जनता के शरद: क्या खोया क्या पाया जग में

Written by जयंत जिज्ञासु | Published on: July 1, 2019

छात्र-शिक्षक-शिक्षा-शोध-समाज-नुमाइंदगी-राष्ट्रनिर्माण-मानवता आदि के सरोकारों को संसद में 43 साल तक अनवरत उठाने वाले व तीन मुख़्तलिफ़ सूबों से चुनकर लोकसभा पहुंचने वाले देश के चौथे मात्र सांसद व यशस्वी सियासतदां शरद यादव का आज 73वां जन्मदिन है।

शरद यादव को इतिहास में विशिष्ट जगह इसलिए भी मिलेगी कि जब लोकसभा का कार्यकाल बढा कर 6 वर्ष कर दिया गया तो लोकसभा की 5 साल की तयशुदा अवधि पूरी होने पर इस्तीफा देने वाले दो ही लोग थे, एक शरद यादव और दूसरे मधु लिमये। अटल बिहारी ने तो दल के अनुशासन से बंधे होने का सुविधाजनक बहाना ढूंढ लिया, मगर अनैतिक व अवैधानिक ढंग से बाकियों की तरह साल भर ज्यादा सांसदी का सुख भोगने का लोभ संवरण नहीं कर पाए।

जब शरद जी ने लोकसभा से इस्तीफा दिया, तो लोकनायक जेपी ने उन्हें स्नेह भरा एक ख़त लिखा:

प्रिय शरद,

लोकसभा की सदस्यता से यागपत्र देने के संबंध में तुम्हारा पत्र बहुत पहले मिला था और मैंने उसके उत्तर में अपना मंतव्य भी तुम्हें श्री काशीनाथ त्रिवेदी के द्वारा भेजा था। वह तुम्हें समय पर मिला, यह सूचना भी मुझे मिल गई थी। तुमने लोकसभा से त्यागपत्र देकर त्याग का जो साहसपूर्ण उदाहरण प्रसतुत किया है, उसकी जितनी प्रशंसा की जाए थोडी है। देश के नौजवानों ने तुम्हारे इस क़दम का हृदय से स्वागत किया है, जो इस बात का सबूत है कि युवा वर्ग में त्याग, बलिदान के प्रति आदर की भावना कायम है। तुम्हारे इस कदम से लोकतंत्र के लिए संघर्षशील हजारों युवकों को एक नयी प्रेरणा मिली है। मेरा विश्वास है कि इस उदाहरण से उनमें वह सामूहिक विवेक जाग्रत होगा जो लोकतंत्र के ढांचे में पुनः प्राण प्रतिष्ठा करने के लिए आवश्यक है।

मैं तुम्हें अपनी हार्दिक शुभेच्छाएं और आशीर्वाद भेजता हूं।

तुम्हारा सस्नेह,
जयप्रकाश

यूं तो शरद जी से अनेक बार सुखद भेंट हुई। पर, 2017 की जुलाई में बिहार में जनादेश अपहरण के बाद जब उनके पास हमलोग गये, तो सबकी बातें उन्होंने गौर से सुनीं। जब मेरी बारी आई और मैंने कहा, "कुछ कीजिए सर, ज़माना आपकी ओर ही उम्मीद भरी निगाहें लगाए हुए है। आपका क़द मंत्री-वंत्री से बहुत ऊंचा है। हर बड़े राजनीतिज्ञ को कुछ उल्लेखनीय ऐतिहासिक कार्य के लिए जाना जाता है, और आपको हमारी पीढ़ी मंडल कमीशन लागू कराने में अविस्मरणीय भूमिका के लिए जानती है। हम चाहते हैं कि आने वाली नस्लें शरद यादव को इस रूप में भी याद करे कि जब एक एक कर सारे लोगों ने अपनी रीढ़ की हड्डी नीलाम करना शुरू कर दिया, तो उन्होंने जनादेश के साथ दुष्कर्म की मुख़ालफ़त ही नहीं की, बल्कि केंद्र सरकार में प्रस्तावित बड़े महकमे को ठुकरा दिया", तो शरद जी गंभीर मुस्कराहट बिखेर कर बोल पड़े, "मैं हर प्रदेशाध्यक्ष से बात कर रहा हूँ और कोई भी क़ुर्बानी देने को तैयार हूँ। सवाल है कि देश बचना चाहिए और वो मेरे अकेले से नहीं होगा। तुम सबको आगे आना होगा और अपनी ज़िम्मेदारी निभानी होगी"।
 
अली अनवर ने सबसे पहले ऐलानिया कहा, "अगर नीतीश कुमार की अंतरात्मा उन्हें महागठबंधन के साथ रहने से रोकती है, तो मेरा जमीर भी बीजेपी के साथ जाने से मुझे रोकता है। जिन कारणों से नीतीश कुमार के नेतृत्व में हम बीजेपी से अलग हुए थे, आज वो कारण और भी साफ़ तरीक़े से सामने पूरी उग्रता से मौजूद हैं। पार्टी ने गर मौक़ा दिया, तो मैं अपनी बात रखूंगा"।
 
अगले दिन जब उनका बयान नहीं आया और अरुण जेटली का तुग़लक़ रोड चलकर उनसे मिलने और मंत्री पद स्वीकार करने के आग्रह की ख़बर तैरने लगी तो जेएनयू-जामिया-डीयू से फिर हमलोग पहुंचे। और कहा कि आज आपसे जब तक ठोस आश्वासन नहीं मिल जाता सर, हमलोग यहाँ से नहीं जाने वाले, लोग तरह-तरह की बातें कर रहे हैं। शरद जी ने कहा, "दुनिया की कोई टकसाल मुझे नहीं खरीद सकती। मैंने दो-दो बार इस्तीफ़ा दिया है, भारत सरकार गंवाई है। 70 साल में जो नहीं हुआ, वो बिहार में धूर्तों ने कर दिया। हम सड़क पर निकलने को तैयार हैं। ऐसी बेशर्म सरकार कोई दूसरी न हुई"। और, फिर छात्र-नौजवान ज़िंदाबाद के नारे लगाने लगे। यह इसलिए महत्वपूर्ण एपिसोड है कि अली अनवर साहब,  शरद जी और केरल से जदयू सांसद वीरेन्द्र कुमार, बस तीन ही शख़्सियत ने अपने दल के अंदर तानाशाही को चुनौती दी। शरद जी के इस त्याग को जम्हूरियत की पक्षधर जनता हमेशा याद रखेगी। इस बार नैतिक रूप से वो अपने सियासी जीवन के सर्वोच्च शिखर पर मुझे दिखाई पड़े।
 
शरद जी अभिभावक की तरह पेश आते हैं और पढ़ाई के बारे में भी पूछते हैं। मुझे ध्यान नहीं आता कि छात्र हित, शिक्षक हित, शोध हित और समग्रता में शिक्षा हित के किसी सवाल को लेकर उनके पास गये हों और उन्होंने सदन में उसे न उठाया हो।
 
1989 में सदन के अंदर उनकी ज़ोरदार बहस के एक टुकड़े को सीपीएम की एमपी रहीं सुभाषिणी अली जी ने कुछ इस तरह याद किया, "शरद भाई ने सदन में कहा था कि यहां तमाम लोग हैं जो अभी दलितों पिछड़ों के लिए 15 मिनट के भाषण में खूब हाय तौबा मचाएंगे कि उन्हें सब कुछ दे देना चाहिए। फिर उसके बाद एक शब्द का इस्तेमाल करेंगे "लेकिन"। उसके बाद उनका वंचितों के लिए सारा प्रेम खत्म हो जाएगा और वे अपनी जाति के हित में लग जाएंगे”।
 
मंडल कमीशन लागू होने की दास्तान भी कोई कम दिलचस्प नहीं है। जहाँ लालू प्रसाद वीपी सिंह से एकांत में मिल कर मंडल पर अपना रुख़ साफ़ कर दिया था। वहीं, हरियाणा में मेहम कांड और कुछ अन्य बिंदुओं पर ताऊ देवीलाल से वीपी सिंह की खटपट कुछ इस कदर बढ़ गई थी कि मंत्रिमंडल से उन्हें ड्रॉप करने तक की बात हो गई। और, शरद यादव को वीपी सिंह ने फोन कर जब देवीलाल को हटाने की जानकारी दी, तो शरद जी ने कहा कि मिलकर बात करता हूँ, सुब्ह भेंट होती है। पर वीपी सिंह ने तो पहले ही राष्ट्रपति को भेज दिया था। देवीलाल अपना शक्ति-प्रदर्शन करने के लिए एक विशाल रैली करने जा रहे थे। बस यहीं पर शरद यादव ने वीपी सिंह के सामने एक शर्त रख दी कि या तो रैली से पहले मंडल लगाइए, नहीं तो हम देवीलाल जी के साथ अपनी पुरानी यारी निभाएंगे। लगातार सरकार पर मंडराते ख़तरे और मध्यावधि चुनाव की आशंका को देखते हुए जनता दल के जनाधार को और ठोस विस्तार देने की आकांक्षा पाले वी.पी. सिंह की सरकार ने अंततः 7 अगस्त 1990 को सरकारी नौकरियों में पिछड़ों के लिए 27% आरक्षण लागू करने की घोषणा की।
 
जो उच्च जाति के लोग प्रसोपा (प्रजा सोशलिस्ट पार्टी) वाली पृष्ठभूमि से थे, वो मंडल लगने से खुश थे, वहीं सोपा (सोशलिस्ट पार्टी) वाली पृष्ठभूमि के सवर्ण नेता बहुत तिकड़म कर रहे थे। क्रीमी लेयर का बखेडा लाने में मधु लिमये, जिनके लिए मेरे मन में बहुत आदर है, अंदर ही अंदर बड़ा खेल कर रहे थे। एमजी गोरे, मधु दंडवते, एस एम जोशी जैसे प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के बैकग्राउंड वाले लीडर्स मंडल कमीशन की एक सिफारिश लागू होने से बहुत प्रसन्न थे। एस एम जोशी जो कैंसर से पीडित थे, ने शरद यादव को घर बुला कर कहा, "अब मैं चैन से इस संसार से विदा ले सकूंगा"।
 
