अभी तो हम ठीक से आज़ाद भी नहीं हो पाए, संविधानप्रदत्त अधिकारों को ले भी नहीं पाये कि पूरा मुल्क ही मानो हमारी कब्रगाह बन गया है, हत्याएं और आत्महत्याएं, हर दिन जानें जा रही है, खून बह रहा है, मारकाट मची हुई है, ऐसा लगता है कि एक अंतहीन गुलामी और अंधकार की तरफ धकेलने का पूरा प्रबंध इस व्यवस्था ने हमारे लिए कर दिया है।
यहां अब कौन सुरक्षित है ? जब राजस्थान पुलिस के एक जवान को निरन्तर हो रही प्रताड़ना से हार कर पूरे परिवार सहित फांसी के फंदे पर झूल कर खुदकुशी करनी पड़े तो यह समझ लेना चाहिए कि सबके गले के नाप के फंदे तैयार है, आज गेनाराम मेघवाल का परिवार झूला, कल हम में से किसी का भी नम्बर आ सकता है।
कोई इंसान जब तक पूरी तरह से नाउम्मीद नही हो जाये, तब तक जान नहीं देता है, इससे यही जाहिर होता है कि गेनाराम का परिवार काफी वक्त से सताया जाता रहा और इंसाफ की कोई किरण नहीं पा कर पूरे परिवार ने मौत को गले लगा दिया, अपने 6 पेज के सुसाईड नोट में आत्महत्या करनेवाले परिवार की पूरी व्यथा नामजद लिखी गई है, मरने से पहले यह नोट सोशल मीडिया पर इस आशा और अपेक्षा के साथ मृतक ने पोस्ट किया कि गुनाहगारों को छोड़ा नहीं जाए।
हम इन हत्याओं और सुनियोजित आत्महत्याओं को देखते रहने के लिए अभिशप्त हो चुके है, हर दिन अन्याय, उत्पीड़न, अत्याचार, खून खराबा, हत्याएं और आत्महत्याएं सम्बन्धी खबरें सुनने को मजबूर है हम, आखिर यह सिलसिला कहीं जा कर रुकेगा या यह अनंतकाल तक जारी रहेगा, क्या कोई तरीका है इस अत्याचार से मुक्ति का ?
हर घटना हमें उद्वेलित करती है, उद्विग्न करती है, आंदोलित करती है, हम सड़कों पर उतरते है, हम मोर्चरी के बाहर बैठते हैं, हम सही, निष्पक्ष जांच की मांग करते हैं, सीबीआई की गुहार लगाते हैं, जो आंदोलन में हमारे साथ शरीक होते हैं, उन्हें सलाम भेजते हैं, जो नहीं आते, उन्हें गरियाते हैं, थोड़े दिन जांच पड़ताल, चालान, सुनवाई, गवाही, फैसला या समझौता हो जाता है, हम अगले कांड में न्याय पाने के लिए फिर सड़कों पर होते हैं, विगत 3 -4 सालों से सड़कें ही हमारी युद्धभूमियां बनी हुई है।
यहां किसको जीने दिया जा रहा है ? किसी को भी तो नहीं ! हमारे विश्वविद्यालय के विद्यार्थी बड़ी संख्या में सुसाईड कर रहे है, रोहित वेमुला अकेले नहीं है, हर यूनिवर्सिटी में कईं कईं रोहित है ? जिनके गलों के लिए फंदे तैयार है, हमने रोहित वेमुला, डेल्टा मेघवाल, मुथुकृष्णन, रविन्द्र मेघवाल जैसे दर्जनों होनहार नोजवान खो दिए है, जो नहीं मरे, उनको मार दिया गया है, नजीब जैसों को गायब कर दिया गया है।
