हाल ही में भाजपा नेतृत्वाधीन झारखंड सरकार ने सीएनटी-एसपीटी एक्ट में कुछ मह्त्वपूर्ण संशोधन लेन के लिए एक बिल विधानसभा में संख्याबल के आधार पर पास करा लिया है।
किसी भी प्रकार का डिबेट ,चर्चा -बहस के बिना ही मात्र 3 मिनट में यह बिल पास करा लिया गया। अब यह बिल राष्ट्रपति जी के पास है, उसके हस्ताक्षर होते ही यह बिल कानून में तब्दील हो जायेगा। इसी बीच राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग ने जनजातीय मामलों के मंत्रालय को प्रेषित मंतव्य में यह स्पष्ट किया है सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन करना अनुचित होगा क्योंकि झारखंड पाँचवी अनुसूची के तहत अधिसूचित राज्यों में आता है। पर केंन्द्र और राज्य की भाजपा सरकार कटिबद्ध है इस संशोधन को लागू करवाने के लिए। सीएनटी-एसपीटी एक्ट में हो रहे इस संशोधन को लेकर अब झारखंड राज्य ज्वालामुखी बन चुका है, कभी भी विस्फोट हो सकता है। भारतीय जनता पार्टी व कुछ धुर जातिवादी संगठनो के अलावा तमाम राजनीतिक दल व संगठन इस जघन्य कोशिश का विरोध कर रहे है। यहाँ तक कि भारतीय जनता पार्टी के ही पूर्व मुख़्यमंत्री अर्जुन मुंडा,सांसद कड़िया मुंडा जैसे लोग खुले आम इस संशोधन का विरोध कर चुके है ।मुख्यमंत्री श्री रघुवर दास जी कह रहे है कि झारखंडवासियों की हितों की रक्षा के लिए यह संशोधन लाया जा रहा है। पर 'हित' की रक्षा उन्होंने ऐसी की जिससे संशोधन बिल पाश कराने के तुरंत बाद पुरे राज्य में 144 धारा लागू करवाना पड़ा। झारखंड की आम जनता 144 धारा का उल्लंघन कर सड़क पर निकल पड़ी। इस विरोध के स्वर को दबाने के लिए सरकार बेहरमी से लाठी -गोली चलवा रही है। अब तक कुछ लोग शहीद हो चुके है और कई लोग गंभीर स्थिति में अस्पतालों में भर्ती है। फिर भी आंदोलन और व्यापक व तीव्र रूप ले रहा है मुख़्यमंत्री के ऊपर जूता- चप्पल फेंके जा रहे है। और मुख़्यमंत्री रघुवर दास दंभ के साथ बयान दे रहे है कि जरूरत पड़े तो और भी संशोधन किया जायेगा। एक खूनी संघर्ष की जमीन तैयार हो चुकी है। सीएनटी-एसपीटी एक्ट में किये गये जिस संशोधन को लेकर इतना बवाल हो रहा है उसे जानने व समझने के लिए सीएनटी-एसपीटी एक्ट है क्या,कब, क्यों और कैसे इसे बनाया गया,इस विषय में पूरी जानकारी रखना आवश्यक है।
सीएनटी-एसपीटी एक्ट : इतिहास के पन्नों से
झारखंड का आदिवासी समाज मुग़ल शासन काल के अंत तक मुख्यत: कबिलाई समाज हुआ करता था, ब्रिटिश ज़माने में आकर कुछ-कुछ व्यकितगत या पारिवारिक सम्पत्ति दिखने लगी थी। सदियों से वे जो भी खेती- बारी करते थे, शिकार करते थे वह समाज के सभी सदस्यों में बांट दिया जाता था। जमीन पर व्यकितगत मालिकाना नहीं था,सामूहिक मालिकाना हुआ करता था। अर्थात् जमीन किसी एक व्यक्ति का नहीं अपितू पूरे कबीला या समाज की सम्पत्ति होती थी। आदिवासी समाज किसी भी राजा को कर या टैक्स नहीं देते थे। राजा के सेनापति या वरीय अधिकारी आने पर उसे कुछ भेंट या नजराना दे देते थे। इससे अधिक कुछ भी नहीं। जंगल पर आदिवासी समाज का स्वाभाविक अधिकार हुआ करता था। अकाल,सूखा, अभाव के दिनों में जंगल ही उनको सरंक्षण देता था। फल,कंद,मूल,पत्ते,पशु-पक्षी आदि के सहारे वे जीवित रहते थे। अभाव के बावजूद उनका जीवन सहज,निर्मल व आनंदमय था। शाल-सागवान के जंगल में, चांदनी रात में जब नगाड़ा और मांदर के थाप पर आदिवासी युवक -युवती नृत्य करते थे, वह एक नयनाभिराम दृश्य हुआ करता था। पर जब अंग्रेज इस देश में आये,उनके शासनकाल में सब रातोंरात बदल गया। प्लासी के युद्ध के बाद बंगाल, बिहार(झारखंड सहित ),ओड़िशा का इलाका ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथों में चला गया। शासन का बागडोर हाथ में आते ही अंग्रेजों ने जमीन का सर्वे कराना शुरू किया। कहाँ कितनी ज़मीन है,मालिकाना किसके पास है इसका लेखा-जोखा तैयार किया जाने लगा। उद्देश्य था कहाँ से कितना टैक्स वसूला जा सकता है, इसकी पूरी जानकारी हासिल करना। आदिवासी समाज से जंगल का अधिकार छीन लिया गया। घोषणा कर दी गयी कि जंगल से मधू,फल,कंद,मूल कुछ भी नहीं लिया जा सकता।