कर्पूरी ठाकुर: मां-बहन की गालियां सुनकर परिवर्तन का पहिया घुमाने वाला पुरोधा

Written by Jayant Jigyasu | Published on: January 25, 2020
आज नेता और पार्टी कार्यकर्ता, क्षेत्रीय पदाधिकारी के बीच आत्मीयता घट रही है, दूरी बढ़ रही है, संवाद ज़िंदाबाद-मुर्दाबाद के आगे बढ़ नहीं पाता। बहुत कम नेता अपनी प्रकृति में लोकतांत्रिक रह गए हैं जो बराबरी के सखा-भाव से कार्यकर्ताओं और नागरिकों से पेश आए जैसा कर्पूरी जी किया करते थे।



पिछड़ों-दबे-कुचलों के उन्नायक, बिहार के शिक्षा मंत्री, एक बार उपमुख्यमंत्री (5.3.67 से 31.1.68) और दो बार मुख्यमंत्री (दिसंबर 70 - जून 71 एवं जून 77- अप्रैल 79) रहे जननायक कर्पूरी ठाकुर (24.1.1924 – 17.2.88) का आज जन्मदिन है। उनका जन्म बिहार के समस्तीपुर के पितौंझिया गांव जिसे अब कर्पूरीग्राम कहा जाता है, में हुआ था। आज़ादी की लड़ाई में वे 26 महीने जेल में रहे, फिर आपातकाल के दौरान रामविलास पासवान और रामजीवन सिंह के साथ नेपाल में रहे। आज़ादी से पहले 2 बार और आज़ाद भारत में 18 बार जेल गए। 1952 में बिहार विधानसभा के सदस्य बने। शोषितों को चेतनाशील बनाने के लिए वो अक़्सर अपने भाषण में कहते थे –

उठ जाग मुसाफिर भोर भई
अब रैन कहां जो सोवत है।

बिहार में 1978 में हाशिये पर धकेल दिये वर्ग के लिए सरकारी रोज़गार में 26 प्रतिशत आरक्षण लागू करने पर उन्हें क्या-क्या न कहा गया, मां-बहन-बेटी-बहू को भद्दी गालियों से नवाज़ा गया। अभिजात्य वर्ग के लोग उन पर तंज कसते हुए ये भी बोलते थे – 

कर कर्पूरी कर पूरा
छोड़ गद्दी, धर उस्तुरा।

 ये आरक्षण कहां से आई
कर्पूरिया की माई बियाई।

 MA-BA पास करेंगे
कर्पूरिया को बांस करेंगे।

 दिल्ली से चमड़ा भेजा संदेश
कर्पूरी बार (केश) बनावे
भैंस चरावे रामनरेश।

उन पर तो मीडियानिर्मित किसी जंगलराज के संस्थापक होने का भी आरोप नहीं था, न ही किसी घोटाले में संलिप्तता का मामला। बावजूद इसके, उनकी फ़जीहत की गई। इसका समाजशास्त्रीय विश्लेषण तो होना चाहिए। आख़िर कहाँ से यह नफ़रत और वैमनस्य आता है? आज़ादी के 71 बरस बीत जाने और संविधान लागू होने के 69 बरस के बाद भी मानसिकता में अगर तब्दीली नहीं आई, तो इस पाखंड से भरे खंड-खंड समाज के मुल्क को अखंड कहके गर्वोन्मत्त होने का कोई मतलब नहीं।

कर्पूरी ठाकुर अपने दौर के प्रैक्टिकल पॉलिटिशियन भी कहे गए। लोहिया की इच्छा के विरुद्ध उन्होंने 67 में जनसंघ और कम्युनिस्ट पार्टी को एक साथ लाकर महामाया प्रसाद सिन्हा को गैर-कांग्रेसवाद की स्थापना के लिए मुख्यमंत्री बनाने की पहल की और ख़ुद उपमुख्यमंत्री बने।