पूरा देश ही रणभूमि बन चुका है, संविधान द्वारा दिये गए आरक्षण को लेकर टॉर्चर किया जा रहा है, सीबीआई और एन्टी करप्शन ब्यूरो हमारे अधिकारियों कर्मचारियों और जनप्रतिनिधियों के पीछे पागल कुत्ते की तरह पड़ा हुआ है, जरा सा बोलो और जेल जाने की तैयारी कर लो, न बोलने की, ना लिखने की, न ही खाने की, न ही प्यार करने की, किसी भी चीज़ की आज़ादी नहीं बची है, हर तरफ दुष्चक्र है, दमन है और चीख चीत्कार है, लोकतंत्र सिर्फ कहने भर को रह गया है।
क्या वजह है कि फूलन देवी का हत्यारा सारे देश मे आज़ाद घूम रहा है और भीम आर्मी का मुखिया रासुका में अंदर सड़ाया जा रहा है ? क्या हम इतने मूर्ख है कि हम समझने में नाकामयाब है कि पूरे राजस्थान में सामंतवाद, ब्राह्मणवाद और बनियावाद अपने चरम पर है और हम सब कुछ समझ कर भी नासमझ बने हुए है, आखिर हम कब जान पाएंगे कि हमारे वर्ण शत्रु सदियों बाद फिर से सत्ता संसाधनो पर काबिज हुए है और उनका एक महाभियान चल रहा है कि किस तरह इस देश को एक धर्म विशेष के नाम पर मनुवादी राष्ट्र बना दें, जिसमें या तो हम गुलाम, दास और सेवक की भांति रहेंगे अथवा हमें मरने पर मजबूर किया जाएगा, जो रोहित वेमुला और गेनाराम परिवार की तरह खुदकुशी नहीं करेंगे, उनको मार दिया जाएगा।
राजस्थान के नागौर जिले के सुरपालिया थाना क्षेत्र के बागरासर गांव की यह घटना सिर्फ एक दलित परिवार की आत्महत्या नहीं है, यह हमारी सामूहिक चेतना की हत्या है, यह व्यवस्था के सुव्यवस्थित मारक उत्पीड़न का सबसे ताज़ा उदाहरण है, देश अज़ीब से विरोधाभासी तथ्यों से रूबरू है, एक तरफ राष्ट्रपति भवन इस वर्ग के हवाले है तो दूसरी तरफ गेनाराम जैसे लोगों की ज़िन्दगी के लाले है, समझ ही नही आता कि हम गेनाराम के परिवार की इस सांस्थानिक हत्या के खिलाफ लड़ें या सामूहिक शोक में डूबकर विलाप करें।
आखिर कब तक हम एक एक घटना के पीछे भागेंगे न्याय प्राप्ति के लिए, क्या हमारी दो तीन पीढ़ियों को और अपनी जान की बलि देनी होगी या कोई असरदार तरीका हम खोज पाएंगे ? अत्याचार मुक्ति की परियोजना में सफल हुए बगैर हम आगे कैसे बढ़ेंगे ? तरक्की, स्वाभिमान, गर्व, मिशन, चेतना की बातें तो तब करेंगे, जबकि ज़िंदा रहेंगे, आज तो हालात एक एक को चुन चुन कर मारने जैसे है, सारी आवाज़ें दम तोड़ रही है, लोग ज़िन्दगियों से हार रहे है, लोकतंत्र से भरोसा उठ रहा है, जानबूझकर संविधान और संवैधानिक संस्थाओं को बर्बाद किया जा रहा है, न्याय, समानता और स्वतंत्रता के वादे दूर होते जा रहे है, लोगों में गहरी निराशा का भाव घर करता जा रहा है, यह नैराश्य सिर्फ आत्महत्याओं का कारण ही बनेगा ऐसा नहीं है, यह इस देश तो बचाये रखने की सारी संभावनाओं को धूमिल कर देगा, तब ये अत्याचारी भी बच नहीं पाएंगे, क्योंकि अराजकता किसी को नहीं छोड़ती, यह एक सुनामी होती है, जो सब कुछ लील जाती है, देश का 70 फीसदी समुदाय आज उत्पीड़ित है, यह उत्पीड़ित समुदाय जब अपने साथ हो रही नाइंसाफी को समझ जाएगा, तब किसी को नहीं छोड़ेगा, वह दिन दूर नहीं है।
