भारत में असमानता और तेज़ हो चली है: तीस्ता सेतलवाड़

Written by Sabrangindia Staff | Published on: November 24, 2020
सबरंगइंडिया की सह-संस्थापक तीस्ता सेतलवाड़ ने हाल ही में मानवाधिकार मुद्दों को समर्पित एक इटालियन फिल्म महोत्सव के एक कार्यक्रम "महामारी और लोकतंत्र" विषय पर चर्चा में भाग लिया।



मानवाधिकार पर एक फिल्म समारोह (Festival del Cinema dei Diritti Umani di Napoli) 17 नवंबर को इटली के नेपल्स में शुरू हुआ। जिसमें इटली से फिल्मकार, कार्यकर्ता और बुद्धिजीवी “कोविड -19 महामारी के मद्देनजर लोकतंत्र और मानवाधिकार के लिए चुनौतियों” पर चर्चा करने के लिए एक साथ आए थे। आपको याद होगा कि महामारी की शुरुआत में इटली सबसे बुरी तरह से ग्रस्त था और अब भारत तेजी से फैल रहे संक्रमण से जूझ रहा है।

फिल्म फेस्टिवल के एक हिस्से के रूप में एक ऑनलाइन चर्चा का आयोजन किया गया जिसमें दो भारतीय दिग्गजों को देखा गया; लेखिका अरुंधति रॉय तथा पत्रकार और मानवाधिकार की योद्धा, तीस्ता सेतलवाड़। उन्होंने महामारी और इसके लोकतंत्र पर पड़ने वाले प्रभाव पर प्रकाश डाला, जिसमें मानवाधिकारों और विशेष रूप से सामाजिक-आर्थिक रूप से हाशिए पर के समुदायों और धार्मिक अल्पसंख्यकों के जीवन और आजीविका पर हुए इसके प्रभाव के बारे में बातें कीं।

अरुंधति रॉय ने वास्तव में कोविड-19 महामारी और नवंबर 2016 से सत्तारूढ़ शासन की अनियोजित विमुद्रीकरण आपदा, और राष्ट्रव्यापी तालाबंदी के बीच समानताएं व्यक्त कीं। रॉय ने फाइनेंशियल टाइम्स के लिए हाल ही में इसपर एक लेख भी लिखा था।

अरुंधति रॉय ने कहा कि, "अब जैसे ही भारत में घोषणा की जाती है कि प्रधानमंत्री देश को संबोधित करेंगे, यह सुनते ही लोग भयभीत हो जाते हैं।" रॉय ने फाइनेंशियल टाइम्स के लिए लिखे लेख में भारतीय प्रधानमंत्री के बारे में निम्नलिखित बातें लिखी थीं: "उनके तौर तरीके निश्चित रूप से यह धारणा देते हैं कि भारत के प्रधानमंत्री नागरिकों को एक शत्रुतापूर्ण शक्ति के रूप में देखते हैं, जिन पर घात लगाकर अचानक दहशत फैलाने की आवश्यकता है, लेकिन नागरिकों पर कभी भी भरोसा नहीं किया जा सकता है।”

अरुंधति रॉय की कही गई बातों को आगे बढ़ाते हुए, तीस्ता सेतलवाड़ ने मीडिया को शासन की कठपुतली बता कर आड़े हाथों लिया। उन्होंने कहा, “हालात इसी से समझ में आ रहे हैं, कि एक समय था जब अरुंधति रॉय भारत के किसी भी शीर्ष प्रकाशन में लिख सकती थीं, लेकिन अब उन्हें केवल फाइनेंशियल टाइम्स में ही जगह मिल रही है। पिछले साढ़े छह वर्षों में भारतीय मीडिया स्वयं अपने कर्तव्यों से मुकर रही है।” सेतलवाड़ ने कहा, “मीडिया, विशेष रूप से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, व्यापक लोकतांत्रिक चिंताओं के बारे में बात नहीं कर रहा है। इस सरकार के लिए अधिकांश मीडिया बिलकुल एक प्रचार का माध्यम बन गया है।"

