उत्तर प्रदेश का भदोही जनपद अपने क़ालीनों के लिए दुनिया भर में मशहूर है, लेकिन घरों में सजने वाली इन क़ालीनों को बनाने वाले कारीगर बेहद ख़राब हालात में काम कर रहे हैं। बहुत से कारीगर ऐसे हैं जिन्हें दो वक्त की रोटी का इंतजाम कर पाना मुश्किल हो गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बनारस से सांसद हैं, लेकिन पड़ोस के जनपद भदोही में बुनकरों का कहना है की उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है। पहले की तरह कालीनों की न तो डिमांड है और न ही आर्डर।
कालीन बनाने के लिए फैक्ट्री में रखा ऊन
भदोही के चौरी इलाके के 65 वकील अहमद साल 1978 से कालीन की बुनाई कर रहे हैं, लेकिन उन्हें किसी तरह से दो वक्त की रोटी नसीब हो पा रही है। वह कहते हैं, "हमारे चार बच्चे हैं, जिनमें तीन को सिर्फ इसलिए नहीं पढ़ा पा रहे हैं, क्योंकि उन्हें खिलाने तक के लिए हमारे पैसे नहीं हैं। हमने सिर्फ एक बच्चे को हाईस्कूल तक पढ़ाने का निर्णय लिया है। परेशानी यह है कि हमारा एक बेटा शुगर का मरीज है, जिसके इलाज पर हर हफ्ते करीब डेढ़ हजार रुपये खर्च हो जाते हैं। पहले की तरह कालीन बुनने का आर्डर नहीं मिल रहा है। कई बार काम नहीं मिलने की वजह से हमें खाली बैठना पड़ता है। पहले कम मजदूरी में भी घर का खर्च चल जाया करता था और अब स्थिति बहुत ज्यादा डंवाडोल हो गई है।"
वकील यह भी कहते हैं, "तमाम नेताओं ने मुझसे वादे किए थे कि उनकी न्यूनतम आमदनी को बढ़ाने के लिए वो फ़ैक्ट्री मालिकों पर दबाव बनाएंगे, लेकिन आज तक ऐसा नहीं हुआ। भदोही में हाथ से बनी कालीनों की डिमांड आज भी ज़्यादा है, लेकिन इस कारोबार पर टैक्स की मार ज्यादा पड़ रही है। वोट देते-देते हमारा मतदान पहचान-पत्र बहुत ज्यादा पुराना हो गया है, लेकिन हमारे हालात में कोई बदलाव नहीं आया है। हम कई दशक से कलीन बुन रहे हैं और बेहतर भविष्य के सपने भी देख रहे हैं, लेकिन वो सपने तो आज भी पूरे नहीं हो सके।"
कालीन का बार्डर बनातीं महिलाएं
52 वर्षीया जमीला कालीन की बुनकरी से ऊब गई हैं। उन्हें लगता है कि इस धंधे से किसी तरह से पेट तो पाला जा सकता है, लेकिन भविष्य नहीं संवारा जा सकता है। जमीला कहती हैं, "कालीन की बुनाई से हमारा परिवार ठीक से नहीं चल रहा है। पहले स्थिति काफी अच्छी थी। परिवार चला पाना भी आसान था। अब खर्चे बढ़ गए हैं, लेकिन मजदूरी जहां की तहां है। कालीन बुनाई के आर्डर के लिए हमें कारोबारियों का मुंह देखना पड़ता है। हमारी सेहत अच्छी नहीं है। फिर भी हम कालीन बुनते हैं। ऐसा न करें तो घर चला पाना मुश्किल हो जाएगा। सरकार की ओर से हमें कुछ भी नहीं मिल पा रहा है।"
कुछ इसी तरह की कहानी चौरी इलाके के कालीन बुनकर 62 वर्षीय रमेश गिरि की है। वह कहते हैं, "आठ से बारह घंटे काम करने के बाद भी हमारी कमाई सिर्फ़ 200-300 रुपये ही हो पाती है। डिज़ाइन का सारा काम भी हाथ से ही होता है और इसे पूरा करने में कई घंटे लग जाते हैं। यह काम बेहद बारीकी से किया जाता है और छोटी सी ग़लती होने पर उनके पैसे काट लिए जाते हैं। एक क़ालीन को बनाने के लिए कई कारीगर जुटते हैं। एक वक़्त मैं अपना काम ख़ुद करता था, लेकिन अब बड़ी फ़ैक्ट्रियों का दबदबा है। फ़ैक्ट्री मालिक तो अमीर होते जा रहे हैं, लेकिन जिनके हाथ में असली हुनर है वो आज भी ग़रीब हैं।"
