खेमराज जी, जिन्हें अधिकतर लोग "बा सा" ( बा साहब ) कह कर पुकारते थे,राजस्थान के नागरिक समाज के सबसे प्रेरक व्यक्तित्व थे। वे कल रात विदा हो गये, काफी लंबे समय से वे कैंसर को मात देने की कोशिश में थे, पर व्याधि ने एक अनथक यौद्धा को मात दे दी।
कुछ दिन गुजरे उनकी बेटी ने मुझे कॉल करके कैंसर का आयुर्वेदिक इलाज करने वाले एक आश्रम का पता पूछा और कहा कि जयपुर से डॉक्टर्स ने जवाब दे दिया है और घर भिजवा दिया है। पीड़ा बहुत है,मैंने उनको नम्बर दिए और खेमराज जी के मंगल की कामना की।
खेमराज जी अपने सम वय कार्यकर्ताओं के लिए खेमराज भाई थे और समाजकर्मियों की नई खेप के लिए बा सा ,मैं उनको खेमराज जी ही कहता था,पता नहीं ,यही सम्बोधन ज़बान पर चढ़ गया था,वे अद्भुत आकर्षक व्यक्तित्व थे,उनमें कार्यकर्ता निर्मित करने का विशिष्ट कौशल था,लोग उनको एक आदर्श के रूप में देखते थे,मैंने सामाजिक क्षेत्र में खेमराज चौधरी के प्रति मिडिल क्लास सोशल वर्कर में ग़ज़ब की दीवानगी देखी और ग्रामीण व ग्रासरूट कार्यकर्ताओं में उनके प्रति ज़बरदस्त आदर व समर्पण पाया।
निःसंदेह खेमराज चौधरी सामाजिक कार्यकर्ता निर्माण की मल्टीवर्सिटी थे,उनसे प्रेरणा लेकर और उनके साथ रहकर सीखते हुए सैंकड़ों लोग जीवनव्रती कार्यकर्ता बने,जो आज भी सिविल सोसायटी में यत्र तत्र कार्यरत है। खेमराज जी का जाना हम जैसे तमाम सारे लोगों के लिए व्यक्तिगत क्षति है।
वे दक्षिण राजस्थान के एक किसान परिवार में जन्में,अच्छी पढ़ाई लिखाई की और एक दिन सामाजिक बदलाव के लिए निकल पड़े। उनका शुमार 70 के दशक से सक्रिय समाजकर्मियों में किया जा सकता है,जो लगभग 50 वर्षों तक अपने काम मे पूरी निष्ठा से लगे रहे।
मुझे वर्ष 2000 से उनके बारे में कईं रोचक किस्से सुनने को मिलने लगे,वे संघर्ष की कथाओं के महानायक थे,फिर 2003 में सुनी गई कहानियों के उस हीरो से दो चार हुआ।
राजस्थान के बहुत सीनियर सोशल एक्टिविस्ट बताते हैं कि किस तरह उन्होंने अपने समाज कर्म की शुरुआत खेमराज भाई के साथ झाबुआ के जंगलों में की। इन जनश्रुतियों में खेमराज जी एक ऐसे सतत संघर्षशील व्यक्ति के रूप में उभरते हैं जो व्यवस्था के प्रति तो एकदम कठोर थे,मगर आम इंसानों के लिए फूल जैसे कोमल।
उनमें लोगों की दक्षता व कार्यकर्ता की जरूरत को पहचानने का मजबूत मानवीय हुनर मौजूद था,वे एक कुशल संगठक भी थे, निसंदेह उनकी प्रतिबद्धता वामपक्षीय थी,मगर वे अस्मितादर्शी बहुजन राजनीतिक सामाजिक धाराओं के भी समर्थक थे,कभी उन्हें बंदूक की नाल से क्रांति का सपना भाया तो कभी व्यवस्था में बदलाव के लिए उन्होंने कानूनों व नीति निर्माण का रास्ता भी अपनाया।