कर्पूरी ठाकुर ने इंजीनियरिंग की डिग्री रखने वाले 5000 युवाओं को गांधी मैदान बुला कर नियुक्ति-पत्र बांट दी। 70 के दशक के उत्तरार्द्ध (78) में कर्पूरी ठाकुर सिर्फ़ सिंचाई विभाग में 17000 रिक्तियों (वैकेन्सी)  के लिए फेयर तरीके से ओपन रिक्रुटमेंट हेतु आवेदन आमंत्रित करते हैं। एक सप्ताह भी नहीं बीतता है कि यथास्थितिवादी लोग रामसुंदर दास को आगे करके सरकार गिरवा देते हैं।

वह पीढ़ी वाकई ख़ुशक़िस्मत है जो उसूल वाले सच्चे समाजवादियों से रुबरू हुई है। जब पहली बार 52 में कर्पूरी जी विधायक बने, तो ऑस्ट्रिया जाने वाले प्रतिनिधि मंडल में उनका चयन हुआ था। उनके पास कोट नहीं था, किसी दोस्त से मांग कर गए थे। वहां मार्शल टीटो ने देखा कि कर्पूरी जी का कोट फटा हुआ है, तो उन्हें नया कोट गिफ़्ट किया गया। आज तो लोग दिन में दस बार पोशाक ही बदलते हैं। कर्पूरी जी के अंदर कभी संचय-संग्रह की प्रवृत्ति नहीं रही। हमारी नस्ल लेसर एविल को चुनने को मजबूर है।

कर्पूरी जी अक़्सर कहते थे, “यदि जनता के अधिकार कुचले जायेंगे तो आज-न-कल जनता संसद के विशेषाधिकारों को चुनौती देगी”। 67 में जब पहली बार 9 राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारों का गठन हुआ तो जन क्रांति दल के महामाया प्रसाद के मंत्रिमंडल में कर्पूरी जी शिक्षा मंत्री और उपमुख्यमंत्री बने। उन्होंने मैट्रिक में अंग्रेज़ी की अनिवार्यता समाप्त कर दी और यह बाधा दूर होते ही कबीलाई-क़स्बाई-देहाती लड़के भी उच्चतर शिक्षा की ओर अग्रसर हुए, नहीं तो पहले वे मैट्रिक में ही घोलट जाते थे।

1970 में 163 दिनों के कार्यकाल वाली कर्पूरी जी की पहली सरकार ने कई ऐतिहासिक फ़ैसले लिए। 8वीं तक की शिक्षा उन्होंने मुफ़्त कर दी। उर्दू को दूसरी राजकीय भाषा का दर्ज़ा दिया। 5 एकड़ तक की ज़मीन पर मालगुज़ारी खत्म किया।

77 के जेपी लहर में जनता अलायंस ने कुल 345 सीटें हासिल की, जिनमें बिहार में 54 में 54 और यूपी में 85 में 85 सीटें जीती।1977 में कर्पूरी ठाकुर भी लोकसभा का चुनाव जीत गए। प्रधानमंत्री बनने के साथ ही मोरारजी ने 9 राज्यों में कांग्रेस-शासित सरकारों को बर्ख़ास्त कर दिया। बिहार में जनता पार्टी को 324 में से 214 सीटें हासिल हुईं। कर्पूरी जी को बिहार का मुख्यमंत्री बनाया गया। पार्टी उनके लिए विधानसभा सीट ढूंढ रही थी। फूलपरास से देवेन्द्र यादव ने अपनी सीट कर्पूरी जी के लिए छोड़ी। उपचुनाव हुए, कांग्रेस ने वहां से दिग्गज नेता रामजयपाल सिंह यादव को खड़ा कर दिया। बहुत-से यादव उस क्षेत्र में मुखिया बन चुके थे। रामजयपाल सिंह का समधियाना भी उधर ही था। कर्पूरी जी परेशान थे कि कहीं हार न जाएं।

