सामाजिक कार्यकर्ता मुहम्मद शुएब और दारापुरी से क्यों डर गई योगी सरकार ?

Written by Sabrangindia Staff | Published on: January 2, 2020
नागरिकता संशोधन क़ानून के ख़िलाफ़ लखनऊ के परिवर्तन चौक पर गत 19 दिसंबर को हुए प्रदर्शन के मामले में पुलिस ने कई ऐसे लोगों को भी गिरफ़्तार किया है जो अक़्सर अपनी सामाजिक गतिविधियों की वजह से चर्चा में रहते हैं या फिर बौद्धिक जगत में अपनी अहमियत रखते हैं। इनमें से कई लोग जेल की सलाखों के पीछे हैं और अब पुलिस इन्हें भी विरोध प्रदर्शन के दौरान हुई हिंसा में नुक़सान की भरपाई के लिए नोटिस थमाने जा रही है।



बताया जा रहा है कि पुलिस ने प्रदर्शनकारियों की संपत्ति कुर्क करने के लिए जो सूची तैयार की थी, उसमें ग़लती से कुछ लोगों का नाम शामिल नहीं था लेकिन अब उन्हें भी नोटिस भेजा जा रहा है। बीजेपी ने समाजसेवी व बुद्धिजीवियों को अर्बन नक्सल का नाम दिया है जो कि सरकार का डर दिखाता है। 

लखनऊ के अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक पूर्वी सुरेश चंद्र रावत का कहना था, "एसआर दारापुरी, सदफ़ जफ़र, दीपक कबीर और मो. शोएब को हज़रतगंज पुलिस ने गिरफ्तार करके जेल भेजा था। चारों पर आरोप हैं कि उन्होंने धारा 144 लागू होने के बाद भी ग़ैरक़ानूनी तरीक़े से लोगों को बुलाकर सम्मेलन किया, जिसके दौरान उपद्रव और हिंसा हुई।"

सामाजिक कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी पर यूपी प्रशासन व सरकार तमाम तरह की बातें झेल रही है लेकिन अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रही। लखनऊ से गिरफ्तार किए रिहाई मंच अध्यक्ष मो० शुऐब एडवोकेट को लखनऊ पुलिस ने विवादास्पद नागरिकता अधिनियम के खिलाफ विरोध प्रदर्शन का आह्वान करने के आरोप में पहले 18 दिसम्बर से उनके घर में नज़रबंद रखा और 19 दिसम्बर को रात में 12 बजे के करीब बातचीत के बहाने से थाने पर बुलाकर गिरफ्तार कर लिया। 

छात्र जीवन से समाजवादी आदर्शों के लिए संघर्ष करने वाले एडवोकेट शुऐब को पहली बार गिरफ्तार नहीं किया गया। जाति सम्प्रदाय से ऊपर उठकर पीड़ित व हाशिये की जनता की पक्षधरता के कारण वे हमेशा सत्तासीनों की आंख की किरकिरी रहे थे और कई बार फर्जी मुकदमों में उन्हें फंसाया गया था। लेकिन उन्होंने कभी अपने आदर्शों से समझौता नहीं किया। 1975 में आपातकाल के दौरान भी उन्हें डी०आई०आर० के तहत गोंडा में दो महीने तक जेल काटनी पड़ी थी।

लखनऊ में वकालत शुरू करने के बाद भी उन्होंने अपने पेशे से अपने आदर्शों को जोड़े रखा। समाज के दबे कुचले वर्ग के पीड़ितों के मुकदमों की निःशुल्क पैरवी ही नहीं करते थे बल्कि उनकी आर्थिक मदद भी करते थे। कानून की मर्यादा के मुताबिक उन्होंने कभी फीस के लिए किसी मुवक्किल को वापस नहीं किया। आतंकवाद के नाम पर गिरफ्तार किए गए यवकों के मुकदमें लड़ने के खिलाफ जब बार असोसिएशनों के फरमान जारी हो रहे थे तब भी उन्होंने उनके मुकदमे लिए। उनके ऊपर लखनऊ कचहरी में वकीलों ने हमला भी किया लेकिन उन्होंने अंत तक हार नहीं मानी और 14 बेकसूरों को रिहाई दिलवाई। 

संविधान और कानून में अटूट आस्था और उसकी मर्यादा कायम रखने वाले शुऐब एडवोकेट ने हिंसक हमलों तक का सामना किया लेकिन किसी के खिलाफ बदले की भावना से कुछ नहीं किया। यह देश और समाज के लिए बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिसे उत्तर प्रदेश सरकार ने लोकतंत्र की रक्षा के लिए स्वंय लोकतंत्र सेनानी का दर्जा दिया हो उस पर संविधान की परिधि से बाहर जाकर हिंसा का सहारा लेने का आरोप लगाकर जेल में डाल दिया जाए।


 

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