61 वर्षीय बुनकर छांगुर अली की माली हालत ठीक नहीं है। वह कहते हैं, "हमारे घर में इन दिनों एक टाइम दाल रोटी और दूसरे टाइम सिर्फ रोटी-चटनी बन पा रही है। अब कालीन बुनाई का काम करने का दिल नहीं करता है, लेकिन परिवार भी तो पालना है। हमारी सुध भले ही किसी राजनीतिक दल ने नहीं ली है, हमारा हुनर आज भी विदेश में सम्मान पाता है। हर बार की तरह हम इस साल भी इस भरोसे के सहारे वोट करेंगे कि कोई नेता तो जरूर खड़ा होगा जो हमारी सुध लेगा।"
ठीक नहीं महिला बुनकरों के हालात
सलाना 14,776 करोड़ का कारोबार करने वाला कालीन उद्योग सिर्फ भदोही जिले में 24 लाख लोगों को रोजगार देता है। इसमें कुशल बुनकरों के अलावा मजदूर भी शामिल हैं। भदोही, सुरियावां, अभोली और औराई में हर घर में लोग किसी न किसी रूप से कालीन उद्योग में जुड़े हुए हैं। इसमें एक तिहाई से अधिक की भागीदारी महिलाओं की है। कालीन निर्माण में कुछ काम ऐसे हैं, जिन्हें केवल महिलाएं ही करती हैं। खास बात यह है कि निर्यातक उनके घर तक सामान पहुंचाते हैं। काम पूरा होने के बाद वे उसे उठावा लेते हैं। इस तरह घर बैठे ही महिलाओं को रोजगार मिल जाता है।
कालीन बुनकर
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, भदोही जिले की लगभग सात लाख महिलाएं इस कालीन उद्योग से जुड़ी हुई हैं। इस कारोबार को अब महिलाएं नई जिंदगी दे रही हैं। मखमली कालीनों को बुनने में महारत हासिल करने वाली महिलाओं ने स्वावलंबन का एक बड़ा गलियारा बनाया है। प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से करीब सात लाख महिलाएं अपने परिवार की आर्थिकी को सुदृढ़ कर रही हैं। महिलाएं अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों को निभाने के साथ-साथ खुलाई, पेचाई, लेफा और काती खुलाई जैसे काम कर अपने परिवार की माली हलात सुधारने में जुटी हैं।
मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, भदोही जिले में दो लाख से ज्यादा महिलाएं लेफा का काम करती हैं तो एक लाख पेंचाई कर रही हैं। खुलाई का काम करने वाली महिला वर्कर्स की तादाद ढाई लाख से ज्यादा है। काती की खुलाई में करीब दो लाख महिला बुनकर काम करती हैं। फिर भी बुनकरों की दशा ठीक नहीं है। चौरी इलाके की महिला बुनकर मनोरमा कहती हैं, "पूरा परिवार मिलकर कालीन बुनता है तब कहीं सबका पेट भर पाता है। बच्चों की पढ़ाई और शादी-विवाह के लिए पैसों का इंतजाम कर पाना कालीन बुनकरों के लिए आसान नहीं है।"
कालीन बुनकर
भदोही के गुलतारा बाजार सरदार खां निवासी 45 साल की मोना पिछले 15 सालों से कालीन बुनकरी के धंधे से जुड़ी हैं। वह कालीन की पेंचाई का काम करती हैं। कहती हैं, "मेरे पति बीते 32 साल से कालीन पेंचाई और सफाई का काम करते हैं। फिर भी परिवार चलाने में दिक्कत आ रही थी। लाचारी में हमने इस काम को अपने हाथ में ले लिया है। हमने थोड़ी मेहनत की, जिससे काफी राहत मिली।"
