वे आये और ठीक दुकान के सामने आकर खड़े हो गए। बड़े दिनों बाद आये थे। चेहरे पर मुस्कान थी। यह मुस्कान हंसी से थोड़ा कम और नॉर्मल मुस्कान से थोड़ा अधिक थी। हाथ में उनके एक छोटी सी थैली लटक रही थी। उस थैली में पनीर था। 100 ग्राम के करीब रहा होगा वह पनीर। वे उससे ज्यादा कभी खरीदते भी नहीं। घर में वे और उनकी पत्नी ही रहते हैं। वे आदमी बड़े जागरूक नागरिक हैं। ऐसा उनका मानना है। वे इस बात को मुझसे भी मनवा लेना चाहते हैं। उन्होंने यह मनवा लेने की कई बार कोशिश की है। पर वे निराश हुए हैं। दरअसल जागरूकता और स्वविवेक जिसमें साथ हो उसे जागरूक नागरिक का तमगा दे देने में मुझे कोई दिक्कत नहीं होती। पर अक्सर लोग जागरूक तो होते हैं पर स्वविवेक उनके अंदर से गायब होता है।
वे मेरे ठीक सामने खड़े थे। उनकी तोंद सामने लगे आलू से रगड़ खा रही थी। वे जरा भी तोंद में उथल पुथल लाते मसलन एक गहरी सांस खींचकर छोड़ देते तो ढंग से सजाकर रखे गए आलू सड़क पर बिखरकर अपने उठाये जाने का इंतजार करने लगते। यह उठाने वाला कौन होता? मैं होता, कोई सड़क पर चलने वाला राहगीर होता जिसे आलू के कुचल जाने का डर होता। वे तो कतई न होते। क्योंकि ऐसा कर लेने के लिए उनकी तोंद जरा भी इजाजत नहीं देती।
उन्होंने मेरी तरफ देखा। उन्होंने मुस्कुराहट को और बढ़ा दिया। मैं सोचने लगा। वे क्यों खुश हैं? क्या वे वरवर राव की रिहाई से खुश हैं? एक अस्सी से भी अधिक उम्र का बूढ़ा जो सरकार से असहमत होने की कीमत चुका रहा है। उसकी रिहाई पर कौन सा वह व्यक्ति होगा जो थोड़ा सा भी विवेक रखता हो और न खुश हो?
मेरे यह सब सोचने के पहले ही उन्होंने तपाक से मुंह खोला दिया और कहा- पुदुचेरी में कांग्रेस सरकार गिर गई।
मैंने कहा- बड़े दिन बाद आये आप?
उन्होंने कहा- हां थोड़ा बिजी हो गया था।
मैंने फिर पूछा- तबीयत तो ठीक है आपकी और वाइफ की?
उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा- हां, हम सब ठीक हैं। बढ़िया चल रहा है। न्यूज़ देख रहा था, कांग्रेस की पुडुचेरी सरकार गिर गई।
बीच में एक दो बात मुझसे और उनसे जरूर हुई। पर वे जैसे इस बात पर मुझसे चर्चा कर लेना चाहते थे कि पुदुचेरी में कांग्रेस सरकार गिर गई। इसलिए वे हर वाक्य के बाद यह वाक्य कह देते- न्यूज़ देख रहा था, कांग्रेस मात खा गई। सरकार गिर गई।
ऐसा कहने के बाद वे थोड़ा मुस्कुरा देते।
मैंने कहा- चर्चा के लिए और विषय हैं। यह राजनीति का सबसे भ्रष्ट काल है। रात को सोने जाओ तो सुबह कहीं न कहीं की सरकार गिरी मिलती है। सरकार गिरा देना, MLA खरीद लेना यह 'आम को काटकर या चूसकर खाने खाने वाले सवाल के जवाब' से भी अधिक सरल काम है। अकूत का पैसा जिस पार्टी के पास हो जाये वह कुछ भी कर सकती है।
वे थोड़ा गुस्सा हो गए। कहने लगे- यही काम कांग्रेस करती तो?
