लालू, लोकतंत्र और लहूलुहान धर्मनिरपेक्षता: मरहम रखने वाला नज़रबंद

Written by जयन्त जिज्ञासु | Published on: January 13, 2018
जमीन समतल करने का आह्वान करनेवाले अटल बिहारी वाजपेयी को भारतीय राजनीति के उदार चेहरे के रूप में स्थापित करने की आकुलता के दौर में जहां धर्मनिरपेक्ष देश को हिन्दू राष्ट्र में तब्दील करने की जबरन कोशिश की जा रही है, वैसे में सामाजिक फ़ासीवाद से जूझने का जीवट रखने वाले मक़बूल जननेता लालू प्रसाद कभी अप्रासंगिक नहीं हो सकते। उनके लिबरेटिव रोल पर ख़बरनवीसों ने बहुत कम कलम चलाई है। पर एक दिन इतिहास उनका सही मूल्यांकन करेगा। ताज़ा फ़ैसले इस बात की ताकीद करते हैं कि जब तक जुडिसरी में आरक्षण नहीं होगा, आंख मूंदकर भरोसा नहीं किया जा सकता। क़ानून का सेलेक्टिव इस्तेमाल हो रहा है। पहली बार जॉनाथन स्विफ़्ट ने न्याय की अन्यापूर्ण व्यवस्था पर ठीक ही चोट किया था -

Lalu Prasad yadav


"Laws are like cobwebs which may catch small flies, but let wasps and hornets break through."
 
थोड़ा पीछे चलते हैं। लालू प्रसाद, उनकी मीडिया-निर्मित छवि और उनके दल के बारे में सारी जानकारी के साथ नीतीश ने गठबंधन किया था। उन्हें कहीं से अंधेरे में नहीं रखा गया था। ये भी सच है कि इन तमाम कार्रवाइयों का सारा मसाला उन्होंने गुपचुप तरीक़े से मुहैया करवाया। बात-बात पर नैतिकता का राग अलाप कर असल मुद्दे से ध्यान भटकाने वाले नीतीश कुमार को दूर बैठकर बंद कमरे में मज़े लेने की पुरानी लत है। यह अकारण नहीं कि तेजप्रताप को छोड़कर तेजस्वी निशाने पर हैं, क्योंकि वे भलीभांति जानते हैं कि भविष्य में उनके लिए कोई चुनौती पेश करेगा तो वह शख़्स तेजस्वी है, तेजप्रताप नहीं। नीतीश जी अपनी छवि ज़ेब में रखे रहते हैं, भले सिद्धांत बंगाल की खाड़ी में विसर्जित हो जाए। तमाम संभावनाओं के बावजूद अपनी चिरकुटई के चलते वे बस मुख्यमंत्री बनके ही रह गए। वहीं जिनके पैर शूद्रों और दलितों को ठोकर मारते थे, उनके दर्प को तोड़ने का काम लालू प्रसाद ने किया। पलटने में माहिर नीतीश कुमार तक ने इसी साल कहा, "लालूजी का जीवन संघर्ष से भरा है। वे जिस तरह के बैकग्राउंड से निकलकर आए हैं और जिस ऊंचाई को हासिल किया है, वह बहुत बड़ी बात है"।
 
यह सर्वविदित है कि लालू-विरोध ही नीतीश कुमार की युएसपी रही है। मगर भूलना नहीं चाहिए सुशासन बाबू को कि बिहार उड़ती चिड़िया को हल्दी लगाता है। इस बार बढ़िया से चिन्हा गए हैं वे जनता की नज़र में। अब लोग रामविलास पासवान की उतनी तीखी आलोचना नहीं करते जितनी नीतीश की धोखाधड़ी की। मीडिया में तमाम लानतमलानत के बावजूद लालू का वोटर टस से मस नहीं हुआ है। इसलिए नहीं कि नके तमाम समर्थक येनकेनप्रकारेण धनार्जन के पक्षधर हैं, बल्कि इसलिए कि उन्हें मालूम है कि यह बदल की राजनैतिक कार्रवाई है। गिनचुन कर निशाना बनाया जा रहा है, ये वो समझते हैं, और शायद इसीलिए वे और मज़बूती से लालू के पक्ष में गोलबंद होंगे। बेनामी संपत्ति पर हमला बोलना है, तो हो जाए प्रधानमंत्री, मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों, सांसदों, विधायकों, विधानपार्षदों, पार्टी अध्यक्षों की यत्रतत्रसर्वत्र बिखरी जायदादों की क़ायदे से जाँच। हफ़्ता नहीं लगेगा कि कितने सूबों की सरकारें चली जाएंगी, महीने भर के अंदर लोकसभा गिर जाएगी।
 
संवादपालिका की चयनित प्रश्नाकुलता और न्यायपालिका की टिप्पणी एक स्वस्थ लोकतंत्र की परंपरा को तो कम-से-कम आगे नहीं बढ़ा रहा है। अगर ठंड से बचने का उपाय तबला बजाना है तो उस लोकस की तहकीकात करनी पड़ेगी जहाँ से न्यायपालिका की गरिमा को गिराने वाली टिप्पणी आ रही है। अगर किसी की सामाजिक पृष्ठभूमि के चलते यह कहा जाए कि इन्हें खुली जेल में रखा जाए क्योंकि इन्हें गाय-भैंस चराने का अनुभव है, तो यह मानव मर्यादा के सर्वथा प्रतिकूल है। फिर तो किसी ब्राह्मण के लिए ऐसी जेल का निर्माण कराना होगा जहाँ शादीब्याह, पंडिताई, पुरोहिताई, मुंडन, हवन वगैरह करने का इंतजाम हो। मने, कोई नाई जाति का है तो वो जेल के अंदर सैलून में जाके हजामत का काम करे। लोहार है, तो लोहा पीटे। कोयरी है तो, वहाँ सब्ज़ी उगाए, कुम्हार है तो, चाक चलाए। फिर तो आशाराम की प्रकृति, शौक़ व निपुणता का भी ख़याल करना होगा। वैसे आपको जानकर हैरानी नहीं होनी चाहिए कि एक पूर्व मुख्य न्यायधीश व राज्यपाल कोर्ट के अंदर आसाराम के चरणों में मुक्तिमंगल की इच्छा लिए लोटतोपोटते नज़र आए। यह सब मनुवादी न्यायव्यवस्था की पुनर्स्थापना की कवायद है।
 
बकौल अनिल जैन, “लालू प्रसाद को सज़ा सुनाते हुए न्यायासन से की गई यह टिप्पणी न सिर्फ अवांछनीय है बल्कि स्पष्ट रूप से न्यायालयी और मानवीय गरिमा के विरुद्ध भी है। इस टिप्पणी से नस्लवाद और फर्जी जातीय श्रेष्ठता के दंभ की बू आती है। इस टिप्पणी से दो दिन पहले जेल में सर्दी ज्यादा लगने की लालू यादव की शिकायत पर 'मी लार्डने फरमाया था कि सर्दी ज्यादा लगती है तो तबला बजाइए। यह टिप्पणी भी निहायत गैर जिम्मेदाराना और अमानवीय थी। अदालत का काम न्याय करना होता है लेकिन उपर्युक्त टिप्पणियां बताती हैं कि लालू प्रसाद के मामले में अदालत ने महज 'फैसलासुनाया है”।
 