10 अगस्त 1990 को आयोग की सिफारिशों के तहत सरकारी नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था करने के ख़िलाफ़ देशव्यापी विरोध प्रदर्शन आरंभ हो गया। 13 अगस्त 90 को मंडल आयोग की सिफारिश लागू करने की अधिसूचना जारी हुई। 14 अगस्त को अखिल भारतीय आरक्षण विरोधी मोर्चे के अध्यक्ष उज्ज्वल सिंह ने आरक्षण व्यवस्था के विरोध में सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की। 19 सितम्बर को दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र एसएस चौहान ने आरक्षण के विरोध में आत्मदाह किया और एक अन्य छात्र राजीव गोस्वामी बुरी तरह झुलस गए।
 
जब एक बार केंद्रीय सेवाओं में पिछडों के आरक्षण की अधिसूचना जारी हो गई तो अरुण नेहरू जैसे कुछ मंत्री रोज़ उपद्रव, अशांति व तनावपूर्ण माहौल की ख़बरों से भरी अख़बारों की कतरन लेकर 7 RCR पहुंच जाते थे और वीपी सिंह का दिमाग़ चाटते थे कि अधिसूचना वापस ले लेनी चाहिए। वीपी सिंह थोडा तैयार भी हो गए थे। ऐसी ही एक कैबिनेट मीटिंग से पहले सचिव विनोद पांडेय ने जब एक सूत्री एजेंडे के बारे में बताया, तो शरद यादव बुरी तरह भड़क गए और कहा कि नोटिफिकेशन वापस करने की हिमाक़त करना भी मत। वित्त मंत्री मधु दंडवते ने शरद जी का जम कर साथ दिया।

प्रधानमंत्री समेत भारत सरकार के अधिकांश मंत्रियों की मौजूदगी में 8 अक्टूबर 1990 को पटना के गांधी मैदान में जनता दल की रैली में शरद जी ने कहा था, "जनता दल ने अपने वायदे के मुताबिक हजारों सालों के शोषित पिछडों को आरक्षण देकर न केवल अवसरों में भागीदारी की है, बल्कि हमने उनकी सुषुप्त चेतना और स्वाभिमान को भी जगाने का काम किया है। जो हाथ अकलियतों के खिलाफ़ उठे, उन्हें थाम लो। तुम्हारे इस आंदोलन में अकलियतों का साथ कारगर साबित होगा"।

पटना की रैली में तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद ने गरजते हुए कहा था, “चाहे जमीन आसमान में लटक जाए, चाहे आसमान जमीन पर गिर जाए, मगर मंडल कमीशन लागू होकर रहेगा। इस पर कोई समझौता नहीं होगा”। 

वीपी सिंह का कालजयी वक्तव्य जनमानस पर आज भी अंकित है-

“हमने मंडल रूपी बच्चा माँ के पेट से बाहर निकाल दिया है, अब कोई माई का लाल इसे माँ के पेट में नहीं डाल सकता है। यह बच्चा अब प्रोग्रेस ही करेगा। मंडल से राजनीति का ग्रैमर बदल गया और एक चेतना डिप्राइव्ड सेक्शन में आई, जो पावर स्ट्रक्चर में नहीं थे, उनको एक कॉन्शसनेस आयी । हम समझते हैं, ये कॉन्शसनेस इंडिविजुअल पार्टी या इंडिविजुअल लीडर से बड़ी चीज़ आई। हो सकता है, कोई एक पिछड़े वर्ग का नेता इलेक्शन हारे या जीते, लेकिन उस पर यह आरोप नहीं लगाना चाहिए कि मंडल सफल हुआ या विफल क्योंकि पंचायत से लेकर पार्लियामेंट तक का सोशल कंपोजिशन देखें तो वह बदल रहा है। पार्टी कोई भी हो, डिप्राइव्ड सेक्शन के लोग ज़्यादा से ज़्यादा संख्या में आ रहे हैं जिससे डिसीज़न मेकिंग बॉडीज़ का सोशल कंपोजिशन बदल गया है।”

शरद यादव ने मंडल कमीशन लागू होने के बाद चंद्रशेखर द्वारा पार्टी तोडे जाने के चलते राष्ट्रीय मोर्चा सरकार के डांवांडोल होने पर 7 नवंबर 1990 को विश्वास मत पर ऐतिहासिक भाषण करते हुए कहा था, "पूरी दुनिया में अव्वल दर्जे के इस देश में हम किस बात पर अभिमान कर सकते हैं? क्या हम इस बात पर गर्व कर सकते हैं कि सदियों से एक चौथाई आबादी को हमने छूने तक का काम नहीं किया है? उन्हें अछूत बनाकर रखा है। किस बात पर गर्व करें? इस बात पर कि हिन्दुस्तान में लोगों को पेशों से बांध दिया गया है। आज लकडी देखो तो बढई दिखता है, लोहा देखो तो लोहार दिखता है, पानी देखो तो मल्लाह दिखता है, गाय देखो तो यादव दिखता है, भैंस देखो तो ग्वाला दिखता है। मंडेला जी का तो हम ताली पीट कर स्वागत करते हैं। वहां तो सिर्फ़ काले-गोरे का अंतर है। लेकिन यहां हिन्दुस्तान में जहां पर यह सदन है, इक्कीसवीं शताब्दी है। और आप यहीं पर चले जाओ यमुना-पार तो वहां पर सोलहवीं शताब्दी है। जहां पर लोग गटर में बसे हुए हैं। क्या इस बात पर हम गर्व कर सकते हैं? या हम इस बात पर गर्व कर सकते हैं कि दुनिया में सबसे ज्यादा भगवान हमारे यहां पैदा हुए हैं। यह देश गर्व कर सकता है कि यहां पर 33 करोड़ देवी-देवता हैं। 62-63 करोड़ हिन्दुओं पर 33 करोड़ देवी-देवता यानी 2 हिन्दुओं के पीछे एक भगवान है। लेकिन इसके बावजूद इस देश की जैसी दुर्गति कहीं और नहीं है"।

1989 के आम चुनाव में जनता दल के घोषणापत्र में मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करना शामिल था। मगर जब उसके एक अंश को लागू किया गया तो सरकार को बाहर से समर्थन कर रही भाजपा के आडवाणी ने सोमनाथ से कमंडल रथ निकाल दिया। शरद यादव ने संसद में भाषण दिया था कि यह कोई राम का रथ नहीं, बल्कि भाजपा का रथ है।

17 जनवरी 1991 को केंद्र सरकार ने पिछड़े वर्गों की सूची तैयार की। 8 अगस्त 91 को रामविलास पासवान ने केंद्र सरकार पर आयोग की सिफ़ारिशों को पूर्ण रूप से लागू करने में विफलता का आरोप लगाते हुए जंतर-मंतर पर विरोध प्रदर्शन किया और वे गिरफ़्तार किर लिए गए। 25 सितंबर 91 को नरसिंहा राव सरकार ने सामाजिक-शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों की पहचान की। आरक्षण की सीमा बढ़ाकर 59.5 प्रतिशत करने का निर्णय लिया जिसमें ऊँची जातियों के अति पिछड़ों को भी आरक्षण देने का प्रावधान किया गया। 1 अक्टूबर 91 को सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से आरक्षण के आर्थिक आधार का ब्योरा माँगा।
 
जब मामला कोर्ट में अटका, तो लालू प्रसाद व शरद यादव ने सबसे आगे बढ़ कर इस लड़ाई को थामा, रामजेठमलानी जैसे तेज़तर्रार वकील को न्यायालय में मज़बूती से मंडल का पक्ष रखने के लिए मनाया और लड़ाई को अंजाम तक पहुंचाया। 30 अक्टूबर 91 को मंडल आयोग की सिफ़ारिशों के ख़िलाफ़ दायर याचिका की सुनवाई कर रहे उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ ने मामला नौ न्यायाधीशों की पीठ को सौंप दिया।

आडवाणी की रथयात्रा तो मीडिया बहुत दिखाती है, मगर मनुवादी मीडिया, जिसे तथाकथित उच्च जाति के लोग नियंत्रित-निर्देशित-संचालित करते हैं,  शरद जी की 25 अगस्त 1992 को मुरहो (मधेपुरा) से निकाली गई मंडल रथ यात्रा भूल कर भी नहीं दिखाती है। यही वह यात्रा थी जिसमें उत्तर भारत में घूम-घूम कर शरद यादव ने दार्शनिक ढंग से जाति व्यवस्था, गैरबराबरी, मजहबी दीवार, धार्मिक उन्माद, जहालत, वगैरह पर जम कर प्रहार किया। एक वक्त तो ऐसा भी आया उस संघर्ष के दौरान कि शरद जी भाषण कर रहे हैं और कांशीराम मंच के बगल में खडे होकर सुन रहे हैं। तब यह तस्वीर पर्मुखता से छपी थी। कांशीराम ऐसे ही खामोशी से काम करने वाले नेता थे। चूंकि इस मंडल रथयात्रा की जान बूझ कर चर्चा नहीं की जाती, इसलिए नई पीढी के पिछडे युवाओं के मानस पर वो हिन्दुस्तान की सियासत को बदल कर रख देने वाली ऐतिहासिक लडाई ढंग से अंकित ही नहीं हो पाई। इस कटु सत्य से भारतीय समाज का कई सिरा खुलता है। 