चौरी रोड स्थित सरदार खां निवासी बादामा देवी के पति की साल 2000 में सड़क हादसे में मौत हो गई थी। बाद में उनके ऊपर परिवार की सारी जिम्मेदारी आ गई। वह कालीन में काती खुलाई का काम करती हैं। वह कहती हैं, "पति की मौत के बाद परिवार चलाने की जिम्मेदारी मेरे कंधे पर आई तो इस कम में मैं जुट गई। इसी से अब हमारा घर चलता है, लेकिन दो जून की रोटी जुटा पाना आसान नहीं।"
कालीन बनाने के लिए फैक्ट्री में रखा ऊन
भदोही के चौरी इलाके के 65 वकील अहमद साल 1978 से कालीन की बुनाई कर रहे हैं, लेकिन उन्हें किसी तरह से दो वक्त की रोटी नसीब हो पा रही है। वह कहते हैं, "हमारे चार बच्चे हैं, जिनमें तीन को सिर्फ इसलिए नहीं पढ़ा पा रहे हैं, क्योंकि उन्हें खिलाने तक के लिए हमारे पैसे नहीं हैं। हमने सिर्फ एक बच्चे को हाईस्कूल तक पढ़ाने का निर्णय लिया है। परेशानी यह है कि हमारा एक बेटा शुगर का मरीज है, जिसके इलाज पर हर हफ्ते करीब डेढ़ हजार रुपये खर्च हो जाते हैं। पहले की तरह कालीन बुनने का आर्डर नहीं मिल रहा है। कई बार काम नहीं मिलने की वजह से हमें खाली बैठना पड़ता है। पहले कम मजदूरी में भी घर का खर्च चल जाया करता था और अब स्थिति बहुत ज्यादा डंवाडोल हो गई है।"
वकील यह भी कहते हैं, "तमाम नेताओं ने मुझसे वादे किए थे कि उनकी न्यूनतम आमदनी को बढ़ाने के लिए वो फ़ैक्ट्री मालिकों पर दबाव बनाएंगे, लेकिन आज तक ऐसा नहीं हुआ। भदोही में हाथ से बनी कालीनों की डिमांड आज भी ज़्यादा है, लेकिन इस कारोबार पर टैक्स की मार ज्यादा पड़ रही है। वोट देते-देते हमारा मतदान पहचान-पत्र बहुत ज्यादा पुराना हो गया है, लेकिन हमारे हालात में कोई बदलाव नहीं आया है। हम कई दशक से कलीन बुन रहे हैं और बेहतर भविष्य के सपने भी देख रहे हैं, लेकिन वो सपने तो आज भी पूरे नहीं हो सके।"
कालीन का बार्डर बनातीं महिलाएं
52 वर्षीया जमीला कालीन की बुनकरी से ऊब गई हैं। उन्हें लगता है कि इस धंधे से किसी तरह से पेट तो पाला जा सकता है, लेकिन भविष्य नहीं संवारा जा सकता है। जमीला कहती हैं, "कालीन की बुनाई से हमारा परिवार ठीक से नहीं चल रहा है। पहले स्थिति काफी अच्छी थी। परिवार चला पाना भी आसान था। अब खर्चे बढ़ गए हैं, लेकिन मजदूरी जहां की तहां है। कालीन बुनाई के आर्डर के लिए हमें कारोबारियों का मुंह देखना पड़ता है। हमारी सेहत अच्छी नहीं है। फिर भी हम कालीन बुनते हैं। ऐसा न करें तो घर चला पाना मुश्किल हो जाएगा। सरकार की ओर से हमें कुछ भी नहीं मिल पा रहा है।"
कुछ इसी तरह की कहानी चौरी इलाके के कालीन बुनकर 62 वर्षीय रमेश गिरि की है। वह कहते हैं, "आठ से बारह घंटे काम करने के बाद भी हमारी कमाई सिर्फ़ 200-300 रुपये ही हो पाती है। डिज़ाइन का सारा काम भी हाथ से ही होता है और इसे पूरा करने में कई घंटे लग जाते हैं। यह काम बेहद बारीकी से किया जाता है और छोटी सी ग़लती होने पर उनके पैसे काट लिए जाते हैं। एक क़ालीन को बनाने के लिए कई कारीगर जुटते हैं। एक वक़्त मैं अपना काम ख़ुद करता था, लेकिन अब बड़ी फ़ैक्ट्रियों का दबदबा है। फ़ैक्ट्री मालिक तो अमीर होते जा रहे हैं, लेकिन जिनके हाथ में असली हुनर है वो आज भी ग़रीब हैं।"
