कल एक रिश्तेदार का फोन आया। वे अंधभक्त हुआ करते थे। पर पिछले कुछ दिनों से महज भक्त ही रह गए हैं। हुआ ये था कि उनका कोई करीबी रिश्तेदार गुजरात से यूपी पैदल चलकर आया था जिससे वे केंद्र और गुजरात राज्य सरकार से नाराज हो गए थे। उन्होंने दोनों सरकारों को खूब बुरा भला कहा था। सत्तासीन सरकार को पहली बार उन्होंने फटकार लगाई थी। सरकार की उदासीनता से उनकी आंख थोड़ी खुल गई थी। पर भक्त अब भी वो थे।
आज फोन करते ही उन्होंने फिर से मजदूरों पर चिंता जताई। मैंने भी उनकी चिंता में शामिल होकर उनकी चिंता को कम किया। उनकी आवाज में वो चहक नहीं थी जो उनके 'सरकार के मास्टर स्ट्रोक' वाली बात करते हुए हुआ करती थी। उन्होंने थाली, ताली, मोमबत्ती, हेलीकॉप्टर से फूल गिराने वाली बातें पिछले दिनों खूब फूलकर की थी। उन्होंने मुझे लॉक डाउन के शुरुआती चरण में एक वीडियो भी शेयर किया था जिसमें वे सपरिवार गर्व से थाली पीट रहे थे। पर आज वे थोड़े ठंडे थे बात करने में।
इधर उधर के हाल के बारे में बात करने के बाद उन्होंने कहा- यार, दो हाथियों की लड़ाई में छोटे जानवर ही मारे जाते हैं।
मैंने पूछा- कहाँ हो गई हाथियों की लड़ाई ?
वे बोले- यार, तुम्हें तो बस मजाक सूझता है। यह तो कहावत है।
मैंने कहा- मुझे कैसे पता चलेगा कि आप कहावत ही कह रहे हैं? सरकार के समर्थक हैं आप। उनके सही तो सही गलत के साथ भी खड़े हो जाते हैं आप। क्या भरोसा सरकार ने इस लॉक डाउन में आपको चिड़िया घर देखने की अनुमति दे दी हो और आपने हाथियों की लड़ाई देख ली हो।
मेरी बात से वे भड़क गए। कहने लगे- तुम गंभीर समय में भी बस मजाक उड़ाओ। ये समय व्यंग का नहीं है।
मैंने कहा- थाली पीटते हुए यह खयाल न आया ? और जब मजदूर, फंसे हुए पैदल चल रहे लोगों के पैर से खून रिस रहा था, लोग हाइवे से लेकर ट्रेन की पटरियों पर अपनी जान खो रहे थे और सरकार आसमान से फूल बरसा रही थी, यह व्यंग न लगा आपको। आपने ही तो इन चीजों की तारीफ की थी और सरकार की हौसलाफजाई की थी। यह व्यंग न था ?
इतना सुनते ही उन्होंने फोन काट दिया। कुछ देर बाद फिर फोन किया उन्होंने। वे सीधे पॉइंट पर आते हुए कहने लगे- मैं यूपी सरकार और प्रियंका गांधी के भेजे हुए बसों की बात कर रहा था।
मैंने पूछा- तो आपको यह दो हाथियों की लड़ाई लग रही थी ?
उन्होंने फौरन कहा- बिलकुल यह दो हाथियों की लड़ाई थी। दो राजनीतिक पार्टियां आपस में लड़ रही थीं पर मजदूरों के बारे में कोई न सोच ....
मैंने उनकी बात को बीच में ही काट दिया। मैंने कहा- यह न तो दो हाथियों की लड़ाई थी और न ही दो पॉलिटिशियन की लड़ाई थी। यह एक राज्य के मुख्यमंत्री की जिद थी कि वह विपक्ष के द्वारा उपलब्ध कराई जा रही सुविधा को जरूरतमंद तक नहीं पहुंचने देगा।
वे बोले- मुझे ऐसा नहीं लगता। तुम ही बताओ यह तो राजनीति चमकाने के लिए ही किया गया है न कि 1000 बस बोलकर टारगेट पूरा करने के लिए एम्बुलेंस और स्कूटर का नंबर भी दे दिया गया है। और यूपी सरकार ने जांचकर खुद बताया है कि अधिकतर बसें फिटनेस टेस्ट पास नहीं कर पाईं।
मैंने कहा- आपने यूपी की रोडवेज बसों का ऊपरी फिटनेस देखा है? या आप ही बताइए, जो आपके घर दुपहिया वाहन है वह फिटनेस टेस्ट के मामले में कितना खरा उतरता है ?
