सिनेमा हॉलों में राष्ट्रगान, ज़बरिया देशभक्ति

Written by Ram Puniyani | Published on: December 16, 2016
उच्चतम न्यायालय ने नवंबर 2016 में यह आदेश जारी किया कि सभी सिनेमा हॉलों में ‘‘मातृभूमि के प्रति प्रेम की खातिर’’ हर फिल्म शो के पहले राष्ट्रगान बजाया जाए। इस आदेश से व्यक्तिगत स्वतंत्रता और कानूनी बाध्यताओं के परस्पर संबंधों पर बहस शुरू हो गई है। यह आदेश देश में बढ़ती असहिष्णुता की पृष्ठभूमि में आया है। विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या इस तरह की कानूनी बाध्यताओं से लोगों में राष्ट्रपे्रम जगाया जा सकता है। कुछ टिप्पणीकारों का कहना है कि यह आदेश नागरिक अधिकारों पर हमला है। कुछ दशकों पहले तक, सिनेमा हॉलों में फिल्म की समाप्ति के बाद राष्ट्रगान बजाया जाता था। उस समय यह देखा गया था कि राष्ट्रगान के समय लोग थियेटर से बाहर निकलने लगते थे। अब महाराष्ट्र जैसे कुछ राज्यों में फिल्म शुरू होने से पहले राष्ट्रगान बजाया जाने लगा है। सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की बेंच ने यह निर्देश दिया है कि देश के सभी सिनेमाघरों में फिल्म शुरू होने से पहले राष्ट्रगान बजाया जाए और इस दौरान थियेटर के दरवाजे बंद रखे जाएं।

National anthem in Cinema

राष्ट्रीय ध्वज और अन्य राष्ट्रीय प्रतीकों के सम्मान की रक्षा की लिए देश में पहले से ही कई कानून लागू हैं। कुछ मामलों में कानूनों व नियमों और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के बीच टकराव के उदाहरण सामने आए हैं। केरल में जेहनोवास विटनेस नामक एक पंथ के विद्यार्थियों ने अपने स्कूल में यह कहकर राष्ट्रगान गाने से इंकार कर दिया था कि ऐसा करना मूर्ति पूजा होगी, जो कि उनकी धार्मिक आस्थाओं के अनुरूप नहीं है। इन विद्यार्थियों को स्कूल से निष्कासित कर दिया गया। मामला उच्चतम न्यायालय तक गया, जिसने विद्यार्थियों के पक्ष में फैसला दिया और उनका निष्कासन रद्द कर दिया गया।

प्रजातंत्र में नागरिकों के अधिकारों और राज्य के प्रति उनके कर्तव्यों में संतुलन आवश्यक है। इसीलिए संविधान सभी नागरिकों को कुछ मूलाधिकार देता है और उन्हें अभिव्यक्ति की आज़ादी भी उपलब्ध करवाता है। एक दशक पहले, उच्चतम न्यायालय ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता के पक्ष में अपना निर्णय दिया था। ऐसा लगता है कि अब गंगा उलटी बह रही है। बात-बात पर ‘‘राष्ट्रवाद, मातृभूमि के प्रति प्रेम और देशभक्ति’’ जैसे जुमलों को उछाला जा रहा है। जो लोग सत्ताधारी दल या सरकार की नीतियों से असहमत हैं, उन्हें राष्ट्रविरोधी बताया जा रहा है और यह कहा जा रहा है कि वे ‘‘देशभक्त’’ नहीं हैं। यहां तक कि एटीएम या बैंकों के बाहर अपने ही खातों से पैसा निकालने के लिए घंटों कतार में खड़े रहने का भी महिमामंडन किया जा रहा है। यह कहा जा रहा है कि यह देशभक्ति है और राष्ट्र की खातिर लोग लाईनों में घंटों खड़े हैं। ये कतारें मोदी सरकार द्वारा लिए गए नोटबंदी के निर्णय का परिणाम हैं और इन्हें देशभक्ति से जोड़ा जाना हास्यास्पद प्रतीत होता है। उच्चतम न्यायालय का यह आदेश एक ऐसे समय आया है जब देशभक्ति और राष्ट्रवाद जैसी अवधारणाओं का इस्तेमाल, असहमति और विरोध को दबाने के लिए किया जा रहा है।