आजकल जो लोग क्रूर अट्टाहास कर वाचिक हिंसा कर रहे हैं और अलग-अलग स्वरूप में निरंतर भद्दा मज़ाक करते आए हैं, उन 'पंचों' से भोलेभाले लोग उम्मीद पाले बैठे हैं। न्यायपालिका अब जिसकी लाठी उसकी भैंस हो गई है। ख़बरपालिका के प्रति सारी धारणा बदल गई कि जो अख़बार में लिखा होगा, सही ही होगा। वैसे ही, जो जजमेंट में लिखा होगा, सही ही होगा; का भ्रम भी लोगों का दरक रहा। और, ये दोनों ही स्थिति जम्हूरियत के लिए बेहद ख़तरनाक है। पहली बार इस मुल्क में ऐसा हो रहा है कि देश के उच्चतम न्यायालय के न्यायधीश को प्रेस कॉन्फ्रेंस करने की नौबत आ रही है। इससे अंदाज़ लगाया जा सकता है कि वो किस आंतरिक दबाव में काम कर रहे हैं औऱ मामला कितना संगीन है। मुख्य न्यायधीश ख़ुद पर लगे आरोपों की जांच या सुनवाई ख़ुद कैसे कर सकते हैं, क़ानून के जानकार इस पर भी चिंतित हैं।

लालू ने पहले ही कहा था कि 14 का चुनाव निर्णायक चुनाव है कि देश रहेगा कि टूटेगा!  इ s शुरूआत हईं, आगे-आगे देखS होखSता का... राजद ने लालू प्रसाद की स्लो प्वॉजन देकर हत्या की साज़िश का गंभीर आरोप मौजूदा सरकार पर लगाया है। अगर ऐसा कुछ भी होता है, तो किसी को अंदाज़ा नहीं है कि फिर क्या होगा? संभाल नहीं पाएंगे तिकड़मी लोग! ग़लत जगह हाथ डाल रहे हैं रायबहादुर
!
बिहार के गाँव-जवार-दियारा के लोग कह रहे हैं - ए भाई, लालू प्रसाद से बाक़ी कुछ भी करवा लो, पर लालू से तबला मत बजवाओ, क्योंकि
जब तबला बजेगा धिनधिन
s एगो पर बैठेगा तीन-तीन

जिस तरह से एक ही मुर्गा को बार-बार हलाल किया जा रहा है, उससे लगता है कि शुक्र है कि संविधान है, नहीं तो लालू को बीच चौराहे पर फांसी दे दी जाती और इतिहास लिखा जाता कि बड़ा ही अत्याचारी, दुराचारी, आततायी, व्यभिचारी, जुल्मी शासक था। और, आने वाली नस्लें वही पढ़तीं जो छपा होता। उसी को सच मानके वह पीढ़ी बैठ भी जाती कि सच में घिनौना आदमी होगा, ज़्यादती करता होगा तभी तो फांसी दी गई। न कोई सोशल मीडिया व अन्य प्लैटफॉर्म होता, न सच लिखा जाता। इसलिए, सदाक़त सामने आए, ख़ूब उभरकर आए। बोलने से ज़्यादा ज़रूरी है कि लिखो, ख़ूब लिखो, अनकही-अनसुनी-अनछुई बातों को भरपूर लिखो कि तुम्हारे न जाने कितने पहलू दबकर कोने में सिसकते रहेंगे। तुम्हारे बारे में कोई नहीं लिखेगा, और लिखेगा तो तुम्हें दुनिया का सबसे बड़ा आतंकी और दुश्चरित्र साबित करके छोड़ेगा।

जागो, जगाओ, सुषुप्त समाज में चेतना और रोशनी फैलाओ। याद है न, लालू ने क्या कहा था:
ओ गाय चराने वालो, भैंस चराने वालो,
बकरी चरानेवालो, भेड़ चराने वालो,
घोंघा बीछने वालो,
मूस (चूहे) के बिल से दाना निकालने वालो,
पढ़ना-लिखना सीखो, पढ़ना-लिखना सीखो।

 
आय से अधिक संपत्ति का मामला लालू 2010 में सुप्रीम कोर्ट से जीत चुके हैं। अब उन पर आरोप है कि वक़्त रहते उन्होंने इसका संज्ञान क्यूं नहीं लिया। जबकि वर्षों से चले आ रहे घोटाले में लालू ने ही जाँच के आदेश दिए। जो रवैया दिख रहा है, उससे लगता नहीं कि उन पर चल रहे केस निकट भविष्य में ख़त्म होने वाले हैं। इसलिए, ब्राह्मणवाद का सामाजिक विमर्श और उसकी न्याय व्यवस्था किस प्रकार सामाजिक न्याय के योद्धा लालू प्रसाद को ललुआ बना देती है और ठीक उसी तरह के आरोपी जगन्नाथ मिश्रा को जगन्नाथ बाबू बनाती है। ब्राह्मणवाद की न्याय प्रणाली के अन्यायों को रेखांकित किये जाने की ज़रूरत है। चारा घोटाले मामले में जांच के आदेश लालू प्रसाद ने दिए, राफेल डील में ऐसा ही आदेश देके मोदी जी दिखा दें, फालतू का 56 इंची मैसक्युलिनिटी वाली अश्लीलता व भोंडापन फैलाना ओछी राजनीति का द्योतक है। भागलपुर वि.वि. के अंग्रेज़ी के सेवानिवृत्त प्राध्यापक डॉ. मसऊद अहमद बिल्कुल सही कहते हैं:
चीरकर दिल क्या दिखाते उसको जिसके हाथ में
झूलती मीजान (तराजू) थी आँखों में बीनाई न थी।
 
लालू प्रसाद की तबीयत नासाज़ रहती है, हार्ट की सर्जरी हुई है, मधुमेह की बीमारी से जूझ रहे हैं। इसलिए जब उनके वकील ने सज़ा में रियायत की दलील दी तो जजमेंट के कुछ बिंदु दिलचस्प भी हैं औऱ हैरान करने वाले भी। उसमें कहा गया है कि लालू 24 घंटे एक्टिव रहते हैं, उन्होंने विपक्षी दलों की पटना में रैली की जिसमें संदेश गया कि उनकी पार्टी नेता है। इसे केंद्र और राज्य सरकार को अस्थिर करने की मुहिम के रूप में अदालत देख रही है। अब इस पर कोई हसे या अपना माथा पीटे! सुदर्शन फ़ाकिर ठीक ही कहते हैं:
मेरा क़ातिल ही मेरा मुंसिफ़ है 
क्या मिरे हक़ में फ़ैसला देगा


जनता की याद्दाश्त कमज़ोर है, वह छलावे और बहकावे में आ जाती है। जिसके लिए उसका नेता करता है, वह भी सबकुछ भुलाकर पूछती है कि आख़िर किया ही क्या है? इसलिए, कुछ बातों को बार-बार दोहराये जाने की ज़रूरत है। क्लास टू से लेकर फोर्थ ग्रेड तक की जितनी नौकरियां वेतनमान पर लालू के समय में मिलीं, उतनी नीतीश के अब तक के कार्यकाल में नहीं। और, केंद्र सरकार के हर साल 2 करोड़ रोज़गार पर तो पत्रकारों ने लब ही सिल लिए हैं। नीतीश ने कॉन्ट्रैक्ट (अनुबंध) पर बहाल कर युवाओं के भविष्य पर अनिश्चितता की मुहर लगाई और इससे ज़्यादा यह कि समान कार्य, समान वेतन के सिद्धांत को पलीता। हरिनारायण ठाकुर बताते हैं कि बीपीएससी की परीक्षा को ज़िला मुख्यालयों से हटाकर राजधानी में कराने का निर्णय लेकर लालू ने भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने की शुरूआत की।
 