पशु -पक्षी का शिकार पर भी पाबंदी लगा दी गयी। इसका अर्थ था आदिवासी समाज को भुखमरी की स्थिति में पहुँचा देना। उन दिनों धान या दूसरे फसलों की खेती बहुत ही कम हुआ करती थी। जो भी फसल का उत्पादन होता था,वह भी सिंचाई,खाद,बीज आदि के अभाव में अति नगण्य मात्रा में ही होता था। इस स्थिति में जंगल, आदिवासी समाज के लिए ममतामयी माँ जैसा था। जन्म से लेकर मृत्यु तक हर एक रीति -रिवाज जंगल के शाल के पेड़ के नीचे ही आयोजित होता था। इस जंगल से आदिवासी समाज को बेदखल कर दिया गया। इसके साथ ही और एक संकट आदिवासी समाज पर आया। अंग्रेजी हुकूमत स्थापित होने के बाद, ईस्ट इंडिया कंपनी के कर्मचारी के रूप में अन्य राज्यों से लोग आने लगे। अचानक सेठ-साहूकार-महाजनों की एक पूरी जमात तैयार हो गयी। थोड़ा बहुत पैसा उधार देकर पूरी की पूरी जमीन अपने नाम पर ये सेठ-साहूकार लिखा लिये। जमीन सर्वे के समय कहीं हड़िया पीलाकर,कहीं पर झूठा मुकदमा में फसाकर आदिवासियों की जमीन हड़पने का काम शुरू हुआ। पुलिस-महाजन-साहूकार-कंपनी की मिलीभगत से आदिवासी समाज अपनी ही जमीन में बंधुआ मजदूर की भांति काम करने के लिए मज़बूर होता चला गया। आदिवासी युवतियों को जबरन भोग्य वस्तु में तब्दील कर दिया गया। स्वाभाविक है आदिवासी समाज क्षोभ, असंतोष और आक्रोश से उबल रहा था। यही आक्रोश ज्वालामुखी बनकर फूट पड़ा पहले बाबा तिलका माझी के नेतृत्व में सन 1784 में व हो विद्रोह के रूप में सन 1820 में। सिदो-कान्हू के नेतृत्व में सन 1855 में शुरू हुआ 'हूल ',जिसे हम संथाल विद्रोह के नाम से भी जानते है। सिर्फ तीर -धनुष से लैस आदिवासी लड़ाकों (जिसमें भारी संख्या में महिलाएं भी थी ) ने प्रशिक्षण प्राप्त व आधुनिक शस्त्रों से लैस ब्रिटिश फौज को कई मोर्चे पर परास्त किया। परंतु बाद में बाहर के राज्यों से विशाल ब्रिटिश फौज ले आकर इस विद्रोह को कुचल दिया गया। 30000 आदिवासी वीर व वीरांगनाएं शहादत दी। पर ये शहादत बेकार नहीं गयी। इसी संघर्ष के मशाल को लेकर सन 1880 में शुरू हुआ सरदार विद्रोह और उसके बाद बिरसा मुंडा के नेतृत्व में उलगुलान।एक के बाद एक विद्रोह ने ब्रिटिश हुकूमत को झकझोर दिया। ब्रिटिश हुकूमत कितना भयभीत था वह इस बात से पता चलता है जब भारत के गवर्नर ने ब्रिटेन के सेक्रेटरी ऑफ स्टेट को पत्र लिखकर कहा कि 'हम बारूद की ढेर पर बैठे हुए है 'इसके बाद चिंतित व भयभीत ब्रिटिश सरकार ने दो महत्वपूर्ण कदम उठाया। पहला, जो आदिवासी जनसमूह जमीन जायदाद खोकर सर्वहारा में तब्दील हो गया उन्हें असम व उत्तरी बंगाल के चाय बगानों में तथा उत्तरी व पूर्वी भारत के विभिन्न हिस्सों में रेललाइन बिछाने का काम देकर भेज दिया गया। यही आदिवासी मज़दूर बाघ,हाथी,सांप जैसे जंगली जानवर व मलेरिया, टाइफाइड जैसी गंभीर बीमारियों से लड़कर चाय बगान व रेलवे लाइन बिछाने का काम किया था। यहीं थे भारत के प्रथम भूमिहीन मज़दूर जिनके पास अपने दोनों हाथ अर्थात् श्रम के अलावा और कुछ भी नहीं था। मार्क्सवाद की परिभाषा में इन्हें ही कहा जाता है 'Wage Labour' या सर्वहारा वर्ग। गरीब आदिवासी जनसमूह को उनकी मातृभूमि से दूर भेजने का उद्देश्य यही था कि यदि वे अपनी मातृभूमि में रह जाए तो जरूर शोषण, जुल्म के खिलाफ एक के बाद एक विद्रोह होता ही रहेगा। इसलिए जहाँ तक हो सके इन्हें सुदूर प्रांतों में भेज दिया गया।
आदिवासियों के आक्रोश को शांत करने के लिए, आदिवासियों की जमीन,बाहर से आए सेठ-साहूकारों के पास न चला जाए। इसके लिए CNT Act (Chotanagpur Tenancy Act ) छोटानागपुर क्षेत्र के लिए और कोल्हान क्षेत्र के लिए आया Wilkinson’s Rule और आज़ादी के बाद आया SPT Act (Santhal pargana Tenancy Act) संथाल परगना क्षेत्र के लिए,संविधान की 5 th Schedule (पांचवी अनुसूची) और बाद में PESA कानून। परंतु धीरे -धीरे इन कानूनों में, विशेषकर सीएनटी एक्ट में बार-बार संशोधन किया गया। अर्थात् आदिवासियों के लिए रक्षाकवच रूपी इन कानूनों को शक्तिहीन बनाने का काम लगातार जारी रहा। फलस्वरूप आज़ाद हिन्दुस्तान में इन कानूनों के रहने के बावजूद दबंग व पैसेवाले लोग साम,दाम,दंड, भेद के सहारे आदिवासी जमीन पर लगातार कब्ज़ा करते रहे। इस कार्य में आदिवासी जनसमूह में से ही एक सुविधाभोगी दलाल वर्ग, सहयोग करने लगे,और दुख की बात है कि यह वर्ग आज भी सक्रिय है। इस प्रकार से झारखंड के विस्तीर्ण इलाके में आदिवासी जमीन धीरे-धीरे गैर- आदिवासियों के पास चला गया। स्वाभाविक है कि अपना सर्वस्व खोने की इस प्रक्रिया में आदिवासी जनसमूह में प्रवल असंतोष व नाराजगी तो पहले से थी ही, ऊपर से आग में घी का काम किया वर्तमान संशोधन ने।
सीएनटी- एसपीटी एक्ट में क्या-क्या संशोधन किया गया ?