मीटिंग हुई, सबने कर्पूरी जी को आश्वस्त किया कि नाहक परेशान न हों। आप किसी जातिविशेष के नहीं, हम सबके नेता हैं। जयपाल सिंह जब आए, तो लोगों ने उनकी अच्छे से आवभगत की, कुटुंबैती के नाते 51 पल्ला धोती उन्हें भेंटस्वरूप दिया। वोटिंग के बाद जब काउंटिंग शुरू हुई, तो बक्सा से रामजयपाल सिंह नदारद थे, लोग बाहर में गाने-बजाने लगे। इस पर वहां के मुखिया लोगों ने सबको रोका कि अभी कोई उधम नहीं मचायेगा। जब तक रामजयपाल सिंह की जमानत ज़ब्त नहीं हो जाएगी, तब तक ढोल-पीपहू का दौर शुरू नहीं होगा। जैसे ही अंतिम फ़ीगर आया, नगाड़े बजने लगे। तो, समाज में सौहार्द ऐसे आता है। बिहार के बहुसंख्यक यादवों-कोयरियों-कुर्मियों ने नाई जाति से आने वाले कर्पूरी जी को अपना नेता माना और उनकी अगुआई में लड़ा। यह राजनीतिक उर्वरता की धरती है, परिपक्वता की निशानी है, जम्हूरियत की ख़ूबसूरती है।

फिर जब कर्पूरी जी 77 में दोबारा मुख्यमंत्री बने तो SC-ST के अतिरिक्त ओबीसी के लिए आरक्षण लागू करने वाला बिहार देश का पहला सूबा था। 11 नवंबर 1978 को महिलाओं के लिए 3 % (इसमें सभी जातियों की महिलाएं शामिल थीं), ग़रीब सवर्णों के लिए 3 % और पिछडों के लिए 20 % यानी कुल 26 % आरक्षण की घोषणा की। कर्पूरी जी को बिहार के शोषित लोगों ने इस कदर सर बिठाया कि एक बार छोड़कर वे कभी चुनाव नहीं हारे। अंतिम सांस लालू जी की गोद में ली। इतने सादगीपसंद कि जब प्रधानमंत्री चरण सिंह उनके घर गए तो दरवाज़ा इतना छोटा था कि चौधरी जी को सर में चोट लग गई। चरण सिंह ने कहा, "कर्पूरी, इसको ज़रा ऊंचा करवाओ।" ठाकुर जी बोलते थे कि जब तक बिहार के ग़रीबों का घर नहीं बन जाता, मेरा घर बन जाने से क्या होगा? जब एक वरिष्ठ नेता ने उनको घर बनवाने के लिए 50000 ईंट भेजी तो घर बनाने की बजाय उन्होंने गांव में स्कूल बनवा दिया। उस वक्त मुख्यमंत्री सचिवालय की इमारत की लिफ्ट चतुर्थवर्गीय कर्मचारियों के लिए उपलब्ध नहीं थी, मुख्यमंत्री बनते ही कर्पूरी जी ने चर्तुथवर्गीय कर्मचारियों द्वारा लिफ्ट के इस्तेमाल का निर्देश दिया।

सही मायने में वे समता के पक्षधर थे। राष्ट्रीय राजनीति में भी कर्पूरी जी की इतनी पैठ कि संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (संसोपा) के अध्यक्ष भी रहे। गौरीशंकर नागदंश के शब्दों में, "हिंदुस्तान के करोड़ों शोषितों के हक के लिए, लाखों निरीह नंगे बच्चों की कमीज और स्लेट के लिए, आंखों में यंत्रणा का जंगल समेटे भटकती बलत्कृत आदिवासी और दलित महिलाओं की अस्मिता की रक्षा के लिए, बेसहारा किसानों की कुदाल और ज़मीन के लिए, फूस के बूढ़े मकानों पर उम्मीद की छप्पर के लिए, हांफती सांसों वाले हारे हुए लोगों की जीत के लिए, गांधी, लोहिया और अंबेडकर के सफेद हो चुके सपनों को सतरंगा बनाने के लिए संघर्ष का नाम थे कर्पूरी ठाकुर"।

वे खनिज पदार्थ के ‘माल भाड़ा समानीकरण’ का विरोध  करते रहे, खनिजों की रॉयल्टी वजन के बजाए मूल्य के आधार पर तय कराने के लिए जूझते रहे। आख़िरी दिनों में सीतामढ़ी के सोनबरसा से विधायक रहते हुए उन्होंने देवीलाल द्वारा दिए गए न्याय रथ से बिहार को जगाया और गांधी मैदान पटना में न्याय मार्च रैली  आयोजित कर केंद्र को चुनौती दी।

1984 के दंगे को याद करते हुए शरद जी कहते हैं कि उन्मादी भीड़ ने रामविलास पासवान के घर पर हमला कर दिया। कर्पूरी ठाकुर उन्हीं के घर पर थे। किसी तरह दोनों ने भाग कर जान बचाई।

