इस साल 2023 में बिजोया यानि दशहरे के अवसर पर एकता, प्रेम और विद्रोह की अनेक तस्वीरें उभरकर सामने आईं. धर्म और बदलाव की बयार ने एक ही ज़मीन पर मौजूदगी दर्ज कर सामूहिक सद्भावना को मज़बूत किया है.
दशहरा यानि बिजोया को बुराई पर अच्छाई की जीत के त्योहर के रूप में परिभाषित किया जाता है. ये भारत में भरपूर उमंग के साथ मनाए जाने वाले प्रमुख त्योहारों में से एक है. रामलीला, गरबा, मेला और पूजा के ख़ूबसूरत शामियानों के साथ ये उत्सव नारी शक्ति और न्याय की पैरवी को पहली पंगत में रखता है. इस दौरान पूजा-पांडालों को दुर्गा के 9 अवतारों से सजाया जाता है जिसमें शक्ति की प्रतीक दुर्गा की भूमिका सबसे अहम होती है. ग़ौरतलब है कि रावण अनेक लोगों के लिए बुराई का प्रतीक है तो अनेक एक विद्वान और शिवभक्त के तौर पर उसे सम्मानजनक भी मानते हैं. नवरात्रि के 9 दिनों (पूर्वी बंगाल में बिजोया और पश्चिम में नवरात्रि के नाम से प्रसिद्ध, जिसका अंत वाहन पूजा से होता है.) और दशहरे के अंतिम दिन का वंचित वर्ग के हज़ारों लोगों के लिए व्यावसायिक महत्व भी है. इसके अलावा लंबे समय से दुर्गा पूजा एक सहधर्मी नज़रिए के साथ नागरिकों के बीच हिंदू मुस्लिम भाईचारे को भी मज़बूत करता रहा है.
सहधर्मिता पर ज़ोर देने वाले किसी भी उत्सव की तरह दुर्गापूजा का स्वरूप भी पिछले सालों में काफ़ी बदला है. अब इसका महत्व आस्था और प्रार्थना से बढ़कर है. इस साल मुसलमान और अन्य अल्पसंख्यक समुदायों ने इस उत्सव में बढ-चढ़ कर हिस्सा लिया है और भारत की अद्भुत सांप्रदायिक एकता में योगदान दिया.
देवरिया, उत्तर प्रदेश
गन्ना किसानों और चीनी मीलों के शहर देवरिया में सांप्रदायिक भाईचारे का एक नायाब मामला सामने आया जिसने पूर्वी उत्तर प्रदेश में जारी नफ़रती लहर को किनारे कर दिया. नवरात्रि में कन्या पूजा की परंपरा है और हर साल धार्मिक प्रमुख या आयोजक कमेटी की अगुवाई में छोटी लड़कियों के लिए एक विशाल भोज (दावत) का आयोजन किया जाता है. मासिक धर्म के चक्र से दूर इन छोटी लड़कियों को नवरात्रि के शुरूआती दिनों में सजाया और पूजा जाता है, हालांकि नारीवादी तब़का इस धार्मिक अभ्यास के तर्क और स्वरूप पर लगातार ज़रूरी सवाल उठाता रहा है.
देवरिया की भुजौली कॉलोनी में एक मुसलमान युवक ने साझी सद्भावना का एक बेहतरीन उदाहरण पेश किया. इस मुसलमान युवक ने परंपरागत खांचो को तोड़ते हुए कन्या-पूजा की जिम्मेदारी संभाली और क़रीब 1500 लड़कियों को भोज और तोहफ़ों का नज़राना दिया.
इस मुसलमान व्यक्ति ने ये साबित किया है कि बेटियों के लिए प्यार और सम्मान को धर्म के नाम पर नहीं बांटा जा सकता है. अगर बेटियां हिंदुओं के लिए लक्ष्मी हैं तो वो मुसलमान धर्म के अनुयायियों के लिए रहमत हैं.
मुंबई, महाराष्ट्र
बिल्कुल इसी तर्ज़ पर गरबा की ख़ूबसूरत, जीवंत और उत्साहपूर्ण गुजरती परंपरा के नक्शेक़दम पर सपनों के शहर मुंबई ने भी सांप्रदायिक एकता की झलक दी. गायक सलीम मर्चेंट के इंस्टाग्राम हैंडल पर एक पोस्ट ने इंटरनेट की दुनिया में अनगिनत लोगों का ध्यान खींचा. इस वीडियो में 3 मुसलमान गायकों सलीम-मर्चेंट, उस्मान मीर और आमिर मीर को देखा जा सकता है जिनके गिर्द एक विशाल जनसमूह मारी मावड़ी की धुन पर नाचने-गाने में मशगूल है.