61 वर्षीय बुनकर छांगुर अली की माली हालत ठीक नहीं है। वह कहते हैं, "हमारे घर में इन दिनों एक टाइम दाल रोटी और दूसरे टाइम सिर्फ रोटी-चटनी बन पा रही है। अब कालीन बुनाई का काम करने का दिल नहीं करता है, लेकिन परिवार भी तो पालना है। हमारी सुध भले ही किसी राजनीतिक दल ने नहीं ली है, हमारा हुनर आज भी विदेश में सम्मान पाता है। हर बार की तरह हम इस साल भी इस भरोसे के सहारे वोट करेंगे कि कोई नेता तो जरूर खड़ा होगा जो हमारी सुध लेगा।"
ठीक नहीं महिला बुनकरों के हालात
सलाना 14,776 करोड़ का कारोबार करने वाला कालीन उद्योग सिर्फ भदोही जिले में 24 लाख लोगों को रोजगार देता है। इसमें कुशल बुनकरों के अलावा मजदूर भी शामिल हैं। भदोही, सुरियावां, अभोली और औराई में हर घर में लोग किसी न किसी रूप से कालीन उद्योग में जुड़े हुए हैं। इसमें एक तिहाई से अधिक की भागीदारी महिलाओं की है। कालीन निर्माण में कुछ काम ऐसे हैं, जिन्हें केवल महिलाएं ही करती हैं। खास बात यह है कि निर्यातक उनके घर तक सामान पहुंचाते हैं। काम पूरा होने के बाद वे उसे उठावा लेते हैं। इस तरह घर बैठे ही महिलाओं को रोजगार मिल जाता है।
कालीन बुनकर
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, भदोही जिले की लगभग सात लाख महिलाएं इस कालीन उद्योग से जुड़ी हुई हैं। इस कारोबार को अब महिलाएं नई जिंदगी दे रही हैं। मखमली कालीनों को बुनने में महारत हासिल करने वाली महिलाओं ने स्वावलंबन का एक बड़ा गलियारा बनाया है। प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से करीब सात लाख महिलाएं अपने परिवार की आर्थिकी को सुदृढ़ कर रही हैं। महिलाएं अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों को निभाने के साथ-साथ खुलाई, पेचाई, लेफा और काती खुलाई जैसे काम कर अपने परिवार की माली हलात सुधारने में जुटी हैं।
मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, भदोही जिले में दो लाख से ज्यादा महिलाएं लेफा का काम करती हैं तो एक लाख पेंचाई कर रही हैं। खुलाई का काम करने वाली महिला वर्कर्स की तादाद ढाई लाख से ज्यादा है। काती की खुलाई में करीब दो लाख महिला बुनकर काम करती हैं। फिर भी बुनकरों की दशा ठीक नहीं है। चौरी इलाके की महिला बुनकर मनोरमा कहती हैं, "पूरा परिवार मिलकर कालीन बुनता है तब कहीं सबका पेट भर पाता है। बच्चों की पढ़ाई और शादी-विवाह के लिए पैसों का इंतजाम कर पाना कालीन बुनकरों के लिए आसान नहीं है।"
कालीन बुनकर
भदोही के गुलतारा बाजार सरदार खां निवासी 45 साल की मोना पिछले 15 सालों से कालीन बुनकरी के धंधे से जुड़ी हैं। वह कालीन की पेंचाई का काम करती हैं। कहती हैं, "मेरे पति बीते 32 साल से कालीन पेंचाई और सफाई का काम करते हैं। फिर भी परिवार चलाने में दिक्कत आ रही थी। लाचारी में हमने इस काम को अपने हाथ में ले लिया है। हमने थोड़ी मेहनत की, जिससे काफी राहत मिली।"
