राजस्थान: 'सिंह' के नाम पर राजपूतों की 'गीदड़ों' जैसी हरकत क्यों?

Written by Bhanwar Meghwanshi | Published on: December 14, 2017
पश्चिमी राजस्थान में दलितों और क्षत्रिय सवर्णों के मध्य सिंह शब्द के इस्तेमाल को लेकर कटुता खतरनाक स्तर पर पँहुच चुकी है। विशेष रूप से जालोर जिले से ऐसी खबरें आ रही हैं ,जहाँ पर कुछ दलित युवाओं द्वारा अपने नाम के साथ सिंह लिख देने के कारण उन्हें भयंकर अपमान और उत्पीड़न झेलना पड़ रहा है।



प्राप्त जानकारी के अनुसार नपसा बौद्ध विराना, पदम सिंह मेघवाल तथा ओयाराम बोरटा को इस बात के लिए असंख्य गालियां दी गई है कि वे गैर राजपूत हो कर सिंह ,ठिकाना ,बना और सा जैसे शब्द क्यों इस्तेमाल कर रहे है ? इनके डी एन ए पर सवाल उठाए गए है और सोशल मीडिया पर यहां तक भी लिख कर पूछा गया है कि उन्हें पैदा करने के लिए उनकी माँ किसी क्षत्रिय के साथ सोई क्या? बात यहीं खत्म नही हुई बल्कि उपरोक्त युवकों को मोबाईल पर जान से मारने की धमकियां भी दी गयी और उनसे माफीनामें लिखवाए गए है, गांव से बहिष्कृत किया गया है और माफी मांगते हुए वीडियो बनवा कर उन्हें वायरल किया गया है। दलित अत्याचार की ऐसी बानगी शायद राजस्थान के अलावा अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलेगी।

कुछ साल पहले पाली जिले के जाडन निवासी चुन्नी लाल मेघवाल को सिर्फ इस बात के लिए सामंती तत्वों ने पीट पीट कर मार डाला, क्योंकि उसने अपनी बेटी का नाम बाईसा रख लिया था, अपने पति की निर्मम हत्या का सदमा पत्नी सह नही पाई और वह भी चल बसी, जिस बेटी को चुन्नी लाल बाईसा के रूप में पाल पोष कर बड़ा करना चाहता था, वह पागल हो गयी! यह तो बानगी भर है सामंती अत्याचार की, इससे भी भयानक अमानवीय उत्पीड़न की कहानियां पश्चिमी राजस्थान के गांव गांव में बिखरी पड़ी है, दलित महिलाओं से बलात्कार, खाट पर नही बैठने देने, बिन्दोली में घोड़े पर नही चढ़ने देने ,वोट नहीं डालने देने, चुनाव नहीं लड़ने देने, सार्वजनिक स्थलों का उपयोग नहीं करने देने, बात बात में निंदनीय भाषा का प्रयोग करके अपमानित करने, बेगार लेने, मारपीट करने और जान तक ले लेने के प्रकरण अक्सर दर्ज किए जाते हैं, राजस्थान दलित समुदाय के प्रति नफरत, छुआछूत, भेदभाव, शोषण तथा अन्याय और उत्पीड़न का आज भी गढ़ बना हुआ है।

यह बात कितनी शर्मनाक है कि शब्द भी कुछ जातियों ने आरक्षित कर रखें हैं, उनको लगता है कि सिंह जैसे मिडल नेम सिर्फ उन्हीं के लिए बनाया गया है, अगर इसका इस्तेमाल कोई दलित कर दे तो यह दण्डनीय अपराध है। शायद इसीलिए नरपत बौद्ध को नपसा लिखने, फेसबुक पर घोड़े पर सवार प्रोफ़ाइल फ़ोटो लगाने की सज़ा दी गई है। बताया जाता है कि जब नरपत बौद्ध को फोन पर गालियां दी गयी तो उसने भी प्रत्युत्तर में गालियां दी। उसमें समुदाय विशेष पर भी टिप्पणी की। मेरा मानना है कि नपसा बौद्ध को ऐसा कतई नहीं करना चाहिए था, किसी को भी किसी के अपमान करने का कोई अधिकार नहीं है। इस भूल कर समझ कर नपसा बौद्ध विराना ने क्षत्रिय समुदाय से माफी मांग ली। लेकिन उसे अब तक भी रोज धमकियां दी जा रही हैं। नतीजा यह है कि इस दलित युवक को गुमनाम ज़िंदगी जीने को मजबूर होना पड़ा है। ऐसा ही बोरटा के ओयाराम के मामले में हुआ है, जहां पर एक युवक द्वारा सिंह लगा देने पर बाकायदा पूरे गांव ने एक मीटिंग करके वहां के सारे मेघवाल समाज का सामाजिक बहिष्कार कर दिया गया है।

