शिक्षा मंत्री तक तैयार नहीं है। हर दिन डिजिटल और तकनीक की पीठ पर सवार होकर कौन सी शिक्षा का विस्तार किया जा रहा है, ये कोई नहीं जानता।
ध्यान दीजिये तो किसी पिछड़े इलाके से आये किसी व्यक्ति की तर्ज पर आधुनिक होने की व्यूरचना में ही देश को फंसा दिया गया है। यानी जिस तरह बुंदेलखंड से कोई व्यक्ति को लुटियन्स की दिल्ली में छोड दिजिये तो वह पानी-बिजली-खेती-मजदूरी-दो जून की रोटी-कपडे सबकुछ भूल कर साफ हरी घास से लेकर अट्टालिकांओ और सडक पर हवाई जहाज की तरह दौडती गाडियों में ही कुछ देर के लिये को जायेगा। कुछ ऐसा ही विकास के ककहरे में दुनिया घुमने वाले सत्ताधारी नेताओ के साथ हो चला है। दुनिया में जहां जहां जो चकाचौंध देखते हैं, उस चाकाचौंध तले अपने वोटरो को लाने की ऐसी ऐसी व्यूह रचना में खो जाते है कि सत्ता ही कमीशन लेकर निजी जहाजो पर दुनिया नापने वालो के सामने नतमस्तक हो कर कहती है , बस यही दुनिया भारत में ले आओ। और उसके बाद देश को ही दुहने का खेल शुरु कर दिया जाता है। तो जो लडाई न्यूनतम मजदूरी देख रही हो। खेती के इन्फ्रास्ट्रक्चर की मांग कर रही हो।
भूमि सुधार के नियम कायदे की सोच रही हो। अच्छी शिक्षा-बेहतर हेल्थ सर्विस की मांग में अटकी पडी हो। रोजगार के लिये छात्र-युवाओं का आक्रोश कैसे थमे इस पर विचार कहने को कह रही है। संविधान की शपथ लेन वालों से संविधान में मिले हक को पूरा करने की गुहार लगाने के लिये संघर्ष कर रही हो। ये सब सत्ता के आगे काफूर तो होगा ही। और थक हार कर भारतीय वायुसेना प्रमुख भी देसी हिन्दुस्तान एरोनोटिक्स लिमेटिड को नाकाम बताने के लिये सामने आ जाये।
रक्षा मंत्री की दिल्चस्पी रक्षा सौदों में जाग जाये। सेनाअध्यक्ष युद्द की जगह राजनीतिक युद्द में खुद को फिट करती दिखायी देने लगे। तो फिर कौन पूछेगा कि देश की खेती नीति क्या होनी चाहिये। एनपीए ना बढ़े या कारपोरेट इक्नामी के सामानातंर स्वदेशी इकनामी के कौन से तरीके अपनाये जाये । वाकई कौन पूछने की हिम्मत करेगा कि आखिर सांसदों की स्टेडिंग कमेटी कौन सी सिक्षा लेने के लिये हर महीने विदेशी टूर पर रहती है। और मोदी काल में ही जो 770 से ज्यादा विदेशी टूर सांसदो ने शिक्षा या ट्रेनिग के नाम पर की उसका रिजल्ट क्या निकला।
ये सवाल इसलिये मायने नहीं रख रहे है क्योंकि मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था को चुनौती देने के लिये कोई विचार किसी के पास है ही नहीं। विचार के सामानांतर कोई ताकत और कोई सक्षम हालात का जिक्र कर सकता है। लेकिन सैकडों क्षेत्र में काम करने वाले अलग अलग लोग कौई वैकलपिक राजनीतिक व्यवस्था की क्यो नहीं सोच पा रहे है। आपका सवाल फिर हो सकता है कैसे संभव है। तो हमारा जवाब है राजनीतिक व्यवस्था डिगाने के लिये इस बार एक ही एंजेडा ले लिजिये। जो जीरो बजट में चुनाव लडेगा उसे ही जितायेगें। यानी जो भी चुनाव प्रचार में खर्च करते हुये दिखे उसे वोट नहीं देगें। यानी बिना पैसे चुनाव लडे तो जीत मिलेगी। कैसे संभव है ....अगली रिपोर्ट में बात होगी।