चौरी रोड स्थित सरदार खां निवासी बादामा देवी के पति की साल 2000 में सड़क हादसे में मौत हो गई थी। बाद में उनके ऊपर परिवार की सारी जिम्मेदारी आ गई। वह कालीन में काती खुलाई का काम करती हैं। वह कहती हैं, "पति की मौत के बाद परिवार चलाने की जिम्मेदारी मेरे कंधे पर आई तो इस कम में मैं जुट गई। इसी से अब हमारा घर चलता है, लेकिन दो जून की रोटी जुटा पाना आसान नहीं।"
कालीन
अखिल भारतीय कालीन निर्माता संघ (एकमा) के पूर्व अध्यक्ष मोहम्मद रजा खां कहते हैं, "एक कालीन को तैयार करने में कुल 18 से 20 चरणों से होकर गुजरना पड़ता है। विदेश से रॉ मैटेरियल मंगाने के बाद छटाई, लेफा, एक्सप्लोर से खरीदारी, मजदूरों से कताई, रंगाई, डिजाइनिंग, बुनकरी, आवश्यकता पड़ने पर मरम्मत, क्लिपिंग, धुलाई, फिर से क्लिपिंग, पेंचाई, सफाई, रंगकटा आदि का काम कराना पड़ता हैं। खुलाई, पेंचाई, लेफा और काती बुनाई का अधिकतर काम महिलाएं ही करती हैं। इसका बड़ा कारण यह है कि वो घर के कामों को निपटा कर इसमें समय देती है। इस वजह से उन्हें घर बैठे रोजगार मिल जाता है।"
भदोही को मिली वैश्विक पहचान
हाथ से बनी कालीनों के चलते भदोही को वैश्विक स्तर पर पहचान मिली है। कालीन की बुनाई के पेशे में नए कारीगर नहीं आ रहे हैं। यही वजह है कि भदोही और इससे सटे मिर्जापुर जिले में कुशल कारीगर अब नहीं के बराबर रह गए हैं। फाइन क्वालिटी की कालीनों को बुनवाने के लिए निर्यातकों को शाहजहांपुर, साहिबाबाद और बदायूं जैसे जिलों में रॉ मैटेरियल भेजना पड़ता है। दरअसल, भदोही जिले में जितने भी कुशल कारीगर थे, उनकी उम्र काफी ढल गई है। इस वजह से कालीन उद्योग भी ढलान पर है। उम्रदराज कारीगरों की बूढ़ी आंखें अब फाइन क्वालिटी की कालीन बुनने की इजाजत नहीं दे रही हैं।
तैयार कालीन
भदोही के कारीगरों के हाथों की बुनी कालीनें दुनिया भर के लोगों को आकर्षित करती हैं। भदोही के बुनकर अब्दुल कहते हैं, "फाइन क्वालिटी की कालीनों को बुनने के लिए एक इंच में करीब 150 से 170 तक गांठें लगाई जाती हैं। एक दशक पहले हर घर में कालीन बुनने वाले कुशल कारीगर होते थे। अब युवा पीढ़ी इस धंधे में उतरने के लिए तैयार नहीं है। साथ ही फाइन क्वालिटी की कालीनों की डिमांड तो कम हुई ही है, इसके कारीगर भी तेजी से घटे हैं।"
भदोही जिले में शायद ही कोई ऐसा कारीगर मिले, जो उच्च गुणवत्तायुक्त कालीन बुन सके। यह काम पहले बुनकरों के बच्चे किया करते थे, लेकिन बुनकरों ने उन्हें इस धंधे में डालना बंद कर दिया है। इस वजह से यह हुनर खत्म होता जा रहा है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में फाइन क्वालिटी का कारपेट बुनने का चलन बढ़ रहा है, जिससे बुनकरी का धंधा भदोही से शिफ्ट होकर शाहजहांपुर, साहिबाबाद और बदायूं में चला गया है। वहां के बुनकरों को कालीन बुनाई के क्षेत्र में अब बड़ी पहचान भी मिलने लगी है।
रंगाई के बाद डिजाइन के साथ कारीगरों के पास भेजा जाने वाला कच्चा माल