सेतलवाड़ ने भारत में अमीरों और गरीबों के बीच बढ़ती खाई को स्पष्ट करते हुए कहा, “भारतीय लोकतंत्र के भीतर सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक असमानता इतनी तेज हो गई है, कि 2000 में हमारे पास 9 अरबपति थे, 2018 में, हमारे पास 119 अरबपति हो गए। और आज संसद में हमारे 83 प्रतिशत प्रतिनिधि अरबपति हैं।” यह बताते हुए कि वे अपने प्रभाव का उपयोग कैसे करते हैं, उन्होंने कहा, "आज ये अरबपति केवल खनन कंपनियों, टीवी कंपनियों और दूरसंचार कंपनियों के हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं।"

उन्होंने आगे पूछा, “भारतीय लोकतंत्र का गला घोंटा जा रहा है। मगर इसपर कौन बोलता है, क्या आप बोलते हैं? क्या आप बेरोजगारी के बारे में बोलते हैं, क्या आप 65 करोड़ प्रवासी श्रमिकों के बारे में बोलते हैं? हम महामारी के दौरान उनकी दुर्दशा से अवगत हुए, लेकिन क्या वे इससे पहले राज्य, राजनेताओं और कार्यकर्ताओं को दिखाई दे रहे थे?

सेतलवाड़ ने आगे लिंचिंग के साथ-साथ नागरिकता कानूनों में संशोधन को एक व्यापक वैचारिक परियोजना के रूप में संदर्भित किया जो महामारी से पहले भी काम पर था। सेतलवाड़ ने यह भी बताया कि असम में नागरिकों का राष्ट्रीय रजिस्टर (एनआरसी) इस एजेंडे का एक हिस्सा कैसे था, लेकिन आखिरकार इसकी चपेट में सिर्फ मुस्लिम अल्पसंख्यक ही नहीं आए, बल्कि बंगाली हिन्दुओं से लेकर गोरखा जैसे स्थानीय हाशिए पर के समुदाय भी इसका खामियाज़ा भुगत रहे हैं।

नागरिकता संशोधन अधिनियम का जिक्र करते हुए सेतलवाड़ ने कहा, "महामारी से ठीक पहले देश भर में रचनात्मक और शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन हुए, जहां लोगों ने सीएए की निंदा की।" “शाहीन बाग मुस्लिम महिलाओं की अगुवाई में विरोध प्रदर्शन का एक प्रेरक उदाहरण था, जो मुस्लिम महिलाओं का अपने भारतीय होने के अधिकार प्रदर्शन था। यह एक सांप्रदायिक विरोध नहीं था, यह नागरिकों के रूप में उनके अधिकारों का दावा करने वाला विरोध था।”

सेतलवाड़ ने आगे कहा, “यह कुछ समय के लिए दिखाई दिया कि सत्तारूढ़ सरकार को पता ही नहीं था कि क्या करना है।" सेतलवाड़ ने आगे कहा, "ढाई महीने तक विरोध प्रदर्शनों ने शासन को जागने की आशा को पुनर्जीवित किया और फिर लॉकडाउन आ गया।" प्रवासी संकट की उत्पत्ति के बारे में बताते हुए सेतलवाड़ ने कहा कि सरकार ने महामारी के दौरान आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों की भूख को कम करने में मदद करने के लिए 9 करोड़ टन से अधिक खाद्यान्न जारी नहीं किया। “भुखमरी की आशंका के डर से, प्रवासी अपने गाँव वापस जाने लगे। 1 करोड़ प्रवासियों ने गाड़ियों का सहारा लिया, लेकिन टिकट खरीदने के लिए पैसे उधार लेने पड़े क्योंकि सरकार ने उन्हें कल्याणकारी सहायता देने से इनकार कर दिया।” 

सेतलवाड़ ने कहा, "महामारी के बाद की वास्तविक कहानी न्यायपालिका और चुनाव आयोग जैसी संस्थाओं के पतन, भूख और नफरत की है।"

पूरी चर्चा को इस लिंक पर ऑनलाइन देखा जा सकता है:

https://www.facebook.com/watch/live/?v=2734499093473270&ref=watch_permalink
 

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