ऐसा तो पहले कभी हुआ नहीं। तो चीफ जस्टिस को कहना पड़ा, नहीं ये सिर्फ सीबीआई केस के मद्देनजर है। यानी इसे एक्सेप्शनल माना जाये। यानी पंरपरा स्थापित नहीं की जा रही है लेकिन देश हित में तात्कालिक जरुरत है तो फिर इसे सिर्फ अभी भर के लिये माना जाये। यानी सत्ता को लेकर कारपोरेट तक बंट चुका है। सुप्रीम कोर्ट तक सीबीआई सरीखे केस पर अपनो फैसले के मद्देनजर कहना पडा रहा कि ये देशहित में है। तो फिर हम किस दिशा में जा रहे है या हम कितने दिशाहीन हो चुके है और हम लगातार चुनावी लोकतंत्र में ही देश का भाग्य खोज रहे है। तो फिर इससे ज्यादा त्रासदी कुछ हो नहीं सकती। और शायद यही वह दौर है जब राजनीति के आगे नतमस्क होता समाज और सत्ता के आगे नतमस्तक किया जा चुका संविधान देश का अनूठा सच बनाया जा रहा है और हम आप नंगी आंखो से देख रहे है। सोशल मीडिया के बहसों को देश के लिये सबसे महत्वपूर्ण बनाकर या कहे बताकर खामोश हो चले है। इस खामोशी को तोड़ने के लिये क्या किसी भी राजनीतिक दल के पास कोई पॉलिटिकल नैरेटिव है।
सरल शब्दों में कहे तो कोई दृष्टि या विजन है। क्योंकि सत्ता विरोध के स्वर खून में उबाल तो पैदा कर देते है पर रास्ता जायेगा किधर ये किसी को नहीं पता। हां पहली बार ये धीरे धीरे हर किसी को समझ जरुर आ रहा है कि बीमारी का कोई विकल्प नहीं होता। यानी देश को सत्ता की बिमारी लग गई है तो इस जीवाणु को खत्म करना है। यानी ये बहस बेकार है कि एक बीमारी के बदले दूसरी कौन सी बीमारी आपको अच्छी लगती है। ध्यान दीजिये हालात बद से बदतर क्यों हो रहे है या फिर देश का नजरिया है क्या।
सरकार हर जिम्मेदारी से मुक्त होकर मुनाफे कमाने वालो के हाथों में यानी निजी सेक्टर के हाथ में सबकुछ क्यों सौप रही है। एयर इंडिया यूं ही डूबता हुआ जहाज नहीं बना है। तकनीकी दौर में सबसे विस्तारित रहने वाला बीएसएनएल यूं ही सबसेज्यादा सिकुडा नहीं है। सबकुछ सरकार ने बेचा है। मनमोहन सिंह के दौर में एयर इंडिया का भट्टा बैठा तो मोदी के दौर में जियो कुलांचे मार रहा है। यानी सार्वजनिक निगमों में छेद सत्ता ही करती है। सत्ता ही सरकारी ढांचे में छेद कर प्राइवेट सेक्टर को बढ़ावा देती है। प्राइवेट सेक्टर देश के ही संस्थानों की लूट में से कुछ कमीशन राजनीतिक फंड के तौर पर तो कही नेताओ के पीछे समाम सुविधाओं को जुटाने के नाम पर खड़े नजर आते हैं। और ध्यान दीजिये हर सरकारी निगमों में डायरेक्टर की कुर्सी पर ऐसे ऐसे नेता मिल जायेंगे जो उस क्षेत्र को जानते तक नहीं है।
आलम ये हो चला है कि सार्वजनिक क्षेत्र के नौरत्न कंपनियों में डायरेक्टर पद पर ऐसे ऐसे छुटभैये नेता या सत्ता के करीबी नियुक्त है कि उनके ज्ञान को जानकर आपको या तो तरस आ जायेगा या आपका खून खौलने लगेगा। देश की तमाम सरकारी कंपनियो में 109 डायरेक्टर ऐसे नियुक्त हुए हैं, जिन्हें उस कंपनी का क...ख तक नहीं आता जिस कंपनी के वह डायरेक्टर हैं। मानवसंसाधन मंत्रालय जिसका जिम्मा देश की शिक्षा व्यवस्था को बनाना है उस मंत्रालय में 60 से ज्यादा अधिकारी पद पर ऐसे ऐसे व्यक्ति नियुक्त कर दिये गये जिनकी क्वालिटी स्वसंसेवक होना ही है। यानी संघ से जुडे थे तो शिक्षा मंत्रालय में बैठ जाइये। और इस दौर का सच ये भी है कि 2014 में जब सरकार आई तो सबसे पहले नई शिक्षा नीति बनाने की ही बात कही गई पर 2019 जब दस्तक देने आ पहुंचा है तब भी नई शिक्षा नीति कहां अटकी पड़ी है, ये बताने के लिये देश के शिक्षा मंत्री तक तैयार नहीं है। हर दिन डिजिटल और तकनीक की पीठ पर सवार होकर कौन सी शिक्षा का विस्तार किया जा रहा है, ये कोई नहीं जानता।
