मीडिया चिल्ला रहा था, जिन लोगों ने स्टार बनाया, जिन लोगों ने उनकी फिल्में देखीं वहां नसीरुद्दीन को डर लग रहा है। अब उस मीडिया को देखना चाहिए कि जिन लोगों से नसीरुद्दीन डर रहे थे, उन्होंने उस डर को पक्का कर दिया है। नसीरुद्दीन को जो फील हुआ था उसे ही तो ज़ाहिर किया था।
जब हमें भूख लगती है तो क्या यह कहना चाहिए कि मुझे भूख नहीं लगी? जब प्यास लगती है तो क्या पानी पीकर प्यास बुझाने के बजाय मैं पाकिस्तान चला जाऊं? अगर भूखे को खाना खिलाकर भूख मिटाई जा सकती है। प्यासे की प्यास पानी पिलाकर बुझाई जा सकती है, तो क्या जिसे डर लग रहा है उसको यकीन दिलाकर डर नहीं निकाला जा सकता?
लेकिन ऐसा नहीं हुआ। मीडिया उनको "गैंग" में शामिल बताने लगा। वैसा ही गैंग जैसे लिंचिंग का विरोध करने पर अवॉर्ड वापस करने वालों का बना दिया गया था। उनको प्रोजेक्ट कर दिया गया था कि ये गैंग है।
अजीब मीडिया है। सवाल डरने वालों से पूछ रहा है। डराने वालों से नहीं।
ये तो वही बात हुई कि जिसका क़त्ल हुआ, उससे पूछा जाए कि बताओ तुम क़त्ल क्यों हुए? तुम तो इस शहर में पले बढ़े थे, काफी लोग तुम्हें चाहते भी थे तो बताओ क्यों हुए क़त्ल? पाकिस्तान क्यों नहीं चले गए?
सवाल सत्ता में बैठे लोगों से होना चाहिए था। सवाल कानून के रखवालों से होना चाहिए था। सवाल मीडिया को खुद से करना चाहिए था। क्यों शाम होते ही धर्म पर संकट के पैकेज चलाने लगता है। क्यों लोगों की मूलभूत जरूरतों को नजर अंदाज करके धार्मिक बहसें दिखाता है। क्यों मंदिर मस्जिद चिल्लाता है। नेताओं को सत्ता चाहिए और तुम्हें टीआरपी।
न्यूज चैनलों की बहसें सिर्फ हिन्दू मुस्लिम में सिमट कर रह गई हैं, जिन लोगों से अपने घर नहीं चलते वो चार-पांच हज़ार रुपए की दिहाड़ी पर ज्ञान बघारते हैं। वो बे सिर पैर की बातें करके।
देखिए आपने नसीरुद्दीन को अपने पैकेजों में कैसे प्रोजेक्ट कर दिया कि परेशानी पर बात ना करके लोग उनसे नफ़रत करने लगे हैं। उन्हें पाकिस्तान भेजने की तैयारी करने लगे हैं।
तुम अपनी पीठ थपथपाना कि तुमने अपना काम शानदार तरीके से किया है। अब तुम हैरान भी मत होना अगर किसी दिन नसीरुद्दीन को अपना डर ज़ाहिर करने से उन पर हमला भी हो जाए।
आपने जनता को जागरूक कर दिया कि नसीरुद्दीन के साथ क्या करना है। अगर यकीन ना आए तो आर्काइव में जाकर अपने पैकेज की भाषा फिर से सुनना कि तुम लोगों ने नसीरुद्दीन की कैसी छवि बनाकर पेश की है। उनके डर को और बढ़ा दिया है।
(लेखक पत्रकार हैं, यह आर्टिकल उनकी फेसबुक वॉल से साभार लिया गया है।)
जब हमें भूख लगती है तो क्या यह कहना चाहिए कि मुझे भूख नहीं लगी? जब प्यास लगती है तो क्या पानी पीकर प्यास बुझाने के बजाय मैं पाकिस्तान चला जाऊं? अगर भूखे को खाना खिलाकर भूख मिटाई जा सकती है। प्यासे की प्यास पानी पिलाकर बुझाई जा सकती है, तो क्या जिसे डर लग रहा है उसको यकीन दिलाकर डर नहीं निकाला जा सकता?
लेकिन ऐसा नहीं हुआ। मीडिया उनको "गैंग" में शामिल बताने लगा। वैसा ही गैंग जैसे लिंचिंग का विरोध करने पर अवॉर्ड वापस करने वालों का बना दिया गया था। उनको प्रोजेक्ट कर दिया गया था कि ये गैंग है।
अजीब मीडिया है। सवाल डरने वालों से पूछ रहा है। डराने वालों से नहीं।
ये तो वही बात हुई कि जिसका क़त्ल हुआ, उससे पूछा जाए कि बताओ तुम क़त्ल क्यों हुए? तुम तो इस शहर में पले बढ़े थे, काफी लोग तुम्हें चाहते भी थे तो बताओ क्यों हुए क़त्ल? पाकिस्तान क्यों नहीं चले गए?
सवाल सत्ता में बैठे लोगों से होना चाहिए था। सवाल कानून के रखवालों से होना चाहिए था। सवाल मीडिया को खुद से करना चाहिए था। क्यों शाम होते ही धर्म पर संकट के पैकेज चलाने लगता है। क्यों लोगों की मूलभूत जरूरतों को नजर अंदाज करके धार्मिक बहसें दिखाता है। क्यों मंदिर मस्जिद चिल्लाता है। नेताओं को सत्ता चाहिए और तुम्हें टीआरपी।
न्यूज चैनलों की बहसें सिर्फ हिन्दू मुस्लिम में सिमट कर रह गई हैं, जिन लोगों से अपने घर नहीं चलते वो चार-पांच हज़ार रुपए की दिहाड़ी पर ज्ञान बघारते हैं। वो बे सिर पैर की बातें करके।
देखिए आपने नसीरुद्दीन को अपने पैकेजों में कैसे प्रोजेक्ट कर दिया कि परेशानी पर बात ना करके लोग उनसे नफ़रत करने लगे हैं। उन्हें पाकिस्तान भेजने की तैयारी करने लगे हैं।
तुम अपनी पीठ थपथपाना कि तुमने अपना काम शानदार तरीके से किया है। अब तुम हैरान भी मत होना अगर किसी दिन नसीरुद्दीन को अपना डर ज़ाहिर करने से उन पर हमला भी हो जाए।
आपने जनता को जागरूक कर दिया कि नसीरुद्दीन के साथ क्या करना है। अगर यकीन ना आए तो आर्काइव में जाकर अपने पैकेज की भाषा फिर से सुनना कि तुम लोगों ने नसीरुद्दीन की कैसी छवि बनाकर पेश की है। उनके डर को और बढ़ा दिया है।
(लेखक पत्रकार हैं, यह आर्टिकल उनकी फेसबुक वॉल से साभार लिया गया है।)