ये वो मुल्क है जहां की गंगा-जमुनी तहजीब को कोई मिटा नहीं सकता !

Written by Mayank Saxena | Published on: March 22, 2019
लखनऊ...18वीं सदी खत्म हो चली थी...अवध के नवाब वाजिद अली शाह को ये इल्म भले ही न हो कि वो अवध के आख़िरी नवाब होने वाले हैं, उनको ये इल्म ज़रूर था कि अवध और हिंद की गंगा जमुनी तहज़ीब ही, इस मिट्टी की असल बू है...जिसमें रंग, यहां के त्योहारों से आता है...और फिर जब त्योहार ही रंगों का हो, तो वाजिद अली शाह कैसे पीछे रहते...उन्होंने ही तो कुछ होली पहले, ठुमरी लिख डाली थी...

'मोरे कान्हा जो आए पलट के, होली खेलूंगी मैं भी डट के' 

(ये ठुमरी सरदारी बेगम फिल्म में इस्तेमाल हुई, यूट्यूब पर T Series ने लिरिसिस्ट के तौर पर जावेद अख़्तर का नाम दिया है गोकि..)

लेकिन नवाब वाजिद अली ने देखा कि लखनऊ अजीबो ग़रीब तरीके से सूना और शांत है...कोई होली की हलचल नहीं...कोई न ठुमरी गा रहा है, न कोई ढोलक और मंझीरे लेकर निकला है...न सड़कों पर रंग है, न हवा में गुलाल की महक...

और फिर पता चलता है कि मुहर्रम के चलते, हिंदू भी होली नहीं मना रहे हैं...शाह मुनादी करवाते हैं कि महज हिंदू ही मुसलमानों की भावनाओं की कद्र नहीं करेंगे...अब सूबे की रियाया में शामिल मुसलमान भी हिंदुओं के प्रति अपना फ़र्ज़ निभाएंगे...और मुनादी होती है कि उसी रोज़ होली भी खेली जाएगी...वाजिद अली शाह ख़ुद रियाया के साथ होली खेलने जा पहुंचते हैं...

मुझे इस किस्से के ज़रिए वाजिद अली शाह की महानता नहीं बखाननी...बस ये बताना है कि ये मुल्क क्या है...और ये पूछना है कि आप किसी को भी इस मिट्टी के रंग ओ बू को ख़त्म क्यों करने देंगे...आपको वाजिद अली शाह और कबीर और गांधी के साथ खड़ा होना है...या उनके जो इस खूबसूरती को खत्म करने पर आमादा हैं...आप 'आज रंग है री' गाते हुए खुसरो और आगरा में फागुन के गीत गाते नज़ीर अकबराबादी के ख़िलाफ़ कैसे खड़े हो सकते हैं आखिर? कैसे बाहर भेज देंगे आप उस मीर को, जो लखनऊ जा कर बताते हैं कि नवाब आसफ़ुद्दौला कैसे होली खेलते थे...और लिख डालते हैं, 

होली खेलें आसफ़ुद्दौला वज़ीर,
रंग सौबत से अजब हैं खुर्दोपीर
दस्ता-दस्ता रंग में भीगे जवां
जैसे गुलदस्ता थे जूओं पर रवां
कुमकुमे जो मारते भरकर गुलाल
जिसके लगता आन कर फिर मेंहदी लाल

कहां ले जाकर गाड़ेंगे, मख़दूम के साथ चकबस्त को जिसका पहला नाम बृजनारायण था...बिस्मिल्लाह ख़ान को गंगा के पानी से अलग कर लेंगे आप? कि कृष्ण बिहारी नूर के लिखे सारे मर्सियों को आग लगा देंगे? मोहम्मद रफी, शकील बदायूंनी, साहिर लुधियानिवी, शमशाद बेगम और नौशाद को अपनी होली से कैसे मिटाएंगे?

होली है...बस कुछ नहीं, इस होली गीत को जिस सुर और धुन में मन करे, गाइए....क्योंकि आगरा के किसी बाज़ार में, जिसका नाम किसी भी वक्त अकबराबाद हो सकता है...नज़ीर अकबराबादी आज गाता घूम रहा होगा....यही गीत....

जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की
और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की
ख़ूम शीश-ए-जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की
महबूब नशे में छकते हो तब देख बहारें होली की 

ये धूम मची हो होली की, ऐश मज़े का झक्कड़ हो
उस खींचा खींची घसीटी पर, भड़वे खन्दी का फक़्कड़ हो
माजून, रबें, नाच, मज़ा और टिकियां, सुलफा कक्कड़ हो
लड़भिड़ के 'नज़ीर' भी निकला हो, कीचड़ में लत्थड़ पत्थड़ हो
जब ऐसे ऐश महकते हों, तब देख बहारें होली की

रंग मुबारक...क्योंकि रंगों के बिना आप बेकार हैं...इंसान ही नहीं...कुदरती भी नहीं...कुछ भी नहीं...

किसी का हुक्म है इस गुलिस्तां में,
बस अब एक रंग के ही फूल होंगे,
कुछ अफसर होंगे जो ये तय करेंगे,
गुलिस्तां किस तरह बनना है कल का.
यकीनन फूल यकरंगी तो होंगे,
मगर ये रंग होगा कितना गहरा कितना हल्का,
ये अफसर तय करेंगे.
किसी को कोई ये कैसे बताए,
गुलिस्तां में कहीं भी फूल यकरंगी नहीं होते.
कभी हो ही नहीं सकते.
कि हर एक रंग में छुपकर बहुत से रंग रहते हैं,
जिन्होंने बाग यकरंगी बनाना चाहे थे, उनको ज़रा देखो.
कि जब यकरंग में सौ रंग ज़ाहिर हो गए हैं तो,
वो अब कितने परेशां हैं, वो कितने तंग रहते हैं.
(Javed Akhtar)

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