रिचर्ड एटनबरॉ की फिल्म ‘गांधी’ में रोंगटे खड़े कर देने वाले दो-तीन सीन हैं.पहला, दक्षिण अफ्रीका में गांधी जी की अपील पर सत्याग्रह का पहला प्रयोग हो रहा है. अंग्रेज फौजी उन्हें बेदर्दी से मारतेहैं. घोड़े दौड़ाते हैं. फिर भी वे सत्याग्रह से डिगते नहीं हैं. दूसरा, जालियांवाला बाग में सभा हो रही है. हजारों लोग जमा हैं. अंग्रेज फौज आती है. गोलियां चलाई जाती हैं. लोग बचने को भाग रहे हैं लेकिन उनके लिए बचाव के सारे रास्ते बंद हैं. सैकड़ों मारे जाते हैं. तीसरा, एक और आंदोलन है जिसे हम नमक सत्याग्रह के नाम से भी जानते हैं. सत्याग्रहियों पर ब्रितानी सिपाही डंडे बरसा रहे हैं. उनके सर फट रहे हैं. एक दस्ता जाता है, फिर सत्याग्रहियों का दूसरा दस्ता हाजिर हो जाता है. ये सब इतिहास में दर्ज हैं. लेकिन क्या हमने ‘चिता सत्याग्रह’, ‘कफन सत्याग्रह’का नाम सुना है? जी, ये आज के दौर का सत्याग्रह है. मुमकिन हैं, हम जानते हों लेकिन इसे दोहरा लेने में हर्ज नहीं है.
झारखंड के चतरा इलाके में एनटीपीसी का एक बिजली घर बन रहा है. जाहिर है, इसके लिए कोयला चाहिए. एक कम्पनी को कोयला देने का ठेका मिला है. जिस इलाके की जमीन खोदकर कम्पनी कोयला निकालना चाहती है, वह हजारीबाग के बड़कागांव में पड़ता है. पूरा क्षेत्र काफी उपजाऊ है. लोगों की जिंदगी की डोर खेती की इसी जमीन पर टिकी है. किसान एक साल में कई फसल उगा लेते हैं. कहा जाता है, बड़कागांव के गुड़ की खुश्बू और स्वाद की शोहरत दूर-दूर तक है. इलाके के लोग अपनी उपजाऊ जमीन नहीं देना चाहते हैं. वे कई सालों से इसके खिलाफ सत्याग्रह कर रहे हैं. अधिकतर गांव वालों का आरोप है कि उनकी जमीन बिना उनकी रजामंदी के अधिग्रहण की जा रही है.
इस बीच कोयला खनन करने की प्रक्रिया भी तेज हो गई. तब पिछले 15 सितम्बर को कांग्रेसी विधायक निर्मला देवी के नेतृत्व में बड़कागांव के डाढ़ीकलां इलाके में गांव वालों ने ‘कफन सत्याग्रह’शुरू कर दिया. 15 दिन बाद 30 सितम्बर की देर रात अचानक पुलिस आती है और विधायक को जबरन उठा कर ले जाती है. गांव वाले विरोध करते हैं. पुलिस लाठी चलाती है. इस अखबार की रिपोर्ट देखें और घटना के दौरान का वीडियो, तो पता चलता है कि किस तरह गांव वालों पर कहर बरपा. खौफजदा गांव वालों ने खेतों में पनाह लिया. पथराव भी हुआ. पुलिस गोली चलाती है. कई लोग मारे जाते हैं. कई गायब हैं. कई पुलिस वाले भी जख्मी हैं. इतने के बाद भी पुलिस का आतंक रुक नहीं रहा है. कार्यकर्ताओं का कहना है कि जो मारे गए उन्हें गोलियां कमर से ऊपर लगी हैं. गौरतलब है, यह सब ‘सत्याग्रही’महात्मा गांधी की जयंती के 24 घंटे पहले हो रहा था. इससे पहले भी यहां के बाशिंदें पर दो बार पुलिस की गोलियां चल चुकी हैं. वे अपनी बात पर ध्यान दिलाने के लिए एक बार चिता सजाकर ‘चिता सत्याग्रह’ भी कर चुके हैं.(प्रभात खबर की फाइलों में ब्योरा देखा जा सकता है.)