ध्यान दीजिये तो किसी पिछड़े इलाके से आये किसी व्यक्ति की तर्ज पर आधुनिक होने की व्यूरचना में ही देश को फंसा दिया गया है। यानी जिस तरह बुंदेलखंड से कोई व्यक्ति को लुटियन्स की दिल्ली में छोड दिजिये तो वह पानी-बिजली-खेती-मजदूरी-दो जून की रोटी-कपडे सबकुछ भूल कर साफ हरी घास से लेकर अट्टालिकांओ और सडक पर हवाई जहाज की तरह दौडती गाडियों में ही कुछ देर के लिये को जायेगा। कुछ ऐसा ही विकास के ककहरे में दुनिया घुमने वाले सत्ताधारी नेताओ के साथ हो चला है। दुनिया में जहां जहां जो चकाचौंध देखते हैं, उस चाकाचौंध तले अपने वोटरो को लाने की ऐसी ऐसी व्यूह रचना में खो जाते है कि सत्ता ही कमीशन लेकर निजी जहाजो पर दुनिया नापने वालो के सामने नतमस्तक हो कर कहती है , बस यही दुनिया भारत में ले आओ। और उसके बाद देश को ही दुहने का खेल शुरु कर दिया जाता है। तो जो लडाई न्यूनतम मजदूरी देख रही हो। खेती के इन्फ्रास्ट्रक्चर की मांग कर रही हो।
भूमि सुधार के नियम कायदे की सोच रही हो। अच्छी शिक्षा-बेहतर हेल्थ सर्विस की मांग में अटकी पडी हो। रोजगार के लिये छात्र-युवाओं का आक्रोश कैसे थमे इस पर विचार कहने को कह रही है। संविधान की शपथ लेन वालों से संविधान में मिले हक को पूरा करने की गुहार लगाने के लिये संघर्ष कर रही हो। ये सब सत्ता के आगे काफूर तो होगा ही। और थक हार कर भारतीय वायुसेना प्रमुख भी देसी हिन्दुस्तान एरोनोटिक्स लिमेटिड को नाकाम बताने के लिये सामने आ जाये।
रक्षा मंत्री की दिल्चस्पी रक्षा सौदों में जाग जाये। सेनाअध्यक्ष युद्द की जगह राजनीतिक युद्द में खुद को फिट करती दिखायी देने लगे। तो फिर कौन पूछेगा कि देश की खेती नीति क्या होनी चाहिये। एनपीए ना बढ़े या कारपोरेट इक्नामी के सामानातंर स्वदेशी इकनामी के कौन से तरीके अपनाये जाये । वाकई कौन पूछने की हिम्मत करेगा कि आखिर सांसदों की स्टेडिंग कमेटी कौन सी सिक्षा लेने के लिये हर महीने विदेशी टूर पर रहती है। और मोदी काल में ही जो 770 से ज्यादा विदेशी टूर सांसदो ने शिक्षा या ट्रेनिग के नाम पर की उसका रिजल्ट क्या निकला।
ये सवाल इसलिये मायने नहीं रख रहे है क्योंकि मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था को चुनौती देने के लिये कोई विचार किसी के पास है ही नहीं। विचार के सामानांतर कोई ताकत और कोई सक्षम हालात का जिक्र कर सकता है। लेकिन सैकडों क्षेत्र में काम करने वाले अलग अलग लोग कौई वैकलपिक राजनीतिक व्यवस्था की क्यो नहीं सोच पा रहे है। आपका सवाल फिर हो सकता है कैसे संभव है। तो हमारा जवाब है राजनीतिक व्यवस्था डिगाने के लिये इस बार एक ही एंजेडा ले लिजिये। जो जीरो बजट में चुनाव लडेगा उसे ही जितायेगें। यानी जो भी चुनाव प्रचार में खर्च करते हुये दिखे उसे वोट नहीं देगें। यानी बिना पैसे चुनाव लडे तो जीत मिलेगी। कैसे संभव है ....अगली रिपोर्ट में बात होगी।