किसी खास समाज, समूह या समुदाय को वहां के मजबूत और सत्ता पर पकड़ रखनेवाले लोग किस नजर से देखते हैं, इसे समझने का एक पैमाना यह भी हो सकता है कि ये समूह किन मुद्दों के लिए आवाज बुलंद कर रहे हैं.
देश के आदिवासी इलाकों से कुछ-कुछ दिनों पर जद्दोजेहद और जल-जंगल-जमीन की हिफाजत की गूंज सुनाई देती है. ताजा गूंज झारखंड से सुनाई दे रही है. पिछले दिनों झारखंड के दो कानूनों- छोटानागपुर टेनेंसी (सीएनटी) एक्ट और संथाल परगना टेनेंसी (एसपीटी) एक्ट- में कुछ फेरबदल किया गया है. झारखंड के आदिवासी- मूलनिवासी, दलित, किसान, पिछड़ों का बड़ा तबका इस फेरबदल के खिलाफ है. उनके मुताबिक, हाल के संशोधन झारखंड के लोगों की अस्मिता और अस्तित्व के लिए खतरनाक हैं. जाहिर है, इसके उलट भी तर्क होंगे. मगर, वे तर्क उन लोगों को कुबूल नहीं हैं, जिनके वास्ते और विकास के लिए झारखंड के रूप में अलग सूबे की बुनियाद पड़ी थी.
आज आदिवासी इलाकों के लोग वस्तुत: देश के ‘सभ्य समाज’ और मजबूत लोगों की चिंता का विषय नहीं हैं. हमारा ‘सभ्य समाज’ उनकी बुलंद आवाज को विकास की राह में रोड़े के रूप में देखता है. हम उन्हें बार-बार उनका ‘सभ्य तरीके से विकास’ करने की दुहाई देते हैं. मगर विकास का यह दृष्टिकोण कैसा है? थोड़ा पिछले चलते हैं. पांच दशक पीछे...
वेरियर एल्विन आदिवासियों की जिंदगी का अध्ययन करनेवाले माहिर मानवशास्त्री थे. उनकी किताब ‘ए फिलाॅस्फी फॉर नेफा’ (नार्थ-इस्ट फ्रंटियर एजेंसी- अरुणाचल प्रदेश) को आदिवासियों के विकास का दर्शन कहा जा सकता है. एल्विन लिखते हैं कि हमें आदिवासियों के बारे में आदिवासियों की सोच के मुताबिक सोचना होगा. आदिवासी लोग ‘नुमाइश की चीज’ या ‘नमूना’ नहीं हैं. वे सभी मूलभूत मामलों में ठीक हमारी ही तरह इंसान हैं. हम उनके हिस्सा हैं और वे हमारा हिस्सा हैं. वे खास हालात में जीते हैं. उनका विकास कुछ खास तर्ज पर हुआ है. उनकी अपनी जीवन दृष्टि है. काम करने का उनका अपना खास अंदाज है. लेकिन, बुनियादी इंसानी जरूरतें, ख्वाहिशें, मोहब्बत और डर के भाव- उनके भी हमारे ही जैसे हैं.
यानी जब हम आदिवासियों के बारे में सोचें, तो उन्हें अपने जैसा मान कर सोचें. मगर, अपने दिल पर हाथ रख कर क्या आज हम यह कह पाने की हालत में हैं कि हम उन्हें अपना ही हिस्सा मान कर उनके बारे में सोचते रहे/ सोचते हैं?
इस किताब की सबसे खास बात इसकी प्रस्तावना है, जिसे उस वक्त के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने लिखी है. हालांकि, गांधी या नेहरू का नाम सुनते ही कइयों की भृकुटियां चढ़ जाती हैं या वे नाक-भौं सिकोड़ने लगते हैं. मगर, किया क्या जाये, वे अपने विचारों के साथ हमसे टकराने आ ही जाते हैं.