सत्याग्रह किस बात के लिए? बात सिर्फ इतनी है कि 2013 में काफी जद्दोजेहद के बाद किसी परियोजना या काम के लिए भूमि अधिग्रहण करने का एक कानून बना है. इस कानून के मुताबिक, जमीन लेने के लिए उस इलाके में रहने वालों की रजामंदी जरूरी है. उनका सही और पर्याप्त पुनर्वास जरूरी है. मुआवजा उचित मिले, इसकी गारंटी हो. गांव वाले इन्हीं को तो लागू करने की मांग कर रहे हैं. मगर किसी के कान पर जूं नहीं रेंग रही. क्यों?
हम में से कितने लोग झारखंड में विस्थापन और पुनर्वास के लम्बे संघर्ष के बारे में जानते हैं? हम में से कितने ऐसे सत्याग्रहों के बारे में जानते हैं? उनके कुचले जाने के बारे में जानते हैं? झारखंड के बाहर मीडिया की सुर्खियों में कितनी बार और कितने दिन यह घटना रही? अब थोड़ा जाट आंदोलन याद कर लेते हैं. उसकी तबाही याद करते हैं. और यह याद करने की कोशिश करते हैं कि उन पर कितनी लाठियां और गोलियां चलीं. और अगर चल जातीं तो क्या होता? ऐसा क्या है कि झारखंड में ऐसे आंदोलन कारियों पर बार- बार गोली चलाने में जरा सी हिचक नहीं होती है.
एक ओर,सभ्य समाज में बाहरी जंग का जुनून उफान पर है लेकिन मुल्क के अंदर आदिवासी इलाकों में चल रही अपने ही लोगों के जंग के बारे में हमारा नजरिया क्या है? झारखंड, ओडि़शा, छत्तीसगढ़ जैसे आदिवासी बहुल इलाके इस वक्त विकास के खास विचार की प्रयोगभूमि बने हुए हैं. ये प्रयोग, वे कर रहे हैं जिन्हें आदिवासियत से कोई लेना-देना नहीं है. इस विकास में यहां के लोगों की कोई भूमिका नहीं है. जिनके नाम पर और जिनके विकास के वास्ते झारखंड बना, वे कहां हैं? विकास तो उनका हो रहा है या हुआ जो जिनके लिए जल-जंगल-जमीन महज दोहन और मुनाफा का जरिया हैं. सत्याग्रही जल-जंगल-जमीन वाले हैं.
इसीलिए जब कोयलकारो या बड़कागांव में सत्याग्रह होता है, तो इसमें शामिल लोग माटी की खुश्बू से गुंथे लोग होते हैं. जाति-धर्म-पंथ-सम्प्रदाय से परे. बड़कागांव के आंदोलनकारी सत्याग्रही इस मायने में भी बहुत खास हैं. वे किसी मंदिर या मस्जिद के लिए नहीं लड़ रहे हैं. इसी लिए अब तक धर्म या जाति के नाम पर बंटे भी नहीं हैं. वे अपनी जिंदगी की जद्दोजेहद कर रहे हैं. वे साथ-साथ सत्याग्रह कर रहे हैं. इसलिए जब खून बहा तो साझा बहा. लड़े साथ-साथ. जब पुलिस की लाठी और गोली खाने की बारी आई तो वह भी साथ-साथ झेला. ऐसा ही तो गांधी जी का भी सत्याग्रह था. सब जन साथ-साथ. गांधी जी के साथियों के सर पर पड़ी लाठियों से निकला खून भी एक-दूसरे के खून से मिलकर मिट्टी में वैसे ही जज्ब हो गया होगा जैसा बड़कागांव के सत्याग्रहियों का हुआ है. है न! बड़कागांव के सत्याग्रही यह भी बता रहे हैं कि जिंदगी की परेशानियों को मिलकर ही दूर किया जा सकता है.