16 नवंबर 1992 को इंदिरा साहनी मामले में उच्चतम न्यायालय ने क्रीमी लेयर की बाधा के साथ आंशिक रूप से मंडल कमीशन की सिफ़ारिश को लागू करने का निर्णय सुनाया। साथ ही, पीवी नरसिम्हा राव की तत्कालीन सरकार द्वारा आर्थिक रूप से विपन्न अगड़ी जातियों के लिए 10 % आरक्षण के नोटिफिकेशन को सिरे से खारिज़ किया, और कहा कि पिछड़ेपन का पैमाना महज आर्थिक नहीं हो सकता। इस मामले में सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन सर्वप्रमुख क्राइटेरिया है। फ़ैसले में यह भी कहा गया कि एससी, एसटी और ओबीसी मिलाकर आरक्षण की सीमा 50 फ़ीसदी के पार नहीं जानी चाहिए।

8 सितम्बर 1993 को केंद्र सरकार ने नौकरियों में पिछड़े वर्गों को 27 फीसदी आरक्षण देने की अधिसूचना जारी की। 20 फरवरी 1994 को मंडल आयोग की रिफ़ारिशों के तहत वी. राजशेखर आरक्षण के जरिए नौकरी पाने वाले पहले अभ्यर्थी बने जिन्हें समाज कल्याण मंत्री सीताराम केसरी ने नियुक्ति पत्र सौंपा। मंडल कमीशन लागू होने के बाद ओबीसी क़ोटे से पहला आईएएस बनने वाले राजशेखर चारी थे जिनका स्वागत वी. पी. सिंह और शरद यादव ने बुलाकर किया। 1 मई 94 को गुजरात में राज्य सरकार की नौकरियों में मंडल आयोग की सिफ़ारिशों के तहत आरक्षण व्यवस्था लागू करने का फ़ैसला हुआ। 11 नवंबर 94 को उच्चतम न्यायालय ने राज्य सरकार की नौकरियों में कर्नाटक सरकार द्वारा 73 फीसदी आरक्षण के निर्णय पर रोक लगाई।

आज तक देश में सिर्फ़ एक होम सेक्रेटरी दलित हुए, माता प्रसाद, वाल्मीकि समाज से। कभी कोई दलित समाज का आदमी कैबिनेट सेक्रेटरी नहीं हो सका। ये तो हकीक़त है 71 साल की! चले हैं हनुमान को दलित बताने। अरे साहब, सेंसस कमीशन ऑफ इंडिया द्वारा हम इंसानों का बाकायदा जातिवार जनगणना पहले करा दो, फिर अपने 33 करोड देवी-देवताओं की जात गिनते रहना बैठ के, हम कुछ नहीं कहेंगे।

गेल ओम्वेट कहती हैं कि 90 के मंडल आंदोलन के बाद भारत में कोई बडा आंदोलन नहीं हुआ। लोगों ने यहाँ तक जुमला मारा, "राजा साहब ठीक आदमी थे। उनको अहिरा (शरद यादव) और दुसधा (रामविलास पासवान) ने बिगाड़ दिया"। सरकार गिरने और चंद्रशेखर द्वारा जनता दल को तोड़ कर कांग्रेस के समर्थन से प्रधानमंत्री बन जाने पर मर्यादा की सारी सीमाएं तार-तार करके ज्ञानियों-ध्यानियों ने फ़ब्तियाँ कसी:

अहिरे बुद्धि ठकुरे बल

अंग विशेष में मिल गया जनता दल।

महिला आरक्षण बिल पर कोटे के अंदर कोटे की लड़ाई जिस तरह आपने लालू प्रसाद व मुलायम सिंह जी के साथ सदन के अंदर लड़ी, वो क़ाबिले-तारीफ़ है। आख़िर को वंचित-शोषित-पसमांदा समाज की महिलाएं भी क्यों नहीं सदन का मुंह देखें? इतना-सा बारीक फ़र्क अगर समझ में नहीं आता, और संपूर्ण आधी आबादी की नुमाइंदगी के लिए संज़ीदे सियासतदां की पहल व जिद को कोई महिला विरोधी रुख करार देता है, तो उनकी मंशा सहज समझ में आती है। वे बस विशेषाधिकार प्राप्त महिलाओं को सदन में देखना चाहते हैं, ग़रीब-गुरबे, हाशिये पर धकेली गई, दोहरे शोषण की मार झेल रही खवातीन उनकी चिंता, चिंतन व विमर्श के केंद्र में नहीं हैं। अगर अपने मूल रिग्रेसिव स्वरूप में महिला आरक्षण बिल पारित हो जाता, तो शोषित तबके की खवातीन टुकुर-टुकुर मुंह ताकती रह जातीं। हम चाहते हैं कि संसद की शोभा सिर्फ़ सुषमा स्वराज व स्मृति ईरानी जैसी महिलाएं ही न बढ़ाएं, बल्कि भगवती देवी, फूलन देवी व सकीना अंसारी भी सदन के अंदर सिंहगर्जन करें।
 
इसीलिए, हम चाहते हैं कि महिला आरक्षण तो लागू हो, पर मौजूदा स्वरूप में नहीं। हम संसद में सिर्फ़ राजमाता सिंधिया और मेनका गांधी को नहीं, बल्कि पत्थर तोड़ने वाली भगवती देवियों और सकीना अंसारियों को भी उसी इज़्ज़त, हक़ और गरिमा के साथ प्रवेश करते देखना चाहते हैं। इसलिए, कोटे के अंदर कोटे की शरद यादव, लालू प्रसाद और मुलायम सिंह जैसे नेताओं की वाजिब मांग का पुरज़ोर समर्थन करते हैं।

एक ऐसा प्रगतिशील ड्राफ्ट हो, जिसमें वंचित और अक़्लियत तबके की महिलाओं के लिए सीटें सुरक्षित हों जिसे संवैधानिक संरक्षण प्राप्त हो, जिस बात को आपने और लालू सरीखे नेता ने सदन के अंदर बारंबार दोहराया। शरद जी, आपने तब ठीक ही कहा था कि वर्तमान स्वरूप में अगर महिला आरक्षण लागू हो गया, तो सुकरात की तरह ज़हर पी लेंगे। मुलायम सिंह ने 'रेज़र्वेशन विदिन रेज़र्वेशन' की जमकर वकालत की। मगर, इन बेईमान बौद्धिक लंपटों ने तब क्या रिपोर्टिंग की? टाइम्स आफ इंडिया के एडिटोरियल में लिखा कि Three Yadavas opposed Women's Reservation Bill.

ग़लत-सही बकवास करने वाले इन बेहया ख़बरनवीसों का क्यों न सामाजिक बहिष्कार किया जाए, जो जान-बूझ कर भ्रम परोसते हैं और जातीय विद्वेष फैलाते हैं। सच तो ये है कि लालू-शरद-मुलायम की तिकड़ी ने उस वक़्त इंटरवेन नहीं किया होता, तो पूरे रिग्रेसिव फार्म में महिला आरक्षण विधेयक लागू हो गया होता, और शोषित समाज की खवातीन टुकुर-टुकुर मुंह ताकती रह जातीं।

शरद जी के सवालों से सदन भरा हुआ है, एक क़िस्म का फक़्कड़पन है उनमें, संचय-संग्रह की प्रवृत्ति से कोसों दूर, योजक कड़ी की उनकी भूमिका का आज भी जोड़ नहीं। एनडीए में जाने की उनकी एक भूल नहीं होती, तो इतिहास उनके प्रति ज़्यादा उदार होता।

वो 2012 के सर्वश्रेष्ठ सांसद का खिताब पा चुके हैं। सामाजिक जागृति हेतु उनके अमूल्य योगदान को देखते हुए 2017 में बीएन मंडल की स्मृति में पहले सोशल जस्टिस लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड से उन्हें नवाज़ा जा चुका है। उन्होंने देश भर में अपने व्याख्यान व भाषणों से सुषुप्तावस्था में पड़ी उपेक्षितों की चेतना को झकझोरने का काम किया है।

पिछले दिनों जनसत्ता से उनकी बातचीत काफी सारगर्भित थी।
राजेंद्र राजन: आपको क्या लगता है कि नीतीश कुमार लालू यादव के भ्रष्टाचार से परेशान होकर भाजपा के साथ चले गए या कोई और वजह थी?
 
शरद यादव: लालूजी के ऊपर तो पहले से मामले दर्ज थे। कुछ बाद में हुए। वे तो हमारे साथ आने को तैयार भी नहीं थे। उन्हें लाने का प्रयास हमारी पार्टी ने किया। इसके लिए हमारे दो लोग लगाए गए थे। नीतीशजी खुद उनके पास कई बार गए। एक-दो बार मुझे भी साथ लेकर गए। फिर परिस्थिति ऐसी बनी कि सब लोगों ने उन्हें किसी तरह से मना लिया। लालूजी तो कहते रहे कि चुनाव के बाद बात करेंगे। हमारे ऊपर जो कुछ मामला कराया नीतीशजी ने कराया। इसलिए वे नहीं मान रहे थे।… जब जनता से वोट मांगना था, तो भ्रष्टाचार के मामले होते हुए भी आपने जाकर उनके साथ गठबंधन किया और जब जीत गए, सरकार बन गई, तो आपने फिर से वही मामला उछाल दिया! इसीलिए तो हम विरोध में खड़े हुए। यह कहां की बात है कि जब वोट लेना था तब तो भ्रष्टाचार का आरोप आपको नहीं दिखाई दिया और सरकार बनते ही उसे मुद्दा बना लिया। भ्रष्टाचार का मामला तो उनके खिलाफ पहले से थे, और यह सब जानते हुए हमने उन्हें साथ जोड़ने का प्रयास किया था।

मीडिया के रवैये पर भी उन्होंने बहुत महत्वपूर्ण विचार प्रकट किये:
"अब क्या है कि सत्ता पक्ष ने मीडिया के ऊपर ऐसा घेरा बनाया है कि वह ऐसा आभास देता रहता है कि इस वक्त विपक्ष कहीं है ही नहीं। मीडिया तो पाठक और दर्शक के बल पर चलता है। उसकी पूरी साख पाठक और दर्शक पर निर्भर करती है। मगर सरकार की भूमिका विज्ञापन के मामले में अधिक होती है। हर सरकार इसके जरिए मीडिया को अपने पक्ष में करने की कोशिश करती रही है। मगर वह इस सरकार में कुछ ज्यादा हो रहा है। जो कह रहे हैं कि विपक्ष एकजुट नहीं है, वह आधा सच है। सच्चाई यह है कि इसे फैलाया इन लोगों ने है। अब बताइए कि दिल्ली में सत्रह अगस्त को जो साझा विरासत का आयोजन मैंने किया, उसमें ऐसी कौन-सी पार्टी थी, जो नहीं आई!"
 