अखिल भारतीय कालीन निर्माता संघ के सदस्य व कालीन निर्यातक राजकुमार बोथरा कहते हैं, "हम पिछले 47 सालों से कालीन का व्यवसाय कर रहे हैं। फाइन क्वालिटी की कालीनों की बुनाई बहुत बारीक होती है। एक 8/12 फीट के कालीन बुनने में चार कारीगरों को छह महीने का समय लगता है। इसमें एक इंच में 150 से 170 गांठें लगाई जाती हैं। ऐसी एक कालीन की बुनाई की कीमत 1.30 लाख रुपये होती है। फाइन क्वालिटी की कालीनों के महंगे होने के कारण ग्राहक काफी कम हो गए हैं। हमारे पास 18 साल पुरानी फाइन क्वालिटी की तमाम कालीनें रखी हैं, जिनके खरीददार नहीं हैं। इनकी कीमत करीब साढ़े चार करोड़ से ज्यादा है।"
सालाना कारोबार 14,776 करोड़
कालीन निर्यात संवर्धन परिषद (सीईपीसी) के आंकड़ों के मुताबिक, कालीन उद्योग का सलाना कारोबार करीब 14,776 करोड़ का है, जिसमें करीब सात हजार करोड़ के करीब हस्त निर्मित कालीनों का व्यापार है। ज्यादा आर्डर मिलने पर दूसरे जिलों में बुनाई के लिए कच्चा माल भेजा जाता है। इस वजह से कालीनें करीब दस फीसदी महंगी हो जाती हैं। इस बात की पुष्टि करते हुए कालीन निर्यातक वेद प्रकाश गुप्ता कहते हैं, "बदलते परिदृश्य में कालीन उद्यमियों की चुनौतियां बढ़ती जा रही हैं। विश्व के विभिन्न हिस्सों में चल रहे युद्ध, वैश्विक मंदी और विश्व बाजार में तुर्किए और बेल्जियम जैसे देशों के कालीनों उद्यमियों की चुनौतियां लगातार बढ़ रही हैं। हालांकि पहली दफा नहीं है कि भारत में बेल्जियम और तुर्किए जैसे देशों से कालीन इम्पोर्ट हो रहे हैं, लेकिन इन दिनों तुर्किए के कालीनों की डिमांड बढ़ी है। इस वजह से भदोही का कालीन बाजार प्रभावित हो रहा है।"
भदोही की मखमली और हस्तनिर्मित कालीनों की पूरी दुनिया मुरीद है। खास डिजाइन, आकर्षक रंग और लंबे समय तक चलने वाली इस जिले की कालीनें यूरोपीय देशों की पहली पसंद होती हैं, लेकिन इन दिनों से यहां का कालीन उद्योग कई चुनौतियों से जूझ रहा है। एक तरफ विश्व के विभिन्न हिस्सों में चल रहे युद्ध और दूसरी तरफ युद्ध के उपजे हालातों से वैश्विक मंदी ने उद्यमियों की चिंता बढ़ा दी है। यह माहौल तुर्किए और बेल्जियम जैसे देशों के लिए एक अवसर बन गया है तो देश की कालीन उद्योग के लिए एक चुनौती।
कालीन की कटिंग करता श्रमिक
भदोही के कालीनों की सबसे अधिक डिमांड यूरोपीय देशों में रही है। आर्थिक मंदी के चलते भदोही के हस्तनिर्मित और महंगी कालीनों की मांग कम हुई है और तुर्किए और बेल्जियम जैसे देशों के सस्ते व मशीन मेड कालीनों की खपत बढ़ी है। ऐसा लगता है कि आने वाले दिनों में ये चुनौतियां और बढ़ेगी। सरकार के सहयोग से ही इन चुनौतियों का मुकाबला किया जा सकता है।
कालीन बुनकर