मुझे गेनाराम के परिवार से सहानुभूति तो है, मगर आक्रोश भी है, आत्महत्या के बजाय संघर्ष का रास्ता लेना था, इस पत्र को सुसाईड नोट बनाने के बजाय ऐलाने जंग का खत बना लेना था, जैसा मर कर बताया, जीते जी बता देना था, इतना घुटन अकेले क्यों सही ? क्यों नही सबको अपनी पीड़ा बताई, कुछ ही सही अभी लोग ज़िंदा है जो आखिरी दम तक लड़ते, गेनाराम आप लोग क्यों मरे, जो आप लोगों की मौत के ज़िम्मेदार है, उन्हें डूब मरना था, आत्महत्या के रास्ते का मैं समर्थन नहीं करता, मेरी जीते जी संघर्ष में रुचि है, कमजोर नही होना है, आखिरी सांस तक लड़ना है, जब मरना ही है तो अंत तक लड़ते हुए मरना होगा, बिना डिप्रेशन में आये, बिना थके, अगर हम नहीं लड़े तो आने वाली कई पीढियां बर्बाद हो जाएगी, इसलिए खुदकुशी के बजाय लड़ाई की राह लेना ही श्रेयस्कर है .
हमें लड़ना होगा साथी, इस घनी काली अंधेरी रात का तम हर कर उजाला लाने तक, इस अन्याय को मिटाने तक, बिना लड़े मैदान छोड़ना उचित नहीं है, यह जंग है, इस जंग से किसी की मुक्ति नही है, यहां बिना लड़े नहीं चलेगा, लड़ना ही होगा, गेनाराम के परिवार के लिए भी और अपने आप के लिए भी, क्योंकि फांसी का फंदा तो तैयार है, क्या पता अगली बार उसके शिकार हम ही हो ?
(लेखक स्वतन्त्र पत्रकार एवम सामाजिक कार्यकर्ता हैं।)
यहां अब कौन सुरक्षित है ? जब राजस्थान पुलिस के एक जवान को निरन्तर हो रही प्रताड़ना से हार कर पूरे परिवार सहित फांसी के फंदे पर झूल कर खुदकुशी करनी पड़े तो यह समझ लेना चाहिए कि सबके गले के नाप के फंदे तैयार है, आज गेनाराम मेघवाल का परिवार झूला, कल हम में से किसी का भी नम्बर आ सकता है।
कोई इंसान जब तक पूरी तरह से नाउम्मीद नही हो जाये, तब तक जान नहीं देता है, इससे यही जाहिर होता है कि गेनाराम का परिवार काफी वक्त से सताया जाता रहा और इंसाफ की कोई किरण नहीं पा कर पूरे परिवार ने मौत को गले लगा दिया, अपने 6 पेज के सुसाईड नोट में आत्महत्या करनेवाले परिवार की पूरी व्यथा नामजद लिखी गई है, मरने से पहले यह नोट सोशल मीडिया पर इस आशा और अपेक्षा के साथ मृतक ने पोस्ट किया कि गुनाहगारों को छोड़ा नहीं जाए।
हम इन हत्याओं और सुनियोजित आत्महत्याओं को देखते रहने के लिए अभिशप्त हो चुके है, हर दिन अन्याय, उत्पीड़न, अत्याचार, खून खराबा, हत्याएं और आत्महत्याएं सम्बन्धी खबरें सुनने को मजबूर है हम, आखिर यह सिलसिला कहीं जा कर रुकेगा या यह अनंतकाल तक जारी रहेगा, क्या कोई तरीका है इस अत्याचार से मुक्ति का ?