सीएनटी- एसपीटी एक्ट में जो संशोधन हाल ही में किया गया, अब हम उसके बारे में बात करेंगे। सीएनटी एक्ट का 21,49 (1) व (2 ),71 (ए ) और एसपीटी एक्ट के सेक्शन-13 में संशोधन लाया गया है। क़ानूनी दावपेंच और शब्दावली का इस्तेमाल न करते हुए आसान शब्दों में यदि कहा जाए तो यह संशोधन कुछ इस प्रकार है –1. अब तक यह कानून था कि कृषियोग्य जमीन को सरकार या अन्य कोई भी अधिग्रहण नहीं कर सकता था कृषि जमीन का इस्तेमाल गैर कृषि कार्यों के लिए नहीं किया जा सकता था। पर अब यह प्रस्ताव लाया गया है कि सरकार जब चाहे कृषि जमीन को गैर कृषि जमीन के रूप में दिखाकर उसका कुछ भी इस्तेमाल कर सकती है। कृषि जमीन का इस्तेमाल गैर कृषि कार्यों के लिए किया जा सकता है। सरकार खुद भी इस्तेमाल क्र सकती है अथवा कॉर्पोरेट पूंजीपतियों के हवाले भी कर सकती है। हाँ इसमें जरूर एक आंख में धूल झोंकने वाली घोषणा कर दी गयी है कि उपरोक्त जमीन का मालिकाना उसके मूल रैयतों के पास ही सुरक्षित रहेगा। यदि 5 वर्ष तक सरकार किसी अधिगृहित जमीन का इस्तेमाल नहीं करती है तो यह जमीन मूल रैयतों के पास लौटा दी जायेगी। इस तरह की घोषणा क्यों आंख में धूल झोंकने वाली है इस पर हम बाद में चर्चा करेंगे।
2. सरकार यदि चाहे तो किसी भी जमीन को खनन कार्य या उसके सहायक किसी काम के लिए अधिग्रहण कर सकती है।
राज्य की भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री सहित अन्य कई नेता-मंत्रियों ने बयान जारी करते हुए कहा कि सीएनटी -एसपीटी एक्ट में किये गए इस संशोधन से झारखंड में विकास की गंगा बहेगी। पुराने कानून के कारण उधोग- धंधा लगाने पर जो गतिरोध था, उसे खत्म कर दिया गया है। फरवरी महीने में ही रांची में देशी-विदेशी पूंजीपतियों को लेकर आयोजित किया गया 'मोमेन्टम झारखंड ' इस कार्यक्रम के प्रतीक के रूप में एक हाथी को दिखाया गया जिसके पास पंख है और वह उड़ रहा है अर्थात् विकास रूपी हाथी अब न सिर्फ चलने लगा है बल्कि उड़ने लगा है। मोमेन्टम झारखंड में सैंकड़ों पूंजीपति पधारे, झारखंड के विकास के लिए,88 परियोजनाओं की घोषणा हुई जिसमें कहा गया कि 5 लाख लोगों को रोज़गार दिया जायेगा।
विकास के नाम पर संशोधन : जनता के साथ धोखा
अब हम देखेंगे कि किस प्रकार से विकास के नाम पर झारखंड की आम जनता की आँखों में धूल झोंककर झारखंड के जल-जंगल-जमीन को देशी-विदेशी पूंजीपति घरानों के हाथों सोंपने की तैयारी चल रही है।1. आंदोलन की ऊफान को देख़ते हुए सरकार कह रही है कि सीएनटी-एसपीटी एक्ट की मूल भावनाओं के साथ छेड़छाड़ नहीं किया जायेगा। परंतु थोड़ा विश्लेषण करने पर ही हमें पता चल जायेगा कि सरकार का यह कथन सिर्फ झारखंड वासियों की आँखों में धूल झोंकने के लिये व आक्रोश को शांत करने के लिए है। प्रस्तावित संशोधन के मुताबिक कृषि भूमि का इस्तेमाल अब व्यवसायिक कार्यों के लिए किया जा सकेगा। कृषि भूमि का इस्तेमाल अब व्यवसायिक कार्यों के लिए होने के साथ ही जमीन की प्रकृति बदल जायेगी और वह सीएनटी-एसपीटी कानूनों के दायरे से बाहर हो जायेगा। उक्त भूमि का लगान भी कृषि न होकर व्यावसायिक हो जायेगा। कमल खेस बनाम स्टेट एक्ट ऑफ झारखंड एवं अन्य,जून 2011, सीडब्लूजेसी सं 43 ऑफ 1999 में झारखंड उच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि सीएनटी एक्ट की धारा 71 ए का उपयोग सिर्फ कृषि भूमि से बेदखल हुए रैयतों को दोबारा दखल दिहानी के लिए किया जा सकता है, गैर कृषि भूमि के लिए नहीं। ऐसी तरह से अश्विनी कुमार राय बनाम स्टेट ऑफ बिहार 1987 में पटना उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया था कि यदि जमीन की प्रकृति कृषि आधारित नहीं है तो उस पर सीएनटी एक्ट की धारा 71 ए लागू नहीं होगी। अर्थात् यह स्पष्ट है कि इन संशोधनों के लागू होते ही जमीन पर आदिवासियों का मालिकाना हक़ खत्म हो जायेगा और जमीन आदिवासियों के हाथ से निकल जायेगी।
2. झारखंड सरकार बता रही है कि जमीन का मालिकाना मूल रैयतों के पास सुरक्षित रहेगा,यदि 5 वर्ष तक इसका इस्तेमाल नहीं हुआ तो इसे मूल रैयत के पास लौटा दिया जायेगा। जमीन से विस्थापित होने के बाद कहीं वह जमीन किसी को दोबारा मिलती है भला ? बिहार भूमि सुधार कानून में भी इसी तरह की व्यवस्था की गई थी कि अधिगृहित भूमि का उपयोग नहीं होने पर उक्त जमीन को मूल रैयतों को लौटा दिया जायेगा।उदाहरण के रूप में टाटा स्टील लि. जमशेदपुर में स्थापित स्टील प्लांट के लिए 120708.50 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया गया था। लेकिन सिर्फ 2163 एकड़ जमीन का ही उपयोग हुआ और शेष जमीन बेकार पड़ी रही, जिसमें से 4031.075 एकड़ जमीन गैर-क़ानूनी तरीके से सब-लीज में दे दी गयी,पर मूल रैयतों को नहीं लौटायी गयी। इसी तरह एच. इ.सी कारखाना स्थापित करने के लिए रांची में वर्ष 1958 में 7199.71 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया गया था,जिसमें से 793.68 एकड़ जमीन गैर-क़ानूनी तरीके से निजी संस्थानों को सब-लीज में दे दी गयी। अभी और कुछ हज़ार एकड़ जमीन देने की तैयारी चल रही है। और मूल रैयत ? सरकार उन पर लाठी चलवा रही है, उन्हें खदेड़ रही है। रांची के पास नगड़ी गांव में बिरसा कृषि विश्वविद्यालय द्वारा अधिगृहित जमीन उपयोग किये बिना पड़ी रही लेकिन मूल रैयतों को नहीं लौटायी गयी। क्या इस इतिहास को देखते हुए इस बात पर विश्वास करने का कोई भी कारण है कि अधिग्रहण की गयी जमीन मूल रैयतों को 5 वर्ष बाद लौटायी जायेगी?