मैंने कहा- यह हम वोटर्स के लिए तब भी दुख का विषय होता।
इतनी जल्दी इस विषय को समेटते देख वे दुखी हुए। उनका मन था इस पर चर्चा हो। बहस हो, तीखी बहस हो। मैं कांगेस के पक्ष में बात रखूं और वे मुझपर चीखें चिल्लाएं। पर मैंने ऐसा होने नहीं दिया। कोई भी राजनीतिक बहस आज के दौर में इसी बात पर आकर समाप्त होती है- जो सरकार से असहमत हैं वे कांग्रेस के समर्थक हैं और देशद्रोही भी।
दस सेकंड का मौन उनके और मेरे बीच बना रहा। पहले वे दुकान के पीछे की तरफ आ जाते थे। हम चाय साथ मे पी लिया करते थे। पर यह करीब 7 साल पहले की बात हो गई है। हम चाय पीते वक्त महंगाई पर, बेरोजगारी पर शिक्षा, स्वास्थ्य पर बात करते थे कि क्या हाल हो गया है देश का। पर लास्ट टाइम वे कब आये थे दुकान के पीछे साइड मुझे याद नहीं। आज बड़े दिन बाद आये तो मुझे लगा आज हम साथ चाय पीने वाले हैं। पर ऐसा होता प्रतीत न हो रहा था। मुझे लगा वे अब कुछ खरीदेंगे। वे आलू के ठीक सामने खड़े थे। मुझे लगा अब आलू ख़रीदेंगे। पर वे तो आलू को देख ही न रहे थे। आंखे उनकी खुली थी । शायद वे पुदुचेरी में खोए थे। भाजपा की बनती सरकार देख रहे थे। खुली आँखों से थोड़ा मुस्कुरा भी रहे थे। मैंने उन्हें पुदुचेरी से वापस लाने की कोशिश में हमारे बीच चल रहे मौन को तोड़ने क्व उद्देश्य से कहा- वाह सर। आज तो पनीर लिए हैं। कुछ स्पेशल बनाने जा रहे हैं क्या?
मैं सफल हुआ। वे पुदुचेरी से वापस आ गए। उन्होंने कहा- क्या ख़ाक स्पेशल ! यह पनीर भी कोई स्पेशल चीज होती है?
मैंने कहा- हमारे यहां तो स्पेशल ही होती है सर। मिडिल क्लास का आदमी जब डिफरेंट बनाकर खाना चाहता है तो वह मटर पनीर बना लेता है।
उन्होंने मुंह बिचकाया। जैसे मैंने उन्हें नीम के पत्ते खिला दिए हों। बिचके हुए मुंह से कहा- हम वाइफ से परेशान हैं। आये दिन पनीर बनाकर सामने रख देती है।
मैंने कहा- आप अपनी पसंद का कुछ बना लिया करिए न सर। समय भी तो रहता है आपके पास?
उन्होंने मेरी बात सुनी फिर अपने अंदर गर्व के भाव को भरा। जैसे कोई टायर में हवा भरता है। उन्होंने उस गर्व वाले भाव से कहा- हमारे यहां मर्द चूल्हा जलाने नहीं जाते।
यह वाक्य कह देने के बाद उनके मुख पर एक बड़ा संतोष का भाव था। वे ऐसा महसूस कर रहे थे जैसे रसोईं में न जाकर अपने परिवार को श्रेष्ठता की चोटी पर बिठा आये हों।
मैं उनके बारे में सोचता हूँ। उनकी वाइफ के बारे के सोचता हूँ। बड़े से शहर में रहते हैं। 2 बीएचके का घर है। दो ही लोग रहते हैं। बच्चे कमाई के चक्कर में कहीं और रहते हैं। उच्च वर्ग के लोग हैं पर मानसिकता दुनिया की आधी आबादी गुलाम बनाए रखने वाली है।
थोड़ी देर शांति रही। वे फिर बोले- यह पनीर भी तो कितना महंगा हो गया है। नहीं !
मैंने कहा- क्या भाव लिए सर?
उन्होंने कहा- 100 ग्राम के चालीस रूपए ले लिए।
मैंने कहा- ठीक लिया है सर। यही भाव चल रहा है। महंगा तो है। पर महंगा हो भी क्यों न? डीजल पेट्रोल के भाव आसमान पर जा रहे हैं। सिलेंडर भी महंगा हो गया है। लोग बताते हैं सब्सिडी भी खत्म कर दी जा रही धीरे धीरे।
अब वे तिलमिलाए। बोले- डीजल पेट्रोल से पनीर का क्या लेना देना? तुम भी तेल का रोना लेकर बैठ गए।
मुझे लगा अब वे शेर पालने का उदाहरण देकर मुझे कंविंश करेंगे। पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। वे कहने लगे- कुछ चीजें बेहतर करने के लिए डीजल पेट्रोल महंगा हो रहा तो दिक्कत क्या है?