ऐसे संघर्षशील लोगों के साथ एक बड़ी दिक्क्त भी है. उनकी राजनीतिक ताकत सिमटी, कमजोर और बिखरी हुई है. वे देश की चुनावी राजनीति के केन्द्र में नहीं है. लेकिन याद रखिए, ये सर झुकाने वाले लोग नहीं हैं. झारखंड के लोगों का संघर्ष का लम्बा इतिहास है. यही उनकी ताकत है. इसी के बलबूते वे गोलियां तो खा रहे हैं, पर झुकने को राजी नहीं हैं. यह सत्य का आग्रह भी है. ताकत भी.
(प्रभात खबर से साभार)
(नासिरूद्दीन वरिष्ठ पत्रकार हैं। सामाजिक मुद्दों खासतौर पर महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर लिखते रहे हैं। लम्बे वक्त तक हिन्दुस्तान अखबार से जुड़े रहे। पिछले दिनों नौकरी से इस्तीफा देकर अब पूरावक्ती तौर पर लेखन और सामाजिक काम में जुटे हैं।)
झारखंड के चतरा इलाके में एनटीपीसी का एक बिजली घर बन रहा है. जाहिर है, इसके लिए कोयला चाहिए. एक कम्पनी को कोयला देने का ठेका मिला है. जिस इलाके की जमीन खोदकर कम्पनी कोयला निकालना चाहती है, वह हजारीबाग के बड़कागांव में पड़ता है. पूरा क्षेत्र काफी उपजाऊ है. लोगों की जिंदगी की डोर खेती की इसी जमीन पर टिकी है. किसान एक साल में कई फसल उगा लेते हैं. कहा जाता है, बड़कागांव के गुड़ की खुश्बू और स्वाद की शोहरत दूर-दूर तक है. इलाके के लोग अपनी उपजाऊ जमीन नहीं देना चाहते हैं. वे कई सालों से इसके खिलाफ सत्याग्रह कर रहे हैं. अधिकतर गांव वालों का आरोप है कि उनकी जमीन बिना उनकी रजामंदी के अधिग्रहण की जा रही है.
इस बीच कोयला खनन करने की प्रक्रिया भी तेज हो गई. तब पिछले 15 सितम्बर को कांग्रेसी विधायक निर्मला देवी के नेतृत्व में बड़कागांव के डाढ़ीकलां इलाके में गांव वालों ने ‘कफन सत्याग्रह’शुरू कर दिया. 15 दिन बाद 30 सितम्बर की देर रात अचानक पुलिस आती है और विधायक को जबरन उठा कर ले जाती है. गांव वाले विरोध करते हैं. पुलिस लाठी चलाती है. इस अखबार की रिपोर्ट देखें और घटना के दौरान का वीडियो, तो पता चलता है कि किस तरह गांव वालों पर कहर बरपा. खौफजदा गांव वालों ने खेतों में पनाह लिया. पथराव भी हुआ. पुलिस गोली चलाती है. कई लोग मारे जाते हैं. कई गायब हैं. कई पुलिस वाले भी जख्मी हैं. इतने के बाद भी पुलिस का आतंक रुक नहीं रहा है. कार्यकर्ताओं का कहना है कि जो मारे गए उन्हें गोलियां कमर से ऊपर लगी हैं. गौरतलब है, यह सब ‘सत्याग्रही’महात्मा गांधी की जयंती के 24 घंटे पहले हो रहा था. इससे पहले भी यहां के बाशिंदें पर दो बार पुलिस की गोलियां चल चुकी हैं. वे अपनी बात पर ध्यान दिलाने के लिए एक बार चिता सजाकर ‘चिता सत्याग्रह’ भी कर चुके हैं.(प्रभात खबर की फाइलों में ब्योरा देखा जा सकता है.)
सत्याग्रह किस बात के लिए? बात सिर्फ इतनी है कि 2013 में काफी जद्दोजेहद के बाद किसी परियोजना या काम के लिए भूमि अधिग्रहण करने का एक कानून बना है. इस कानून के मुताबिक, जमीन लेने के लिए उस इलाके में रहने वालों की रजामंदी जरूरी है. उनका सही और पर्याप्त पुनर्वास जरूरी है. मुआवजा उचित मिले, इसकी गारंटी हो. गांव वाले इन्हीं को तो लागू करने की मांग कर रहे हैं. मगर किसी के कान पर जूं नहीं रेंग रही. क्यों?