कालीन उद्यमी रवि पटौदिया कहते हैं, "तुर्किए के कालीनों की मांग बढ़ने की खास वजह यह है कि उन्हें कारीगर नहीं बनाते। मशीनों के जरिये कुछ घंटों में ही कालीन बुन दी जाती है। यही वजह है कि हस्तनिर्मित कालीनों से वो सस्ती होती हैं। चीन और तुर्किये की कालीनें काफी हल्की और आकर्षक डिजाइन वाली होती हैं। इस वजह से भी लोग उसे ज्यादा पसंद करते हैं। इसके अलावा उन कालीनों की बुनाई के लिए सिथेटिंक रंगों वाले ऊनों का इस्तेमाल किया जाता है। जिससे उसकी धुलाई में काफी आसानी होती है और वह कलर नहीं छोड़ती। आर्थिक मंदी से उपजी परिस्थितियों ने तुर्किए की सस्ती कालीनों की मांग बढ़ी है।"
पटौदिया के मुताबिक, "तुर्किए जिन सिधेंटिक धागों से कालीनों का निर्माण करता है, उसमें कुछ धागा वह भारत से ही खरीदता है। भारतीय धागे सिंधेटिक होने के साथ ही सस्ते और टिकाऊ होते हैं। तुर्किए के कालीनों के निर्माण में कम लागत आती हैं। सस्ता होने के कारण उन कालीनों का बाजार बढ़ता जा रहा है। यह स्थिति भदोही के कालीन कारोबारियों के लिए ठीक नहीं है। इस मामले में सरकार को भी ध्यान देना चाहिए।"
तेजी से घट रहा कारोबार
कालीन निर्यात संवर्धन परिषद (सीईपीसी) के मुताबिक, इन दिनों देश भर में 1500 के करीब कालीन निर्यातक हैं, जिनमें 800 यूपी के हैं। अकेले पांच सौ से ज्यादा निर्यातक भदोही जिले के हैं। सीईपीसी के आंकड़ों के मुताबिक साल 2021-22 में भारत का कालीन निर्यात 16,660 करोड़ था, जो एक साल बाद ही 2022-2023 में लगभग दो हजार करोड़ घटकर 14,460 करोड़ पहुंच गया। साल 2023-2024 के आंकड़े अभी जारी नहीं हुए हैं।
कालीन निर्यातक और सीईपीसी के प्रशासनिक समिति के सदस्य असलम महबूब कहते हैं, "कालीन उद्योग एक ऐसा उद्योग है, जो मजदूर वर्ग को रोजगार देने का काम करता है। जिले की कालीनों ने देश ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में अपनी हुनर का लोहा मनवाया है, लेकिन वैश्विक परिस्थितियों ने इसका गहरा प्रभाव डाला है। कालीन उद्यमियों को सरकार से बेहतर सहयोग की अपेक्षा है। जिससे वर्तमान में उपजी परिस्थितियों से निपटा जा सके।"
कालीन कारोबारी
वैश्विक मंदी और दुनिया के कई देशों में चल रहे युद्ध के कारण कालीन व्यवसाय प्रभावित हुआ है। पहले कोविड उसके बाद रूस-यूक्रेन और इजराइल-फिलीस्तीन के बीच हुए युद्ध से उपजी परिस्थितियों ने कालीन के विश्व बाजार में गहरा असर डाला है। कालीन निर्यातकों के पास हाल के दिनों में कोई बड़ा आर्डर नहीं आया है। बीते दो सालों में करीब दो हजार करोड़ रुपये का कालीन निर्यात प्रभावित हुआ है। साल 2021-22 में विदेशों में कालीन का निर्यात जहां 16,640 हजार करोड़ के आस-पास था, जो पिछले दो सालों में काफी नीचे आ गया है। कालीन निर्यातक अपने कारोबार को बढ़ाने के लिए संभावनाओं की तलाश में जुटे हुए हैं।
कालीन उद्यमियों के माने तो जिले के गिने-चुने 12 से 15 बड़े उद्यमियों को छोड़ दिया जाए तो कई उद्यमियों के पास बड़े आर्डर नहीं हैं। उद्यमियों के सामने समस्या यह है कि उनकी कंपनियों में जो मजदूर काम कर रहे हैं, उन्हें रोके अथवा फिर छोड़ दें। हालांकि भदोही जिले में अधिकांशत: मजदूर दिहाड़ी पर कालीन बुनाई का काम करते हैं, लेकिन उद्यमियों के पास आर्डर न होने से मजदूरों के सामने गंभीर संकट खड़ा हुआ है। भदोही के जिलाधिकारी विशाल सिंह कहते