लालू और नीतीश में एक बड़ा फ़र्क यह भी है कि जहाँ लालू के समय में अफ़सरशाही को अपनी हद पता थी, वहीं नीतीश के काल में अफ़सर नंगा नाच करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। ग़रीब-ग़ुरबों, कमज़ोर वर्गों पर पूरी नीचता के साथ धौंस जमाने का कोई मौक़ा नहीं जाने देते।
पिछले दिनों जिस बेशर्मी के साथ एक सीओ एक महिला के साथ गालीगलौज कर रहा था, उससे लगता है कि वो सीओ न हुआ कि पूरा अंचल ही उसके अब्बाजान की जागीर हो गई। इस कॉलोनियल माइंडसेट के साथ आम जनता को भेड़-बकरी समझने वाले अफ़सरान के लिए लालू प्रसाद का स्टाइल ही ठीक था जो रोज़ाना डेमोक्रोसी को एक्सरसाइज करते थे, डेमोक्रेटिक प्रॉसेस को डीपेन करने के काम में लगे रहते थे। अब इसे कोई खैनी लटवाने के प्रसंग से जोड़कर आइएएस की तौहीन समझे, तो उनकी इच्छा। उसके पीछे जो सामाजिक जागृति के संदर्भ में राजनैतिक संदेश था, वो बेहद गहरा था। प्रवचन करने से पहले थोड़ा पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन के पन्ने भी कभीकभार उलट लेना चाहिए।
 
लालू प्रसाद से पहले बिहार में कोई मुख्यमंत्री ही नहीं हुआ जो इतना भी संवेदनशील हो कि हर माह विशेष कष्ट के दिनों में कामकाजी महिलाओं के लिए दो दिन के विशेष अवकाश का प्रावधान करे। बहुधा मीडियानिर्मित धारणाप्रधान समाज में पुष्पित-पल्लवित महिलाएं भूल जाती हैं कि  महीने के विशेष कष्ट के दिनों में उनका विशेष ख़याल करते हुए लालू ने सत्ता में आने के दो साल के अंदर सेवारत खवातीन के लिए यह व्यवस्था कर दी। लालू को गरियाने से पहले ज़रा गूगल कर लें कि जो काम लालू ने आज से 25 साल पहले कर दिया था, वो काम आज भी इस देश के कितने सूबों के मुख्यमंत्री कर पाए हैं? यह तो सरासर कृतघ्नता है। कम-से-कम वो तो ‘गंवार’ सीएम रहे लालू का मज़ाक उड़ाना बंद कर दें। उन्हें तो क़ायदे से उनका शुक्रगुज़ार होना चाहिए।
 
सबसे अधिक ब्लॉक लालू ने बनाए, सबसे ज़्यादा प्राथमिक विद्यालय लालू ने खोले। इतना ही नहीं, लालू प्रसाद ने 5 स्टेट युनिवर्सिटी सत्ता में आने के 2 साल के अंदर और राबड़ी जी ने 1 युनिवर्सिटी 8 माह के भीतर खोल दी। पर, इसकी चर्चा आपने किसी मीडिया चैनल पर आज तक नहीं सुनी होगी।  मोदी जी ने साढ़े 3 साल में कितनी सेंट्रल युनिवर्सिटी खोली? ज़रा कोई पता करे, मुझे भी जिज्ञासा हो रही है। उल्टे, आए दिन ये पब्लिक फंडेड युनिवर्सिटिज़ पर गिद्धदृष्टि डालकर उन्हें प्राइवेट हाथों के हवाले कर देना चाहते हैं। आज़ादी के बाद के बिहार में, मुख्यमन्त्रियों की एक लंबी फ़ेहरिस्त है जिसमें तथाकथित सुशासन बाबू का भी नाम शुमार है।  लेकिन किसी भी मुख्यमंत्री के नाम पाँच विश्वविद्यालयों की स्थापना का श्रेय नहीं है सिवाय लालू प्रसाद को छोड़ कर! क्या नीतीश ने एक भी विश्वविद्यालय की स्थापना की? लालू प्रसाद ने अपने पहले कार्यकाल के शुरूआती दो वर्षों मे बिहार को 5 नई यूनिवर्सिटी (छपरा, आरा, हज़ारीबाग, मधेपुरा & दुमका में) दीं। एक तुरंत उसके बाद राबड़ी देवी के कार्यकाल में 98 में पटना में मिली। इतना करने में पूर्ववर्ती सरकारों को आज़ादी के बाद 43 साल लग गए। लालू की रफ़्तार ख़ुद ही सारा क़िस्सा बयाँ करती है कि समाज के बहुत बड़े वंचित वर्गों के युवाओं को उच्च शिक्षा से जोड़ने के लिए उनके अंदर क्या उमंग थी। बाद में कब, कैसे, क्या जाल बुने गए, क्या खेल हुए, हम सब उससे वाकिफ़ हैं। ऐसे व्यक्ति को भी जाहिल, गंवार और दृष्टिविहीन नेता साबित करने में मीडिया और बुद्धिजीवियों के एक बड़े वर्ग द्वारा कोई कोर कसर नहीं छोड़ी गई। ये रही सूची उन नये विश्वविद्यालयों की, मुझे कुछ नहीं कहना है :

1. जेपी विश्वविद्यालय, छपरा (90),
2. वीर कुँवर सिंह विश्वविद्यालय, आरा (92),
3. बीएन मंडल विश्वविद्यालय, मधेपुरा (92),
4. विनोबा भावे विश्वविद्यालय, हज़ारीबाग़, (92),
5. सिदो कान्हू मुर्मु विश्वविद्यालय, दुमका (92), और
6. मौलाना मज़हरुल हक़ अरबी फ़ारसी विश्वविद्यालय, पटना (98)
 

बिहार और देश के दूसरे हिस्सों के मेरे कुछ अभिन्न मित्र इन दिनों लगातार पूछते हैं कि लालू प्रसाद ने बिहार के लिए क्या किया ? उनके प्रश्न, उनकी चिंताएं वाजिब हैं। पर, बिहार में 1947 से 1989 तक का हिसाब-किताब करने में जब उनकी नगण्य दिलचस्पी देखता हूँ तो मुझे बिल्कुल हैरत नहीं होती। वे श्री कृष्ण सिंह, केदार पांडेय, विनोदानंद झा, केबी सहाय, बिंदेश्वरी दूबे, भागवत झा आज़ाद, जगन्नाथ मिश्रा, आदि के कार्यकाल को खंगालने के लिए जब माथापच्ची नहीं करना चाहते, तो मैं उनके लिए ख़ुश होता हूँ कि इस शीतलहरी में अच्छा है कि इन महान मुख्यमंत्रियों पर रिसर्च करते हुए उनकी कंपकंपी नहीं छूट रही। अच्छा है, वो वोट डालने जा रहे दलितों का हाथ काट दिए जाने वाले क्रूर अध्याय के पन्ने पलटने के दर्द से बच जाते हैं। बकौल जितेंद्र नारायण, पंचायतों और नगर निकायों को गैर राजनैतिक आधार पर कराने का निर्णय भी राबड़ी देवी के ही शासनकाल में लिया गया था जिससे आज बिहार के पंचायत और नगर निकाय राजनैतिक दलों के जोड़-तोड़ से बचे हुए हैं। जहाँ तक मजदूरों के पलायन का दोष लालू प्रसाद के सिर मढने की बात है तो बिहार के मजदूरों के पलायन और दुख-दर्द पर आधारित एक फिल्म 'दो बीघा जमीन' 1953 में बिमल रॉय ने बनाया था, तब लालू प्रसाद का अता-पता भी नहीं था”। लालू प्रसाद के शासन काल में ही दो बार विश्वविद्यालय शिक्षकों की नियुक्ति विश्वविद्यालय सेवा आयोग के माध्यम से और और दो बार प्राथमिक शिक्षकों की नियुक्ति BPSC के माध्यम से की गयी जिसे अब तक का बिहार में सबसे बेहतरीन और निष्पक्ष शिक्षक नियुक्ति प्रक्रिया माना जाता है। और आज भी बिहार की शिक्षा व्यवस्था को लालू प्रसाद के शासनकाल में नियुक्त शिक्षक ही बचाए हुए हैं। ख़ुद मेरे पिताजी 94 में बहाल हुए शिक्षक थे। जबकि नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली भाजपा-जद(यू) के 10 सालों के शासन की पहली विश्वविद्यालय शिक्षक नियुक्ति प्रक्रिया लगभग पिछले तीन साल से रेंग ही रही है। और झालमुड़ी की तरह “डिग्री लाओ, नौकरी पाओ”  की कुनीति ने तो प्राथमिक शिक्षा का बंटाधार ही कर दिया।
 