वे राजस्थान के लगभग हर आंदोलन के केंद्र में होते थे, उन्होंने खुद कईं अभियानों,आंदोलनों व जन संगठनों का निर्माण व नेतृत्व किया,कभी कभी वे मजाक में अपनी संस्था को एक दुकान कह देते थे, स्पष्टवादी तो थे ही,एकदम सपाट व खुरदरे भी थे,अन्य सामाजिक कार्यकर्ताओं की तरह थोड़े कानों के कच्चे भी थे,जल्दी चिढ़ जाते थे,लड़ लेते थे,पर मन में ग्रंथि नहीं पालते थे,जोरदार बहस के बाद थोड़ा रूठ जाना ,पर जल्द ही पुनः संवाद बना लेना उनकी फितरत में था।
वे किस्सा गो थे,वे स्वयं में ही संस्थान भी थे,उनसे मिलकर व्यक्ति जीवन की सार्थकता खोजने निकल पड़ता था,उनसे मुद्दों के उभार और जन गोलबंदी के तौर तरीकों को सीखा जा सकता था।
मुझे उनसे बहुत कुछ जानने व सीखने को मिलते रहता था,उन्होंने कईं बार कहा भी साथ आने को,पर मेरी किसी से निभती कहाँ है,इसलिए कभी पूर्णकालिक उनके साथ नहीं गया ,पर एक दूसरे के आंदोलनों का हम सदैव हिस्सा रहे।
करजली की जनसुनवाई हो अथवा अचलपुरा का खाट आंदोलन,2005 का उनका सैंकड़ों आदिवासियों के साथ कईं दिनों का जयपुर कूच रहा हो अथवा सुलिया का हमारा मंदिर प्रवेश आंदोलन ,खेमराज जी इन सबमें अगली सफ़ में खड़े हुए थे।
वे हम जैसे नव सिखिया कार्यकर्ताओं के हौंसला थे,2005 में जब मैं अपनी एक किताब 'फासीवाद की आहटें' पर हुये विवाद को लेकर निर्वासन भोग रहा था,तब वे मानव अधिकार कार्यकर्ताओं की एक टोली के साथ मेरे कार्यक्षेत्र में आये और खुलकर मेरे पक्ष में अपनी बात रखी।
खेमराज जी के आग्रह पर मैंने अगस्त 2005 में "भीलों की पदचाप" नामक किताब भी लिखी,जो भील समुदाय का संक्षिप्त इतिहास और वर्तमान दशा व दिशा को प्रस्तुत करती है।
वे मेरा लिखा निरन्तर पढ़ते और उस पर अपने सुझाव देते थे,कईं मामलों में हमारी घनघोर असहमतियाँ थी,हम बहस करते थे,कभी कभी तो लड़ ही लेते थे,पर मन उनका मैला न था,व्यक्ति झुंझारु था,पर विषैला न था,उनमें टिपिकल एनजीओनुमा काईंयापन नहीं था,वे किसान मजदूर पृष्ठभूमि से आये थे,उनमें एक सहजता व सरलता थी,कड़वा मीठा मुंह पर कह देते थे,उनमें मध्यमवर्गीय सोशल एक्टिविस्टों सा दोगलापन व पाखण्ड नहीं था,वे दलितों,आदिवासियों व गरीबों के प्रति समर्पित सच्चे साथी थे।
खेमराज जी को कैंसर का पता चल जाने के बाद भी वे हारे नहीं,उन्होंने तब तक काम किया,जब तक उनकी चेतना व देह में क्षमता बची रही।
खेमराज जी का जाना हमारे लिए तो व्यक्तिगत क्षति है ही,उनके बाद राजस्थान की सिविल सोसायटी में भी बहुत खालीपन आएगा,निःस्वार्थ सामाजिक सरोकारों वाले ऐसे लोग सदियों में कभी कभी पैदा होते हैं,जिनका जीवन ही प्रेरणा बन जाता है।
खेमराज जी ने एक आवासीय विद्यालय भदेसर में खोला,जो आज भी काम कर रहा है,वे लंबे समय तक प्रयास में रहे,उन्होंने अपने जीवन के आखिरी समय में नितांत गरीब आदिवासी परिवारों को राशन की पोटली पहुंचाने का काम शुरू किया,वे फेसबुक पर इसको अपनी सधुक्कड़ी लेंग्वेज में अपडेट करते थे,जिसे पढ़ना बहुत मजेदार होता था,श्रुति ने इसे 'खेमराज भाई की डायरी' नाम से प्रकाशित किया है.