शरद यादव अक़्सर कहते हैं, "बोली और कर्म में एकता होती है तो सच्चाई खड़ी होती है"। साथ ही, "धर्म और राजनीति जब एक हो जाती है, तो कोई भी देश इराक़ और अफ़गानिस्तान हो जाता है"।
 
आज वक़्त की मांग है कि विपक्ष अपनी तमाम अगली ईगो को बगल में रखकर एकजुटता दिखाए जिसकी शुरूआत 2017 में दिल्ली में "साझा विरासत बचाओ" मुहिम छेड़कर  शरद जी ने की जो देश के विभिन्न हिस्सों में चली। कर्नाटक में नई सरकार के शपथग्रहण के दौरान भी विपक्षी नेताओं के जमावड़े के बीच उन सबकी भावभंगिमा व देहभाषा बड़ा सकारात्मक संदेश दे रही थी।
 
चरण सिंह, प्रधानमंत्री पद का सफ़र, अमेठी उपचुनाव, शरद यादव व ज्योतिष का अंधविश्वास:
यह भी सच है कि जनता सरकार में आंतरिक कलह जब ज़्यादा बढ़ गयी, दूसरी तरफ जनसंघ वालों की दोहरी सदस्यता के सवाल पर जब विद्रोह शुरू हुआ, तो सरकार चलाने के लिए स्थिति सहज नहीं रह गई। बाबू जगजीवन राम को प्रधानमंत्री बनाए जाने के मशवरे को न मोरारजी ने माना न चरण सिंह ने। चरण सिंह ने तो संसद भंग करने की सिफ़ारिश ही कर डाली और संपूर्ण क्रांति का नारा महज नारा बन कर रह गया। 

कांग्रेस ने चरण सिंह के साथ बदमाशी यह की कि बीच में ही चंद दिनों के अंदर समर्थन वापस लेकर चरण सिंह के लिए एंबैरेसिंग सिचुएशन पैदा कर दिया और इस तरह चौधरी साहब हिन्दुस्तान के अब तक के एकमात्र ऐसे प्रधानमंत्री हुए जिन्हें कभी बतौर प्रधानमंत्री संसद सत्र में जाने का मौक़ा नहीं मिला। मात्र 24 दिनों के अंदर उन्होंने प्रधानमंत्री के पद से इस्तीफ़ा दे दिया यह कहते हुए कि आपातकाल के दौरान हुई घटनाओं को लेकर चल रहे मुक़दमे के मामले में वो इंदिरा गांधी द्वारा ब्लैकमेल नहीं होना चाहते थे।

शरद यादव याद करते हैं कि शपथग्रहण के बाद लौटते हुए चौधरी साहब की कार में बीजू पटनायक और वो थे। पटनायक जी ने उनसे बहुत आग्रह किया कि विलिंगटन रोड चल कर इंदिरा जी को धन्यवाद ज्ञापित किया जाए। कई बार बीजू पटनायक ने इसरार किया, मगर चरण सिंह ने ड्राइवर को सीधा घर चलने को कहा। शरद जी को समझ में नहीं आ रहा था कि जब सबको शुक्रिया कहा, तो इंदिरा जी ने तो समर्थन दिया है सरकार को, फिर यह परहेज़ क्यों। चूंकि वो बहुत जुनियर थे, दूसरी बार ही जीतकर लोकसभा पहुंचे थे, इसलिए कुछ बोल भी नहीं पा रहे थे। मगर अब भी शरद जी का मानना है कि चौधरी साहब के घर जब इंदिरा जी का दूत आया कि मैडम इंतज़ार कर रही हैं, तब तो उन्हें जाना चाहिए था। मगर यह कह कर कि वो बहुत थक गए हैं, सो रहे हैं, मैसेंजर को लौटा दिया गया। अपनी तरह के अनोखे व अबूझ आदमी थे चरण सिंह। इंदिरा गांधी बेहद नाराज़ हुईं और कुछ ही दिन के अंदर समर्थन वापसी की घोषणा कर दी। शरद जी कहते हैं, “चौधरी साहब को थोड़ा लचीला रुख अपनाना चाहिए था लोकव्यवहार के मामले में। ठीक नहीं हुआ, देशहित में उस सरकार को चलनी चाहिए थी। थोड़े दिन भी गवर्नमेंट रहती तो किसानों का बहुत भला होता”। 

चरण सिंह ने संजय गांधी की मौत के बाद खाली हुई अमेठी सीट से राजीव गांधी के ख़िलाफ़ समूचे विपक्ष के उम्मीदवार के रूप में शरद यादव को मध्यप्रदेश से लाकर चुनाव लड़वाया। उनसे चौधरी साहब ने कहा, "हार-जीत की परवाह किए बगैर जाकर जमके लड़ो, बड़े मुक़ाबले में ज़्यादा मज़ा आएगा। तुम थोड़े चुनाव लड रहे हो, मैं लडूंगा"। हालांकि मध्यप्रदेश से शरद जी को किसी तरह निकालने के पीछे संघ की चाल थी और नानाजी देशमुख इस षड्यंत्र में लगे थे क्योंकि बतौर छात्रसंघ अध्यक्ष, जबलपुर विश्वविद्यालय और दो-दो बार वहां से सांसद रहने के चलते मध्यप्रदेश में उनकी पैठ व लोकप्रियता बढ़ती जा रही थी जिससे संघ चौकन्ना हो चला था। दोहरी सदस्यता के मामले में संघ और जनसंघी लोगों के रवैये के चलते मोरारजी की सरकार गई, मगर चरण सिंह के यहां नानाजी का आना लगा रहा। वो शरद यादव को मध्यप्रदेश से हटा कर यूपी में लाने की अपनी रणनीति पर काम कर रहे थे, और बिना इसकी भनक लगने दिए चरण सिंह को मनाने के लिए स्नान-ध्यान करके बैठे थे। और संघ अपने मक़सद में कामयाब रहा। स्थिति ऐसी बनी कि बाद में बदायूं से एमपी बनने के बाद शरद यादव फिर कभी मध्यप्रदेश लौट नहीं पाए। कहानी यह भी है कि चरण सिंह को ज्योतिष शास्त्र पर बड़ा भरोसा था। किसी ने उन्हें कह दिया था कि इस उपचुनाव में अगर राजीव गाँधी हार जाएंगे, तो इंदिरा गाँदी की सरकार गिर जाएगी, औऱ आप दोबारा प्रधानमंत्री बन सकते हैं।
 
जेपी व मधु लिमए के बाद चरण सिंह का शरद यादव की शख़्सियत पर इतना गहरा असर रहा है कि आज भी उनके कार्यालय में चरण सिंह की बोट क्लब पर भाषण देते हुए तस्वीर लगी दिखती है।
 
शरद जी उस उपचुनाव में अपने प्रचार में अक्सर कहा करते थे, "मैं उन लोगों की नुमाइंदगी के लिए आया हूँ जिनकी मां प्रधानमंत्री नहीं हैं। मैं उन नौजवानों-मज़दूरों-किसानों-बेरोज़गारों की आवाज़ बनने आया हूँ जिनकी माँ देश की हुकूमत नहीं चलातीं"।
 
शरद यादव को जेपी, लिमए व चौधरी साहब का स्नेह:
शरद यादव याद करते हैं कि वो जेल में बंद थे, 1970 में वे जबलपुर युनिवर्सिटी स्ट्युडेंट्स युनियन के अध्यक्ष बन गए थे। जयप्रकाश नारायण ने उपचुनाव में उन्हें पीपल्स’ कैंडिडेट (जनता प्रत्याशी) बनाया और जिस जबलपुर सीट की नुमाइंदगी पहले आमचुनाव से लेकर जब तक जीवित रहे; संविधान सभा के सदस्य रहे कद्दावर कांग्रेसी नेता कर रहे थे, के पोते रविमोहन को शरद यादव ने हरा दिया। शरद यादव अपनी सभाओं में कहते थे, “रविमोहन और मैं साथ-साथ पढ़े हैं। रविमोहन पढ़ाई करने चले गए अमरीका, और मैं जनता की लड़ाई लड़ते-लड़ते चला गया जेल। वो विदेश से आकर चुनाव लड़ रहे हैं, और मैं जेल से निकल कर”। उनकी इस बात का बड़ा असर होता था। उन्हें हराने के लिए मुख्यमंत्री समेत पूरी मध्य प्रदेश सरकार लगी थी। उनके प्रचार में मधु लिमए, वाजपेयी, जॉर्ज समेत सभी बड़े नेता गए थे। वाजपेयी ने शरद यादव से कहा, “क्या लगता है, चुनाव जीत जाओगे?” तो शरद यादव ने कहा, “हाँ-हाँ, बिल्कुल जीत जाऊँगा”। वाजपेयी को भरोसा नहीं हुआ, और कहा, “क्या बात करते हो? अगर जीत गये, तो दिल्ली में डिनर मेरी तरफ से”।