एक वक़्त ऐसा भी आया कि पार्टी में दो फाड़ हो गया। इंडियन एक्प्रेस में एक भ्रामक ख़बर छपी जिसमें चौधरी देवीलाल द्वारा चौधरी चरण सिंह के लिए अपमानजनक बात कहे जाने की चर्चा थी। हालांकि अगले ही दिन अरुण शौरी ने खंडन किया और उस बात के लिए माफ़ी भी मांग ली थी। मगर जितना डैमेज होना था, हो चुका। चौधरी चरण सिंह ने देवीलाल को पार्टी से निकाल दिया। जिन-जिन लोगों ने उनके समर्थन में बयान दिया, सबको निष्कासित कर दिया। एक ही दिन कर्पूरी ठाकुर, मधु लिमये, बीजू पटनायक, जॉर्ज फर्णांडीस, कुंभाराम आर्य समेत कई नेताओं को दल से निकाल दिया, तो सैद्धांतिक आधार पर शरद जी ने भी इस्तीफा दे दिया और लोकदल (कर्पूरी) बनवाकर उसमें शामिल हो गए। उसका हश्र बुरा हुआ, लोकदल (क) और चंद्रशेखर की पार्टी एक हो गई।

कर्पूरी ठाकुर और कपटी ठाकुर: कितना सच, कितना झूठ

लंबे समय तक यह झूठ फैलाया जाता रहा कि लालू प्रसाद ने कर्पूरी ठाकुर को कपटी ठाकुर कहा क्योंकि उन्होंने ग़रीब सवर्णों के लिए भी उस 26 % आरक्षण में से 3 % देने की व्यवस्था की। जबकि सच का इन बातों से दूर-दूर तक कोई लेनादेना नहीं है। हुआ यूं कि शिवनंदन पासवान को कर्पूरी जी विधानसभा उपाध्यक्ष बनाना चाह रहे थे। और, दूसरी तरफ एक और व्यक्ति अपनी दावेदारी पेश कर रहे थे। तो तय हुआ कि दोनों के नाम से लॉटरी निकाली जाए। लॉटरी के सहारे उनके चहेते बन गए विधानसभा उपाध्यक्ष। पर, जब पता चला कि लॉटरी में दोनों पर्ची एक व्यक्ति के नाम की ही कर्पूरी जी ने लिख के डलवा दी। बस, तभी से वे दूसरे उम्मीदवार द्वारा कपटी ठाकुर बुलाये जाने लगे। लालू प्रसाद का इस प्रसंग से कोई वास्ता ही नहीं। कर्पूरी जी ने अंतिम सांस लालू प्रसाद की गोद में ली। उनके गुज़रने के बाद ही वे अपने दल के नेता चुने गए, नेता, प्रतिपक्ष बने। दोनों में कभी कोई तक़रार ही नहीं था। हां, कर्पूरी जी पासवान जी और रामजीवन सिंह को फूटी आंख नहीं देखना चाहते थे।

कर्पूरी जी सही मायने में महान सोशलिस्ट नेता थे, निजी और सार्वजनिक जीवन, दोनों में उन्होंने उच्च मानदंड स्थापित किए थे। पर, उनका नाम बेचकर लालू को कोसने वाले लोग अलबेले ही हैं। कर्पूरी जी के निधन के बाद जब लालू प्रसाद बिहार विधानसभा में नेता, प्रतिपक्ष बने, तो उनके सामने एक बड़े जननेता के क़द की लाज रखना सबसे बड़ी चुनौती थी जिसमें वे बहुत हद तक क़ामयाब भी रहे। सच तो ये है कि सीएम बनने के बाद लालू प्रसाद ने कर्पूरी ठाकुर के अधूरे कामों को अभी आगे बढ़ाना शुरू ही किया था कि कुछ लोगों को मिर्ची लगनी शुरू हो गई।