खेमराज जी सिविल सोसायटी के कबीर थे,एकदम खरे,खुरदरे,सपाट, सरल और आदर्श व्यक्ति, उनका जाना इस तिमिर को और घना कर गया है। खेमराज जी को अंतिम सैल्यूट, विन्रम श्रद्धाजंलि , शत शत नमन।
(लेखक 'शन्यूकाल' के संपादक हैं।)
कुछ दिन गुजरे उनकी बेटी ने मुझे कॉल करके कैंसर का आयुर्वेदिक इलाज करने वाले एक आश्रम का पता पूछा और कहा कि जयपुर से डॉक्टर्स ने जवाब दे दिया है और घर भिजवा दिया है। पीड़ा बहुत है,मैंने उनको नम्बर दिए और खेमराज जी के मंगल की कामना की।
खेमराज जी अपने सम वय कार्यकर्ताओं के लिए खेमराज भाई थे और समाजकर्मियों की नई खेप के लिए बा सा ,मैं उनको खेमराज जी ही कहता था,पता नहीं ,यही सम्बोधन ज़बान पर चढ़ गया था,वे अद्भुत आकर्षक व्यक्तित्व थे,उनमें कार्यकर्ता निर्मित करने का विशिष्ट कौशल था,लोग उनको एक आदर्श के रूप में देखते थे,मैंने सामाजिक क्षेत्र में खेमराज चौधरी के प्रति मिडिल क्लास सोशल वर्कर में ग़ज़ब की दीवानगी देखी और ग्रामीण व ग्रासरूट कार्यकर्ताओं में उनके प्रति ज़बरदस्त आदर व समर्पण पाया।
निःसंदेह खेमराज चौधरी सामाजिक कार्यकर्ता निर्माण की मल्टीवर्सिटी थे,उनसे प्रेरणा लेकर और उनके साथ रहकर सीखते हुए सैंकड़ों लोग जीवनव्रती कार्यकर्ता बने,जो आज भी सिविल सोसायटी में यत्र तत्र कार्यरत है। खेमराज जी का जाना हम जैसे तमाम सारे लोगों के लिए व्यक्तिगत क्षति है।
वे दक्षिण राजस्थान के एक किसान परिवार में जन्में,अच्छी पढ़ाई लिखाई की और एक दिन सामाजिक बदलाव के लिए निकल पड़े। उनका शुमार 70 के दशक से सक्रिय समाजकर्मियों में किया जा सकता है,जो लगभग 50 वर्षों तक अपने काम मे पूरी निष्ठा से लगे रहे।
मुझे वर्ष 2000 से उनके बारे में कईं रोचक किस्से सुनने को मिलने लगे,वे संघर्ष की कथाओं के महानायक थे,फिर 2003 में सुनी गई कहानियों के उस हीरो से दो चार हुआ।
राजस्थान के बहुत सीनियर सोशल एक्टिविस्ट बताते हैं कि किस तरह उन्होंने अपने समाज कर्म की शुरुआत खेमराज भाई के साथ झाबुआ के जंगलों में की। इन जनश्रुतियों में खेमराज जी एक ऐसे सतत संघर्षशील व्यक्ति के रूप में उभरते हैं जो व्यवस्था के प्रति तो एकदम कठोर थे,मगर आम इंसानों के लिए फूल जैसे कोमल।
उनमें लोगों की दक्षता व कार्यकर्ता की जरूरत को पहचानने का मजबूत मानवीय हुनर मौजूद था,वे एक कुशल संगठक भी थे, निसंदेह उनकी प्रतिबद्धता वामपक्षीय थी,मगर वे अस्मितादर्शी बहुजन राजनीतिक सामाजिक धाराओं के भी समर्थक थे,कभी उन्हें बंदूक की नाल से क्रांति का सपना भाया तो कभी व्यवस्था में बदलाव के लिए उन्होंने कानूनों व नीति निर्माण का रास्ता भी अपनाया।
वे राजस्थान के लगभग हर आंदोलन के केंद्र में होते थे, उन्होंने खुद कईं अभियानों,आंदोलनों व जन संगठनों का निर्माण व नेतृत्व किया,कभी कभी वे मजाक में अपनी संस्था को एक दुकान कह देते थे, स्पष्टवादी तो थे ही,एकदम सपाट व खुरदरे भी थे,अन्य सामाजिक कार्यकर्ताओं की तरह थोड़े कानों के कच्चे भी थे,जल्दी चिढ़ जाते थे,लड़ लेते थे,पर मन में ग्रंथि नहीं पालते थे,जोरदार बहस के बाद थोड़ा रूठ जाना ,पर जल्द ही पुनः संवाद बना लेना उनकी फितरत में था।