हैं, "कालीन बुनकरों की समस्याओं का समाधान करने के लिए हम सार्थक प्रयास कर रहे हैं। भदोही में कारपेट कारिडोर बनाने के लिए कार्ययोजना बनाई जा रही है। लोकसभा चुनाव के बाद कारपेट कारिडोर के लिए कार्ययोजना शासन को भेजी जाएगी। इस कारिडोर में उद्यमियों को एक ही छत के नीचे सभी सुविधाएं मिलेंगी। साथ ही बुनकरों के अलावा कारपेट निर्यातकों की समस्याओं का त्वरित निराकरण किया जाएगा। कालीन बुनकरों को फिक्स रेट पर बिजली देने के लिए हम शासन से बातचीत कर रहे हैं। हम चाहते हैं कि कालीन बुनकरों को भी सस्ती बिजली मिले, ताकि इस धंधे को नई रफ्तार मिल सके।
महिला बुनकर
कारोबारियों पर टैक्स की मार
इम्तियाज अहमद देश के अनूठे शिल्पी हैं, जिन्होंने भदोही की कालीन को समूची दुनिया में नई पहचान दिलाई है। नई सोच और नए नजरिये के दम पर इन्होंने हस्तशिल्प कला को उस शिखर पर पहुंचाया है जहां पहुंच पाना हर किसी के बूते में नहीं है। वो बेहद मुलायम और मखमली कालीन तो बनाते ही हैं, अपने हुनर से चमड़े की कालीन को गजब का लुक देते हैं। दीवारों पर टांगी जाने वाली नेचुरल लुक में छोटे आकार की कालीन का निर्माण और निर्यात भी करते हैं। इम्तियाज कहते हैं, "कालीन अब सिर्फ फर्श पर बिछाने की चीज नहीं रही। दीवारों पर पेंटिंग की बजाय खूबसूरत नेचुरल कालीन टांगने का वक्त आ गया है। मेरी कंपनी टेक्सटिको के उत्पाद पश्चिमी मुल्कों के दफ्तरों और घरों की शान हैं।"
दरअसल, इम्तियाज अहमद भदोही के ऐसे प्रयोगवादी शिल्पी हैं, जिन्होंने न सिर्फ अमेरिका में, बल्कि समूचे यूरोप में अपने हुनर का दबदबा कायम किया है। चीन और पाकिस्तान जैसे देश इनसे हस्तनिर्मित कालीन खरीदते हैं और विश्व बाजार में बेचते हैं। इम्तियाज को कालीन निर्माण और निर्यात का हुनर विरासत में मिला है। वो बताते हैं कि उनकी पांचवीं पीढ़ी ने भदोही की कालीन में तमाम उपलब्धियों का हुनर संजोया है।
टेक्सटिको कंपनी के निदेशक इम्तियाज मानते हैं कि कोरोना के बाद पैदा हुई वैश्विक मंदी ने कालीन उद्योग की कमर तोड़ने में कोई कसर बारी नहीं छोड़ी है। इसके बावजूद भदोही के कालीन उद्यमियों का हौसला नहीं टूटा है। वह कहते हैं, "भदोही से बनने वाले कालीन का 95 फीसदी निर्यात होता है। हम मशीनी कालीन और मंदी की चुनौतियों से आसानी से लड़ सकते हैं, लेकिन निर्यात से पहले एडवांस में 18 फीसदी जीएसटी जमा करने की अनिवार्यता के चलते हर कालीन कारोबारी त्रस्त है। कालीन बिकने से पहले हमें टैक्स भरने पर विवश किया जा रहा है, जिससे स्थिति बिगड़ती जा रही है। दूसरी समस्या बिजली की है। साड़ी बनाने वाले बुनकरों की तरह कालीन के बुनकरों को फिक्स रेट पर बिजली नहीं मिल रही है। सरकार को चाहिए कि वो दोनों समस्याएं तत्काल हल कराए ताकि इस कारोबार को पिछड़ने से रोका जा सके। जब तक कालीन का कारोबार फलेगा-फूलेगा नहीं, तब तक बुनकरों के हालात भी नहीं सुधरेंगे।"
(लेखक विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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