3. दूसरी बात यह है कि 5 वर्ष के बाद लौटाने की बात तब होगी जब उस जमीन में कुछ काम नहीं होगा। क्या यह बहुत मुश्किल काम है कि जमीन को अपने कब्जे में रखने के लिए 5 साल में कुछ छोटा-मोटा निर्माण या उत्पादन दिखा दिया जा सके? हम पहले ही दिखा चुके है कि कोर्ट के आदेश के बावजूद यदि सरकार व प्रशासन न चाहे तो धरातल पर कानून का अनुपालन नहीं होगा। जहाँ पूरी की पूरी सरकार व प्रशासन पूंजीपतियों की सेवा में लगा हुआ हो, उनके सामने नतमस्तक हो, वहाँ क्या यह संभव है कि पूंजीपतियों से जमीन छीनकर सरकार गरीब आदिवासियों को दे देगी ?
4. सीएनटी-एसपीटी एक्ट में जो संशोधन किये गये है, उससे इसकी मूल प्राणसत्ता ही छीन ली गयी है। मौजूदा संशोधन में लिखा हुआ है कि 'लोक कल्याण ', 'समाज कल्याण', देशहित के नाम पर अब आदिवासी जमीन का अधिग्रहण हो सकता है। अब यह कौन तय करेगा कि क्या देशहित में है? हमारे देश में जहाँ फीस वृद्धि के खिलाफ लड़ने वाले छात्रों पर देशद्रोह का केस दिया जाता है और हज़ारों करोड़ों की राशि बैंक से उधार लेकर न चुकाने वाले पूंजीपति को 'विकास पुरुष 'की संज्ञा दी जाती है, उनका कर्ज भी 'देशहित ' में माफ कर दिया जाता है,वहाँ 'देशहित' को परिभाषित करना कठिन है। दरअसल सरकारी सरंक्षण में कॉर्पोरेट पूंजीपतियों द्वारा जमीन की लूट को 'लोक कल्याण ' की संज्ञा दी जायेगी, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। जमशेदपुर,बोकारो, हज़ारीबाग, धनबाद , जैसा शहर आदिवासियों को विस्थापित क्र ही बसाया गया है। किसी को पता भी है कि यहाँ के मूल रैयत कहाँ गये? क्या किसी सरकार ने यहाँ के मूल रैयतों को पुनर्वास देने के बारे में कभी विचार किया है? सीएनटी-एसपीटी एक्ट के रहते हुए भी आदिवासियों की जमीन सुरक्षित नहीं रही,पर हाँ जो बची खुची है वो इस एक्ट के कारण ही बची हुई है, अब इस एक्ट के लगभग खत्म हो जाने से आदिवासी अपनी जमीन से बेदखल हो जायेंगे इस बात में कोई संदेह भी हो सकता है ?
5. सरकार का एक तर्क और भी है कि आदिवासियों की कृषि भूमि का व्यसायिक उपयोग पर प्रतिबंध रहने से बैंक उन्हें क़र्ज़ नहीं देते है, जिसके कारण आदिवासी बच्चे उच्च शिक्षा से वंचित रह जाते है। इसलिए संशोधन के बाद वे अपनी जमीन को बैंकों में गिरवी रखकर अपने सपनों को पूरा कर पायेंगे।वाह् मुख्यमंत्री जी, आपको वाकई आदिवासी छात्र-छात्राओं के कल्याण की चिंता सता रही है। इसलिए तो आपने आदिवासी छात्र-छात्राओं को मिलने वाली छात्रवृति की राशि में भारी कटौती कर, उन्हें पढ़ाई छोड़ने के लिए मज़बूर कर उनका 'कल्याण' कर रहे है। यदि आदिवासी छात्र-छात्राओं की इतनी चिंता है तो आप ही की सरकार तो केंद्र में बैठी हुई है, आदिवासियों के कल्याण एवं उन्नति के लिए सविंधान का अनुच्छेद 275 (1 ) के तहत 'केंद्रीय कोष ' की व्यवस्था है, क्यों नहीं इस कोष से पैसा लाया जाता है ? लोन की जरूरत है तो आप ही क्यों नहीं इसकी व्यवस्था करते है? आपकी सरकार है किसलिए ? सिर्फ अडानी,जिन्दल और टाटा की सेवा करने के लिए ? आदिवासी हित रक्षा के नाम पर अलग राज्य बने झारखंड में यदि आदिवासियों को अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए जमीन गिरवी रखना पड़े तो लानत है ऐसी सरकार पर।
6. यहाँ एक सवाल यह भी आता है कि यदि क़र्ज़ लेने वाला क़र्ज़ न चुका पाए तो ? क्या बैंक इस स्थिति में कर्ज़दार व्यक्ति की जमीन को किसी आदिवासी के हाथों ही बेचेगा ?जी नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने यूको बैंक बनाम दीपक देबबर्मा 1125 ऑफ 2016 में स्पष्ट कर दिया है कि बैंक अपना क़र्ज़ चुकता करने के लिए गिरवी रखे गए सम्पत्ति को किसी को भी बेच सकता है। त्रिपुरा राज्य के इस केस में यूको बैंक ने एक आदिवासी का क़र्ज़ चुकता करने के लिए उसकी जमीन को गैर-आदिवासी को बेच दिया और जब यह मामला सुप्रीम कोर्ट में आया तो सुप्रीम कोर्ट ने इसे वैध करार दिया। अर्थात् आदिवासियों के हाथों से जमीन,गैर- आदिवासियों के पास चली जाए इसके लिए रास्ता साफ़ किया जा रहा है।
7. सरकार और एक तर्क दे रही है कि आदिवासियों की कृषि भूमि का व्यवसायिक उपयोग नहीं होने से उनका विकास नहीं हो पा रहा है। संशोधन के बाद वे अपनी जमीन पर दुकान,होटल ,मैरिज हॉल, शॉपिंग माल इत्यादि बना सकेंगे। यहाँ सवाल है कि कितने प्रतिशत आदिवासी होटल, शॉपिंग माल के व्यवसाय से जुड़े हुए है ? एक प्रतिशत भी नहीं। ऐसा व्यवसाय करने के लिए उनके पास पूंजी कहाँ से आयेगी ?क्या सरकार देगी ? असल में यह प्रावधान उन मध्यम व उच्च वर्ग के व्यापारियों के लिए है जो आदिवासी जमीन पर व्यावसायिक प्रतिष्ठान,होटल, शॉपिंग माल बना चुके है या बनाने का इरादा रखते है लेकिन कानून उन्हें ऐसा करने से अब तक मना करता रहा है। पर अब इस संशोधन के बाद कहीं से कोई मनाही नहीं होगी।