बाद में गुजरात में जनता सरकार के गठन और शरद जी की जीत पर मालवीय चौक, जबलपुर में जेपी ने एक अभिनंदन सबा को संबोधित किया, “आप सबने शऱद को जिता कर देश को यह संदेश दिया है कि युवाओं में परिवर्तनकामी शक्तियाँ हैं, और वो देश को नई दिशा देने में सर्वथा सक्षम हैं”। जयप्रकाश नारायण ने शरद यादव को कहा था कि मधु लिमये की सोहबत में रहना, वे संसदीय व्यवस्था के बहुत बड़े विद्वान हैं। जब वो मध्यप्रदेश से दिल्ली आए, तो मधु लिमए ने उन्हें सोशलिस्ट पार्टी का एसोसशिएट मंबर बना दिया। चूंकि वो समूचे विपक्ष के उम्मीदवार के रूप में जीत कर आए थे, इसलिए बाक़ी दल वाले नाराज़ हो गए और बात जेपी तक पहुंची तो उन्होंने शरद यादव से कहा, “कोई मेरा नहीं है”। शरद यादव अपराध-बोध में थे। बाद में जेपी जब दिल्ली से कहीं बाहर का दौरा करने जा रहे थे, तो शरद यादव को साथ लेकर गए, औऱ पुनः स्नेहिल भाव क़ायम हो गया। वो कहते हैं कि जितनी मोहब्बत व स्नेह चरण सिंह ने उन्हें दिया, उतनी किसी ने नहीं। उनके बाद मधु लिमये से उनका राब्ता रहा।

हालांकि जब चरण सिंह और देवीलाल में इंडियन एक्सप्रेस में छपी एक झूठी ख़बर के चलते भयानक मनमुटाव हो गया जिसके लिए अरुण शौरी ने माफी भी मांगी थी। मगर तब तक उन्होंने मधु लिमए, ताऊ, जॉर्ज, कर्पूरी, बीजू पटनायक, कुंभाराम आर्य समेत कई नेताओं को दल से निकाल दिया, तो सैद्धांतिक आधार पर शरद जी ने भी इस्तीफा दे दिया और लोकदल (कर्पूरी) बनवाकर उसमें शामिल हो गए। उसका हश्र बुरा हुआ, लोकदल (क) और चंद्रशेखर की पार्टी एक हो गई जिससे शरद यादव खफा थे। चरण सिंह कहते थे कि शरद को तो मैंने निकाला भी नहीं, ये क्यों छोड़कर चला गया। वो बहुत दुखी थे और शरद जी को भी इस बात की ग्लानि थी। आज भी वो इस बात पर अफ़सोस करते हैं। कई मायने में वो उन्हें अपना राजनीतिक गुरु मानते हैं।

लालू, शरद, मुलायम, पासवान जैसे नेताओं के आगे बढ़ने का एक कारण यह भी था कि उनके दौर में लोहिया, जेपी, चरण सिंह, कर्पूरी ठाकुर, ताऊ देवीलाल जैसे उदार नेता थे जो तलाश कर, तराश कर नयी रोशनी को निखरने का भरपूर मौक़ा देते थे, बुला-बुला कर मंच प्रदान करते थे। जब उत्तरप्रदेश में वीपी सिंह मुख्यमंत्री थे और दस्यु उन्मूलन के नाम पर चुन-चुन कर कुछ खास जातियों के लोगों को निशाना बनाया जा रहा था जिसमें मुलायम सिंह को चरण सिंह व शरद यादव की सक्रियता के चलते किसी तरह एनकाउंटर होने से बचाया जा सका। उस दस्यु उन्मूलन के नाम पर हो रहे तांडव के खिलाफ मुलायम सिंह लोकदल के बैनर तले आंदोलन चलाना चाहते थे जिसकी शुरू में चरण सिंह अनुमति देने में हिचक रहे थे।  मगर जब फतेहपुर सिकरी (आगरा) सम्मेलन में शरद यादव का कारुणिक भाषण हुआ तो चौधरी साहब द्रवित हो उठे और आंदोलन का ऐलान किया। बिहार में लालू जी को चरण सिंह बहुत होनहार व लंबी रेस का घोड़ा मानते थे। 
 
शरद यादव, एनडीए कंवेनर, और सोशलिस्ट धड़े की टूटफूट का एकांगी विश्लेषण:
 
मेरे कुछ मित्र धारणा के आधार पर कुछ भ्रामक तथ्य परोस रहे हैं। वो कह रहे हैं कि नीतीश कुमार की कोई इच्छा नहीं थी एनडीए 1 में शामिल होने की, वो शरद यादव और जॉर्ज फर्णांडीस के दबाव में ऐसा कर बैठे। जो साथी पलिटिकल साइंस के पीएचडी के स्टयुडेंट हैं, उनकी मालूमात में कुछ सुधार कर दूँ:

आज़ादी के बाद से ही समाजवादी धड़े में टूट-फूट होती रही है, प्रसोपा, सोपा, संसोपा, आदि इसकी मिसाल हैं। जनता पार्टी जब बनी तो यह भी विराधाभासों से भरा एका था जिसमें जनसंघ तक का विलय हो गया था।

वह प्रयोग भी लंबे समय तक नहीं चल सका। दोहरी सदस्यता के नाम पर मोरार जी की सरकार में अनबन शुरू हुई, हालांकि कहानी और भी है। आगे लोकदल भी खुद को संभाले नहीं रख सका, और लोकदल (च) और लोकदल (क) में विभक्त हो गया। बोफोर्स के कोलाहल में परिस्थिति ऐसी बनी कि वीपी सिंह के जनमोर्चा, ताऊ देवीलाल जी के पुराने लोकदल के धड़े और श्री चंद्रशेखर व चौधरी अजित सिंह के गुट का विलय हो गया और फिर से जनता दल का गठन संभव हो पाया।

मंडल लगने के बाद सबसे पहले जनता दल को तोड़ कर चंद्रशेखर अलग हो गए और समाजवादी जनता पार्टी बना ली। फिर चंद्रशेखर से अलग होकर 4 अक्टूबर 1992 को मुलायम सिंह ने समाजवादी पार्टी बना ली।

उसके बाद जनता दल तोड़ कर जॉर्ज ने जनता दल (जॉर्ज) बनाया, फिर नीतीश जी अलग हुए, समता पार्टी बनी जनता दल (जॉर्ज) का मर्जर करके 1994 में जिसके अध्यक्ष हुए फर्णांडीस। जब नीतीश कुमार जनता दल छोड़ रहे थे, और शरद जी से मशवरा करने आए, तो शरद जी ने बहुत मना किया कि रुक जाओ, दल को तोड़ना ठीक नहीं। बड़ी मुश्किल से जनता दल बनाया था, और कितने टुकड़े करोगे? पर, आरंभ से ही अगली ईगो के शिकार नीतीश कुमार पर जब कोई फितूर सवार हो जाता है, तो फिर वो कहां मानते हैं। 95 के बिहार विधानसभा चुनाव में समता पार्टी बुरी तरह हारी।

इसके बाद जनता दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गए थे लालू जी, और कार्यकारी राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद जी। तत्पश्चात, पूर्व वित्त मंत्री व योजना आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष मधु दंडवते की देखरेख (चुनाव पदाधिकारी वही थे) में पार्टी अध्यक्ष का चुनाव हुआ। उस चुनाव में खटपट के फलस्वरूप 5 जुलाई 1997 को जनता दल से टूट कर राजद बना। लालू जी 17 लोकसभा और 8 राज्यसभा सांसदों के साथ अलग हुए थे। इस तरह जनता दल (यू) के अध्यक्ष शरद जी, राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष लालू जी बने।

इसके पहले जब देवगौड़ा के कहने पर शरद यादव और लालू प्रसाद की अनिच्छा के बावजूद बड़े समाजवादी नेता रामकृष्ण हेगड़े को पार्टी से निकाल दिया गया, जिस भूल को आज भी लालू जी स्वीकार करते हैं (लालू जी द्वारा गठित नई पार्टी का नाम "राजद" हेगड़े साहब ने ही सुझाया था), तो जनता दल में एक और टूट हुई और उन्होंने अपनी अलग पार्टी लोक शक्ति पार्टी बना ली।

12 सांसदों वाली समता पार्टी के जॉर्ज और नीतीश तो 13 महीने की वाजपेयी सरकार में 1998 में ही मंत्री बन चुके थे। शरद यादव तो सबसे बाद में एनडीए में शामिल हुए हैं। समता पार्टी व लोक शक्ति के साथ गठबंधन के तहत तीनों को हासिल 21 सीटों के साथ पासवान जी और शरद जी का जद (यू) तो एनडीए सरकार का हिस्सा 1999 में बना।

1989 से देश को 11 बार प्रधानमंत्री मिले हैं जिसमें रामविलास पासवान जी 7 बार अलग- अलग कार्यकाल में मुख्तलिफ़ प्रधानमंत्रियों के साथ काम कर चुके हैं। इन 30 सालों में वो सिर्फ़ 4 बार मंत्री बनने से वंचित रहे हैं। 90 में श्री चंद्रशेखर के मंत्रिमंडल में शामिल हो नहीं सकते थे, 91 में नरसिम्हा राव की सरकार में भी शामिल नहीं हो सकते थे। 1998 में वाजपेयी की सरकार में भी नहीं शरीक हो सकते थे, क्योंकि देवगौड़ा-गुजराल के कार्यकाल में ये लोकसभा में नेता, सदन थे, इतनी ज़ल्दी पल्टी नहीं मार सकते थे, दल के अनुशासन से भी बंधे थे, और 1 वोट से वाजपेयी की सरकार गिराने के वक्त भी ये आगे थे। आडवाणी जी इनके घर पर मनाने गए थे, मंत्री पद का लोभ दिया था, पर तब तक रीढ़ की हड्डी इन्होंने नीलाम नहीं की थी। 1998 में बिहार में जद(यू) से जीतने वाले रामविलास जी इकलौते सांसद थे। शरद जी, रामजीवन सिंह समेत सारे उम्मीदवार लालू जी के राजद के सामने धराशायी हो गए थे।