हर घटना हमें उद्वेलित करती है, उद्विग्न करती है, आंदोलित करती है, हम सड़कों पर उतरते है, हम मोर्चरी के बाहर बैठते हैं, हम सही, निष्पक्ष जांच की मांग करते हैं, सीबीआई की गुहार लगाते हैं, जो आंदोलन में हमारे साथ शरीक होते हैं, उन्हें सलाम भेजते हैं, जो नहीं आते, उन्हें गरियाते हैं, थोड़े दिन जांच पड़ताल, चालान, सुनवाई, गवाही, फैसला या समझौता हो जाता है, हम अगले कांड में न्याय पाने के लिए फिर सड़कों पर होते हैं, विगत 3 -4 सालों से सड़कें ही हमारी युद्धभूमियां बनी हुई है।
यहां किसको जीने दिया जा रहा है ? किसी को भी तो नहीं ! हमारे विश्वविद्यालय के विद्यार्थी बड़ी संख्या में सुसाईड कर रहे है, रोहित वेमुला अकेले नहीं है, हर यूनिवर्सिटी में कईं कईं रोहित है ? जिनके गलों के लिए फंदे तैयार है, हमने रोहित वेमुला, डेल्टा मेघवाल, मुथुकृष्णन, रविन्द्र मेघवाल जैसे दर्जनों होनहार नोजवान खो दिए है, जो नहीं मरे, उनको मार दिया गया है, नजीब जैसों को गायब कर दिया गया है।
पूरा देश ही रणभूमि बन चुका है, संविधान द्वारा दिये गए आरक्षण को लेकर टॉर्चर किया जा रहा है, सीबीआई और एन्टी करप्शन ब्यूरो हमारे अधिकारियों कर्मचारियों और जनप्रतिनिधियों के पीछे पागल कुत्ते की तरह पड़ा हुआ है, जरा सा बोलो और जेल जाने की तैयारी कर लो, न बोलने की, ना लिखने की, न ही खाने की, न ही प्यार करने की, किसी भी चीज़ की आज़ादी नहीं बची है, हर तरफ दुष्चक्र है, दमन है और चीख चीत्कार है, लोकतंत्र सिर्फ कहने भर को रह गया है।
क्या वजह है कि फूलन देवी का हत्यारा सारे देश मे आज़ाद घूम रहा है और भीम आर्मी का मुखिया रासुका में अंदर सड़ाया जा रहा है ? क्या हम इतने मूर्ख है कि हम समझने में नाकामयाब है कि पूरे राजस्थान में सामंतवाद, ब्राह्मणवाद और बनियावाद अपने चरम पर है और हम सब कुछ समझ कर भी नासमझ बने हुए है, आखिर हम कब जान पाएंगे कि हमारे वर्ण शत्रु सदियों बाद फिर से सत्ता संसाधनो पर काबिज हुए है और उनका एक महाभियान चल रहा है कि किस तरह इस देश को एक धर्म विशेष के नाम पर मनुवादी राष्ट्र बना दें, जिसमें या तो हम गुलाम, दास और सेवक की भांति रहेंगे अथवा हमें मरने पर मजबूर किया जाएगा, जो रोहित वेमुला और गेनाराम परिवार की तरह खुदकुशी नहीं करेंगे, उनको मार दिया जाएगा।
राजस्थान के नागौर जिले के सुरपालिया थाना क्षेत्र के बागरासर गांव की यह घटना सिर्फ एक दलित परिवार की आत्महत्या नहीं है, यह हमारी सामूहिक चेतना की हत्या है, यह व्यवस्था के सुव्यवस्थित मारक उत्पीड़न का सबसे ताज़ा उदाहरण है, देश अज़ीब से विरोधाभासी तथ्यों से रूबरू है, एक तरफ राष्ट्रपति भवन इस वर्ग के हवाले है तो दूसरी तरफ गेनाराम जैसे लोगों की ज़िन्दगी के लाले है, समझ ही नही आता कि हम गेनाराम के परिवार की इस सांस्थानिक हत्या के खिलाफ लड़ें या सामूहिक शोक में डूबकर विलाप करें।
