मायावती की बनवाई मूर्तियां इतनी जलन क्यों पैदा करती हैं?

Written by प्रीति सिंह | Published on: February 9, 2019
सुप्रीम कोर्ट के मूर्तियों को लेकर दिए गए फैसले पर बहुजन समाज पार्टी अध्यक्ष मायावती एक बार फिर चर्चा में हैं. सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई, न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता और न्यायमूर्ति संजीव खन्ना के पीठ ने कहा है कि हमारा ऐसा विचार है कि मायावती को अपनी और अपनी पार्टी के चुनाव चिह्न की मूर्तियां बनवाने पर खर्च हुआ सार्वजनिक धन सरकारी खजाने में वापस जमा करना चाहिए.



यह आलेख न्यायपालिका की अवमानना एक्ट के उस प्रावधान के आधार पर लिखा जा रहा है, जिसके अनुसार, किसी न्यायिक आदेश की आलोचना कंटेप्ट ऑफ कोर्ट नहीं है.

मूर्तियों को लेकर बसपा प्रमुख पर हमले कोई नई बात नहीं है. ऐसा पहले भी होता रहा है और चुनाव नजदीक आने पर इस तरह के हमले और तेज हो जाते हैं. इसके पहले भी एक चुनाव के पूर्व न्यायालय ने मूर्तियों को लेकर आपत्ति जताई थी. उस समय बसपा के नेता और जाने माने वकील सतीश मिश्र ने दलील दी थी कि पार्कों में लगी मूर्तियां बसपा का चुनाव चिह्न नहीं हैं. उनका तर्क था कि यह मूर्तियां बुद्ध की विचारधारा से ली गई है, जहां भारतीय संस्कृति में हाथियों को स्वागत की मुद्रा में दिखाया गया है.

हालांकि न्यायालय इस तर्क से कितना सहमत हुआ, वह न्यायधीश ही बता सकते हैं, लेकिन उस समय न्यायालय के आदेश से नोएडा के पॉश इलाके में स्थित दलित प्रेरणा स्थल और लखनऊ के गोमती नगर इलाके में स्थित अंबेडकर पार्क में लगी हाथी की मूर्तियां चुनाव होने तक के लिए ढंकवा दी गई थीं.

जहां तक अपनी मूर्तियों की बात है तो देश में ऐसी परंपरा है कि जवाहरलाल नेहरू को प्रधानमंत्री रहते हुए भारत रत्न दे दिया गया. अटल बिहारी वाजपेयी अपने कार्यकाल में कई संस्थानों का नाम अपने नाम पर रख लेते हैं. और जब भारत सरकार अपना कलेंडर छापती है तो हर पन्ने पर नरेंद्र मोदी अपनी तस्वीर छपवा लेते हैं.

उत्तर प्रदेश के अहम चुनावी जंग में हाथी की मूर्तियां एक बार फिर शामिल कर ली गई हैं. पार्कों को बनवाने में घोटाले के आरोप भी लगे हैं, जिनका कोई परिणाम नहीं निकला. इनमें कोई आरोप साबित नहीं हुआ. यह एक दूसरे तरह का बौद्धिक हमला है कि हाथी की मूर्तियां बसपा का प्रचार हैं. घोटाला न सही तो हाथी ही सही. भारत में हाथी को मंगलकारी माना जाता रहा है. वैवाहिक समारोहों में हाथियों का बाकायदा पूजन होता है. इतना ही नहीं, तमिलनाडु में रामेश्वरम स्थित शिव मंदिर में एक हाथी हमेशा खड़ा रहता है, जिसे लोग न सिर्फ पूजते हैं, बल्कि उसे इस तरह से प्रशिक्षित किया गया है कि वहां जाने वाले श्रद्धालुओं के हाथ से पैसे ले लेता है. हाथी को दिया गया माला कभी शिव लिंग पर चढ़ा देता है, कभी हाथी उस माला को श्रद्धालु को ही पहना देता है.


लेकिन इन तमाम हाथियों से किसी को कोई दिक्कत नहीं है. यहां तक कि लखनऊ में एक हाथी पार्क बना है. बहुत पुराना और गोमती नदी के किनारे बना प्रसिद्ध पार्क है, जो 90 के दशक में बच्चों में बहुत लोकप्रिय था और नबाबों के शहर में बच्चे अपनी शाम हजरतगंज के बजाय, इस हाथी पार्क में बिताना पसंद करते थे.