पर, अगले ही चुनाव में शरद जी के सामने जदयू के लोगों ने रो-गा कर पार्टी का अस्तित्व बचाने के नाम पर एनडीए में शामिल होने का दबाव डाला, और सबके सब एनडीए के होकर रह गए। पार्टी में एक बार फिर टूट हुई और देवगौड़ा ने नाराज़ होकर जनता दल (सेक्युलर) का गठन कर लिया।

बिहार विधानसभा चुनाव के बाद जनता दल (यू) में एक और टूट हुई, और 28 नवंबर 2000 को पासवान जी ने अपनी अलग पार्टी - लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) बना ली। बाद में 2002 के गुजरात दंगे का हवाला देकर पासवान जी वाजपेयी सरकार से बाहर हो गए।

जब हर तिकड़म के बावजूद लालू प्रसाद के राजद को सत्ता से हटाना मुश्किल हो गया, तो दिसंबर, 2003 में तत्कालीन समता पार्टी और जनता दल युनाइटेड के विलय के बाद मौजूदा जद (यू) वजूद में आया था। तब समता पार्टी के अध्यक्ष जॉर्ज फर्नांडीस और जनता दल युनाइटेड के अध्यक्ष शरद यादव थे। दोनों दलों के विलय के बाद पार्टी का नाम जनता दल युनाइटेड यानी जद (यू) ही रहा। जहां तक ध्यान आता है, जॉर्ज फर्णांडीस अध्यक्ष बने, और एनडीए के कंवेनर की जिम्मेदारी संभालने लगे।

2004 के लोकसभा चुनाव में राजद के 24 (22 बिहार से, 2 झारखंड से) सांसद जीते, जबकि जद (यू) के मात्र 8।

अप्रैल 2006 में हुए पार्टी के संगठनात्मक चुनाव में शरद यादव जद (यू) के अध्यक्ष बने और जॉर्ज फर्णांडीस के बाद एनडीए के संयोजक की भूमिका में आ गए, और 2009 के चुनाव में जद (यू) 20 सीटें जीतने में सफल रहा, और 2014 में केवल 2।

परसेप्शन के आधार पर भ्रामक ख़बर लिखने और ग़लत तथ्य परोसने से बचा जाना चाहिए।

यही नीतीश जी थे जो 95 की करारी हार के बाद भी "जह़र खा लूंगा, मगर भाजपा के साथ नहीं जाऊंगा" कहा था, मगर अगले ही साल 96 का लोकसभा चुनाव साथ लड़े, और 6 सीट जीते। तब तो शरद जी युनाइटेड फ्रंट को आकार देने में लगे थे, और जनता दल ने देश को एचडी देवगौड़ा के रूप में पहला पिछड़ा प्रधानमंत्री दिया।

नीतीश जी का मन तब डोला जब मान्यवर कांशीराम जी ने मुलायम सिंह जी से खटपट के बाद भाजपा से गठजोड़ कर लिया। और फिर जॉर्ज व नीतीश को लगा कि जब इतने बड़े नेता ने सबसे बड़े सूबे में भाजपा को लेजिटिमेसी दे दी, तो हमें भी जनता माफ़ कर देगी। फिलहाल लालू प्रसाद को कमज़ोर करने के लिए किसी से भी हाथ मिलाओ। और, वही किया। भाजपा आज अगर बिहार में मज़बूत है तो जॉर्ज साहब व नीतीश कुमार जी उसके लिए सबसे पहले ज़िम्मेदार हैं, शरद जी बाद में। एनडीए के कंवेनर भी शरद जी इसीलिए बनाए गए कि नीतीश कुमार जॉर्ज साहब को ठिकाने लगाना चाहते थे, और लगा दिया। फिर वही खेल शरद जी के साथ भी किया। ये और बात है कि शरद जी अप्रासंगिक नहीं हो सके।

2009 में राजद-सपा-लोजपा ने युपीए से इतर एक मोर्चा बना कर लड़ा था, और पासवान जी हाजीपुर की अपनी सीट भी नहीं बचा पाए। जब लालू जी ने अपने क़ोटे से उन्हें राज्यसभा भेज कर उनका 12-जनपथ का घर बचाया, तो एक बार फिर से पासवान जी का मन मंत्री बनने के लिए मचल उठा, ललच उठा। पर, चूंकि लालू जी के साथ तत्काल गद्दारी नहीं कर सकते थे, और गुपचुप तरीके से अकेले जाकर मंत्री नहीं बन सकते थे, इसलिए मन मसोस कर रह गए। "नीति-नेता-नीयत" का राग और संसोपा का नारा तो पासवान जी ख़ूब अलापते हैं, पर उसूल वगैरह उनके लिए गुज़रे ज़माने की बात है।

एक वक्त यही पासवान जी वीपी सिंह का गुणगान करते अघाते नहीं थे, फिर देवगौड़ा का स्तुतिगान करने लगे और लालू जी के ख़िलाफ़ उन्हें भड़काने लगे, जनता दल में रह कर अपने ही अध्यक्ष लालू प्रसाद के खिलाफ सीबीआई का इस्तेमाल कराने के लिए रात-दिन बार-बार प्रधानमंत्री का कान भरते रहते थे। फिर अटल जी की शान में कसीदे काढ़ने लगे। और, कलाबाज़ी इनकी देखिए कि जिस गुजरात दंगे के हवाला देकर वाजपेयी मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा दिया, उसी नरेंद्र भाई के कैबिनेट की शोभा दो बार से बढ़ा रहे हैं।

यह समकालीन भारतीय राजनीति की विचित्रता है कि यहां नीतीश जी जैसे कुछ नेता और नेत्री गुजरात दंगे के बाद भी नरेंद्र भाई के लिए चुनाव प्रचार करने जाते हैं। जॉर्ज का संसद में एक बयान तो इतिहास में कभी भुलाया नहीं जा सकता, न उन्हें माफ़ किया जा सकता है। शरद जी ने न ऐसा कोई बयान दिया और न ही घिनौना प्रचार किया। जाति जनगणना के सवाल पर एनडीए में रह कर भी सबसे ज्यादा किसी ने आवाज़ उठाई तो उस खेमे से वो शरद जी ही थे। महिला आरक्षण पर क़ोटे के अंदर क़ोटे की लड़ाई को दमदारी से एनडीए में रह कर भी किसी ने लड़ा, तो वो शरद यादव ही थे। बावजूद इसके, उनके भाजपा के साथ जाने को जस्टिफाय नहीं किया जा सकता, न किया जाना चाहिए। ख़ुद शरद जी कहते हैं कि इतिहास में दुविधा के लिए कोई जगह नहीं होती।

जिस शरद यादव के एनडीए के कंवेनर होने को लेकर लोग क्रिटिकल रहे हैं, उसी शरद यादव के 74-99  और 14 से अब तक के योगदान को मैंने हमेशा एकनॉलेज किया है, अगर ऐसा न करूँ तो कृतघ्नता-सी लगती है। कुछ बातें आज दोहराना चाहता हूँ। जिनको शरद यादव महज़ एनडीए के पूर्व कंवेनर नज़र आते हैं, वो किसी पिछड़ी जाति में पैदा होने का दर्द भोगते तब समझ में आता कि शरद यादव क्या चीज़ हैं और मंडल कमीशन का क्या मतलब है। 15 साल तक भाजपा के साथ रहना जितना बड़ा सच है, उससे रत्ती भर भी कम सच यह नहीं है कि मंडल कमीशन को लागू कराने के लिए शरद यादव ने क्या-क्या किया।

और, मज़े की बात तो ये है कि 24 कैरटिया आलोचक तब भी शरद यादव और मंडल कमीशन का विरोध कर रहे थे जब कमंडल की मुख़ालफ़त करने वालों में शरद जी सबसे अग्रणी नेताओं में से एक थे। शरद यादव की धोती खींचने की हिमाक़त तब भी हुई थी इसी जेएनयू में जब उनका भाजपा से छत्तीस का आंकड़ा चलता था। आज कोई कर ले ये दुस्साहस जेएनयू में या डीयू में या बीएचयू में ही शरद यादव के साथ! यह इसलिए संभव हुआ कि जो फ़सल उन्होंने, लालू प्रसाद, सुबोधकांत सहाय, अजित सिंह, रामविलास पासवान, वीपी सिंह और उस वक़्त के नेताओं ने आज से 27-28 साल पहले लगाई, वो आज लहलहा रही है, और कितनी घनी है फ़सल। पासवान आज जहाँ भी हों, उनकी लानतमलानत होती ही है और होती रहेगी, पर मेरे जैसे लोग जब कलम चलाएंगे तो शरद यादव के साथ भी न्याय करेंगे, और पासवान की 1969 - 17 अप्रैल 1999 तक की भूमिका की भी ईमानदार चर्चा करेंगे। जिनको शरद यादव को खलनायक के रूप में पेश करना है, वो करते रहें और वो करेंगे ही। उनकी कमज़ोर नस शरद यादव ने 90 में कहां दबाई, ये वो बख़ूबी समझते हैं, वीपी सिंह तो भलीभाँति समझते थे। 