इसमें कोई दो मत नहीं कि लालू प्रसाद का शासनकाल 'विकासवादी ढिंढोरा मॉडल' के मानक पर संपूर्णता में कोई आदर्श उदाहरण नहीं कहा जा सकता है। 'विकास' के लिहाज़ से कोई आमूलचूल परिवर्तन हो गया हो, ऐसा भी नहीं। मगर, जो लोग उस "पंद्रह साल" के मीडियानिर्मित जंगलराज के पहले कई दशक की यंत्रणा भोग रहे थे, वो क्या उस 'मंगलराज' को भूल जाएंगे ?
 
लालू प्रसाद पर  उपदेश देने वाले बताएं कि कर्पूरी जी का क्या दोष था कि उनकी माँ-बहन-बेटी-बहू को गालियों से नवाज़ा गया, उन पर कौन-से घोटालों के आरोप थे?

ये आरक्षण कहां से आई
कर्पूरिया की माई बियाई।
MA-BA पास करेंगे
कर्पूरिया को बांस करेंगे।

कर कर्पूरी कर पूरा
छोड़ गद्दी धर उस्तूरा।
दिल्ली से चमड़ा भेजा संदेश
कर्पूरी बार (केश) बनावे
भैंस चरावे रामनरेश।


सच तो ये है कि लालू प्रसाद ने कर्पूरी ठाकुर के ही अधूरे कामों को अभी आगे बढ़ाना शुरू ही किया था कि कुछ लोगों को मिर्ची लगनी शुरू हो गई। 1990 में अलौली, खगड़िया की एक सभा में उन्होंने कर्पूरी जी को निराले ढंग से याद किया था, "जब कर्पूरी जी आरक्षण की बात करते थे, तो लोग उन्हें मां-बहन-बेटी की गाली देते थे। और, जब मैं रेज़र्वेशन की बात करता हूं, तो लोग गाली देने के पहले अगल-बगल देख लेते हैं कि कहीं कोई पिछड़ा-दलित-आदिवासी सुन तो नहीं रहा है। ज़ादे भचर-भचर किये तो कुटैबो करेंगे। ये बदलाव इसलिए संभव हुआ कि कर्पूरी जी ने जो ताक़त हमको दी, उस पर आप सबने भरोसा किया है।"
हैं और भी दुनिया में सियासतदां बहुत अच्छे
कहते हैं कि लालू का है अंदाज़े-बयां और।
(ग़ालिब से माज़रत के साथ)

 
ऐसा भीतररार और घुन्ना मुख्यमंत्री बहुत कम हुआ है, जो सिस्टम को ख़ामोशी ओढ़े घुन की तरह खाता रहे। भाजपा से कुछ कहिए तो प्रधानमंत्री कहते  60 साल। और नीतीश को कुछ कहिए तो हर सवाल के जवाब में - 15 साल का 'जंगलराज'। अजी साहेब, आपका भी तो तीसरा टर्म है, आप क्या इतने दिनों से आरएसएस के साथ झाल बजा रहे हैं?

बिहार में 600 करोड़ का धान घोटाला। रोज़ नये खुलासे, और उस पर नीतीश बाबू हर प्रेस कांफ्रेंस में कहते हैं कि आपलोगों को और कोई कामधाम तो है नहीं, पन्ना भरना है, तो छापते रहिए। फिर अगला वाक्य - देखिए भाई, हम शुरू से प्रेस की आज़ादी के पक्षधर रहे हैं... 

मने, दुनिया भर का क़ाबिल भारतीय राजनीति में बस यही एक प्रकांड विद्वान बचे हैं, बाकी सब वरदराज बैठे हैं यहाँ!

लालू के बारे में जितना दुष्प्रचार हुआ है, शायद ही दुनिया के किसी नेता के साथ यह अन्याय हुआ हो। उनके बारे में ‘भूराबाल’ की मनगढंत कहानी बनाई गई, जबकि उनका इससे उतना ही लेनादेना था जितना मोदीजी का देश की जनता से। मुख्य सचिव को पंखा से लटकाकर स्विच ऑन कर देने की क़िस्सागोई भी ख़ूब प्रचारित की गई जबकि वो कई बार इसका खंडन कर चुके हैं। हेमा मालिनी के गाल जैसा सड़क बना देने पर भी दुनिया उन्हें खलनायक बनाने पर आमादा थी। जबकि अटल जी की आदत थी चटक-मटक बात बोलने की, उन्होंने लखनऊ में चुटकी ली कि बिहारके CM लालू बोलते हैं कि बिहार का रोड हेमा मालिनी के गाल जैसा चिकना बना देंगे। बकौल लालू प्रसाद, “हम काहे को बोलेंगे भाई, क्यों बोलेंगे? लेकिन, हमारे मुँह में डाल दिया, लोग मज़ा लेते रह गये”।
 
इतना ही नहीं, अफ़वाहमास्टरों द्वारा लंबे समय तक यह झूठ फैलाया जाता रहा कि लालू प्रसाद ने कर्पूरी ठाकुर को कपटी ठाकुर कहा क्योंकि उन्होंने ग़रीब सवर्णों के लिए भी उस 26 % आरक्षण में से 3 % देने की व्यवस्था की। जबकि सच का इन बातों से दूर-दूर तक कोई लेनादेना नहीं है। बहुत दिनों से यह बात लिखना चाहता था। आइए, मैं आपको बताता हूँ कि इसमें कितना सच है, कितना झूठ। इस बार पिताजी दिल्ली आए, तो उन्होंने ख़ुद जो बताया, वो आज यहाँ रख रहा हूँ। हुआ यूं कि शिवनंदन पासवान को कर्पूरी जी विधानसभा अध्यक्ष बनाना चाह रहे थे। और, दूसरी तरफ गजेन्द्र हिमांशु भी अपनी दावेदारी पेश कर रहे थे। तो तय हुआ कि दोनों के नाम से लॉटरी निकाली जाए। लॉटरी के सहारे शिवनंदन पासवान बन गए विधानसभा अध्यक्ष। पर, जब पता चला कि लॉटरी में दोनों पर्ची शिवनंदन पासवान के नाम की ही कर्पूरी जी ने लिख के डलवा दी। बस, तभी से हिमांशु जी उन्हें कपटी ठाकुर बुलाने लगे। लालू का इस प्रसंग से कोई वास्ता ही नहीं। कर्पूरी जी ने अंतिम सांस लालू प्रसाद की गोद में ली। उनके गुज़रने के बाद ही वे अपने दल के नेता चुने गए, नेता, प्रतिपक्ष, बिहार विधानसभा बने। दोनों में कभी कोई तकरार ही नहीं था। हां, कर्पूरी जी रामविलास पासवान और रामजीवन सिंह को ज़रूर फूटी आंख नहीं देखना चाहते थे। कारण आपातकाल के दौरान नेपाल-प्रवास में एक अध्यापिका, जिनके यहाँ ये लोग ठहरे हुए थे; द्वारा कर्पूरी जी पर ग़लत आरोप लगाने को रामजीवन-रामविलास द्वारा सियासी तूल देना। बाद में कर्पूरी जी के प्रतिद्वंद्वी उस टीचर को उकसा कर बिहार भी बुलाते रहे, वह केस भी लंबा चला। जिस पासवान को कर्पूरी जी ने भागलपुर के पार्टी सम्मेलन में “भारतीय राजनीति का उदीयमान नक्षत्र” कहा था, उनके इस लिजलिजे आचरण से इतने कुढ़े थे कि एयरपोर्ट से उतरते ही दोनों को लोकदल से निलंबित कर दिया। कर्पूरी जी महान सोशलिस्ट नेता थे, निजी और सार्वजनिक जीवन में उन्होंने उच्च मानदंड स्थापित किए थे। पर, उनका नाम बेचकर लालू को कोसने वाले लोग अलबेले ही हैं। कृष्ण बिहारी 'नूर' ने ऐसे भलेमानुषों के लिए कहा है:

अपने दिल की ही किसी हसरत का पता देते हैं
मेरे बारे में जो अफ़वाह उड़ा देते हैं।
 
विश्वंभरनाथ प्रजापति कहते हैं कि जिनके घरों की लड़कियां अपने विवाह में 90 करोड़ की साड़ी पहनती हैं, वहां किसी को कोई करप्शन नहीं दिखाई देता है। लेकिन कोई बहुजन राजनेता या राजनेत्री बन जाते हैं, तो सबकी आंखों में चुभने लगते हैं। यही है न्याय इस देश का! इस देश में न्याय, राजनीति, मीडिया, शिक्षा, सिनेमा सब कुछ ही धर्म, जाति और जेंडर से निर्धारित होता है”। क्या ग़ज़ब है कि जनार्दन रेड्डी व उनकी बिटिया पर कभी न्याय बांटने वालों व देश की चिंता में दुबलाने वाले एंकरों-एंकरानियों की पेशानी पर बल नहीं पड़ता।

लालू को फंसाने की पूरी कहानी शिवानंद तिवारी की ज़बानी सुनेंगे तो आप सन्न रह जाएंगे। उनके और अश्विनी चौबे के बीच एक चैनल पर बहस को यहाँ रख रहा हूँ-

अश्विनी चौबे - बिहार की जनता को न्याय मिला है।
शिवानन्द तिवारी - अरे भाई, न्याय क्या मिला? इस देश में न्याय नहीं मिलता है।
...तब के दोनों जज जाति से ब्राह्मण थे जिनका उद्देश्य और माथापच्ची इस बात पर हो रहा था कि इस केस में लालू को कैसे फंसाना है, और हम सभी का ध्येय इस बात पर था कि लालू को चारा घोटाले में फंसाकर समता पार्टी को सत्ता में कैसे लाना है।

कुछ पश्चात्ताप तो शिवानन्द जी भी आज कर रहे होंगे। एक मामले में पिछले दिनों फ़ैसला आने के साथ ही कीर्तनिया मंडली लहालोट होने लगी। त्यागी जैसे क्लासिकल लुच्चे लालू के परिवार टूटने की बात कर रहे हैं। और, मुझे नुज़हत अंजुम का एक शेर याद आ रहा है :

वो शख़्स चला है मेरी पहचान मिटाने
जिस शख़्स की अपनी कोई पहचान नहीं है।

ये वही त्यागी हैं जिन्होंने षड्यंत्र करके बाबू जगजीवन राम के बेटे को फंसाया, सीडी बनवाई और मेनका गांधी की सूर्या मैग्ज़ीन में छपवा दिया। विस्तार से फिर कभी। गुजरात वाले साहेब वगैरह तो सीडी-सृजन में इनके सामने अभी बहुत कच्चे खिलाड़ी हैं। इसलिए, लालू का दिन  इतना दिन ख़राब नहीं हो गया है कि केसी त्यागी जैसे लोगों की अलबलाहट को वो तवज्जो देंगे।
 
कुछ मासूम बुज़ुर्ग युवा आके पूछते हैं कि साधु यादव का नाम सुना है? उनके लिए जवाब है,  हां सुना भी है और देखा भी। और साथ ही, मुन्ना शुक्ला, राजन तिवारी, सुनील पांडेय, सूरजभान सिंह, अनंत सिंह और आनंद मोहन का भी नाम सुना है, और उनकी कारगुज़ारियां-कारस्तानियां भी। पर, कुछ उत्सुकों के कानों के पास जाते ही इनके नाम छिटक जाते होंगे। आख़िर घुसे तो घुसे कैसे? नाम बड़े हैं और उनके कान के छेद इतने छोटे, इतने छोटे कि बहुते छोटे! मनुवाद और किसे कहते हैं! कोई नैतिकता का बोझा ढोए और कोई प्रवचन करे। कौन नहीं जानता कि लालू प्रसाद के सालों ने उनका किस कदर राजनैतिक व सामाजिक नुकसान किया। और, वो ख़ुद ही नहीं, राबड़ी देवी भी उनसे अपने आपको पलिटिकली डिसोसिएट कर चुकी हैं, जो वक़्त की माँग भी थी और जनाकांक्षा भी।

मेरा ख़याल है कि बिहार में जननेता कोई हुए, तो बस दो ही आदमी हुए, एक कर्पूरी ठाकुर, दूसरे लालू प्रसाद। कर्पूरी जी में कभी धनलिप्सा नहीं रही, इसलिए उन्हें लोग जननायक के रूप में याद करते हैं। और, लालू प्रसाद विशाल जनाधार के बावजूद किंचित संचय की प्रवृत्ति के चलते बहुत बड़े वर्ग के जनमानस से धीरे-धीरे उतरते चले गए, और उन्हें पता भी नहीं चला। इसमें कोई दो मत नहीं कि उनके ख़िलाफ़ दुष्प्रचार भी उतना ही हुआ और उनके समकालीन नेता ईर्ष्याद्वेष व अहसासे-कमतरी का शिकार भी कम नहीं हुए। पर, अपने आरंभिक दिनों में लालू कुछ काम ही ऐसा वो कर गए कि इतिहास के पन्ने से उन्हें मिटाया नहीं जा सकेगा। शायद इसीलिए उनकी ग़लतियों को बहुसंख्यक जनता भुलाती रही है, बार-बार मौक़े देती रही है। बकौल राजेश कुमार, “जब भी बिहार की सियासत में रीढ़ वाले नेताओं की सूची बनेगी, लालू प्रसाद का नाम शीर्ष पर होगा”।


लालू प्रसाद ने जमुई लोकसभा क्षेत्र की एक सभा में  2014 के लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान कहा था, “लालू कोई मंदिर-मस्जिद गिराके मुख्यमंत्री नहीं बना था। ग़रीब-गुरबों के दिलों पे राज़ किया है”। न जाने कितनी बार लालू की पलिटिकल ऑबिचरी लिखी गई इस देश की मनुस्ट्रीम मीडिया द्वारा, पर सांप्रदायिकता से बिना डिगे लड़ने का माद्दा रखने वाला यह अद्भुत सियासी शख़्स कि हर बार पूरी दहाड़ के साथ उठ खड़ा होता है। पिछले दिनों सोशल मीडिया पर जगन्नाथ मिश्रा से जुड़ी ख़बर की एक पुरानी कतरन तैर रही थी जिसमें सत्ता बचाने के लिए उन्हें मानवरक्त पीने का अनुष्ठान करते दिखाया गया। इसका न तो खंडन हुआ न पुष्टि। 