बॉलीवुड और रचनात्मक दुनिया पहले से ही पूर्वाग्रहों को मिटाने के लिए जानी जाती रही है. कला का कोई मज़हब नहीं होता और जब कलाकार आस्था का रास्ता चुनता है तो धर्म प्यार, एकता और सद्भावना में बदल जाता है.
दंतेवाड़ा, छत्तीसगढ़
दंतेवाड़ा में भी मज़हबी समरसता की एक बेहद ख़ूबसूरत मिसाल सामने आई. आम तौर पर ये इलाका सियासी सरगर्मियों के केंद्र में रहता है. स्पीड न्यूज़ डेस्क के मुताबिक़ एक मुसलमान परिवार ने यहां मां दांतेश्वरी मंदिर में अपने परिवार के 7 सदस्यों के नाम पर 7 दीपक जलाए. स्वीटी आलम, मन्नान मिराज हुसैन, ज़ाहिदा खातूम, सोहम कबीर, शेख शाहिद, शकील अहमद और सलीम रजा उस्मानी एक संजीदा बीमारी से गुजर रहे थे जब उन्होंने घी के दीपक जलाने की प्रतिज्ञा की थी. बीमारी से उबरने के बाद उन्होंने नवरात्रि के दिनों में अपना वादा पूरा किया.
दोनों ही धर्मों ने एक दूसरे पर अपनी छाप छोड़ी है और आस्था के बीजों को एक सहधर्मी इतिहास के साथ संजोया है. ये परिवार साझी चेतना और परस्पर जुड़े हुए एकता के तारों की इबारत है.
कोलकाता, पश्चिम बंगाल
इसी तरह उल्लास के शहर कोलकाता में भी आस्था को सामाजिक बदलाव के औज़ार के तौर पर पेश करने का एक बेमिसाल उदाहरण सामने आया है. FII की रिपोर्ट के मुताबिक़ शहर कोलकाता में एक पूजा पंडाल महिला आधारित विषयों और क्रांतिकारी मूर्तिकला के ज़रिए मासिक धर्म से जुड़ी भ्रांतियां और गांठें खोल रहा है. ये पूजा पश्चिम बंगाल का सबसे खास त्योहार है और इसके माध्यम से महिलाओं के लिए एक सकारात्मक सामाजिक माहौल क़ायम करने की ये पहल हर लिहाज़ से नई और प्रेरणादायक है.
हमारे समाज में ऋतुमती औरत को अपवित्र क़रार दिया जाता है. मासिक धर्म के दौरान धार्मिक पुस्तकें पढ़ने और आय़ोजनों में हिस्सा लेने की भी मनाही होती है. आज भी मासिक धर्म को लेकर अनेक तरह के सामाजिक भेदभाव और ग़लत अवधारणाएं हैं. उन्हें इस तरह बेदखल करने के सवाल को अध्यात्म से जोड़ने की ये पहल यकीनन समानता की दिशा में उठा एक ज़रूरी क़दम है .
नई दिल्ली, उर्दू रामायण का उत्सव
उर्दू साहित्य के सालाना जश्न, जश्न-ए-रेख्ता ने भी सांस्कृतिक ताने-बाने को मज़बूत बनाने के लिए उर्दू रामायण पर आधारित नाटक का आयोजन किया. उर्दू भाषा में हिंदू ग्रंथ कोई नई बात नहीं हैं. इस खूबसूरत भारतीय भाषा की ऐतिहासिक इबारतें आजाद और सहजीवी मूल्यों की रौश्नी से जगमग हैं.
इस क़दम को उर्दू भाषा को कटघरे में खड़ा करने वाली हिंदुत्ववादी राजनीति के ख़िलाफ़ एक विनम्र और रचनात्मक विरोध के तौर पर भी देखा जा सकता है. आसान ज़बान, दोस्ताना संवाद और जादुई लय के साथ उर्दू राम-कहानी न सिर्फ़ इस महाकाव्य को एक मोहक शक्ल देती है बल्कि उर्दू भाषा को भी एक हसीन भारतीय भाषा के तौर पर स्थापित करती है.
संक्षेप में, इस साल दुर्गा पूजा के जश्न में मानवीय मूल्यों ने नफ़रत की सियासत और भेदभाव के आगे बाज़ी मार ली है. एकता की ये कहानियां आम-जन के बीच प्यार, सद्भावना और सौहार्द को परवान चढ़ाती हैं. सच है कि गंगा-जमुनी तहज़ीब की नींव साझा खुशी और मिले-जुले दुख की मिरास पर ही मुमकिन है.