चीज़ों को समझने के लिए हम एक सच्ची घटना का जिक्र कर रहे है। दो व्यवसायी आर.के.सिंह एवं बी.के. सिंह ने सन 1980 में बोकारो में संथाल आदिवासियों की 50 एकड़ जमीन पर बरी को - ऑपरेटिव सोसाइटी कीस्थापना की। इसके लिए उन्होंने आदिवासियों से वादा किया कि वे एक कपडा उद्योग खोलना चाहते है और वहाँ उन्हें नौकरी मिलेगी तथा जमीन का मालिकाना हक़ भी उन्हीं का रहेगा। उन्होंने बरी को-ऑपरेटिव के नाम से जमीन लिया जहाँ कुछ दिनों तक कपडा उद्योग चला।बाद में उक्त जमीन में 250 घरों का एक फ्लैट कॉम्पलेक्स बनाकर गैर-आदिवासियों को बेच दिया। 2006 में आदिवासियों ने न्यायालय का शरण लिया, बोकारो उपयुकत ने इसकी जाँच की और आरोप को सही पाया। बावजूद इसके आदिवासियों के हाथ अब तक कुछ नहीं लगा है,जबकि यह मामला सीएनटी एक्ट 1908 का घोर उल्लंघन है। कानून के रहते ऐसा हो रहा है तो जब कानून कमज़ोर हो जायेगा उसके बाद क्या होगा ?
8. 'मोमेन्टम झारखंड' के तहत बताया जा रहा है कि 88 परियोजनाओं में 5 लाख लोगों को रोज़गार मिलेगा। परंतु यह क्यों नहीं बताया जा रहा है कि इन परियोजनाओं से 50 लाख लोग विस्थापित होंगे, अपना सर्वस्व खोकर सर्वहारा बन जायेंगे?
9. और जहाँ तक मुआबजा लेने की बात है तो यह कौन नहीं जानता है कि कुछके लाख रूपया मुआबजा के रूप में मिलेगा और साल दो साल में वह खत्म भी हो जायेगा। फिर लोग कहाँ जायेंगे ? दर-दर की ठोकरें खाने के अलावा उन्हें और कुछ मिलेगा? एचईसी,बोकारो स्टील लिमिटेड,तेनुघाट बिजली परियोजना, स्वर्णरेखा बहुद्देश्यीय परियोजना आदि परियोजनाओं से विस्थापितों को न तो नौकरी मिली और न ही मुआबजा मिला है। और कहीं यदि अपवाद के तौर पर कुछ लोगों को नौकरी या मुआबजा मिला भी है तो उसकी अगली पीढ़ी को कुछ भी हासिल नहीं हुआ और वे दर-दर ठोकरें खाने के लिए मज़बूर हुए। पर जमीन का एक टुकड़ा पीढ़ी दर पीढ़ी परिवार के सदस्यों का भरण-पोषण करता है।
10. नये संशोधन में प्रावधान यही है कि अब जमीन अधिग्रहण सरकार खुद करेगी। पहले उद्योगपतियों को ग्राम प्रधान से, जमीन मालिक से,बात कर सौदा तय करना होता था। इसमें जमीन लेना कठिन होता था। यह बात सत्य है कि उद्योगपतियों के इशारे पर ही सरकार चलती है पर फिर भी नग्न और खुले रूप से सरकार उद्योगपतियों के पक्ष में उतर नहीं सकती थी। इसके फलस्वरूप जिन्दल,मित्तल,भूषण से लड़कर अपनी जमीन को सुरक्षित रखने में झारखंडवासी सफल हुए है। और उद्योगपतियों को मुँह की खानी पड़ी है। पर अब उद्योगपतियों को टेंशन नहीं है। वे सीधे सरकार के भूमि सुधार एवं राजस्व विभाग में संपर्क करेंगे , और विभागीय अनुमति मिलने पर एम. ओ.यू करेंगे। अब सरकार अपनी पुलिस, प्रशासन और पूरी ताक़त के साथ जमीन अधिग्रहण करने के लिए खुले तौर पर उतर जायेगी। इस स्थिति में जमीन बचाने की लड़ाई और कठिन होगी।
सभी नियम, कानून व सविंधान को ताक पर रखकर यह संशोधन पारित किया गया
हम पहले ही दिखा चुके है कि किस प्रकार से सरकार ने आनन -फानन में मात्र 3 मिनट में बिना बहस-चर्चा के इस बिल को विधान सभा में पास कराया। राज्य के बुद्धिजीवी,विपक्षी दल, सामाजिक-आर्थिक शोध संस्थाएं, विभिन्न जनसंगठन, किसी से भी राय नहीं ली गयी। पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा जी की माने तो इसे भारतीय जनता पार्टी के फोरम में भी चर्चा के लिए नहीं रखा गया। दूसरी तरफ सरकार ने बिल को पास कराने की हड़बड़ी में कानून व सविंधान की मर्यादाओं का घोर उल्लंघन किया है। हमारे सविंधान की पांचवी अनुसूची के तहत आदिवासियों को विशेष सरंक्षण प्राप्त है। झारखंड का विस्तीर्ण भूभाग पांचवी अनुसूची के अन्तगर्त आता है। पांचवी अनुसूची के अनुच्छेद 244 (1 ) के तहत अनुसूचित जाति व जनजातियों को स्वशासन व स्वनियंत्रण का अधिकार प्राप्त है, जो कि सामान्य क्षेत्रों से बिल्कुल अलग है। इसके अलावा Panchayat Extension in scheduled Areas,1996(PESA) या पैसा कानून के तहत यह प्रावधान है कि पांचवी अनुसूची के अन्तर्गत आने वाले इलाके में ग्राम सभा को ही प्राथमिकता दी जायेगी, उसे ही निर्णायक माना जायेगा। ग्रामसभा की अनुमति लिए बगैर शिड्यूलट एरिया की जमीन नहीं ली जा सकती है। पैसा कानून में लिखा है कि "सामाजिक और आर्थिक विकास के लिए योजनाओं, कार्यक्रमों और परियोजनाओं को ग्राम सभा की मंजूरी आवश्यक होगी। " पैसा कानून के तहत ग्राम सभाओं को 'भूमि हस्तान्तरण को रोकना और हस्तांतरित भूमि की बहाली ' से संबंधित अधिकार दिया गया है। परंतु वर्तमान सरकार ने सविंधान व कानून के इन प्रावधानों को धता बताकर जमीन अधिग्रहण करने का कानून पारित कर दिया।इस संशोधन का विनाशकारी परिणाम क्या होगा?