उन्होंने कहा- कुछ कमियां हैं पर काम तो आ रही है न?
मैंने कहा- यही तो यूपी सरकार को समझना था। बसें काम तो आ जायेगी न। पर यहां नियति ही नहीं थी। काम लेने के लिए नियति का सही होना जरूरी होता है। प्रियंका ने जो बसें भेजी उनमें एम्बुलेंस भी थे। तो क्या एम्बुलेंस में लोग यात्रा नहीं कर लेते ? पैदल बोझ लेकर धूप में चलने से बेहतर नहीं होता कि उन्हें एम्बुलेंस ही मिल जाती चलने के लिए ? हम आप कभी घर से दूर बाजार में कभी साधन न मिलने से फंस जाते हैं पैदल ही घर निकल लेते हैं। इस कुछ मिनट की यात्रा में न जाने कितनी बार पीछे मुड़कर देखते हैं कि कोई आ रहा हो तो अपने वाहन पर बिठा ले। आप ही सोचो। जो लोग हजार किलोमीटर से भी दूर से पैदल आ रहे हैं उन्हें एम्बुलेंस या फिटनेस से क्या मतलब ! उन्हें तो बस घर पहुँचना है।
उन्होंने देर तक सुनने के बाद कहा- बात तो आपकी सही है।
मैंने फिर कहना शुरू किया- प्रियंका गांधी ने यहां तक कहा कि यदि वे चाहें तो अपने बैनर और झंडे लगा बसों पर। लेकिन बसें न रोकें। यह परेशान मजदूरों की बात है। उन्हें मदद मिलनी चाहिए।
उन्होंने कहा- हां कहा तो था।
मैंने कहा- फिर आप ही बताइए, इतना उदार होते हुए किसी नेता को कब देखा था ? क्या इस बात के लिए यूपी सीएम से सवाल नहीं होने चाहिए कि आपने फिजूल कारण बताकर बसों को लेने से इनकार क्यों कर दिया ?
उन्होंने कहा-आपकी बात सही है। सवाल जरूरी है।
मैंने कहा- तो क्या आपको अब भी लगता है की यह दो हाथियों की लड़ाई थी ?
उन्होंने कहा- बेशक नहीं। यह बस एक सत्तासीन पार्टी की जिद थी। और बसों का वापस भेजना कोरोना काल की वीभत्स घटना।
इतना कहते ही उनका फोन कट गया। मैंने देखा तो मेरा ही फोन स्विचऑफ हो गया था। किसी फोन विमर्श का यह सुखद टेक्निकल फाल्ट था यह।
आज फोन करते ही उन्होंने फिर से मजदूरों पर चिंता जताई। मैंने भी उनकी चिंता में शामिल होकर उनकी चिंता को कम किया। उनकी आवाज में वो चहक नहीं थी जो उनके 'सरकार के मास्टर स्ट्रोक' वाली बात करते हुए हुआ करती थी। उन्होंने थाली, ताली, मोमबत्ती, हेलीकॉप्टर से फूल गिराने वाली बातें पिछले दिनों खूब फूलकर की थी। उन्होंने मुझे लॉक डाउन के शुरुआती चरण में एक वीडियो भी शेयर किया था जिसमें वे सपरिवार गर्व से थाली पीट रहे थे। पर आज वे थोड़े ठंडे थे बात करने में।
इधर उधर के हाल के बारे में बात करने के बाद उन्होंने कहा- यार, दो हाथियों की लड़ाई में छोटे जानवर ही मारे जाते हैं।
मैंने पूछा- कहाँ हो गई हाथियों की लड़ाई ?
वे बोले- यार, तुम्हें तो बस मजाक सूझता है। यह तो कहावत है।
मैंने कहा- मुझे कैसे पता चलेगा कि आप कहावत ही कह रहे हैं? सरकार के समर्थक हैं आप। उनके सही तो सही गलत के साथ भी खड़े हो जाते हैं आप। क्या भरोसा सरकार ने इस लॉक डाउन में आपको चिड़िया घर देखने की अनुमति दे दी हो और आपने हाथियों की लड़ाई देख ली हो।
मेरी बात से वे भड़क गए। कहने लगे- तुम गंभीर समय में भी बस मजाक उड़ाओ। ये समय व्यंग का नहीं है।
मैंने कहा- थाली पीटते हुए यह खयाल न आया ? और जब मजदूर, फंसे हुए पैदल चल रहे लोगों के पैर से खून रिस रहा था, लोग हाइवे से लेकर ट्रेन की पटरियों पर अपनी जान खो रहे थे और सरकार आसमान से फूल बरसा रही थी, यह व्यंग न लगा आपको। आपने ही तो इन चीजों की तारीफ की थी और सरकार की हौसलाफजाई की थी। यह व्यंग न था ?