1980- 85 तक बिहार विधानसभा के उपाध्यक्ष, कर्पूरी ठाकुर जी के दूसरे कार्यकाल में सिंचाई राज्य मंत्री और लालू जी के कैबिनेट में लोक स्वास्थ्य अभियंत्रण मंत्री रहे गजेंद्र प्रसाद हिमांशु कहते हैं कि कर्पूरी जी के साथ उनके कई बिंदुओं पर मतांतर ज़रूर थे, पर वो मर्यादित मतभिन्नता थी। उनमें एक इंसान के तौर पर स्वभावतः कुछ त्रुटियाँ थीं, पर पैसे-कौड़ी के मामले में वो बेहद ईमानदार थे। हां, जो उन्हें सियासी प्रतिद्वंद्वी लगते थे, उनको बहुत हिसाब से दल में किनारे करने से बाज नहीं आते थे।

 
आरक्षण की नृशंस हत्या के दौर में कर्पूरी जी को याद करने के मायने:   

कर्पूरी जी अपने प्रधान सचिव यशवंत सिंहा के साथ अकेले में बैठे थे, तो कर्पूरी जी ने सिन्हा साहब से कहा, "आर्थिक दृष्टिकोण से आगे बढ़ जाना, सरकारी नौकरी मिल जाना, इससे क्या यशवंत बाबू आप समझते हैं कि समाज में सम्मान मिल जाता है? जो वंचित वर्ग के लोग हैं, उसको इसी से सम्मान प्राप्त हो जाता है क्या? नहीं होता है"।

उन्होंने अपना उदाहरण दिया कि मैट्रिक में फर्स्ट डिविज़न से पास हुए। गांव के समृद्ध वर्ग के एक व्यक्ति के पास नाई का काम कर रहे उनके बाबूजी उन्हें लेकर गए और कहा कि सरकार, ये मेरा बेटा है, 1st डिविज़न से पास किया है। उस आदमी ने अपनी टांगें टेबल के ऊपर रखते हुए कहा, "अच्छा, फर्स्ट डिविज़न से पास किए हो? मेरा पैर दबाओ, तुम इसी क़ाबिल हो। तुम 1st डिविज़न से पास हो या कुछ भी बन जाओ, हमारे पांव के नीचे ही रहोगे।" यशवन्त सिन्हा कहते हैं, “ये है हमारा समाज। उस समय भी था, आज भी है। हमारे समाज के मन में कूड़ा भरा हुआ है और इसीलिए यह सिर्फ़ आर्थिक प्रश्न नहीं है। हमको सरकारी नौकरी मिल जाए, हम पढ़-लिख जाएं, कुछ संपन्न हो जाएं, उससे सम्मान नहीं मिलेगा। सम्मान तभी मिलेगा जब हमारी मानसिकता में परिवर्तन होगा। जब हम वंचित वर्गों को वो इज़्ज़त देंगे जो उनका संवैधानिक-सामाजिक अधिकार है”।

लालू प्रसाद ने सत्ता में आने के साथ ही कर्पूरी जी द्वारा आर्थिक आधार पर सवर्णों को दिए गए 3% आरक्षण को ख़त्म किया। बिहार में अतिपिछडों का आरक्षण बढा कर 14 % कर दिया, और झारखंड बनने के बाद राबडी देवी ने EBCs का आरक्षण 14 % से बढा कर 18 % कर दिया। कर्पूरी फॉर्मुले को प्रोग्रेसिव ढंग से लागू करने का काम इन दोनों मुख्यमंत्रियों ने किया। सत्ता में आने पर तेजस्वी यादव ने अतिपिछडों का आरक्षण बढा कर 40 % करने की बात दुहराई है।