हम पहले ही बता चुके है कि सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन और ठीक उसी समय मोमेन्टम झारखंड का आयोजन, रघुवर सरकार की भावी योजनाओं को स्पष्ट कर देता है इस संशोधन से एक तरह से सीएनटी-एसपीटी कानून एक तरह से खत्म हो जायेगा, जिसके बाद पूरे राज्य में जमीन लूटने-छीनने की प्रक्रिया में बेतहाशा तेजी आयेगी। इससे पहले सरकार-पूंजीपति गठजोड़ द्वारा जमीन छीनने की नापाक कोशिशों को जनांदोलन की शक्ति और कुछ हद तक सीएनटी-एसपीटी एक्ट ने रोककर रखा था। अब सरकार को खुली छूट मिल जायेगी। एक अनुमान के मुताबिक सिर्फ मोमेन्टम झारखंड में जितने एम ओ यू हुए है, उसके तहत जितनी जमीन लेने का प्रावधान है उससे लगभग 50 लाख लोग विस्थापित हो जायेंगे।और नौकरी? मुख्यमंत्री रघुवर दास जी के गुरु मोदी जी की ही कर लीजिये। केन्द्रीय कार्मिक मंत्री जीतेंद्र सिंह ने हाल ही में सदन में लिखित रूप से कहा कि सन 2013 की तुलना में 2015 में केन्द्र सरकार की सीधी भर्तियों में 90 फीसदी की कमी आयी है। 2013 में केंद्र सरकार में 1,54,841 लोगों को नौकरी मिली थी। परंतु 2015 में मोदी सरकार के आते ही यह संख्या घटकर मात्र 15,877 रह गयी। सन 2013 में जहाँ केंद्र सरकार की नौकरियों में अनुसूचित जाति,जनजाति और अन्य पिछड़ी जातियों की 92,928 भर्तियां हुई थी,वह मोदी सरकार आते ही घटकर मात्र 8436 रह गई।इसी प्रकार से मोदी जी जहाँ 2 करोड़ लोगों को रोज़गार देने की बात की थी, वह देने की बात तो दूर लगभग 2 करोड़ लोगों की नौकरी चली गयी। झारखंड में भी यही स्थिति है।हज़ारों की संख्या में कल-कारखाने बंद है, विभिन्न राज्य सरकारी कार्यालयों में रिक्तियां बढती ही जा रही है,नयी नियुक्ति बिल्कुल ही बंद क्र दी गयी है,रोज़गार के अभाव में लोग झारखंड छोडकर पलायन क्र रहे है।जो सरकारें लोगों को रोज़गार देने की कोई परवाह ही न करती हो वो अचानक रोज़गार देने की बात करें तो बात सन्देहास्पद तो लगता ही है।दरअसल रोज़गार सृजन के नाम पर पूंजीपतियों को मुनाफ़ा पहुँचाने का जुगाड़ बैठाया जा रहा है।और सरकार कह रही है झारखंड में विकास होगा।हाँ हम भी मानते है विकास होगा,परंतु कैसा विकास होगा इसका कुछ उदाहरण यहाँ प्रस्तुत करते है।गोड्डा जिला की घटना है।यहाँ पर मोदी जी की के परम मित्र अडानी साहब ने आकर कहा कि यहाँ पवार प्लांट बनायेंगे।जमीन से लोगों को जबरन विस्थापित करने की कवायद शुरू हो चुकी है। पुलिस, गुंडों का आंतक, झूठा केस- मुकद्दमा के बावजूद यहाँ के लोग अडानी साहब के खिलाफ लड़ रहे है। मुख्यमंत्री जी ने कहा है कि यह प्रोजेक्ट तो होकर रहेगा,झारखंड के विकास के लिए यह जरूरी है। इसलिए जमीन, सड़क, पानी, बिजली, सस्ता मजदूर सब कुछ मुहैया कराया जायेगा।परंतु बाद में पता चला कि यहाँ जो भी बिजली पैदा होगी उसकी एक यूनिट भी झारखंड को नहीं मिलेगी। सिर्फ झारखंड ही क्यों हमारे देश को ही नहीं मिलेगी। ये पूरी बिजली बांग्लादेश में उच्च मुनाफ़ा कमाने के लिए भेजी जायेगी। यही है मुख्यमंत्री जी की भाषा में विकास का मॉडल। बड़े–बड़े बांध बनाये जा रहे है परंतु झारखंड की धरती प्यासी है। झारखंड की कुल कृषि भूमि का मात्र 8 प्रतिशत ही सिंचित भूमि है।अब खनन के क्षेत्र में देखिये क्या हो रहा है
कुछ समय पहले पाकुड़ जिले में PANEM Coal Mines Ltd को सभी नियमों को ताक पर रखकर ट्राइबल जमीन में कोयला खनन का अधिकार दिया गया। यह कोयला कहाँ भेजा गया? यह कोयला पंजाब भेजा गया, पंजाब स्टेट इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड के पास। पर झारखंड को इस कोयले से फूटी-कोड़ी भी नही मिलेगी। पर यह तय हुआ कि विस्थापितों को मुआबजा के साथ-साथ इलाके में स्कूल, अस्पताल, सड़क, पार्क, बाज़ार आदि तैयार किया जायेगा। आज यह कंपनी कोयला निकालकर, पंजाब भेजकर, करोडों का मुनाफ़ा कमाकर रफूचक्कर हो गई है,पीछे छोड़ गई है बड़े-बड़े गड्डे जहाँ से मच्छर और कीड़े-मकोड़े लोगों का जीना मुहाल कर रहा है। न तो अस्पताल बना, न पार्क और न ही स्कूल।