सिर्फ एक ही तरह के हाथी से दिक्कत है, जो बसपा के शासनकाल में बनवाए गए. उसके लिए न्यायालयों में याचिकाएं दायर की जाती हैं. कभी उस हाथी पर की गई फिजूलखर्जी को लेकर याचिका दायर होती है, कभी पार्टी का प्रचार कहकर. और उस पार्क को बनवाने में हुए घोटाले को लेकर तो तमाम फाइलें प्रवर्तन निदेशालय, केंद्रीय जांच ब्यूरो और राज्य व केंद्र सरकार के तमाम विभागों में लगातार दौड़ती रहती हैं.

इसके अलावा हाथियों की मूर्ति को लेकर पर्यावरण संबंधी चिंता भी हो जाती है. दिल्ली से सटे नोएडा में करीने से बने बेहद खूबसूरत पार्क, जिसे दलित प्रेरणा स्थल के नाम से जाना जाता है, ओखला बर्ड सेंचुरी के नजदीक बना है. वहां पड़े गंदे से इलाके में साफ सफाई कर हाथी की मूर्तियां लगवाने और बुद्ध से लेकर अंबेडकर, शाहूजी महराज, बिरसा मुंडा, सावित्रीबाई फुले सहित तमाम सामाजिक न्याय के योद्धाओं की मूर्तियां लगवाई गई हैं और उन मूर्तियों के नीचे उन नायकों के विचार संक्षिप्त में लिखे गए हैं. इसके अलावा एक लंबे इलाके में पौधरोपण कर घने जंगल लगाए गए है. इस व्यवस्था से मनुष्य और न्यायालय ही नहीं, याचिका दायर की गई कि देश विदेश से आने वाली लाखों की संख्या में पक्षियां भी परेशान हो गईं.

भारत में लाखों की संख्या में पार्क बने हैं और उन पार्कों में स्थानीय से लेकर वैश्विक नायकों की मूर्तियां, उनके प्रतीक, उनके विचारों को लिखा गया है. इसी क्रम में मायावती ने भी मूर्तियां बनवाई हैं. उत्तर प्रदेश में मायावती के बनवाए गए जितने भी पार्क हैं, बेहद खूबसूरत हैं. अगर किसी वास्तुकार से राय जानी जाए तो संभवत: वह यही बताएगा कि मायावती के बनवाए पार्क राज्य में बने ताजमहल के बाद सबसे बेहतरीन स्मारक हैं.

अगर मायावती, बसपा और दलितों को लेकर भारत की सामाजिक व्यवस्था को कोई दुराग्रह नहीं है तो क्या कन्याकुमारी में करोड़ों के खर्च से बने विवेकानंद स्मारक, तमिल कवि और चिंतक तिरुवल्लुवर से लेकर संसद में लगी दर्जनों मूर्तियों पर आई लागत की वसूली उन नेताओं से की जाएगी, जिनके कार्यकाल में उन मूर्तियों को बनाया गया? क्या महात्मा गांधी से लेकर राजीव गांधी और चरण सिंह के समाधि स्थलों पर आई लागत की भी वसूली होगी?

क्या गोरखपुर के रेलवे स्टेशन के सामने लगी राणा प्रताप की मूर्ति पर आए खर्च की वसूली गोरखनाथ के महंत और मौजूदा मुख्यमंत्री से यह कहकर की जाएगी कि उनके या उनके पहले के मंदिर के कर्ताधर्ताओं ने अपने जाति के नायक को स्थापित करने के लिए मूर्ति लगवाई है? क्या अभी हाल में गुजरात में लगाई गई सरदार बल्लभ भाई पटेल की प्रतिमा का खर्च मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से वसूला जाएगा. क्या उन हर चौराहों और गलियों में लगी मूर्तियों के लिए संबंधित नेताओं से वसूली की जाएगी, जिसे यह कहा जा सकता है कि उन व्यक्तियों से संबंधित जाति के नेताओं ने स्थापित किए हैं?

अगर ऐसी वसूली शुरू होती है तो मायावती से भी पैसे वसूल लिया जाना जायज है. नियम किसी एक व्यक्ति, जाति, समुदाय को उत्पीडि़त करने के लिए नहीं बन सकते, इस एकतरफा नियम और तर्क को लागू करने से देश में असंतोष की स्थिति पैदा हो सकती है.

(लेखिका सामाजिक और राजनीतिक मामलों की टिप्पणीकार हैं. ये आलेख 'दि प्रिंट' से साभार लिया गया है.)

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