जालोर जिले के राजपूत और दलित युवा बुरी तरह से सोशल मीडिया पर इस बात को लेकर एक दूसरे से उलझे हुए हैं कि सिंह कौन लगा सकता है और कौन नहीं? वैसे मेरा जालोर के दलित युवाओं से आग्रह है कि वे इस निर्रथक विमर्श से स्वयं को तुरंत दूर कर लें, क्योंकि ऐसी चीज़ें उनकी प्रगति में बाधक ही साबित होगी। अपने नाम के साथ कुछ भी लिखने का अधिकार उन्हें भारत का संविधान देता है और इस पर कोई रोक नहीं लगा सकता है ,न आज और ना ही भविष्य में कभी भी ,सभी लोग सभी तरह के नाम और टाइटल तथा सरनेम तक रख सकते हैं। इससे किसी को भी रोका नही जा सकता है। अगर कोई ऐसी बचकानी कोशिश करते भी हैं तो उनके विरुद्ध कानूनी कार्यवाही करनी चाहिए, ना कि फेसबुक अथवा व्हाट्सएप पर बहस!



वैसे जिन्हें यह गलतफहमी है कि सिर्फ क्षत्रिय समाज के लोग ही सिंह मध्यनाम का प्रयोग कर सकते हैं, उन्हें अपनी छोटी दुनिया और संकीर्ण सोच से बाहर निकल कर देखना होगा कि इस शब्द का प्रयोग देश भर में हिंदुओं की विभिन्न जातियों के लोग तो करते ही हैं। सिख, मुस्लिम, जैन और ईसाई धर्मावलंबी भी करते हैं। क्या जालोर के राजपूत समाज और दलित समाज के युवा इस बात से अनभिज्ञ हैं कि पंजाब के जट्ट सिख, मजबी सिख और रविदासिया सिख सब सिंह ही लिखते हैं। इसके लिए उनका राजपूत होना जरूरी नही है। क्या उन्हें पता है कि शहीद उधम सिंह चमार थे और शहीदे आज़म भगत सिंह जाट परिवार से थे। दोनों ही गैर क्षत्रिय हो कर भी सिंह थे, भरतपुर के जाट, धौलपुर के कोली, अलवर, आगरा सहित पूरे यूपी के जाटव, चुरू, झुंझनु, सीकर के मेघवाल भी सिंह ही लिखते हैं। कुछ नाम सुनिये पूर्व सांसद थान सिंह जाटव, बहादुर सिंह कोली, कुंवर नटवर सिंह, मनमोहन सिंह, जेम्स हेरल्ड सिंह, भंवर सिंह चौधरी और मांगू सिंह कायमखानी। इनमें से एक भी राजपूत नहीं है, लेकिन उनके नाम के साथ सिंह लगा हुआ है। जोधपुर पुलिस रेंज के आई जी हवा सिंह घुमरिया मीणा है,कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला गुर्जर है और राष्ट्रीय मेघवाल महासंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष हनुमान सिंह निर्भय मेघवाल है। इनका कोई क्या उखाड़ सकता है। भले ही इन्होंने राजपूत नहीं होते हुए भी सिंह लगा रखा है। ये सब 50 की उम्र पार के लोग हैं, किसी को इनसे कोई दिक्कत नहीं हुई, लेकिन जालोर, सिरोही, बाड़मेर और पाली जिले में इस शब्द पर एक जाति विशेष का दावा न केवल आश्चर्यजनक है, बल्कि संविधान विरोधी भी है।

राजस्थान के विगत एक सदी के इतिहास में कईं गैर राजपूत समुदायों ने स्वयं का क्षत्रियकरण किया है और अपने नामों से राम, लाल, चंद, मल हटा कर सिंह लगा लिये, उससे राजपूत समुदाय का क्या नुकसान हुआ? क्या इससे उनके अस्तिव, गरिमा अथवा मान सम्मान पर किसी प्रकार का अतिक्रमण हुआ? नहीं हुआ, समाज शास्त्री इसे संस्कृतिकरण की प्रक्रिया कहते है, जो सतत चलती रहती है। कईं समुदाय ब्राह्मण बने, कुछ वैश्य और कुछ क्षत्रिय तो कुछ गैर हिन्दू समुदायों से जा मिले, यह चलता रहेगा, किसी भी समुदाय को इस प्रक्रिया से भयभीत नही होना चाहिए, इससे किसी का अस्तित्व मिटने वाला नहीं है।

जालोर के दलित युवाओं को भी यह समझना होगा कि इन शब्दों से उनका भी कोई भला होने वाला नही है। यह व्यर्थ का विवाद है, जिसमें उनको अपनी ऊर्जा बिल्कुल भी नष्ट नही करनी चाहिए। उनके लिए किसी और समुदाय की नकल करने या मंदिरों में घुसने के आंदोलन करने का समय नहीं है, समय विकट है। दूर की सोच के साथ बड़ी चीजें करने का स्वप्न लेने का समय है। उन्हें साकार करने में जुट जाने का समय है। हम मेहनतकश समुदाय हैं। हमारी अपनी संस्कृति और सभ्यता और विचारधारा है, हमें किसी से भी कोई शब्द या पहचान उधार लेने की जरूरत नहीं है।

(लेखक स्वतन्त्र पत्रकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता हैं)

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