अब बोकारो जिले की घटना। इलेक्ट्रो स्टील प्लांट के नाम पर एक धनाढ्य पूंजीपति ने जमीन लिया। कहा गया स्टील प्लांट लगायेंगे। लोगों को जबरन विस्थापित किया गया। आंदोलन हुआ, पुलिस ने गोली चलायी, हमारी पार्टी एस यू सी आई (कम्युनिस्ट ) के एक साथी शहीद हुए। सरकार ने जमीन, पानी, बिजली, खान सब कुछ मुहैया करायी। परंतु स्टील प्लांट कभी लगा ही नहीं। स्टील प्लांट के लिए आवंटित कोयले खान से लाखों टन कोयला निकालकर विदेश में बेचकर मुनाफा कमाया जा रहा है कहना न होगा कि इन सब घटनाओं में सरकार के उच्च स्तरीय अधिकारी व मंत्रालय शामिल रहते है उनकी मिलीभगत के बगैर यह संभव ही नहीं।
और जहाँ तक औद्योगिकरण की बात है तो पूरे विश्व में ही मंदी छायी हुई है। विशेषज्ञ कह रहे है कि यह मंदी अब स्थायी रूप ले चुकी है, सुदूर भविष्य में भी इससे उबरने का आसार नहीं दिख रहा है। क्योंकि पूंजीवाद ने आदमी का सब कुछ निचोड़ चुका है लोगों के पास चीज़ों की जरूरत तो है, पर खरीदने लायक पैसा नहीं है, क्रयशक्ति दिन -प्रतिदिन घटती जा रही है नये रोज़गार सृजन तो दूर की बात अधवधि कार्यरत लोगों की भी छंटनी की जा रही है। सुप्रीम कोर्ट द्धारा नियुक्त कमिटी की रिपोर्ट में दर्ज कि देश की 80 फीसदी आबादी 20 रूपया प्रतिदिन की आय में गुज़ारा करते है इस स्थिति में लोग खरीदेंगे क्या ? और यदि खरीदेंगे नहीं तो कल - कारखाना कहाँ से बनेंगे ? इसलिए वर्तमान परिस्थिति में व्यापक औद्योगीकरण संभव ही नहीं। कहीं एक कारखाना बना भी तो 10 कारखाना बंद हो रहा है। झारखंड में हज़ारों कल-कारखाने बंद पड़े है। उन्हें क्यों खोला नहीं जा रहा है ?आप सभी को याद होगा कि झारखंड में इससे पहले भी हज़ारों एम ओ यू पर हस्ताक्षर हुआ है पर उससे क्या हुआ? धरातल पर 0. 1 प्रतिशत भी नहीं उतरा। फिर किस विकास की बात रघुवर दास जी कर रहे है?
रास्ता क्या है ?
झारखण्डवासियों के लिए यह निर्णय की घडी है। करो या मरो। आम जनता की आजीविका, रोज़गार ,मकान ,शिक्षा सब कुछ दाव पर लगा हुआ है। यदि इन जनविरोधी नीतियों के खिलाफ सशक्त जनांदोलन होता है तो सरकार को पीछे हटने के लिए मज़बूर होना पड़ेगा। और नहीं तो सरकार एक के बाद एक ऐसी नीतियां लाती ही रहेगी। सबसे प्रमुख बात है कि आंदोलन का स्वरूप कैसा होगा ? सिंगुर -नदीग्राम का आंदोलन इस मामले में एक मॉडल है। सरकार, पुलिस ,फौज , गुंडों के द्धारा जनसहांर ,सैंकड़ो बलात्कार, झूठे मुक़दमे में फंसाकर जेल भेजने के बावजूद भी आंदोलन को तोडा नहीं जा सका, सरकार जमीन अधिग्रहण नहीं कर पायी। हमारी पार्टी एस यू सी आई (कम्युनिस्ट ) इस आंदोलन के शुरूआती दौर से मुख्य संगठक के रूप में कार्यरत थी। परंतु किसी भी पार्टी विशेष के बैनर को लेकर नहीं बल्कि जनकमिटी बनाकर आंदोलन को संगठित किया गया। जो भी इस आंदोलन की मांग को समर्थन करते थे, वे चाहे किसी भी पार्टी के क्यों न हो इस जन कमिटी में शामिल हो सकते है। हर गांव में इस जन कमिटी की शाखा तैयार हो। नंदीग्राम के तर्ज़ पर तैयार हो नारी वाहिनी ,युवा वाहिनी ,किशोर वाहिनी। स्वयं सेवकों का दस्ता तैयार हो, बाल दस्ता भी बनाया जाए। सीएनटी -एसपीटी एक्ट में संशोधन के खिलाफ आंदोलन भी इसी तर्ज पर होना चाहिए। व्यापक जन समर्थन पर आधारित यह जन कमिटी सरकार की पुलिस व फौज को भी रोक सकती है, जैसा कि नंदीग्राम में रोक चुकी है।आदिवासी व गैर आदिवासी की बात
यहाँ पर एक महत्वपुर्ण प्रसंग पर चर्चा करना आवश्यक है। क्या इस आंदोलन में गैर-आदिवासियों को भी शामिल किया जाए ? हमारा मानना है कि अति अवश्य ही गैर-आदिवासियों को इस आंदोलन में शामिल होना चाहिए। याद करें सिदो- कान्हू हूल का इतिहास। हालाँकि इसे कहा जाता है संथाल विद्रोह पर समाज के हर स्तर के दबे - कुचले- शोषित लोग इस हूल में शामिल हुए थे और शहीद भी हुए थे। गैर-आदिवासियों को सोचना चाहिए कि आज यदि सरकार सीएनटी -एसपीटी एक्ट में संशोधन करने में कामयाब हो जाती है तो भविष्य में पूंजीपतियों की हित रक्षा के लिए और कई विनाशकारी जनविरोधी कानून ले आएगी , और उसकी चपेट में सिर्फ आदिवासी ही नहीं बल्कि पूरी झारखंडी जनता आएगी। इसलिए सरकार के विध्वंसकारी 'विकास ' रथ के पहिये को यहीं पर रोक देना चाहिए। और इसके लिए चाहिए आदिवासी ,गैर-आदिवासियों के बीच चट्टानी एकता। याद रखें कि इस धरती पर दो ही जात है हुजूर और मजूर, मालिक और मेहनतकश ,अमीर और गरीब। जो उस खेमे में है, अर्थात आम जनता में ,आम झारखंडवासियों में जात, धर्म ,प्रांत के नाम पर सैंकड़ो विभाजन है। ब्रिटिश ने हमारे देश को सिर्फ 'बांटो और राज करो ' की नीति के आधार पर इतने दिनों तक शासन किया।