देश में लिंचिंग अब इतनी आम हो गई है कि लोग इसपर दुखी होना भी समय की बर्बादी समझते हैं

Written by Mithun Prajapati | Published on: September 26, 2019
साधो, अमेरिका से खबर आ रही है कि भारत में सबकुछ ठीक-ठाक है। कुछ समस्याएं हैं जिन्हें सरकार की दृष्टि से देखें तो  समस्याएं नहीं कही जा सकतीं, मसलन कश्मीर में लगा हुआ कर्फ्यू जो 50 दिन से भी अधिक हो गया, वहां गायब हुए 13000 से भी अधिक बच्चे, चिन्मयानंद, 'पंजाब एंड महाराष्ट्र को ऑपरेटिव बैंक' में फंसे मध्य वर्ग के मेहनत का पैसा, या फिर प्याज के चढ़ते दाम। 



साधो, कल एक खबर मिली कि मध्य प्रदेश में दो मासूमों को महज खुले में शौच करने के कारण मार डाला गया। देश में हालात इस तरह के हो चुके हैं कि किसी को भी पीट-पीटकर मार डालने के लिए कोई बड़े कारण दिखाई नहीं दे रहे। वह सितंबर 2015 का आखिरी हफ्ता था जब मैंने पहली बार लिंचिंग शब्द सुना था। शायद 28 सितंबर था जब अखलाक नाम के व्यक्ति को घर से निकालकर भीड़ ने मार डाला था। इस लिंचिंग की वजह अखलाक के फ्रीज में बीफ रखा होना बताया गया था। यह खबर सुनकर रोंगटे खड़े हो गए थे। उस समय दिमाग में बस यही चल रहा था कि ऐसा भी कोई कर सकता है क्या? 

साधो, अब लिंचिंग आम हो गई है। आये दिन खबर मिलती रहती है कि फला जगह एक मुसलमान लिंच कर दिया गया, फला जगह एक दलित, आदिवासी, गरीब, मन्दबुद्धि, महिला की लिंचिंग हो गयी। पहले ये खबरें संवेदनशील पत्रकारों, नागरिकों, बुद्धजीवियों ,समाजसेवियों को झकझोरती थीं। लोग इसके खिलाफ बोलते थे, सड़कों पर उतरते थे पर अब सब आम हो गया है इसलिए सब नॉर्मल सा लगता है। ढाई साल पहले तक जब लोग लिंचिंग के खिलाफ सड़कों पर थे और #not_in_my_name की तख्तियां  हाथों में थीं तो लगता था कि समाज में संवेदना है पर अब ये सब नहीं दिखता।  लोगों को आदत हो गई है लिंचिंग शब्द को सुनकर आगे बढ़ जाने की।

साधो, उस समय को याद करता हूँ जब कठुआ और उन्नाव की पीड़ित बेटियों के लिए लोग सड़कों पर थे। आंदोलन हुआ और उसका असर भी दिखा। पर इस समय चिन्मयानंद के खिलाफ कोई सड़क पर उतरने को तैयार नहीं। स्थिति यहाँ तक पहुंच गई है कि लोग आरोपी के पक्ष में घटिया से घटिया तर्क दिए जा रहे हैं। ऐसा पहले न होता था। लोग रेप पीड़िता के न्याय के लिए नहीं खड़े होते थे कोई बात नहीं पर इतनी समझ थी कि आरोपी के साथ तो कत्तई न खड़े होते। मैंने कठुआ मामले के दौरान देखा था जब कुछ वकील और कुछ लोग बलात्कारियों के समर्थन में तिरंगा लेकर सड़कों पर उतरे थे।  

साधो, यह भक्ति का असर है। भक्ति में सही गलत  नहीं होता। बस भक्ति होती है। भक्त अपने ईष्ट का आंख बन्द कर समर्थन करता है। साधो, मैंने कल कहीं पढ़ा कि जो सरकार जनता कि अपेक्षाओं पर खरा उतरे वही बेहतर सरकार होती है। मैं यहां की आम जनता की अपेक्षाएं देखता हूँ, उन्हें क्या चाहिए? जनता राम मंदिर चाहती है, कश्मीर में धारा 370 नहीं चाहती, पाकिस्तान पर आक्रमण चाहती है, युद्ध चाहती है। सरकार उनकी अपेक्षाएं पूरी कर रही है। यही सब  वादा करके  पार्टी विशेष सत्ता में आई है। 

साधो, शेष भारत की जनता को कश्मीर के कर्फ्यू से क्या लेना देना! अपना नेट तो चल रहा है, अपना तो पर्सनल दांत का डॉक्टर है थोड़ी फीस ज्यादा लेता है तो क्या! समय पर मिल तो जाता है क्लिनिक पर। मरें कश्मीरी बुखार से, भूख से, भय से। पाक से युद्ध होगा तो थोड़ा इंटरटेनमेन्ट भी होगा। वैसे भी आजकल क्रिकेट कम आ रहा है। PMC बैंक के लिए आरबीआई ने नियम लगाया है। अपना बैंक तो दे रहा है न पैसा!

साधो, भक्ति में अंधे हुए लोगों को देखकर बस दया आती है। इनकी बुद्धि पर तरस आता है। कई ऐसे लोगों के ट्वीट वायरल हो रहे हैं जो नोटबन्दी का समर्थन कर रहे थे। पर अब ' पंजाब एंड महाराष्ट्र को ऑपरेटिव बैंक' में पैसा फंसे होने की वजह से रो रहे हैं और सरकार को कोसते हुए मदद की गुहार लगा रहे हैं। इनपर लोग हंस रहे हैं। जोक्स शेयर कर रहे हैं। पर मेरी संवेदना खाता धारकों के  साथ है और मैं चाहता हूँ कि सरकार इनके पक्ष में कुछ करे। क्योंकि साधो हम साधु लोग हैं। संवेदना में मिलावट नहीं है। किसी के दुख पर जोक्स अच्छे न लगते। चाहे भक्त हो या अंधभक्त।

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