अभी हाल ही में संविधान की पूरी शक्लो-सूरत पर तेजाब फेंकने का काम मौजूदा सरकार ने किया है। सवर्णों को 10% आरक्षण की चोंचलेबाजी संघ की मुखौटा मोदी सरकार ने की है। जहां मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू कराने में हमारे नेताओं को नाकों चने चबाने पड़े, वहीं यह सवर्ण आरक्षण मन की बात की तरह झटके में बोला गया और झटके में क़ानून बन गया। मंडल लागू होने के बाद भी सभी श्रेणियों को अगर मिला दें तो सिर्फ़ 12 फीसदी पिछड़े केंद्रीय सेवाओं में हैं औऱ उसके पहले भी तक़रीबन उतने ही थे।  विश्वविद्यालयों की हालत तो औऱ भी ख़स्ता है। हाल ही में श्यामलाल यादव की एक रिपोर्ट द इंडियन एक्सप्रेस में आई है जिसमें चौंकाने वाली तस्वीर उभरती है कि 43 सेंट्रल युनिवर्सिटीज़ में एक भी ओबीसी एसोशिएट प्रफेसर या प्रफेसर नहीं है। 95.2% उच्च जाति के लोग प्रफेसर, 92.90 फीसदी उच्च जाति के लोग एसोशिएट प्रफेसर और 76.14 प्रतिशत उच्च जाति के लोग एसिस्टेंट प्रफेसर हैं। पहले से ही अंडररेप्रज़ेंटेड वर्ग के ऊपर विभागवार रोस्टर लाद कर उनके ख़ाबों को रौंद दिया गया।

2019 में 200 प्वाइंट रोस्टर के लिए एमएचआरडी और युजीसी, दोनों द्वारा दायर SLP ख़ारिज हो गई थी। जिस पर ऑर्डिनेंस लाना था, उस पर एसएलपी- एसएलपी खेला गया। विश्वविद्यालय नियुक्ति में शोषितों के रेज़र्वेशन को ख़त्म कर दिया गया और बत्तीसों दांत के साथ सवर्ण रेज़र्वेशन को संघमुख से पैदा करा दिया गया। ऐसे जंक्चर पर न्यायपालिका में आरक्षण लागू करना बेहद ज़रूरी है, तभी कर्पूरी के सपनों का समाज बन पाएगा। बहुत संघर्ष के बाद 200 प्वाइंट रोस्टर सिस्टम रिस्टोर हो पाया जिसके लिए तूजस्वी यादव ने प्रधानमंत्री को खत लिखा, जंतर मंतर पर पार्टी सांसदों व विधायकों के साथ प्रदर्शन किया। धर्मेंद्र यादव, अशोक सिद्धार्थ, मल्लिकार्जुन खड़गे, गुलाम नबी आजाद की भूमिका भी  राहनीय रही। अखिलेश यादव की सरकार ने कर्पूरी जयन्ती पर सरकारी छुट्टी घोषित किया था, और समाजवादी मूल्यों पर चलने की शालीन कोशिश की। अजय सिंह बिष्ट द्वारा युपी के हर ज़िले में कर्पूरी ठाकुर के नाम पर बस सड़क का नाम रख देने और उनके विचारों के ठीक विपरीत चलने से काम नहीं चलेगा।

मेरा ख़याल है कि बिहार में जननेता अगर कोई हुए, तो सिर्फ़ दो शख़्सियत – एक कर्पूरी जी, और दूसरे लालू जी। दोनों के पीछे जनता गोलबंद होती थी। प्रशांत टंडन कहते हैं, “जिन्होंने कर्पूरी ठाकुर को रोल मॉडल नहीं बनने दिया, वही ताक़तें आज लालू यादव के पीछे भी हाथ धोकर पड़ी हैं। अफ़सोस इसी बात का है कि हमने अपने रोल मॉडल चुनने में भी अपने दुश्मनों की अक़्ल से काम लिया है”। कर्पूरी जी सादगी के पर्याय थे, कहीं कोई आडंबर नहीं, कोई ऐश्वर्य-प्रदर्शन नहीं। वे लोकराज की स्थापना के हिमायती थे और सारा जीवन उसी में लगा दिया। 17 फरवरी 1988 को अचानक तबीयत बिगड़ने से उनका देहांत हो गया। आज उन्हें एक जातिविशेष के दायरे में महदूद कर देखा जाता है। जबकि उन्होंने रुग्ण समाज की तीमारदारी को अपने जीवन का मिशन बनाया। उन्हें न केवल राजनैतिक, बल्कि सामाजिक, शैक्षणिक व सांस्कृतिक चेतना के प्रसार की भी बड़ी चिंता थी। वे समस्त मानवता की हितचिंता करने वाले भारतीय समाज के अनमोल प्रहरी थे। ऐसे कोहिनूर कभी मरा नहीं करते! कृष्ण बिहारी ने ठीक ही कहा:

अपनी रचनाओं में वो ज़िंदा है
नूर संसार से गया ही नहीं।

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