मैंने कहा- पनीर का भाव सर। पनीर का भाव।
मुझे डीजल की बढ़ी कीमतों से दिक्कत नहीं होती।
वे बोले - पनीर का डीजल,पेट्रोल, सिलेंडर से क्या संबंध?
मैंने बताया- जिन गाड़ियों से दूध गांव से शहर आता है पनीर बनने के लिए वे डीजल से ही चलती हैं अक्सर। और पनीर बनाने के लिए तो गैस से दूध गर्म करके की फाड़ा जाता है। शहरों में लकड़ी की भट्टियां नहीं जलने दी जातीं।
वे कुछ देर शांत रहे। मेरी तरफ देखते रहे। उन्होंने कहा- ये जो पनीर बनता है शहर के तबेले के दूध से बनता है। इसलिए ये लॉजिक मत दो की दूध बाहर से आता है इसलिए पनीर महंगा पड़ता है।
मैंने कहा- सर जो भैसें शहरों के तबेले में बंधी रहती हैं उनके लिए पुआल तथा अन्य तरह का चारा शहर के बाहर से आता है।
उन्होंने झटके में कहा- तो क्या करें? थोड़े से पनीर के लिए माँ बाप बदल लें?
मां बाप गलत होते हैं तो हम उन्हें बताते हैं कि आप गलत हो। इसके लिए उन्हें बदल नहीं देते। देश के लोग पनीर नहीं खाएंगे तो मर नहीं जाएंगे। इतना कहकर वे जाने लगे।
वे चले भी गए। मैं उन्हें पीछे से जाते हुए देख रहा था। पनीर की थैली हाथ मे लटकी पड़ी थी। मैं सोचता रहा कि पनीर नहीं खायेगा तो देश मर नहीं जाएगा। पर बेसिक चीजें इतनी महंगी हो जाएं कि आम आदमी की पहुंच से बिलकुल बाहर हो जाएं या बेरोजगारी इस हद तक बढ़ जाये कि लोगों के पास पैसे न हों तो क्या होगा?
मुझे वो दिन याद आ गया जब लॉकडाउन लगने के कुछ समय पहले वे दुकान पर आए और कहा था- दस-दस किलो आलू प्याज टमाटर घर छोड़ दो। क्या भरोसा सब बन्द हो जाए।
मैंने उनसे कहा था- सर, दस दस किलो दो आदमियों के लिए ज्यादा नहीं हो जाएगा? दो दो किलो भेज देता हूँ। थोड़ा थोड़ा सबको मिल जाना चाहिए।
उन्होंने कहा था- विपत्ति में अपने को बचा लो वही बहुत है। तुम्हें तो पैसे से मतलब है। किलो के पीछे चार रुपये ज्यादा ले लेना।
इतना कहकर जैसे ही वे गए थे उसके कुछ देर बाद दुकान से सब सामान लोग भर ले गए थे अफवाहों के चलते। किसी ने पैसे दिए तो किसी ने नहीं।
वे मेरे ठीक सामने खड़े थे। उनकी तोंद सामने लगे आलू से रगड़ खा रही थी। वे जरा भी तोंद में उथल पुथल लाते मसलन एक गहरी सांस खींचकर छोड़ देते तो ढंग से सजाकर रखे गए आलू सड़क पर बिखरकर अपने उठाये जाने का इंतजार करने लगते। यह उठाने वाला कौन होता? मैं होता, कोई सड़क पर चलने वाला राहगीर होता जिसे आलू के कुचल जाने का डर होता। वे तो कतई न होते। क्योंकि ऐसा कर लेने के लिए उनकी तोंद जरा भी इजाजत नहीं देती।
उन्होंने मेरी तरफ देखा। उन्होंने मुस्कुराहट को और बढ़ा दिया। मैं सोचने लगा। वे क्यों खुश हैं? क्या वे वरवर राव की रिहाई से खुश हैं? एक अस्सी से भी अधिक उम्र का बूढ़ा जो सरकार से असहमत होने की कीमत चुका रहा है। उसकी रिहाई पर कौन सा वह व्यक्ति होगा जो थोड़ा सा भी विवेक रखता हो और न खुश हो?
मेरे यह सब सोचने के पहले ही उन्होंने तपाक से मुंह खोला दिया और कहा- पुदुचेरी में कांग्रेस सरकार गिर गई।
मैंने कहा- बड़े दिन बाद आये आप?
उन्होंने कहा- हां थोड़ा बिजी हो गया था।
मैंने फिर पूछा- तबीयत तो ठीक है आपकी और वाइफ की?
उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा- हां, हम सब ठीक हैं। बढ़िया चल रहा है। न्यूज़ देख रहा था, कांग्रेस की पुडुचेरी सरकार गिर गई।
बीच में एक दो बात मुझसे और उनसे जरूर हुई। पर वे जैसे इस बात पर मुझसे चर्चा कर लेना चाहते थे कि पुदुचेरी में कांग्रेस सरकार गिर गई। इसलिए वे हर वाक्य के बाद यह वाक्य कह देते- न्यूज़ देख रहा था, कांग्रेस मात खा गई। सरकार गिर गई।
ऐसा कहने के बाद वे थोड़ा मुस्कुरा देते।
मैंने कहा- चर्चा के लिए और विषय हैं। यह राजनीति का सबसे भ्रष्ट काल है। रात को सोने जाओ तो सुबह कहीं न कहीं की सरकार गिरी मिलती है। सरकार गिरा देना, MLA खरीद लेना यह 'आम को काटकर या चूसकर खाने खाने वाले सवाल के जवाब' से भी अधिक सरल काम है। अकूत का पैसा जिस पार्टी के पास हो जाये वह कुछ भी कर सकती है।
वे थोड़ा गुस्सा हो गए। कहने लगे- यही काम कांग्रेस करती तो?
मैंने कहा- यह हम वोटर्स के लिए तब भी दुख का विषय होता।
इतनी जल्दी इस विषय को समेटते देख वे दुखी हुए। उनका मन था इस पर चर्चा हो। बहस हो, तीखी बहस हो। मैं कांगेस के पक्ष में बात रखूं और वे मुझपर चीखें चिल्लाएं। पर मैंने ऐसा होने नहीं दिया। कोई भी राजनीतिक बहस आज के दौर में इसी बात पर आकर समाप्त होती है- जो सरकार से असहमत हैं वे कांग्रेस के समर्थक हैं और देशद्रोही भी।
दस सेकंड का मौन उनके और मेरे बीच बना रहा। पहले वे दुकान के पीछे की तरफ आ जाते थे। हम चाय साथ मे पी लिया करते थे। पर यह करीब 7 साल पहले की बात हो गई है। हम चाय पीते वक्त महंगाई पर, बेरोजगारी पर शिक्षा, स्वास्थ्य पर बात करते थे कि क्या हाल हो गया है देश का। पर लास्ट टाइम वे कब आये थे दुकान के पीछे साइड मुझे याद नहीं। आज बड़े दिन बाद आये तो मुझे लगा आज हम साथ चाय पीने वाले हैं। पर ऐसा होता प्रतीत न हो रहा था। मुझे लगा वे अब कुछ खरीदेंगे। वे आलू के ठीक सामने खड़े थे। मुझे लगा अब आलू ख़रीदेंगे। पर वे तो आलू को देख ही न रहे थे। आंखे उनकी खुली थी । शायद वे पुदुचेरी में खोए थे। भाजपा की बनती सरकार देख रहे थे। खुली आँखों से थोड़ा मुस्कुरा भी रहे थे। मैंने उन्हें पुदुचेरी से वापस लाने की कोशिश में हमारे बीच चल रहे मौन को तोड़ने क्व उद्देश्य से कहा- वाह सर। आज तो पनीर लिए हैं। कुछ स्पेशल बनाने जा रहे हैं क्या?
मैं सफल हुआ। वे पुदुचेरी से वापस आ गए। उन्होंने कहा- क्या ख़ाक स्पेशल ! यह पनीर भी कोई स्पेशल चीज होती है?
मैंने कहा- हमारे यहां तो स्पेशल ही होती है सर। मिडिल क्लास का आदमी जब डिफरेंट बनाकर खाना चाहता है तो वह मटर पनीर बना लेता है।
उन्होंने मुंह बिचकाया। जैसे मैंने उन्हें नीम के पत्ते खिला दिए हों। बिचके हुए मुंह से कहा- हम वाइफ से परेशान हैं। आये दिन पनीर बनाकर सामने रख देती है।
मैंने कहा- आप अपनी पसंद का कुछ बना लिया करिए न सर। समय भी तो रहता है आपके पास?