प्रगतिशील धड़ा तो अघोरी बाबा, ओझा-गुणी, टोना-टोटका, डायन-जोगिन, भूत-पिशाच-दैत्य, तंत्र-मंत्र, आदि के भ्रमजाल के सदा ख़िलाफ़ रहा है। बस कोफ़्त तब होती है जब जगन्नाथ मिश्रा की शासन-शैली का विरोध करने वाले लोग भी उन्हीं की तरह पोंगापंथ का शिकार होने लगते हैं। यह मानसिक गुलामी का रास्ता है जिससे बहुत हद तक आज़ाद कराने की शुरूआत कभी लालू प्रसाद ने की थी। पर, उनकी कोशिश को ख़ुद उसी धारा के लोग ज़ाया करने पे तुले हैं जो लंबी दौड़ के लिए ठीक नहीं।

लालू प्रसाद की एक और बात के लिए आलोचना होती है कि उनके कार्यकाल में अपराध बढ़ गया था, पलायन होने लगा था, शिक्षा तहसनहस हो गई थी। कोई 10 मार्च, 1990 से पहले के आंकड़े उठा कर देख ले और फिर उसके बाद के, या फिर 90 से 2005 के बीच के बिहार के और इसी कालखंड में बाक़ी राज्यों के, जवाब स्वतः मिल जाएगा। पर, दिक्कत यह है कि बस पर्सेप्शन के आधार पर गाल बजाने वाले लोग जमा हैं, और उनसे डेटा और फ़ैक्ट्स के आदार पर बात कीजिए तो आपको पसमांदगी से भरी जह्नियत वाला आदमी बताकर आपको ख़ारिज़ करने की नाकाम कोशिश करता हुआ बाग खड़ा होगा।
 
दिल्ली में उच्च शिक्षा की स्थिति अपेक्षाकृत बेहतर है, जेएनयू में पढ़ता हूँ, अच्छे इंसान व विद्वान गाइड के साथ रिसर्च कर रहा हूँ। पर, मुझे कोलंबिया स्कूल आफ जर्नलिज़म, कैंब्रिज या आक्सफर्ड में मौक़ा मिले, तो वहां मैं क्यों नहीं जाऊंगा? जिसे आप बिहार का गोल्डन एरा कहते हैं, तब भी पटना कालेज, बीएन कालेज, टीएनबी कालेज, वीमिंस कालेज, एल एस कालेज, सीएम साइंस कालेज, समस्तीपुर कालेज, आदि से लोग दिल्ली-कलकत्ता पढ़ने आते थे। इसलिए, सेल्फ पिटि का प्रदर्शन कर फजुल्ला राग अलापना बंद कीजिए कि लालू के चलते हमारा बचपन छिन गया, तो दिल्ली आना पड़ा, फलाना हो गया, ढेमकाना हो गया। अरे भाई, पहले कुछ ख़ास लोग ही साइंस कालेज पटना, विमिंस कालेज पटना, एसएम कालेज, भागलपुर, आदि का मुंह देख पाते थे, लालू के आने के बाद नमक-रोटी खाकर जीवन-बसर करने वाले दियारा क्षेत्र के लोगों के बाल-बच्चे भी इन संस्थानों में पहुंचने लगे, आपके बगल में बैठ कर पढ़ने लगे, तो आपको बड़ी दिक्कत। इनको देखते ही आप छिछिछिछि करने लगे।
 
जब कोसी कालेज, खगड़िया में मेरे बाबूजी पढ़ते थे, तो वहां केमिस्ट्री के एक घनघोर जातिवादी प्रफेसर प्रैक्टिकल में ही लोगों को निशाना बनाकर शिकार करते थे। बाबूजी के नानाजी कबीरपंथी थे, वो कहने गए कि प्रोफेसर साहेब, इतना कम नंबर आपने दिया, बताइए, बच्चे का तो हौसला ही टूट जाएगा। इस पर प्रोफेसर साहब बोले, "जाइए-जाइए भगत जी, आपका नाती मेरे हाथ से पास कर गया, इसको आप कम बड़ी बात समझते हैं"।

एक साहब तो साल्ट एनालिसिस में ईंट पीस कर मिला देते थे, अब करते रहो आप डिटेक्ट।

तो, असल में पीड़ा यहाँ है, कुछ लोगों को दर्द कहीं हो रहा है, बता कहीं और रहे हैं। समाज में आज भी विद्वेष फैलाने वाले अगलगुआ लोगों को पहचानिए और नयी पीढ़ी को उनकी आग में झुलसने से बचाइए। समाज चलेगा-बढ़ेगा सह-अस्तित्व की भावना से, एकाधिकार अब किसी का बर्दाश्त नहीं किया जाएगा, किसी भी क्षेत्र में नहीं, बहुत देखे नाटक। उपेक्षित लोग इज़्ज़त देते हैं, ये उनका स्वभाव है, कमज़ोरी नहीं; इसलिए तौहीन और ज़लालत किसी सूरत में वे नहीं सहेंगे।
 
जहाँ तक पलायन और ब्रेनड्रेन की बात है तो वो आज़ादी से पहले से ही होता रहा है। राजेंद्र प्रसाद जीरादेई (छपरा) में पैदा हुए, तो वो छपरा में ही क्यूं न पढ़े, अविभाजित बंगाल के प्रेसीडेंसी कॉलिज की शोभा बढ़ाने कलकत्ता जाने की क्या ज़रूरत थी? मां की ममता में ही पलते, घर का खाना भी मिलता, आम-महुआ के बगीचे में जाके बचपन, लड़कपन और यौवन को भी जी भरकर जी पाते! इसलिए, लालू से विद्वेष का कोई जवाब नहीं हो सकता।
 
देश की तेज़ी से बदलती राजनीति व एजेंडासेटिंग पर बड़ी पैनी नज़र रखने वाले और ताऊ देवीलाल (उन्हीं की बदौलत लालू प्रसाद के मुख्यमंत्री बनने की राह आसान हुई थी, और इसीलिए मैं अक्सर कहता हूँ कि बिहार हरयाणा का अहसानमंद है) के सूबे से ताल्लुक रखने वाले संजय यादव बारीकी से बेयर फ़ैक्ट्स परोस रहे हैं, “1990 में लालू जी ने जब बिहार सम्भाला था तब बिहार राज्य पर 900 करोड़ का क़र्ज़ा था। पटना का ऐतिहासिक गांधी मैदान और पटना जंक्शन गिरवी रखा हुआ था। लेकिन 2005 में जब लालू जी ने नीतीश को बिहार सौंपा था तब राज्य के ख़ज़ाने में 2700 करोड़ surplus थे। यही तो जंगलराज था। ख़ैर..