नेहरू आदिवासी इलाकों के विकास को नकारते नहीं हैं. हां, वे विकास को एक मानवीय रूप देने की बात करते हैं. नेहरू लिखते हैं कि इन इलाकों में संचार, मेडिकल सुविधाओं, शिक्षा, बेहतर खेती जैसे क्षेत्रों के विकास के बारे में काम किया जाना चाहिए. इसी सिलसिले में वे कहते हैं कि इनके विकास का दायरा पांच मूलभूत सिद्धांत के दायरे में ही होना चाहिए...
पहला- लोगों को अपनी प्रतिभा और खासियत के आधार पर विकास की राह पर आगे बढ़ना चाहिए. हमें उन पर कुछ भी थोपने से बचना चाहिए. उनकी पारंपरिक कलाओं और संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए हर मुमकिन कोशिश करनी चाहिए.
दूसरा- जमीन और जंगलों पर आदिवासियों के हकों की इज्जत करनी चाहिए.
तीसरा- प्रशासन और विकास का काम करने के लिए हमें उनके लोगों (आदिवासियों) को ही ट्रेनिंग देने और उनकी एक टीम तैयार करने की कोशिश करनी चाहिए. जाहिर है, इस काम के लिए शुरुआत में बाहर के कुछ तकनीकी जानकारों की जरूरत पड़ेगी. लेकिन, हमें आदिवासी इलाकों में बहुत ज्यादा बाहरी लोगों को भेजने से बचना चाहिए.
चौथा- हमें इन इलाकों में बहुत ज्यादा शासन-प्रशासन करने से या उन पर ढेर सारी योजनाओं का बोझ लादने से बचना चाहिए. हमें उनकी सामाजिक और सांस्कृतिक संस्थाओं से मुकाबला या होड़ करके काम नहीं करना चाहिए. इसके बरअक्स उनके साथ तालमेल के साथ काम करना चाहिए.
पांचवां- आंकड़ों के जरिये या कितना पैसा खर्च हुआ है, हमें इस आधार पर विकास के नतीजे नहीं तय करने चाहिए. बल्कि इंसान की खासियत का कितना विकास हुआ, नतीजे इससे तय होने चाहिए.
ज्यादातर लोग नेहरू के नाम से दूसरे पंचशील के बारे में जानते हैं. लेकिन, लगभग पांच दशक पहले कही गयी नेहरू की ये पांच बातें आदिवासी इलाके और वहां के लोगों के विकास का पंचशील सिद्धांत बनीं.
अब किसी आदिवासी इलाके के विकास को नेहरू के पंचशील सिद्धांत और एल्विन के दर्शन के पैमाने पर कसें, तो अंदाजा लग सकता है कि आदिवासियों-मूलनिवासियों के साथ हमने कैसा सुलूक किया है. बहस हो सकती है कि नेहरू की पार्टी ने क्या किया? मगर, इससे न तो बहस खत्म हो सकती है और न ही लोगों को सवाल पूछने से रोका जा सकता है. जिनके अस्तित्व व अस्मिता पर खतरा पैदा होगा, वे तो सवाल पूछेंगे ही.
कभी डोमिसाइल नीति के नाम पर, तो कभी सीएनटी-एसपीटी एक्त में संशोधन के नाम पर, आदिवासियत को सिर के बल खड़ा किया जा रहा है. जरूरत है, सभी को और खासतौर पर उन लोगों को विचार करने की जो अपने को आदिवासी मूल्य या संस्कृति से जोड़ कर नहीं देखते हैं, लेकिन इस इलाके में रहते हैं. इन्हें हमेशा ध्यान में रखना चाहिए कि छत्तीसगढ़ या झारखंड किस/किनकी वजह से अस्तित्व में आये थे?
आदिवासी जादूघर की चीज नहीं हैं. भारत के नागरिक हैं. संविधान जिस ‘हम भारत के लोग...’ से शुरू होता है, उसमें वे भी उतने ही हिस्सेदार हैं, जितना की कोई और है. मगर कौन बतायेगा कि इनके विकास के पंचशील सिद्धांत पचास साल से किस अंधेरी कोठरी की किस टोकरी में धूल खा रहे हैं!
लेखक वरिष्ठ पत्रकार है
Disclaimer: The views expressed here are the author's personal views, and do not necessarily represent the views of Sabrangindia.
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