बाक़ी, गौरतलब है कि शरद यादव सिर्फ़ 17 वीं लोकसभा का ही चुनाव नहीं हारे हैं, बल्कि मंडल लगने के बाद 91 का लोकसभा चुनाव हारने वाले वो इकलौते मंत्री थे। हारे कहां से? बदायूं से। किसके इशारे पर एक यादव कैंडिडेट को ही खड़ा किया गया? चंद्रशेखर के इशारे पर। हरवाया किसने? चलिए, जाने भी दीजिए। अभी हाल तक संसद में सामाजिक न्याय की आवाज़ बुलंद करने वाले धर्मेंद्र यादव भी हार गए हैं।

तो हमारा समाज ही कृतघ्न है। इसको 24 कैरट का नेता चाहिए, और तुर्रा ये कि हमने अपना पैमाना भी बड़ी निर्लज्जता के साथ दोहरा बना रखा है।

इसी खंडर में कहीं कुछ दिए हैं टूटे हुए 
इन्हीं से काम चलाओ बड़ी उदास है रात।
(फिराक़)

नेशनल फ्रंट, पीएम के चयन में ड्रामा, शरद यादव का रोल:
यह भी दिलचस्प वाक़या ही है कि 89 में देवीलाल जी संसदीय दल के नेता चुन लिए गए थे, मीडिया ने बाक़ायदा चला भी दिया कि वे भारत के 7वें प्रधानमंत्री होने जा रहे हैं, पर उन्होंने माला वीपी सिंह को पहना दिया। उन्होंने कहा, "मैं सबसे बुज़ुर्ग हूँ, मुझे सब ताऊ कहते हैं। मुझे ताऊ बने रहना ही पसन्द है और मैं यह पद विश्वनाथ प्रताप को सौंपता हूँ"। सब कुछ इतनी तेज़ी से हुआ और बिना कई नेताओं को पहले से बताए हुए हुआ कि लोगों को थोड़ी देर कुछ समझ नहीं आया। इससे चंद्रशेखर बिल्कुल भौंचक्का रह गए व ठगा महसूस कर रहे थे। वे तमतमाते हुए हॉल से बाहर निकल गए।

दो बार उपप्रधानमंत्री बनने वाले देश के इकलौते राजनेता ताऊ देवीलाल जी शरद जी को दोस्त की तरह बहुत भरोसेमंद मानते थे। मुलायम सिंह को पता चला कि नेता चुने जान के पूर्व एक बैठक में वीपी सिंह की जगह चौधरी देवीलाल को आगे किये जाने का खेल चंद्रशेखर कर रहे हैं। बस शरद यादव ने तत्क्षण उड़ीसा भवन की ओर रुख किया। तब तक मीटिंग समाप्त हो चुकी थी। उड़ीसा भवन से निकलते हुए रास्ते में गाडी में शरद जी की सलाह पर ही जनता दल संसदीय दल का नेता चुने जाने के बाद उन्होंने सेट्रल हॉल में अपनी पगड़ी वीपी सिंह के सर पर रख दी और नाटकीय ढंग से चंद्रशेखर के विरोध के बावजूद वीपी सिंह पीएम बन गए।

लालू प्रसाद, मुख्यमंत्री का शपथ-ग्रहण, शरद यादव की भूमिका:

इस छोटे क़द के बड़े सियासतदां की ये हैसियत थी कि वीपी सिंह के (वीपी साहब के प्रति मेरा सम्मान यथावत है, इस सही प्रसंग के जिक्र का उद्देश्य उनका अनादर करना नहीं है) लाख नाक रगड़ने के बावजूद देवीलाल से मिलकर लालू के लिए मुख्यमंत्री का रास्ता हमवार कर दिया और शपथग्रहण में जब अजित सिंह के मार्फ़त वीपी सिंह रोड़ा अटका रहे थे तो देवीलाल ने दो ही लोगों पर भरोसा करके उन्हें बिहार भेजा - एक शरद यादव और दूसरे मुलायम सिंह यादव, और फिर प्रधानमंत्री रहने के बावजूद वीपी सिंह की दाल नहीं गली।

नेशनल फ्रंट सरकार में पहली बार्ट शरद जी कैबिनेट मंत्री (कपड़ा मंत्री व खाद्य प्रसंस्करण उद्योग) बने। लालू प्रसाद के विधायक दल का नेता निर्वाचित हो जाने के बावजूद वीपी सिंह द्वारा अजित सिंह, आदि को भेजकर बखेड़ा खड़ा करने और तत्कालीन राज्यपाल युनुस सलीम द्वारा नये मुख्यमंत्री का शपथग्रहण न कराने पर शरद जी ने गवर्नर को राजभवन में बहुत हड़काया था। और कहा कि ज्यादा चालाकी किए तो यहीं हाउस घेर लेंगे। उस वक्त शरद यादव की जनता दल में तूती बोलती थी। कहते हैं कि फ्लाइट से दिल्ली चले जाने पर ताऊ ने गवर्नर को डांटते हुए फौरन दिल्ली से बिहार जाने को कहा। इसके पूर्व जब तक लालू प्रसाद राज्यपाल का पीछा करते हुए एयरपोर्ट पहुंचे थे, तब  तक तो वो उड़ चुके थे। और, लालू जी ने जब उन्हें फोन धराया, "ताऊ आपके राजपाट में इ क्या हो रहा है? दिल्ली से जनादेश का अपमान करवाया जा रहा है, इ मंडवा के राजा वीपी सिंह हमको सीएम का ओथ नै लेने दे रहा", तो वे तुरंत गरमा गए, "हमारे सामने खेलने वाला इ चौधरी जी का छोरा नेता बन रहा है बिहार जाके। रुको, अभी शरद यादव व मुलायम सिंह से कहके इसको सीधा करते हैं"। यह अद्भुत सरकार गठन था जिसमें सर्वाधिक नौ ऑब्जर्वर बिहार भेजे गए थे।

89 की राष्ट्रीय मोर्चा सरकार में ताऊ देवीलाल कृषि मंत्री थे, तो शरद जी ने नीतीश कुमार को कृषि राज्य मंत्री बनवाया था। उनका इतना स्नेह था शरद यादव पर कि कोई बात टालते नहीं थे। नीतीश जी को संभवतः 85 के विधानसभा चुनाव में चुनाव प्रचार के लिए एक गाड़ी भी दी ताऊ ने। 

शरद यादव: मुख्तलिफ़ फक्कड़ अंदाज़ के मालिक:

“दास कबीर जतन से ओढ़ी, ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया” को अपना जीवन-दर्शन बना लेने वाले शरद यादव ने लगभग आधी सदी की भारतीय राजनीति को अपने तरीके से प्रभावित किया है। बड़े मंत्रालय वगैरह उनकी दिलचस्पी का केंद्र नहीं रहे, बल्कि उपेक्षित समाज के हक़ में कोई बड़ा फ़ैसला हो जाए, इसकी जुगत में वो अब भी लगे रहते हैं। जिस भी धड़े के साथ रहे, शोषित समाज के सांसदों व नेताओं को एक सूत्र में बांधने की यथासंभव कोशिश में जुटे दिखे। जातिवार जनगणना व महिला आरक्षण में क़ोटे की पुरज़ोर वकालत इसकी अहम मिलासें हैं।

एक दिलचस्प वाक़या है। लालू प्रसाद (फॉडर) और एलके आडवाणी (हवाला) दोनों चार्जशीटेड थे, मगर सदन में बोलते हुए अटल बिहारी वाजपेयी ने "कहां राजा भोज, कहां गंगू तेली" वाली बात कही। इस पर शरद यादव ने तब कहा था, "पहली बार आप असल बात बोल रहे हो पंडित जी कि लालू तो गंगू तेली का वंशज है, मगर आडवाणी राजा भोज का। पंडिताई आखिर छलक ही जाती है... क्या कीजिए, नीचे तो हमने बदल दिया, मगर ऊपर (प्रेस गैलरी) आपका ही आदमी है। कल हमने 45 मिनट भाषण किया, 4 लाइन छपी, और आपने 4 मिनट बोला, तो 4 कॉलम में छपा"। वाजपेयी पानी-पानी थे।

शरद यूं ही शरद नहीं हैं और तीन मुख़्तलिफ़ सूबों से जीत कर लोकसभा पहुंचने वाले देश के चौथे मात्र सांसद, उनके अलावा यह कारनामा सिर्फ़ अटल बिहारी, नरसिंहा राव और मीरा कुमार के नाम दर्ज है, जो 3 अलग-अलग राज्यों से जीत कर आए थे, और लोकसभा में नुमाइंदगी की। अटल बिहारी अपवाद हैं, जो चार राज्यों से चुनाव जीते थे, पर 1996 में युपी और गुजरात में क्रमशः लखनऊ व  गांधीनगर से जीतने पर गांधीनगर से रिजाइन कर दिया था। इसलिए, सदन में प्रतिनिधित्व तीन राज्यों की लोकसभा सीटों का ही किया।

शरद यादव - जबलपुर (मध्यप्रदेश) – 2 बार (74-75 & 77), बदायूं (उत्तर प्रदेश) – 1 बार (89) और मधेपुरा (बिहार) – 4 बार (91, 96, 99 & 2009)

अटल बिहारी वाजपेयी - बलरामपुर & लखनऊ  (उत्तरप्रदेश), नई दिल्ली (दिल्ली), ग्वालियर (मध्यप्रदेश) और गांधीनगर (गुजरात),

नरसिम्हा राव - बरहमपुर (उड़ीसा) रामटेक (महाराष्ट्र) और नंदयाल (आंध्रप्रदेश), और

मीरा कुमार - बिजनौर (उत्तर प्रदेश), करोलबाग (दिल्ली) और सासाराम (बिहार)।

लोहिया कहते थे कि राज्य की सरकार पटवारी की सरकार है जिसे दिल्ली की कलक्टर सरकार कभी भी हड़का-भड़का देती है। शरद जी भी बार-बार कहते हैं कि असल लड़ाई तो दिल्ली की है, उस पर कब्जा करो। मुम्बई नगर निगम का बजट बिहार से ज्यादा है। पूरा शोषित-उपेक्षित नेतृत्व सूबे की सरकार बनाने-बचाने में उलझ कर रह गया और दिल्ली ओझल होती चली गई।