लालू जी केंद्र में रेल मंत्री थे। ग्रामीण विकास मंत्रालय राजद के पास था। मनरेगा योजना रघुवंश प्रसाद सिंह और लालू जी के दिमाग़ की शुरुआती उपज थी। पूरे देश की ग्रामीण सड़कों का निर्माण मनरेगा के तहत लालू जी की ही दूरदृष्टि का परिणाम था। बिहार में लालू जी ने यूपीए से दिल खोलकर पैसा दिलवाया। लालू जी 2004 में रेल मंत्री बने। बिहार में श्रीमती राबड़ी देवी जी मुख्यमंत्री थी। उन्होंने UPA सरकार के ख़ज़ाने का मुँह बिहार के लिए खुलवाया दिया।

विकास योजनाओं के केंद्रीय कैबिनेट से स्वीकृत होने और बजट आवंटन होने में 8-10 महीने लगते है। इन सब स्वीकृत योजनाओं का बजट बिहार को मिलना शुरू ही हुआ था कि बिहार में विधानसभा चुनावों के मद्देनज़र आचार संहिता लागू हो गई। दुर्भाग्यवश राजद की हार हुई और नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बन गए। पूर्व स्वीकृत योजनाओं पर आचार संहिता समाप्त होते ही कार्य शुरू हो गया। और विकास पुरुष बन गए नीतीश कुमार।

लालू जी ने नीतीश कुमार की सरकार आने पर भी UPA से बिहार को पैसे की कमी नहीं होने दी। लालू जी की बिहार में सरकार थी तब 6 साल NDA की केंद्र सरकार ने बिहार को फूटी कौड़ी नहीं दी थी। नीतीश कुमार और रामबिलास पासवान सरीखे नेताओं ने राज्य सरकार की वाजपेयी सरकार से मदद करवाना तो दूर राज्य को मिलने वाली योजनाओं और बजट में भारी कटौती और देरी करवाई। लेकिन लालू जी ने दुर्भावना से कभी कार्य नहीं किया।
तभी तो लालू जी बिहार की 85 फ़ीसदी लोगों के दिल में बसते है। बाक़ी सब मीडिया निर्मित छूशासन है ही...”
 
आजकल प्रश्नोत्तरी भी कम नहीं चल रही है। मुझ जैसे अदना व्यक्ति से भी राष्ट्रहित के बड़े-बड़े सवाल दागे जा रहे हैं। संवाद की तहज़ीब तो ज़िंदा रहनी ही चाहिए। एक बानगी:
बड़े मियां का सवाल: राबड़ी देवी को दहेज में जो चार बाछी मिली थी उससे बढकर 40 गायें हो गयी जिसके दूध बेचने से इतनी संपति अर्जित हुई है. लालू को बताना चाहिए कि उनके बेटों के पास 20 लाख की मोटरसाइकिल और 40 लाख से ज्यादा की बीएमडब्ल्यू गाडी कहां से आई. बिहार के कितने युवा हैं जो 20 लाख की मोटरसाइकिल और 40 लाख की बीएमडब्ल्यू गाडी की सवारी करते हैं. क्या यह घोटाले का पैसा नहीं है?

ख़ाकसार का जवाब: वाजिब सवाल। बस ऐसे ही अमित शाह और उनके सुपुत्र से भी पूछा जाना चाहिए। उस वक़्त आपकी जिज्ञासा पलायन क्यों कर जाती है? अंबानी द्वारा फाइल गायब कराने को लेकर क़ुबूलनामे के बावजूद आपकी घिग्घी क्यूं बंधने लगती है? आज कल 38500 रुपये की एक गीता माननीय खट्टर साहब की सरकार खरीद रही है मानो अब उससे सस्ती गीता पर हाथ रखकर शपथ लेना स्वीकार्य नहीं होगा। फिर भी, रणबांकुड़ों द्वारा चयनित प्रश्नाकुलता की बहादुरी!
 
और, न्यायालय के प्रति अदब के साथ कहना है कि जज को फ़ोन करके अपनी भावनाएं प्रकट करने वाले ये भारतमाता के सच्चे सपूत व प्रबुद्ध नागरिक कौन हैं? ऐसा मालूम पड़ता है कि लालू ने देश को लूट के कंगाल कर दिया हो। संदेश ऐसे दिया जा रहा है जैसे जज का नंबर राष्ट्र की सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा बन चुके लालू के ‘लंपटों’ के पास है और वो जज को आए दिन फोन करके तंग करते रहते हैं। जब लालूसमर्थकों के पास जज का नंबर है तो इस डिजिटल इंडिया के नमूने  क्या बैठ के झाल बजा रहे हैं? नंबर ऊपर करने के मामले में ट्रॉलर्स क्या इतने काहिल-निकम्मे हो गए हैं! घुमाओ फोन जज को और बोलो कि अगले मामले में लालू जैसे ‘गंवार-बकलोल’ की फसरी खींच लेने का फैसला सुनाएं। फिर जाके आरती उतारी जाए उस कलम की। उस एक निर्णय से देश की अखंडता, एकता और संप्रभुता बचा ली जाएगी। विश्वगुरू बनने की राह में सबसे बड़ा रोड़ा लालू है! जब तक इ आदमी ज़िंदा रहेगा, मोदी जी दुनिया के सिरमौर इस प्राचीन राष्ट्र का गौरव वापस नहीं ला पाएंगे! मतलब फ़साना बनाने  भी एक हद होती है! कहाँ से लाते हैं इतनी क्रिएटिविटी!
 
लालू को चाहने वाले दुनिया भर में हैं। एक ऐसा नाज़ुक वक़्त जबकि इस देश के अक्लियत भाइयों-बहनों की इस मुल्क के साथ सेंस ऑफ बिलॉंगिंग पर चोट की जा रही थी, वैसे समय में आडवाणी को गिरफ़्तार कर अल्पसंख्यक तबके के इस देश की नागरिकता और मिट्टी से जुड़ाव में दरक रहे भरोसे को पुनर्स्थापित किया। यह इस देश के प्रोग्रेसिव और सेक्युलर लोग बख़ूबी समझते हैं। इसलिए, उनको लगता है कि इस मोड़ पर लालू को बचाना जम्हूरी अंगों को बचाने जैसा है।
 
एक दिलचस्प वाक़या साझा कर रहा हूँ। 185 देशों की भागीदारी वाले 19वें विश्व युवा-छात्रोत्सव में शिरकत कर 18 दिनों के रूसी प्रवास से दो महीने पहले अक्टूबर में लौटा। मुख़्तलिफ़ तहज़ीब के लोगों से विचार साझा करना दिलचस्प तज़ुर्बा रहा। वहाँ एक रोज़ पाकिस्तान के सिंध प्रांत से आए प्रतिनिधियों के साथ लंच कर रहा था। मुझे बिहारी जानकर ख़ुश होते हुए उन्होंने पूछा - "और, लालूजी का क्या हाल है? सुना है, आपके यहाँ की सरकार उन्हें आजकल बड़ा तंग कर रही है"। यह मक़बूलियत बहुत कम हिन्दुस्तानी नेताओं को मयस्सर हुई है जो दोनों मुल्कों में समान रूप से आम-अवाम में मशहूर हों, और लोग उनकी फ़िक्र करते हों।

मैंने उनसे कहा कि आप लालू जी की खैरियत पूछ रहे हैं, उनकी सलामती की दुआ करते हैं, पर आपको मालूम है कि लालूजी ने आपके सिंध में पैदा हुए एक नेता को समस्तीपुर में गिरफ़्तार किया था? वो ठहाके लगाते हुए बोले, "अडवाणी को"? मैंने कहा, "जी। एक सिंधी होने के नाते आपको बुरा नहीं लगा"? वो बोले, "सच पूछिए, तो इसीलिए हमलोग लालूजी की इज़्ज़त करते हैं कि आडवाणी आग लगाने का काम करते हैं और लालू यादव आग बुझाने का काम करते हैं। अडवाणी जैसे लोग सिंध में पैदा हुए हों कि पेशावर में जनम लिए होते; ऐसे लोग किसी के नहीं होते, इंसानियत के दुश्मन हैं ऐसे नफ़रतगर्द"।
 