इतना सुनते ही उन्होंने फोन काट दिया। कुछ देर बाद फिर फोन किया उन्होंने। वे सीधे पॉइंट पर आते हुए कहने लगे- मैं यूपी सरकार और प्रियंका गांधी के भेजे हुए बसों की बात कर रहा था।
मैंने पूछा- तो आपको यह दो हाथियों की लड़ाई लग रही थी ?
उन्होंने फौरन कहा- बिलकुल यह दो हाथियों की लड़ाई थी। दो राजनीतिक पार्टियां आपस में लड़ रही थीं पर मजदूरों के बारे में कोई न सोच ....
मैंने उनकी बात को बीच में ही काट दिया। मैंने कहा- यह न तो दो हाथियों की लड़ाई थी और न ही दो पॉलिटिशियन की लड़ाई थी। यह एक राज्य के मुख्यमंत्री की जिद थी कि वह विपक्ष के द्वारा उपलब्ध कराई जा रही सुविधा को जरूरतमंद तक नहीं पहुंचने देगा।
वे बोले- मुझे ऐसा नहीं लगता। तुम ही बताओ यह तो राजनीति चमकाने के लिए ही किया गया है न कि 1000 बस बोलकर टारगेट पूरा करने के लिए एम्बुलेंस और स्कूटर का नंबर भी दे दिया गया है। और यूपी सरकार ने जांचकर खुद बताया है कि अधिकतर बसें फिटनेस टेस्ट पास नहीं कर पाईं।
मैंने कहा- आपने यूपी की रोडवेज बसों का ऊपरी फिटनेस देखा है? या आप ही बताइए, जो आपके घर दुपहिया वाहन है वह फिटनेस टेस्ट के मामले में कितना खरा उतरता है ?
उन्होंने कहा- कुछ कमियां हैं पर काम तो आ रही है न?
मैंने कहा- यही तो यूपी सरकार को समझना था। बसें काम तो आ जायेगी न। पर यहां नियति ही नहीं थी। काम लेने के लिए नियति का सही होना जरूरी होता है। प्रियंका ने जो बसें भेजी उनमें एम्बुलेंस भी थे। तो क्या एम्बुलेंस में लोग यात्रा नहीं कर लेते ? पैदल बोझ लेकर धूप में चलने से बेहतर नहीं होता कि उन्हें एम्बुलेंस ही मिल जाती चलने के लिए ? हम आप कभी घर से दूर बाजार में कभी साधन न मिलने से फंस जाते हैं पैदल ही घर निकल लेते हैं। इस कुछ मिनट की यात्रा में न जाने कितनी बार पीछे मुड़कर देखते हैं कि कोई आ रहा हो तो अपने वाहन पर बिठा ले। आप ही सोचो। जो लोग हजार किलोमीटर से भी दूर से पैदल आ रहे हैं उन्हें एम्बुलेंस या फिटनेस से क्या मतलब ! उन्हें तो बस घर पहुँचना है।
उन्होंने देर तक सुनने के बाद कहा- बात तो आपकी सही है।
मैंने फिर कहना शुरू किया- प्रियंका गांधी ने यहां तक कहा कि यदि वे चाहें तो अपने बैनर और झंडे लगा बसों पर। लेकिन बसें न रोकें। यह परेशान मजदूरों की बात है। उन्हें मदद मिलनी चाहिए।
उन्होंने कहा- हां कहा तो था।
मैंने कहा- फिर आप ही बताइए, इतना उदार होते हुए किसी नेता को कब देखा था ? क्या इस बात के लिए यूपी सीएम से सवाल नहीं होने चाहिए कि आपने फिजूल कारण बताकर बसों को लेने से इनकार क्यों कर दिया ?
उन्होंने कहा-आपकी बात सही है। सवाल जरूरी है।
मैंने कहा- तो क्या आपको अब भी लगता है की यह दो हाथियों की लड़ाई थी ?
उन्होंने कहा- बेशक नहीं। यह बस एक सत्तासीन पार्टी की जिद थी। और बसों का वापस भेजना कोरोना काल की वीभत्स घटना।
इतना कहते ही उनका फोन कट गया। मैंने देखा तो मेरा ही फोन स्विचऑफ हो गया था। किसी फोन विमर्श का यह सुखद टेक्निकल फाल्ट था यह।