आखिर कब तक हम एक एक घटना के पीछे भागेंगे न्याय प्राप्ति के लिए, क्या हमारी दो तीन पीढ़ियों को और अपनी जान की बलि देनी होगी या कोई असरदार तरीका हम खोज पाएंगे ? अत्याचार मुक्ति की परियोजना में सफल हुए बगैर हम आगे कैसे बढ़ेंगे ? तरक्की, स्वाभिमान, गर्व, मिशन, चेतना की बातें तो तब करेंगे, जबकि ज़िंदा रहेंगे, आज तो हालात एक एक को चुन चुन कर मारने जैसे है, सारी आवाज़ें दम तोड़ रही है, लोग ज़िन्दगियों से हार रहे है, लोकतंत्र से भरोसा उठ रहा है, जानबूझकर संविधान और संवैधानिक संस्थाओं को बर्बाद किया जा रहा है, न्याय, समानता और स्वतंत्रता के वादे दूर होते जा रहे है, लोगों में गहरी निराशा का भाव घर करता जा रहा है, यह नैराश्य सिर्फ आत्महत्याओं का कारण ही बनेगा ऐसा नहीं है, यह इस देश तो बचाये रखने की सारी संभावनाओं को धूमिल कर देगा, तब ये अत्याचारी भी बच नहीं पाएंगे, क्योंकि अराजकता किसी को नहीं छोड़ती, यह एक सुनामी होती है, जो सब कुछ लील जाती है, देश का 70 फीसदी समुदाय आज उत्पीड़ित है, यह उत्पीड़ित समुदाय जब अपने साथ हो रही नाइंसाफी को समझ जाएगा, तब किसी को नहीं छोड़ेगा, वह दिन दूर नहीं है।
मुझे गेनाराम के परिवार से सहानुभूति तो है, मगर आक्रोश भी है, आत्महत्या के बजाय संघर्ष का रास्ता लेना था, इस पत्र को सुसाईड नोट बनाने के बजाय ऐलाने जंग का खत बना लेना था, जैसा मर कर बताया, जीते जी बता देना था, इतना घुटन अकेले क्यों सही ? क्यों नही सबको अपनी पीड़ा बताई, कुछ ही सही अभी लोग ज़िंदा है जो आखिरी दम तक लड़ते, गेनाराम आप लोग क्यों मरे, जो आप लोगों की मौत के ज़िम्मेदार है, उन्हें डूब मरना था, आत्महत्या के रास्ते का मैं समर्थन नहीं करता, मेरी जीते जी संघर्ष में रुचि है, कमजोर नही होना है, आखिरी सांस तक लड़ना है, जब मरना ही है तो अंत तक लड़ते हुए मरना होगा, बिना डिप्रेशन में आये, बिना थके, अगर हम नहीं लड़े तो आने वाली कई पीढियां बर्बाद हो जाएगी, इसलिए खुदकुशी के बजाय लड़ाई की राह लेना ही श्रेयस्कर है .
हमें लड़ना होगा साथी, इस घनी काली अंधेरी रात का तम हर कर उजाला लाने तक, इस अन्याय को मिटाने तक, बिना लड़े मैदान छोड़ना उचित नहीं है, यह जंग है, इस जंग से किसी की मुक्ति नही है, यहां बिना लड़े नहीं चलेगा, लड़ना ही होगा, गेनाराम के परिवार के लिए भी और अपने आप के लिए भी, क्योंकि फांसी का फंदा तो तैयार है, क्या पता अगली बार उसके शिकार हम ही हो ?
(लेखक स्वतन्त्र पत्रकार एवम सामाजिक कार्यकर्ता हैं।)