वे मेरे पुराने मित्र हैं। हम उनके घर गए। वे बहुत उदास थे। उनकी अभी हाल में शादी हुई थी। छोटा सा घर था जिसमें बीच में परदा लगाकर किचेन को घर से अलग किया गया था। दीवार से सटी एक कुर्सी पर वे बैठे थे। हमारे पहुंचने पर दो फोल्डिंग वाली कुर्सियां निकालकर उन्होंने फैला दी। हम कुर्सी पर बैठ गए। हमारे सिर के ठीक ऊपर एक छोटा सा लकड़ी का मंदिर दीवार के सहारे लटका दिया गया था।
यह भारतीय संस्कृति है। घर कितना भी छोटा हो पर उसमें भी एक अनुपात में छोटा मंदिर जरूर एडजस्ट कर दिया जाता है। हाल चाल पूछने की सामान्य प्रक्रिया के बाद उन्होंने पत्नी को पानी देने के लिए आवाज दिया। थोड़ी देर में पत्नी ने परदे के बीच में से जगह बनाकर पति को पानी पकड़ा दिया। परदे के पीछे भी उसनें घूंघट कर रखा था। यह परदा, घूंघट, एक औरत का भीषण गर्मी में भी परदे के पीछे छुपे रहना सामने कुर्सी पर खुली तोंद लटकाए बैठे मेरे मित्र के लिए तो आम बात थी पर हमारे लिए आश्चर्य था।
हम पानी पी ही रहे थे कि उन्होंने पत्नी को चाय बनाने के लिए कह दिया।
थोड़ी देर इधर उधर की बातें होती रहीं, फिर वे विवाह में आये खर्च की बात करने लगे। मिले हुए दहेज की बात करने लगे। उन्होंने थोड़ा खुश होते हुए कहा- बहुत दिया ससुर ने, बस एक फ्रीज दे दिए होते तो आप ठंडा पानी पी रहे होते।
उनके इस कथन से मैं किंकर्तव्यविमूढ़ हो इधर उधर देखने लगा। इतना मुंहफट इंसान तो कभी नहीं देखा मैंने। अभी कुछ ही दिन हुए शादी को और यह निर्लज्ज इंसान पत्नी के सामने कह रहा है कि ससुर ने फ्रीज दे दिया होता तो आप ठंडा पानी पी रहे होते। वह नवविवाहिता कितने सपने लेकर आई होगी माँ बाप के घर को छोड़कर और यह आदमी उसे जीवन के शुरुआत में ही इस तरह के अनुभव दे रहा है।
कुछ वक्त गुजरा। इन्होंने फिर आवाज लगाई- अरे भाई चाय हुई कि नहीं अभीतक ?
परदे के पीछे से एक मधुर सी आवाज आई- दूध खतम हो गया है।
उसके इस वाक्य में न तो उदासी थी न चिंता न उत्साह। ऐसा लगता था न चाहते हुए भी उसे अपना मुंह खोलना पड़ा।
वे आते हुए गुस्से को काबू करके बोले- जब दूध नहीं है तो बताना चाहिए न! हम कब से चाय के लिए बैठे हैं।
मैंने चुटकी लेने के उद्देश्य से कहा- काश आपके ससुर बिटिया के साथ एक गाय भी दे दिए होते तो अबतक हम चाय पी रहे होते।
इतना सुनते ही वे झेंप गए और बनावटी मुस्कान उनके चेहरे पर फैल गयी। उन्होंने हंसने जैसा मुंह भी बनाया पर वह हंसी नहीं थी।
अब उनके सामने अलग तरह की समस्या आकर खड़ी गयी। या तो वे दूध लेने चले जाएं या फिर पत्नी को भेज दें। वे तो जा नहीं सकता थे। वजह ये की मैं और उनकी पत्नी घर मे अकेले रह जाते। अब जो इंसान मित्र के सामने पत्नी को परदे में रखता हो वह भला पत्नी को अकेले मित्र के सामने छोड़ दूध लेने कैसे जा सकता है !
उन्होंने पत्नी को दूध लाने भेज दिया। अब वे हल्का फील कर रहे थे। मैंने समय काटने के उद्देश्य से कहा- और बताइए, कैसे चल रही है आपकी मैरिड लाइफ ?
उनका चेहरा फिर दुखी हो गया। कहने लगे- यार बहुत दुःखी हूँ। पत्नी ठीक नहीं है।
मैंने पूछा - क्या हो गया ?