गैर -आदिवासियों को समझना होगा कि आज सीएनटी-एसपीटी एक्ट सिर्फ आदिवासियों की जमीन नहीं बल्कि गैर -आदिवासियों की जमीन भी सुरक्षित रख रही है। जिंदल -भूषण -अडानी का प्रोजेक्ट कहाँ आकर रुक रहा है ? सीएनटी-एसपीटी एक्ट के कारण रुक रहा है। मान लीजिये किसी प्रोजेक्ट में 700 एकड़ जमीन जबरन लिया जा रहा है। इसमें से 200 एकड़ जमीन आदिवासियों की है। तो ये पूंजीपति 500 एकड़ गैर- आदिवासियों की जमीन तो आसानी से ले ली लेगी परंतु सीएनटी-एसपीटी एक्ट की वजह से 200 एकड़ जमीन नहीं ले पायेगी। यहीं पर आकर उनका प्रोजेक्ट रुक जायेगा और गैर -आदिवासियों को सीएनटी-एसपीटी एक्ट की रक्षा के लिए आंदोलन के मैदान में उतरना होगा।
साथ ही साथ आदिवासियों को भी यह समझना होगा यह आंदोलन व्यापक शोषित -पीड़ित आम झारखंड वासियों को शामिल किये बगैर सफल नहीं होगा। यदि सरकार आदिवासी -गैर आदिवासी के नाम पर आंदोलन में विभेद पैदा करने में सफल हो जाए तो यह आंदोलन कभी सफलता हासिल नहीं कर पायेगी।
एक युद्ध जो सदियों से चल रहा है
झारखंड फिर से सुलग रहा है, जमीन के अंदर कोयले में लगी आग की तरह जो बीच -बीच में धधक -धधक कर बाहर निकल आती है यह आग पिछले कई सदियों से लगी हुई है जो कभी बुझने का नाम ही नहीं लेती है। इसे आप युद्ध भी कह सकते है। पूर्वजों के विरासत -जल, जंगल और जमीन बचाने का युद्ध। यह युद्ध गोरे अंग्रेजों के खिलाफ लड़ा गया और अब देशी साहबों के खिलाफ लड़ा जायेगा। इधर शोषित -पीड़ित जनता अपना सब कुछ खोने से पहले एक अंतिम लड़ाई के लिए तैयार हो रही है, दूसरी और सरकार पूरे राज्य को पुलिस छावनी में तब्दील कर ,भय का माहौल तैयार कर आंदोलनकारी शक्तियों में विभाजन पैदा करने की कोशिश कर आंदोलन को कमज़ोर करने की कोशिश कर रही है। आदिवासियों को सरना और ईसाई के नाम पर बाँटने की कोशिश हो रही है। इस आंदोलन को मिशनरी प्रायोजित बताकर, इसे धर्मांतरण की कोशिश बताकर आंदोलन में फूट पैदा करने की कोशिश चल रही है। पर अब बहुत देर हो चुकी है। आदिवासी गैर -आदिवासी निर्विशेष सभी झारखंडी सर में कफ़न बांध चुका है। झारखंडवासियों की एक खासियत है। वे जमीन को सम्पति के रूप में नहीं देखते है। ये जमीन उनकी पहचान,संस्कृति , और विरासत से जुड़ी हुई है। ये जमीन यदि छीन जाए तो उनकी आजीविका,पहचान ,संस्कृति ,अर्थव्यवस्था और सामाजिक ताना -बाना सब समाप्त हो जायेगा। इसलिए जमीन यहाँ 'माँ ' है। माँ की रक्षा के लिए कुछ भी कर गुज़रने के लिए तैयार झारखंडवासी को सिर्फ एक ही बात का ख्याल रखना होगा यह लड़ाई लम्बी चलेगी, इसलिए इसी रूप में इसकी तैयारी होनी चाहिए और आंदोलन में विभेद पैदा करने की जबरदस्त कोशिश होगी। यदि इन दोनों बातों का ख्याल रखा जाए तो वो चाहे रघुवर सरकार हो या किसी और सरकार,लाठी- गोली के बल पर इस आंदोलन को परास्त नहीं कर पायेगी।प्रकाशक की बात
हाल ही में सीएनटी-एसपीटी एक्ट में कुछ महत्वपूर्ण संशोधन करने का प्रस्ताव झारखंड विधान सभा में पारित किया गया। इस संशोधन को लेकर झारखंड की राजनीति में तूफान मची हुई है। सरकार पक्ष की ओर से कहा जा रहा है कि इससे झारखंड के विकास में तेजी आयेगी और विरोधी पक्ष का कहना है कि इससे झारखंड में विनाश को आमंत्रण दिया जा रहा है। परंतु अब तक किसी भी पक्ष की ओर से तथ्यपरक, तर्कपूर्ण, वैज्ञानिक विश्लेषण पेश नहीं किया गया है।
हमारा मानना है कि इस अत्यंत मह्त्वपूर्ण विषय पर एक तथ्यपरक, शोधपूर्ण लेख आम जनता के पास विचारार्थ प्रस्तुत किया जाना चाहिए। यह दौर आम झारखंडवासियों के लिए अत्यंत मह्त्वपूर्ण है। यही वह दौर है जब झारखंडवासियों का भविष्य तय हो रहा है। जिस सपने को लेकर झारखंड अलग राज्य बना था, वह पूरा होगा अथवा झारखंडवासियों पर सदियों से चल रहे शोषण, जुल्म में और भी तेजी आएगी, यह वर्तमान परिपेक्ष्य ही तय करेगा। जररूत है खुले मन से से इस विषय पर विमर्श करना और इस विषय में सही निष्कर्ष पर पहुँचना। वर्तमान पुस्तक यदि उपरोक्त उद्देश्य की पूर्ति में मददगार साबित हुआ तो हमारा प्रयास सार्थक हुआ, ऐसा हमें प्रतीत होगा।
(सोशलिस्ट यूनिटी सेंटर ऑफ इंडिया (कम्युनिस्ट ) झारखंड राज्य सांगठनिक कमिटी)