इसके पीछे लालू जी की जीवन भर की कमाई हुई जो पूंजी है, वो है बिना डगमगाए सेक्युलरिज़म की हिफ़ाज़त के लिए चट्टान की तरह अचल-अडिग रहना। एक बिहारी और उससे बढ़कर भारतीय होने के नाते अपने पड़ोसी देश के बाशिंदे की ज़ुबानी यह सुन कर और उनके दिल में धर्मनिरपेक्षता के अग्रिम पंक्ति के सशक्त प्रहरी के लिए इतना अदबो-एहतराम देखकर अच्छा लगा। सांप्रदायिक सद्भाव क़ायम रख विदेश में सर उठा कर हमें गर्व से बात रखने का अवसर देने के लिए लालू जी का रूस के ओलंपिक सिटी सोच्चि में मैं मन ही मन शुक्रिया अदा कर रहा था।
 
और, यहीं लगता है कि लालू भारतीय राजनीति और हिन्दुस्तानी समाज के तानेबाने को महफ़ूज़ रखने के लिए आज कितने अपरिहार्य हो गए हैं, जबकि अमेरिकी राष्ट्रपति मन की बात के चौथे एपिसोड में हमारे प्रधानमंत्री के साथ गुफ़्तगू करते हैं, श्रोताओं के सवालों का जवाब देते हैं, और अगले ही दिन स्वदेश रवानगी के पहले हमें नसीहत देकर चले जाते हैं कि विविधताओं-बहुलताओं को गाँधी और बुद्ध के देश में ज़िंदा रखा जाना चाहिए, मजहब के नाम पर रस्साकशी नहीं होनी चाहिए।
 
हर दौर में दो तरह के नेता हुए, एक लड़ने वाले , दूसरे सेटिंग-गेटिंग करने वाले। कर्पूरी-लालू-शरद पहली कैटेगरी के नेता हैं। इतिहास नीतीश सरीखे सेटिंगबाज़ों को याद नहीं रखता, और लड़ने व गाली सुनने वाले कभी बिसराए नहीं जाते। शरद-लालू में एक हज़ार ऐब हो सकते हैं, पर मंडल-संघर्ष में उनके योगदान को भला कौन भुला सकता है! लालू के पास दो रास्ते थे, या तो बाक़ी ‘समाजवादियों-बहुजनवादियों’ की तरह ख़ामोशी ओढ़ लेते और वसीम बरेलवी के शेर को बरतते रहते:
उसी को हक़ है जीने का इस ज़माने में
इधर का लगता रहे, उधर का हो जाए।

या फिर संघं शरणं गच्छामि हो जाते, जैसा कि उनके प्रिय ‘छोटे भाई’ ने किया, जिन्हें जिताने और मुख्यमंत्री बनाने के लिए ओपन हार्ट सर्जरी के बावजूद वो एक दिन में 8-10 सभाएं करते रहे, नतीजे आने पर दही से तिलक करते रहे, ख़ुद परोस कर दही-चूरा-तिलकूट खिलाते रहे, प्रधानमंत्री लायक़ व्यक्ति बते रहे, और वही ‘छोटा भाई’ पीठ में छूरा भोंक दिया। नीतीश की यह चिरपरिचित अदा जनता को पसंद नहीं आई। सचमुच लालू इतने वर्षों की सियासी ज़िंदगी गुज़ारने का बावजूद कपटी औऱ धूर्त नहीं हो पाए। न उन्हें मीडिया को मैनेज करना आया न ब्युरोक्रेसी को कपाड़ पर चढ़ाना आया। यह जानते हुए भी कि पिछले विधानसभा अध्यक्ष उदयनारायण चौधरी नीतीश के इशारे पर उनकी पार्टी को ही छिन्नभिन्न करने के लिए अपने पद की गरिमा को भी नीतीश के चरमों में रख दिया था; उसी नीतीश द्वारा विधानसबा अध्यक्ष की कुर्सी जदयू के लिए मांगे जाने के अनुरोध को वो ठुकरा नहीं पाए। जब जुलाई में पलिटिकल मेलोड्रामा हुआ, तो नीतीश ने अपने लोगों को संबोधित करते हुए बाद में कहा, “जब महागठबंधन हुआ, तो लोग मुझे बोलते थे कि आपका अलग स्वभाव है, उनका जुदा मिजाज़, इ ग्रैंड अलायंस चलेगा? तो मैं बोलता था कि अरे दू-चार-दस महीना तो चलाइय्ये न देंगे!” अब यह मनोवृत्ति क्या दर्शाती है? मतलब शुरू से ही छल-कपट-धूर्तई नीतीश के मन में पल रहा था। जनादेश क्या नीतीश कुमार की ज़ाती जागीर थी जिसे घोषणापत्र के ठीक विरुद्ध विपक्षी खेमे में उन्होंने शिफ़्ट कर दिया। इतने सलीक़े से हिन्दुस्तान के 70 साल के सियासी इतिहास में शायद ही किसी ने किसी को ठगा हो। 

पर, लालू ने इन दोनों रास्तों की ओर एक नज़र देखा भी नहीं। ऊन्होंने चुना तीसरा रास्ता, नफ़रतगर्दी की ज़बर्दस्त मुख़ालफ़त का रास्ता, फ़िरकापरस्ती के फन कुचलने का रास्ता, सांप्रदायिक सौहार्द- क़ौमी एकता का रास्ता, सामाजिक न्याय के लिए सतत-अनवरत-निरंतर चलने वाले संघर्ष का रास्ता, फुले-अंबेडकर-पेरियार का रास्ता, लोहिया-जयप्रकाश-कर्पूरी का रास्ता। इसलिए, यह वक़्त राजद के विधायकों-सांसदों-पार्षदों-पार्टी पदाधिकारियों एवं लालू के पुत्र-पुत्रियों के लिए बेदाग़ रहने का है, मज़बूत इदादे व बुलंद हौसले के साथ लोहा लेने का है। जनता उनके साथ खड़ी दिखाई देती है, चाहे जनादेश अपमान के ख़िलाफ़ हुई उनकी यात्रा के दौरान मिला अपार जनसमर्थन हो या सृजन घोटाले, शौचालय घोटाले, धान घोटाले, प्राक्कलन घोटाले आदि को उजागर करने और जनता के बीच ले जाते हुई उनकी बढ़ती सहज स्वीकार्यता हो।
 
वो ग़लतियाँ कतई न दुहराएं, जो अतीत में लालू जी से हुईं। फूंक-फूंक कर क़दम रखना होगा। चालें चली जा चुकी हैं। असली लड़ाई 2019 और 20 में होगी। चंद मीडिया घराना उकसाएगा, पर मीडिया से उलझने का नहीं है। अभी सारे अच्छे लोग समाप्त नहीं हो गए हैं या कि इस सत्ता के आगे घुटने नहीं टेक दिए हैं। कड़वे से कड़वा सवाल क्यों न हो, पत्रकारों के प्रश्नों से क़ायदे से ही गुज़रना है, और माकूल जवाब देना चाहिए। समर्थकों को नाज़ुक घड़ी में भी संभले रहने का संदेश देना होगा। जनभावनाओं व जनाक्रोश पर न तो लालू का अख़्तियार है, न राबड़ी का। बावजूद इसके जनता के उबलते गुस्से को भांपते हुए राबड़ी देवी ने बिहारवासियों, अपने समर्थकों, कार्यकर्ताओं व पार्टी सदस्यों से इस नाज़ुक घड़ी में शांति व सब्र बनाए रखने की अपील की है। इसका स्वागत किया जाना चाहिए। तेजस्वी पूरे धैर्य व नैसर्गिक गरिमा के साथ जनता के मैदान में बने रहें, डटे रहें, जूझते रहें। जनता की अदालत कभी ग़लत फ़ैसले नहीं देती, न्याय वहीं से मिलेगा। याद रखिए, लड़ने वाले को ही ज़माना याद रखता है। 
 
-    जयन्त जिज्ञासु,
शोधार्थी, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली
 

बाकी ख़बरें