दशहरा यानि बिजोया को बुराई पर अच्छाई की जीत के त्योहर के रूप में परिभाषित किया जाता है. ये भारत में भरपूर उमंग के साथ मनाए जाने वाले प्रमुख त्योहारों में से एक है. रामलीला, गरबा, मेला और पूजा के ख़ूबसूरत शामियानों के साथ ये उत्सव नारी शक्ति और न्याय की पैरवी को पहली पंगत में रखता है. इस दौरान पूजा-पांडालों को दुर्गा के 9 अवतारों से सजाया जाता है जिसमें शक्ति की प्रतीक दुर्गा की भूमिका सबसे अहम होती है. ग़ौरतलब है कि रावण अनेक लोगों के लिए बुराई का प्रतीक है तो अनेक एक विद्वान और शिवभक्त के तौर पर उसे सम्मानजनक भी मानते हैं. नवरात्रि के 9 दिनों (पूर्वी बंगाल में बिजोया और पश्चिम में नवरात्रि के नाम से प्रसिद्ध, जिसका अंत वाहन पूजा से होता है.) और दशहरे के अंतिम दिन का वंचित वर्ग के हज़ारों लोगों के लिए व्यावसायिक महत्व भी है. इसके अलावा लंबे समय से दुर्गा पूजा एक सहधर्मी नज़रिए के साथ नागरिकों के बीच हिंदू मुस्लिम भाईचारे को भी मज़बूत करता रहा है.
सहधर्मिता पर ज़ोर देने वाले किसी भी उत्सव की तरह दुर्गापूजा का स्वरूप भी पिछले सालों में काफ़ी बदला है. अब इसका महत्व आस्था और प्रार्थना से बढ़कर है. इस साल मुसलमान और अन्य अल्पसंख्यक समुदायों ने इस उत्सव में बढ-चढ़ कर हिस्सा लिया है और भारत की अद्भुत सांप्रदायिक एकता में योगदान दिया.
देवरिया, उत्तर प्रदेश
गन्ना किसानों और चीनी मीलों के शहर देवरिया में सांप्रदायिक भाईचारे का एक नायाब मामला सामने आया जिसने पूर्वी उत्तर प्रदेश में जारी नफ़रती लहर को किनारे कर दिया. नवरात्रि में कन्या पूजा की परंपरा है और हर साल धार्मिक प्रमुख या आयोजक कमेटी की अगुवाई में छोटी लड़कियों के लिए एक विशाल भोज (दावत) का आयोजन किया जाता है. मासिक धर्म के चक्र से दूर इन छोटी लड़कियों को नवरात्रि के शुरूआती दिनों में सजाया और पूजा जाता है, हालांकि नारीवादी तब़का इस धार्मिक अभ्यास के तर्क और स्वरूप पर लगातार ज़रूरी सवाल उठाता रहा है.
देवरिया की भुजौली कॉलोनी में एक मुसलमान युवक ने साझी सद्भावना का एक बेहतरीन उदाहरण पेश किया. इस मुसलमान युवक ने परंपरागत खांचो को तोड़ते हुए कन्या-पूजा की जिम्मेदारी संभाली और क़रीब 1500 लड़कियों को भोज और तोहफ़ों का नज़राना दिया.
इस मुसलमान व्यक्ति ने ये साबित किया है कि बेटियों के लिए प्यार और सम्मान को धर्म के नाम पर नहीं बांटा जा सकता है. अगर बेटियां हिंदुओं के लिए लक्ष्मी हैं तो वो मुसलमान धर्म के अनुयायियों के लिए रहमत हैं.
मुंबई, महाराष्ट्र
बिल्कुल इसी तर्ज़ पर गरबा की ख़ूबसूरत, जीवंत और उत्साहपूर्ण गुजरती परंपरा के नक्शेक़दम पर सपनों के शहर मुंबई ने भी सांप्रदायिक एकता की झलक दी. गायक सलीम मर्चेंट के इंस्टाग्राम हैंडल पर एक पोस्ट ने इंटरनेट की दुनिया में अनगिनत लोगों का ध्यान खींचा. इस वीडियो में 3 मुसलमान गायकों सलीम-मर्चेंट, उस्मान मीर और आमिर मीर को देखा जा सकता है जिनके गिर्द एक विशाल जनसमूह मारी मावड़ी की धुन पर नाचने-गाने में मशगूल है.
