छुट्टी लेकर फ़िल्म देखने चले जाने वाला इंसान एब्नार्मल कैसे हो सकता है ?

Written by Mithun Prajapati | Published on: December 26, 2017
गुजरात चुनाव के बाद राहुल गांधी फ़िल्म देखने चले गए। कुछ विरोधियों ने खूब खिल्ली उड़ाई। एक चाचा से दिखने वाले साहब जो रोज मुझे मिलते हैं , खिल्ली लेने के उद्देश्य से कहने लगे- कितना लापरवाह आदमी है। अभी-अभी ताजपोशी हुई है और ये आदमी फ़िल्म देखने चला गया। यह आदमी मुझे नॉर्मल नहीं लगता। कभी विदेश घूमने निकल जाता है तो कभी फ़िल्म देखने। यह खुद ही मोदी जी के 'कांग्रेस मुक्त भारत' के सपने को साकार करवा देगा।

Rahul Gandhi
 
मैं उनके इस कथन से थोड़ा अचंभित हुआ कि कोई आदमी छुट्टी लेकर फ़िल्म देखने चले जाता है या बाहर कहीं घूम आता है तो वह एब्नॉर्मल कैसे हुआ !
 
मैंने पूछा- पर चचा फ़िल्म देखना, संगीत सुनना, किताबें पढ़ना, साहित्य से जुड़े रहना या फिर काम से कुछ पल निकालकर बाहर घूम आना, यही तो वे चीजें हैं जो एक इंसान को डिस्टर्ब होने पर नॉर्मल करती हैं। व्यक्ति जब रोजमर्रा की जिंदगी से ऊबने लगता है तो इन्हीं चीजों में खुशी तलाशता है। और एक बेहतर समाज के लिए यह जरूरी भी तो है !!
वे मेरी तरह आश्चर्य भरा मुंह खोलकर पूछ बैठे- बेहतर समाज का इन सब से क्या संबंध ?
 
मैंने कहा- चचा आपने जरूर पढ़ा होगा, साहित्य समाज का आईना है। और आप तो जानते ही हैं, फिल्में समाज पर कितना असर डालती हैं !! एक बेहतर सुमधुर संगीत व्यक्ति को कुछ पल के लिए.....
 
वे बीच में बात काटते हुए कहने लगे- पर राहुल गांधी में संस्कार नहीं है। बताओ ससुर, कोई अपनी माँ को पबलिक के बीच में चूमता है। 
 
इतना कहकर वे मोबाइल को जेब से निकालकर उसकी स्क्रीन पर उंगलियां फिराने लगे।

मैं अचंभित हुआ। अब ये क्या दिखाने वाले हैं और राहुल गांधी के बारे में ऐसा क्यों कह रहे हैं !!
 
उन्होंने मोबाइल की स्क्रीन मुझे दिखाते हुए कहा- बताओ यह आदमी मंच पर सोनिया का माथा चूम रहा है। कोई बेटा अपनी माँ को ऐसे चूमता है !! 
 
मैं उनके मोबाइल स्क्रीन पर निगाह डालकर देखने लगता हूँ। वे फिर थोड़ा गर्व भरी आवाज में कहते हैं- और नीचे ही फोटू में मोदी जी हैं , जो अपनी माँ के पैर छू रहे हैं। कितने संस्कारी हैं वे। देखो, कितना फर्क है इन दोनों में ।
 
मैंने फोटो को गौर से देखा, यह फोटोशॉप की हुई थी। जिसमें दो तस्वीरों को मिलाया गया था। आधे में राहुल गांधी सोनिया के माथे को चूम रहे थे। और आधे में नरेंद्र मोदी जी की फ़ोटो थी, जिसमें वे माँ के पैर छूते नज़र आ रहे थे। यह वही फोटो थी जब राहुल गांधी कांग्रेस के अध्यक्ष बने थे और मंच पर प्यार से माँ के माथे को चूम लिया था। 
 
मैंने राहुल गांधी वाली फोटो गौर से देखी। कितना स्नेह था उस तस्वीर के छोटे से हिस्से में। मैं कुछ क्षण देखता ही रह गया। मैं सोच में पड़ गया। 
 
प्रकृति का सबसे खूबसूरत दृश्य होता है न, जब कोई माँ प्रेम से अपने बच्चे का माथा चूम लेती है, बाप स्नेह से बेटी का माथा चूम लेता है, बेटा बाप से गले लिपट जाता है या प्रेम से माँ से  लिपटते हुए माथे को चूम लेता है । माथे को चूम लेना सच में प्यार और स्नेह को जताने का सबसे बेहतरीन तरीका है। मैं बहुत कोशिशों के बाद उस तस्वीर से निगाह को हटाने में कामयाब हो पाता हूँ। 

मुझे कुछ नहीं सूझता की मैं क्या कहूँ चचा से। मैं कहता हूँ- चचा, यह जो राहुल गांधी की तस्वीर है न, दुनिया की सौ सबसे खूबसूरत तस्वीरों में से एक लग रही। अचानक मुझे कुछ सूझता है। मैं उनसे कहता हूँ- चचा, आप मेरे जानने वाले इंसानों में सबसे नेक इंसान लगते हैं। सुबह शाम मिलते ही आप हाल पूछते हैं, कभी खाने को पूछते हैं। आप जब मेरे करीब होते हैं तो कितना अपनापन सा लगता है। मैं आप में अपने दादा जी का अश्क़ देखता हूँ। इतना कहते हुए मैंने उनके माथे को चूम लिया और उनको गले से लगा लिया। 
 
वे निश्छल आंखों से मेरी तरफ देखते रहे। थोड़ी देर खामोशी रही फिर वे कहने लगे- मेरी बेटी भी कभी कभी माथे को चूम लेती है। मेरे लिए वह सबसे खूबसूरत पल होता है। मैं भी स्नेह से उसके माथे को चूमना चाहता हूँ पर वह बड़ी हो गयी है। लोग क्या सोचेंगे  बस यही सोचते रह जाता हूँ। 

मैंने कहा- चचा, चार लोग क्या कहेंगे इससे हमें फर्क क्यों पड़ना चाहिए। क्या आप उन्हीं चार लोगों की बात कर रहे हैं जो यदि कोई गुंडा लड़की को छेड़ रहा है तो यह सोचकर निकल जाते हैं कि कौन सी लड़की मेरे घर की है या गुंडों से भिड़ाकर मैं मुसीबत क्यों मोल लूं। कोई प्रेमी प्रेमिका सड़क पर आपस में गले मिल रहे तो संस्कृति इन्हें खतरे में नज़र आती है और शराबी नशे में अपनी पत्नी को पीट रहा होता है तो इन्हें उनका व्यक्तिगत मामला नज़र आता है....
 
चाचा शायद मेरे कहने का आशय समझ गए और सामने पड़े 'फणीश्वर रेणु' का उपन्यास 'मैला आँचल' उठाकर कहने लगे- मैं इसे घर लिए जा रहा हूँ। पढ़कर लौटा दूंगा। क्योंकि साहित्य समाज का आईना होता है।

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