इसी दिल्ली में हज़ारों लोग मंडल कमीशन के सीधे-सीधे लाभार्थी हैं जिसके अगुआ शरद यादव रहे हैं। महिला आरक्षण पर ग़लतबयानी के ज़रिये भ्रम व झूठ फैला कर उनको क्या-क्या नहीं कहा गया। पर, वो भी हिन्दुस्तान की सियासत की निराली शख़्सियत रहे हैं। एक बार जो सही परिप्रेक्षय में एक नज़रिए के साथ वक्तवय दे दिया, फिर उससे पलटते नहीं। आदिवासी कवयित्री निर्मला पुतुल ने भी अपनी एक कविता में 'परकटी' शब्द का प्रयोग किया है। आइए, निर्मला पुतुल की उस कविता से रुबरू होते हैं, शायद आप बेहतर रोशनी में समझ पाएंगे कि लालू-शरद-मुलायम की तिकड़ी (उमा भारती समेत ख़ुद एनडीए के अंदर बहुत दलित-पिछड़े-आदिवासी की यही राय थी, हां नीतीश ज़रूर तब भी अलगे झाल बजा रहे थे) दोहरे शोषण की मार झेल रही वंचित महिलाओं के लिए आख़िर आरक्षण के भीतर आरक्षण की व्यवस्था क्यों चाहते थे। 

एक बार फिर
(अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस समारोह का आमंत्रण-पत्र पाकर)

एक बार फिर

ऊँची नाकवाली अधकटे ब्लाउज पहनी महिलाएँ

करेंगी हमारे जुलूस का नेतृत्व

और प्रतिनिधित्व के नाम पर

मंचासीन होंगी सामने

एक बार फिर

किसी विशाल बैनर के तले

मंच से माइक पर वे चींखेंगी

व्यवस्था के विरुद्ध

और हमारी तालियाँ बटोरते

हाथ उठाकर देंगी साथ होने का भरम।

गौरतलब है कि आज हो यही रहा है कि मूल सवाल गौण हो जाते हैं, उसमें किसी को दिलचस्पी नहीं लेनी है। शब्दकोश की समृद्धि ज़्यादा महत्वपूर्ण है। यही संकट है। आजकल यहाँ यह भी सच है कि जितनी गालियां हमारी कुछ दोस्तिनी और दोस्त अंग्रेज़ी में देते हैं, उनका क़ायदे से हिन्दी अनुवाद कर दें तो वो बोलते हैं, डिस्गस्टिंग... बाक़ी ऐसे ही है...

मीडिया के रवैये की ओर ध्यान दिलाना है कि वो असल मुद्दे से कैसे ध्यान भटका सकते हैं? लालू-मुलायम-शरद ने मौजूदा विधेयक के स्वरूप में संशोधन की बात कह विधेयक को सर्वसमावेशी बनाने की बात कही थी, उन्हें महिला आरक्षण विरोधी बना-बता दिया गया। आज तक वही चल रहा है। इसका कोई जवाब है! शरद यादव कहते हैं, “महिला आरक्षण एकदम लागू होना चाहिए 33 फ़ीसदी नहीं, बल्कि 66 फीसदी, पर संशोधनों के साथ”। महिलाएं पीड़ित रही हैं, पर उनमें भी वंचित वर्ग की महिलाएं दोहरे शोषण की शिकार। यह भी उतना ही बड़ा सच है।

सवाल है कि लोहिया ने जो रानी बनाम मेहतरानी का राजनैतिक प्रयोग किया था, आज वो होते तो शरद जी की स्पिरिट को समझते। शरद यादव के व्यक्तित्व को समझने के लिहाज़ से ये चंद शेर बहुत उपयुक्त लगते हैं:

सबकी बातें सुन लेता हूँ मैं चुपचाप मगर

अपने दिल की करते जाना मेरी आदत है।

कांटों से दामन उलझाना मेरी आदत है

दिल में पराया दर्द बसाना मेरी आदत है।

मेरा गला गर कट जाए तो मुझपे क्या इल्ज़ाम

हर क़ातिल को गले लगाना मेरी आदत है।

शरद यादव ने कपड़ा, खाद्य प्रसंस्करण उद्योग (89-90); नागरिक उड्डयन, श्रम, खाद्य व उपभोक्ता मामले (99-04) जैसे मंत्रालयों में जम कर काम किया। उनके लिए कोई भी मंत्रालय छोटा-बड़ा नहीं था। वो युवा जनता के अध्यक्ष (77) लोक दल के महासचिव (78), युवा लोकदल के अध्यक्ष (78), जनता दल के महासचिव (89-97), जनता दल पार्लियामेंट्री बोर्ड के चेयरमैन (89-97), लोकसभा में पार्टी संसदीय दल के नेता (94), जनता दल के कार्यकारी अध्यक्ष (95), जनता दल के अध्यक्ष (97), वित्त समिति के चेयरमैन (96, 11वीं लोकसभा), जदयू के अध्यक्ष और 11 मर्तबा (7 बार लोकसभा, 4 बार राज्यसभा) सांसद रहे। मीसा के तहत उनको 69-70, 72 और 75 में गिरफ़्तार किया गया और लंबे समय तक (आजाद भारत में 4 साल से ज्यादा) जेल में वो रहे। 71 में वे जबलपुर विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष बने। पढ़ाई-लड़ाई साथ-साथ करने की चेतना के साथ वे वहाँ गोल्ड मेडलिस्ट भी रहे। शरद यादव इस देश के पहले और एकमात्र छात्रसंघ अध्यक्ष हैं जिन्हें भारत सरकार के राजकीय अतिथि खान अब्दुल गफ्फार खां, उर्फ़ सीमान्त गांधी को सम्मानित करने का अवसर मिला।

नेहरू की मेज पर अमेरिकी राष्ट्रकवि रॉबर्ट फ्रॉस्ट की पंक्तियां रहती थीं:

The woods are lovely, dark and deep

But I have promises to keep

And miles to go before I sleep

And miles to go before I sleep.

अर्थात्, वनपथ है प्रियतर, घोर अंधेरे और घनेरे

लेकिन जो वादे हैं करने पूरे

और दूर जाना है मीलों सोने से पहले

और दूर जाना है मीलों सोने से पहले।

वैसे ही, शरद जी की मेज पर मार्टिन लूथर किंग के दो वाक्य व साहिर की कुछ पंक्तियां हमेशा मौजूद रहते हैं:

"हमारा जीवन उस दिन से समाप्त होना शुरू हो जाता है जिस दिन हम उन मुद्दों को लेकर चुप्पी साध लेते हैं जो मायने रखते हैं।"

"कोई भी जाति तब तक तरक्की नहीं कर सकती जब तक वह इस बात को न सीख ले कि खेत खोदने के काम में भी उतनी ही प्रतिष्ठा है, जितनी एक कविता लिखने में।"

- डॉ. मार्टिन लूथर किंग

"रंग और भेद, जात और मज़हब

जो भी हो आदमी से कमतर है।"

- साहिर लुधियानवी

मंडल आंदोलन के वक़्त शरद यादव ने देश भर के युवाओं के नाम एक खुला ख़त लिखा था, जो उनके दर्शन की तर्जुमानी है। आज भी अगर कोई उन्हें चिट्ठी लिखे, तो वो उसका जवाब देना नहीं भूलते। ये कुछ बातें जो राजनीतिक लोकव्यवहार की दृष्टि से सहज चलन के रूप में स्थापित रही हैं; आज दुर्लभ होती दिख रही हैं। शरद यादव अपनी पीढ़ी के अंतिम खेप के चंद तेज़तर्रार समाजवादी नेताओं में रह गए हैं जिनसे सोशलिस्ट ट्रेडिशन पर उर्वर बात की जा सकती है। मेरी ख़ुशक़िस्मती है कि उनके साथ पचासों लंबी गुफ़्तगू करने का सुख हासिल हुआ है, और उनकी सोहबत में हिन्दुस्तान की सियासत के बहुतेरे अनछुए-अनकहे-अनसुने पहलू उभर कर सामने आए, जिससे मेरी समझ व दृष्टि थोड़ी और समृद्ध हुई। लालू जी आज अपने सेक्युलर स्टैंड के चलते संघियों के निशाने पर हैं, और अस्वस्थ हालत में भी जेल की यातना भोग रहे हैं। वो बाहर होते, तो मेरे जैसे शोधार्थियों को और सम्यक् बातचीत का अवसर मिलता।

कोई जनांदोलन हो या संवैधानिक अधिकारों को कुचले जाने की मुख़ालफ़त, कोई राष्ट्रीय हित का मुद्दा हो या व्यापक जनहित का मसला, विश्वविद्यालयों में खड़ा बखेड़ा हो या किसी भी क्षेत्र में आरक्षण को नेस्तनाबूद करने की साज़िश; आप अपने संघर्षों में पुलिस की बंदूक की बट से चूर पैरों के साथ शरद जी को इस उम्र में भी अपने बीच सड़कों पर पाएंगे। ऐसे अदम्य साहस व सूक्ष्म दृष्टि वाले सद्विवेकी लड़ाका जननेता शरद यादव जी सुदीर्घ सेहतमंद जीवन के साथ नई नस्ल को अपने विशाल अनुभव से सींचते रहें, वो शतायु हों और यूं ही हमारी आवाज़ बुलंद करते रहें; आज यही सद्कामना की जा सकती है।

- जयन्त जिज्ञासु,
शोधार्थी, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली
 

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