जबसे मोदी सरकार सत्ता में आई है, तभी से वह अपने विरोधियों की राष्ट्रभक्ति/राष्ट्रवाद पर प्रश्नचिन्ह लगा रही है। हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में अंबेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन की गतिविधियों को ‘राष्ट्रविरोधी’ बताया गया और तत्कालीन केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री के दबाव में विश्वविद्यालय के कुलपति ने रोहित वेम्युला को होस्टल से निकाल दिया और उसकी शिष्यवृत्ति बंद कर दी। इसके बाद, रोहित ने आत्महत्या कर ली। ऐसा ही कुछ दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हुआ, जहां जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार और उनके साथियों को कटघरे में खड़ा करने के लिए एक नकली सीडी कुछ टेलिवीजन न्यूज़ चैनलों पर चलाई गई। कन्हैया कुमार को देशद्रोही करार दे दिया गया। बाद में यह सामने आया कि कन्हैया कुमार ने तथाकथित देशद्रोही नारे लगाए ही नहीं थे। वैसे भी, संवैधानिक स्थिति यह है कि केवल नारे लगाना देशद्रोह नहीं है।  देशभक्ति और राष्ट्रवाद के मुद्दों पर भड़काए जा रहे जुनून के नतीजे में गोवा में राष्ट्रगान के समय खड़े न होने पर एक ऐसे व्यक्ति की पिटाई कर दी गई जो व्हीलचेयर से उठ भी नहीं सकता था। मुंबई में एक युवा पटकथा लेखक को राष्ट्रगान के समय खड़े न होने पर सिनेमा हॉल से धक्के देकर बाहर निकाल दिया गया।

राष्ट्रवाद के मुद्दे पर इस तरह की ज़ोर-जबरदस्ती, चिंता का विषय है। देशभक्ति क्या है और देशभक्त कौन है, इसे परिभाषित करना आसान नहीं है। जब देश में राजाओं और नवाबों का शासन था, उस समय वे अपने प्रजाजनों से यह अपेक्षा करते थे कि वे उनके प्रति पूरी तरह वफादार रहें। राजा के प्रति वफादार न रहने की सज़ा बहुत कड़ी थी जिसमें हाथ काट देने से लेकर मृत्युदंड तक शामिल था।

ब्रिटिश राज में देश में दो तरह के राष्ट्रवाद एक साथ अस्तित्व में थे। एक ओर उद्योगपतियों, श्रमिकों और शिक्षित लोगों का उभरता हुआ वर्ग था, जो धर्मनिरपेक्ष-प्रजातांत्रिक भारत के निर्माण के लिए साम्राज्यवाद व औपनिवेशवाद के खिलाफ खड़ा था। सरकार की निगाह में ये लोग देशभक्त नहीं थे। धर्म के नाम पर राष्ट्रवाद की शुरूआत, राजाओं और ज़मींदारों ने की। वे अंग्रेज़ों के प्रति वफादार थे। ब्रिटिश साम्राज्य इन वर्गों को देशभक्त मानता था। उनकी संस्था यूनाईटेड इंडिया पेट्रिऑटिक एसोसिएशन, धार्मिक राष्ट्रवाद की जनक बनी। मुस्लिम राष्ट्रवादी और हिन्दू राष्ट्रवादी दोनों ब्रिटिश शासकों के प्रति वफादार थे और तत्कालीन सरकार की निगाहों में देशभक्त थे। ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध जो राष्ट्रवाद संघर्षरत था, वह व्यापक और समावेशी था और किसी एक जाति, धर्म या वर्ग तक सीमित नहीं था। मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा-आरएसएस का राष्ट्रवाद, धार्मिक पहचान के आसपास बुना गया था। इसके विपरीत, महात्मा गांधी के नेतृत्व वाला राष्ट्रवाद, प्रजातांत्रिक मूल्यों और धर्मनिरपेक्षता पर आधारित था और उदारवादी था। स्वाधीनता के बाद, सांप्रदायिक संगठनों ने राज्य के प्रति संपूर्ण निष्ठा को राष्ट्रवाद का पर्यायवाची मान लिया। जो भी लोग सरकार या राज्य से सहमत नहीं हैं, वे देशभक्त नहीं हैं। यह ठीक वही अवधारणा है जो राजाओं और नवाबों की थी। यह ठीक वही अवधारणा है जो दुनिया के सभी तानाशाहों की थी और है।

संघ व भाजपा इस समय देश में जो वातावरण बना रहे हैं, उससे एकाधिकारवाद और तानाशाही की पदचाप सुनाई दे रही है। राजाओं-नवाबों के शासनकाल में शासक सर्वोच्च था और सभी प्रजाजन उसके अधीन थे। राजा के प्रति वफादारी ही देशभक्ति थी। तानाशाह भी जनता से अपने प्रति पूर्ण समर्पण और वफादारी चाहते हैं और इसे ही देशभक्ति बताते हैं। आरएसएस-भाजपा का यह मानना है कि राज्य सर्वोच्च है और नागरिकों को केवल उसके प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। ऐसा लगता है कि उच्चतम न्यायालय का यह आदेश, इसी तरह की मानसिकता की उपज है।
इस तरह का अतिराष्ट्रवाद, प्रजातंत्र को तानाशाही में बदल सकता है। हमें उम्मीद है कि उच्चतम न्यायालय को इस तथ्य का अहसास होगा और वह अपने इस निर्णय पर पुनर्विचार करेगा।

(मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)

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