बॉलीवुड और रचनात्मक दुनिया पहले से ही पूर्वाग्रहों को मिटाने के लिए जानी जाती रही है. कला का कोई मज़हब नहीं होता और जब कलाकार आस्था का रास्ता चुनता है तो धर्म प्यार, एकता और सद्भावना में बदल जाता है.
दंतेवाड़ा, छत्तीसगढ़
दंतेवाड़ा में भी मज़हबी समरसता की एक बेहद ख़ूबसूरत मिसाल सामने आई. आम तौर पर ये इलाका सियासी सरगर्मियों के केंद्र में रहता है. स्पीड न्यूज़ डेस्क के मुताबिक़ एक मुसलमान परिवार ने यहां मां दांतेश्वरी मंदिर में अपने परिवार के 7 सदस्यों के नाम पर 7 दीपक जलाए. स्वीटी आलम, मन्नान मिराज हुसैन, ज़ाहिदा खातूम, सोहम कबीर, शेख शाहिद, शकील अहमद और सलीम रजा उस्मानी एक संजीदा बीमारी से गुजर रहे थे जब उन्होंने घी के दीपक जलाने की प्रतिज्ञा की थी. बीमारी से उबरने के बाद उन्होंने नवरात्रि के दिनों में अपना वादा पूरा किया.
दोनों ही धर्मों ने एक दूसरे पर अपनी छाप छोड़ी है और आस्था के बीजों को एक सहधर्मी इतिहास के साथ संजोया है. ये परिवार साझी चेतना और परस्पर जुड़े हुए एकता के तारों की इबारत है.
कोलकाता, पश्चिम बंगाल
इसी तरह उल्लास के शहर कोलकाता में भी आस्था को सामाजिक बदलाव के औज़ार के तौर पर पेश करने का एक बेमिसाल उदाहरण सामने आया है. FII की रिपोर्ट के मुताबिक़ शहर कोलकाता में एक पूजा पंडाल महिला आधारित विषयों और क्रांतिकारी मूर्तिकला के ज़रिए मासिक धर्म से जुड़ी भ्रांतियां और गांठें खोल रहा है. ये पूजा पश्चिम बंगाल का सबसे खास त्योहार है और इसके माध्यम से महिलाओं के लिए एक सकारात्मक सामाजिक माहौल क़ायम करने की ये पहल हर लिहाज़ से नई और प्रेरणादायक है.
हमारे समाज में ऋतुमती औरत को अपवित्र क़रार दिया जाता है. मासिक धर्म के दौरान धार्मिक पुस्तकें पढ़ने और आय़ोजनों में हिस्सा लेने की भी मनाही होती है. आज भी मासिक धर्म को लेकर अनेक तरह के सामाजिक भेदभाव और ग़लत अवधारणाएं हैं. उन्हें इस तरह बेदखल करने के सवाल को अध्यात्म से जोड़ने की ये पहल यकीनन समानता की दिशा में उठा एक ज़रूरी क़दम है .
नई दिल्ली, उर्दू रामायण का उत्सव
उर्दू साहित्य के सालाना जश्न, जश्न-ए-रेख्ता ने भी सांस्कृतिक ताने-बाने को मज़बूत बनाने के लिए उर्दू रामायण पर आधारित नाटक का आयोजन किया. उर्दू भाषा में हिंदू ग्रंथ कोई नई बात नहीं हैं. इस खूबसूरत भारतीय भाषा की ऐतिहासिक इबारतें आजाद और सहजीवी मूल्यों की रौश्नी से जगमग हैं.
इस क़दम को उर्दू भाषा को कटघरे में खड़ा करने वाली हिंदुत्ववादी राजनीति के ख़िलाफ़ एक विनम्र और रचनात्मक विरोध के तौर पर भी देखा जा सकता है. आसान ज़बान, दोस्ताना संवाद और जादुई लय के साथ उर्दू राम-कहानी न सिर्फ़ इस महाकाव्य को एक मोहक शक्ल देती है बल्कि उर्दू भाषा को भी एक हसीन भारतीय भाषा के तौर पर स्थापित करती है.
संक्षेप में, इस साल दुर्गा पूजा के जश्न में मानवीय मूल्यों ने नफ़रत की सियासत और भेदभाव के आगे बाज़ी मार ली है. एकता की ये कहानियां आम-जन के बीच प्यार, सद्भावना और सौहार्द को परवान चढ़ाती हैं. सच है कि गंगा-जमुनी तहज़ीब की नींव साझा खुशी और मिले-जुले दुख की मिरास पर ही मुमकिन है.