हम में से कितने लोग झारखंड में विस्थापन और पुनर्वास के लम्बे संघर्ष के बारे में जानते हैं? हम में से कितने ऐसे सत्याग्रहों के बारे में जानते हैं? उनके कुचले जाने के बारे में जानते हैं? झारखंड के बाहर मीडिया की सुर्खियों में कितनी बार और कितने दिन यह घटना रही? अब थोड़ा जाट आंदोलन याद कर लेते हैं. उसकी तबाही याद करते हैं. और यह याद करने की कोशिश करते हैं कि उन पर कितनी लाठियां और गोलियां चलीं. और अगर चल जातीं तो क्या होता? ऐसा क्या है कि झारखंड में ऐसे आंदोलन कारियों पर बार- बार गोली चलाने में जरा सी हिचक नहीं होती है.
एक ओर,सभ्य समाज में बाहरी जंग का जुनून उफान पर है लेकिन मुल्क के अंदर आदिवासी इलाकों में चल रही अपने ही लोगों के जंग के बारे में हमारा नजरिया क्या है? झारखंड, ओडि़शा, छत्तीसगढ़ जैसे आदिवासी बहुल इलाके इस वक्त विकास के खास विचार की प्रयोगभूमि बने हुए हैं. ये प्रयोग, वे कर रहे हैं जिन्हें आदिवासियत से कोई लेना-देना नहीं है. इस विकास में यहां के लोगों की कोई भूमिका नहीं है. जिनके नाम पर और जिनके विकास के वास्ते झारखंड बना, वे कहां हैं? विकास तो उनका हो रहा है या हुआ जो जिनके लिए जल-जंगल-जमीन महज दोहन और मुनाफा का जरिया हैं. सत्याग्रही जल-जंगल-जमीन वाले हैं.
इसीलिए जब कोयलकारो या बड़कागांव में सत्याग्रह होता है, तो इसमें शामिल लोग माटी की खुश्बू से गुंथे लोग होते हैं. जाति-धर्म-पंथ-सम्प्रदाय से परे. बड़कागांव के आंदोलनकारी सत्याग्रही इस मायने में भी बहुत खास हैं. वे किसी मंदिर या मस्जिद के लिए नहीं लड़ रहे हैं. इसी लिए अब तक धर्म या जाति के नाम पर बंटे भी नहीं हैं. वे अपनी जिंदगी की जद्दोजेहद कर रहे हैं. वे साथ-साथ सत्याग्रह कर रहे हैं. इसलिए जब खून बहा तो साझा बहा. लड़े साथ-साथ. जब पुलिस की लाठी और गोली खाने की बारी आई तो वह भी साथ-साथ झेला. ऐसा ही तो गांधी जी का भी सत्याग्रह था. सब जन साथ-साथ. गांधी जी के साथियों के सर पर पड़ी लाठियों से निकला खून भी एक-दूसरे के खून से मिलकर मिट्टी में वैसे ही जज्ब हो गया होगा जैसा बड़कागांव के सत्याग्रहियों का हुआ है. है न! बड़कागांव के सत्याग्रही यह भी बता रहे हैं कि जिंदगी की परेशानियों को मिलकर ही दूर किया जा सकता है.
ऐसे संघर्षशील लोगों के साथ एक बड़ी दिक्क्त भी है. उनकी राजनीतिक ताकत सिमटी, कमजोर और बिखरी हुई है. वे देश की चुनावी राजनीति के केन्द्र में नहीं है. लेकिन याद रखिए, ये सर झुकाने वाले लोग नहीं हैं. झारखंड के लोगों का संघर्ष का लम्बा इतिहास है. यही उनकी ताकत है. इसी के बलबूते वे गोलियां तो खा रहे हैं, पर झुकने को राजी नहीं हैं. यह सत्य का आग्रह भी है. ताकत भी.
(प्रभात खबर से साभार)
(नासिरूद्दीन वरिष्ठ पत्रकार हैं। सामाजिक मुद्दों खासतौर पर महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर लिखते रहे हैं। लम्बे वक्त तक हिन्दुस्तान अखबार से जुड़े रहे। पिछले दिनों नौकरी से इस्तीफा देकर अब पूरावक्ती तौर पर लेखन और सामाजिक काम में जुटे हैं।)