वे किस्सा गो थे,वे स्वयं में ही संस्थान भी थे,उनसे मिलकर व्यक्ति जीवन की सार्थकता खोजने निकल पड़ता था,उनसे मुद्दों के उभार और जन गोलबंदी के तौर तरीकों को सीखा जा सकता था।
मुझे उनसे बहुत कुछ जानने व सीखने को मिलते रहता था,उन्होंने कईं बार कहा भी साथ आने को,पर मेरी किसी से निभती कहाँ है,इसलिए कभी पूर्णकालिक उनके साथ नहीं गया ,पर एक दूसरे के आंदोलनों का हम सदैव हिस्सा रहे।
करजली की जनसुनवाई हो अथवा अचलपुरा का खाट आंदोलन,2005 का उनका सैंकड़ों आदिवासियों के साथ कईं दिनों का जयपुर कूच रहा हो अथवा सुलिया का हमारा मंदिर प्रवेश आंदोलन ,खेमराज जी इन सबमें अगली सफ़ में खड़े हुए थे।
वे हम जैसे नव सिखिया कार्यकर्ताओं के हौंसला थे,2005 में जब मैं अपनी एक किताब 'फासीवाद की आहटें' पर हुये विवाद को लेकर निर्वासन भोग रहा था,तब वे मानव अधिकार कार्यकर्ताओं की एक टोली के साथ मेरे कार्यक्षेत्र में आये और खुलकर मेरे पक्ष में अपनी बात रखी।
खेमराज जी के आग्रह पर मैंने अगस्त 2005 में "भीलों की पदचाप" नामक किताब भी लिखी,जो भील समुदाय का संक्षिप्त इतिहास और वर्तमान दशा व दिशा को प्रस्तुत करती है।
वे मेरा लिखा निरन्तर पढ़ते और उस पर अपने सुझाव देते थे,कईं मामलों में हमारी घनघोर असहमतियाँ थी,हम बहस करते थे,कभी कभी तो लड़ ही लेते थे,पर मन उनका मैला न था,व्यक्ति झुंझारु था,पर विषैला न था,उनमें टिपिकल एनजीओनुमा काईंयापन नहीं था,वे किसान मजदूर पृष्ठभूमि से आये थे,उनमें एक सहजता व सरलता थी,कड़वा मीठा मुंह पर कह देते थे,उनमें मध्यमवर्गीय सोशल एक्टिविस्टों सा दोगलापन व पाखण्ड नहीं था,वे दलितों,आदिवासियों व गरीबों के प्रति समर्पित सच्चे साथी थे।
खेमराज जी को कैंसर का पता चल जाने के बाद भी वे हारे नहीं,उन्होंने तब तक काम किया,जब तक उनकी चेतना व देह में क्षमता बची रही।
खेमराज जी का जाना हमारे लिए तो व्यक्तिगत क्षति है ही,उनके बाद राजस्थान की सिविल सोसायटी में भी बहुत खालीपन आएगा,निःस्वार्थ सामाजिक सरोकारों वाले ऐसे लोग सदियों में कभी कभी पैदा होते हैं,जिनका जीवन ही प्रेरणा बन जाता है।
खेमराज जी ने एक आवासीय विद्यालय भदेसर में खोला,जो आज भी काम कर रहा है,वे लंबे समय तक प्रयास में रहे,उन्होंने अपने जीवन के आखिरी समय में नितांत गरीब आदिवासी परिवारों को राशन की पोटली पहुंचाने का काम शुरू किया,वे फेसबुक पर इसको अपनी सधुक्कड़ी लेंग्वेज में अपडेट करते थे,जिसे पढ़ना बहुत मजेदार होता था,श्रुति ने इसे 'खेमराज भाई की डायरी' नाम से प्रकाशित किया है.
खेमराज जी सिविल सोसायटी के कबीर थे,एकदम खरे,खुरदरे,सपाट, सरल और आदर्श व्यक्ति, उनका जाना इस तिमिर को और घना कर गया है। खेमराज जी को अंतिम सैल्यूट, विन्रम श्रद्धाजंलि , शत शत नमन।
(लेखक 'शन्यूकाल' के संपादक हैं।)