उन्होंने मेरी बात सुनी फिर अपने अंदर गर्व के भाव को भरा। जैसे कोई टायर में हवा भरता है। उन्होंने उस गर्व वाले भाव से कहा- हमारे यहां मर्द चूल्हा जलाने नहीं जाते।
यह वाक्य कह देने के बाद उनके मुख पर एक बड़ा संतोष का भाव था। वे ऐसा महसूस कर रहे थे जैसे रसोईं में न जाकर अपने परिवार को श्रेष्ठता की चोटी पर बिठा आये हों।
मैं उनके बारे में सोचता हूँ। उनकी वाइफ के बारे के सोचता हूँ। बड़े से शहर में रहते हैं। 2 बीएचके का घर है। दो ही लोग रहते हैं। बच्चे कमाई के चक्कर में कहीं और रहते हैं। उच्च वर्ग के लोग हैं पर मानसिकता दुनिया की आधी आबादी गुलाम बनाए रखने वाली है।
थोड़ी देर शांति रही। वे फिर बोले- यह पनीर भी तो कितना महंगा हो गया है। नहीं !
मैंने कहा- क्या भाव लिए सर?
उन्होंने कहा- 100 ग्राम के चालीस रूपए ले लिए।
मैंने कहा- ठीक लिया है सर। यही भाव चल रहा है। महंगा तो है। पर महंगा हो भी क्यों न? डीजल पेट्रोल के भाव आसमान पर जा रहे हैं। सिलेंडर भी महंगा हो गया है। लोग बताते हैं सब्सिडी भी खत्म कर दी जा रही धीरे धीरे।
अब वे तिलमिलाए। बोले- डीजल पेट्रोल से पनीर का क्या लेना देना? तुम भी तेल का रोना लेकर बैठ गए।
मुझे लगा अब वे शेर पालने का उदाहरण देकर मुझे कंविंश करेंगे। पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। वे कहने लगे- कुछ चीजें बेहतर करने के लिए डीजल पेट्रोल महंगा हो रहा तो दिक्कत क्या है?
मैंने कहा- पनीर का भाव सर। पनीर का भाव।
मुझे डीजल की बढ़ी कीमतों से दिक्कत नहीं होती।
वे बोले - पनीर का डीजल,पेट्रोल, सिलेंडर से क्या संबंध?
मैंने बताया- जिन गाड़ियों से दूध गांव से शहर आता है पनीर बनने के लिए वे डीजल से ही चलती हैं अक्सर। और पनीर बनाने के लिए तो गैस से दूध गर्म करके की फाड़ा जाता है। शहरों में लकड़ी की भट्टियां नहीं जलने दी जातीं।
वे कुछ देर शांत रहे। मेरी तरफ देखते रहे। उन्होंने कहा- ये जो पनीर बनता है शहर के तबेले के दूध से बनता है। इसलिए ये लॉजिक मत दो की दूध बाहर से आता है इसलिए पनीर महंगा पड़ता है।
मैंने कहा- सर जो भैसें शहरों के तबेले में बंधी रहती हैं उनके लिए पुआल तथा अन्य तरह का चारा शहर के बाहर से आता है।
उन्होंने झटके में कहा- तो क्या करें? थोड़े से पनीर के लिए माँ बाप बदल लें?
मां बाप गलत होते हैं तो हम उन्हें बताते हैं कि आप गलत हो। इसके लिए उन्हें बदल नहीं देते। देश के लोग पनीर नहीं खाएंगे तो मर नहीं जाएंगे। इतना कहकर वे जाने लगे।
वे चले भी गए। मैं उन्हें पीछे से जाते हुए देख रहा था। पनीर की थैली हाथ मे लटकी पड़ी थी। मैं सोचता रहा कि पनीर नहीं खायेगा तो देश मर नहीं जाएगा। पर बेसिक चीजें इतनी महंगी हो जाएं कि आम आदमी की पहुंच से बिलकुल बाहर हो जाएं या बेरोजगारी इस हद तक बढ़ जाये कि लोगों के पास पैसे न हों तो क्या होगा?
मुझे वो दिन याद आ गया जब लॉकडाउन लगने के कुछ समय पहले वे दुकान पर आए और कहा था- दस-दस किलो आलू प्याज टमाटर घर छोड़ दो। क्या भरोसा सब बन्द हो जाए।
मैंने उनसे कहा था- सर, दस दस किलो दो आदमियों के लिए ज्यादा नहीं हो जाएगा? दो दो किलो भेज देता हूँ। थोड़ा थोड़ा सबको मिल जाना चाहिए।
उन्होंने कहा था- विपत्ति में अपने को बचा लो वही बहुत है। तुम्हें तो पैसे से मतलब है। किलो के पीछे चार रुपये ज्यादा ले लेना।
इतना कहकर जैसे ही वे गए थे उसके कुछ देर बाद दुकान से सब सामान लोग भर ले गए थे अफवाहों के चलते। किसी ने पैसे दिए तो किसी ने नहीं।