वे उदास स्वर में कहने लगे- अब क्या बताएं यार, संस्कार तो है ही नहीं इसमें। पैर तक तो छूती नहीं।
अब मेरा माथा ठनका। मैं सोच में पड़ गया आखिर यह आदमी किस मिट्टी का बना है। दुनिया कितने तरह के लोग हैं और कितने तरह के दुःख हैं उनके। एक मानवाधिकार कार्यकर्ता तब दुःखी होता है जब उसके देश में कमजोरों, गरीबों अल्पसंख्यकों का शोषण होता है, एक किसान बर्बाद फसलों को देखकर दुःखी होता है, कोई प्रोड्यूसर दुःखी होता है जब फ़िल्म फ्लॉप हो जाये। हमारे देश का प्रधानमंत्री भी दुःखी है की उसे देश के पहले प्रधानमंत्री की योजनाओं की वहज से काम करने में दिक्कत आ रही है। पर वह जो आदमी मेरे सामने बैठा था और बदकिस्मती से मेरा मित्र भी था, उसका दुःख इन सब के दुःख से अलग था। उसकी पत्नी उसके पैर नहीं छूती।
मैंने कहा- पर इसमें दुःखी होने जैसा क्या है ?
वह कहने लगे- आप नहीं समझेंगे। यह हमारे संस्कार हैं। माँ आजतक पिता जी के पैर छूती आई है। हमारी घर की अन्य बहुएं भी पति के पैर छूती हैं। ये नहीं छूती। क्या यही है संस्कार ! आखिर क्या रह जाएगी घर मे ईज्जत ? घर और समाज के लोग क्या कहेंगे ?
मैंने उसे समझाते हुए कहा- आप तो पढ़े लिखे हैं। जरा सोचिए, ये परंपराएं कितनी पुरानी हैं। हो सकता है जब ये चीजें चलन में आई हों तो इन सब की समाज को जरूरत रही हो, पर आज तो ये सब बेकार ही है न ! सौ दो सौ साल पहले जब हमारे पास मोटर गाड़ियां नहीं थी तो हम बैलगाड़ी, घोड़ा गाड़ी से दूर दूर की यात्राएं करते थे पर आज के दौर में कोई दिल्ली से मुम्बई अपने रिश्तेदार से मिलने बैलगाड़ी से जाए तो समाज हंसेगा की नहीं ? या फिर टेक्नोलॉजी के इस युग में कोई कबूतर से संदेश भेजकर उसके जवाब का इंतजार करें तो किसी मूर्खता से कम लगेगा क्या ?
वे गंभीर सा मुंह बनाते हुए बोले- बात तो आपकी ठीक है, पर लोग क्या कहेंगे ?
उन्हें राह पर आता देख मैंने फिर कहा- फिर आप भी उनसे तर्कों से पेश आइये।
उन्होंने कहा- वे बाप दादाओं का हवाला देने लगते हैं। कहते हैं हमारे पूर्वज ऐसा करते आ रहे हैं।
मैंने कहा- उनसे कहिये की पूर्वज तो हमारे लकड़ी के चूल्हे ओर खाना पकाते थे, आप क्यों गैस इस्तेमाल कर रहे हैं ? पूर्वज बीमार होने पर जड़ीबूटियों से इंलज करते थे आप क्यों बड़े हॉस्पिटल में उच्च शिक्षित डॉक्टर से इलाज करवाते हैं। जब यह सब बदलाब हुआ है तो संस्कार की आड़ में महिलाओं का इस तरह से शोषण क्यों नहीं रूका ? और आखिर आप ही सोचिए, आज महिलाएं कौन से क्षेत्र में पीछे हैं। एक तरफ लोग पत्नी, बहन या माँ के इलाज के लिए महिला डॉक्टर ढूंढते हैं तो दूसरी तरह इस तरह से महिलाओं को घूंघट में कैद कर के रखते हैं। और आपकी फैमिली तो और दो कदम आगे निकली। बताओ, पत्नी पैर नहीं छू रही है तो आपको तो खुश होना चाहिए। कोई तो आया घर में जो परंपराओं को तोड़ने में विश्वास करता है।
वे मेरी बात को गंभीरता से सुनते रहे। थोड़ी देर शांति फैली रही। फिर वे उठे और पर्दे को खिसकाने लगे। मैंने उनके द्वारा बदलाव की एक शुरुआत देखी। जिसमें मैं बांधा नहीं बनना चाहता था। मैंने कहा- अब मैं निकलता हूँ। मुझे थोड़ा विलंब हो रहा है। चाय तो फिर कभी पी लेंगे। उन्होंने मुझे नहीं रोका। मुझे आने दिया।
शाम को उनका फोन आया। बड़े खुश थे। थोड़ी देर बातें होती रहीं। वे कुछ कहना चाहते थे पर हिचकिचा रहे थे। मैंने कहा- शायद आप कुछ कहना चाह रहे हैं।कह दीजिये। आखिर मित्र हैं हम आपके।
उन्होंने मध्यम आवाज में कह- कोई अपने क्षेत्र में ब्यूटीशियन क्लास चलती हो तो बताना। वो पत्नी का बहुत दिनों से सपना है ब्यूटीशियन का कोर्स करने का।
मैंने खुश होते हुए कहा- जी जरूर। मैं पता करके बताता हूँ।
उन्होंने कहा- अब रखता हूँ फोन।
फोन के पीछे से एक आवाज सुनाई दी, " आज आपने मुझे जिंदगी की सबसे बड़ी खुशी दी।"
शायद यह उनके पत्नी की आवाज थी।