बुजुर्ग आदिवासी की जुबानी, वन विभाग के उत्पीड़न की कहानी

Written by Navnish Kumar | Published on: October 14, 2020
आदिवासी अपनी जल, जंगल जमीन को बचाने की जद्दोजहद में निरंतर जुटे हैं। बिहार के अधौरा के बरडीह गांव निवासी 65 वर्षीय बुजुर्ग आदिवासी राम सूरत सिंह ने अपनी पीड़ा CJP के साथ शेयर की है। इस दौरान उन्होंने बड़े ही मार्मिक तरीके से बताया कि वे अपनी आजीविका चलाने के लिए किस तरह का संघर्ष कर रहे हैं। वन विभाग आदिवासियों के साथ किस तरह का व्यवहार करता है। यह हाल सिर्फ उनका ही नहीं बल्कि सभी आदिवासियों का है। 



प्रतीकात्मक फोटो

''वन विभाग से हमारी लड़ाई है। जल, जंगल, जमीन को लेकर। हम सभी का कहना है कि यह सब (जंगल) हमारा था, है और हमारा ही रहेगा। कारण, जंगल उनकी तरह-तरह की आजीविका का माध्यम है। इसी के वास्ते हम यहां पर बसे हैं। यह हमारे पूर्वजों की धरती है। हमेशा से हम सब यहां निवास करते आ रहे हैं। वन विभाग जबरन इसे (जंगल) लेकर तरह-तरह के कानून लागू करता आ रहा है। वह मानता ही नहीं है। इससें वह सब लाचार व विवश हैं। क्या करें, कहां जाए, कुछ समझ नहीं आता है। हम सभी के घरों में न सरकारी नौकरी है और न ही कोई व्यापार है जिससे कि हम लोगों की गुजर बसर हो सके। दूसरी ओर, जंगल की सारी की सारी वन संपदा पर वन विभाग का कब्जा है। इस सब से उन लाखों करोड़ों आदिवासियों के लिए ज़िन्दगी जीना भी दूभर हो गया है।'' वन विभाग के निरंतर उत्पीड़न से उपजी यह पीड़ा किसी और की नहीं, एक 65 वर्षीय बुजुर्ग आदिवासी ने बयां की है।

अधौरा के बरडीह गांव निवासी 65 वर्षीय बुजुर्ग आदिवासी राम सूरत सिंह ने अपनी पीड़ा को अपने हाथों कागज पर उकेरा और सिटीजंस फॉर जस्टिस एन्ड पीस, अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन व दिल्ली फोरम (दिल्ली सार्थक समूह) के प्रतिनिधिमंडल को सौंपा है। पिछले दिनों अधौरा में पुलिस की दमनात्मक कार्रवाई को लेकर यह प्रतिनिधिमंडल 22-27 सितंबर तक अधौरा के दौरे पर था।

राम सूरत कहते हैं कि आदिवासी समुदाय, अनुसूचित जनजाति और अन्य पंरपरागत वननिवासियों की जल, जंगल, जमीन को लेकर वन विभाग से लड़ाई है। उन सभी का कहना है कि यह (जंगल) सब हमारा है और हमारा ही रहेगा। कारण- यह उनकी आजीविका का माध्यम है। इसी के वास्ते वह (उनके पूर्वज) यहां पर बसे हैं। यह हमारे पूर्वजों की धरती है जहां सर्वत्र से वह सब निवास करते आ रहे हैं। अतः तुम (वन विभाग) इस पर तरह-तरह के कानून मत लागू करो लेकिन वह मानता ही नहीं है। इससें हम सब लाचार व विवश हैं। क्या करें, कहां जाये, कुछ समझ में नहीं आता है। उनके पास गुजर बसर को ना कोई नौकरी है और ना ही कोई व्यापार है। ज़िन्दगी पूरी तरह जंगल पर निर्भर है। जहां वन विभाग ने सारी की सारी वन सम्पदा पर कब्जा कर रखा है। 

जड़ी-बूटियों जैसे लाशा, मेलावर, गुड़मार, सत्तावर व तेन्दुपत्ता आदि पर वन सेंचूरी की आड़ में रोक लगा दी है। जिससे इस (कैमूर) पठार के निवासियों को करोडों-करोड की प्रति वर्ष क्षति है। जो उनकी जीविका का असल साधन था जिसको भी वन विभाग ने खत्म कर दिया है।

लकडी काटने पर रोक से रोजमर्रा की चारपाई, चौकी, कुर्सी, टेबल, हल, जुआ, हेंगा, पाटा, मकान बनाने आदि की जरूरतों तक के लिए लकडी को वन विभाग द्वारा वर्जित कर दिया गया है। जबकि फर्द व रिवाज के मुताबिक हम सभी को इन सभी कामों के लिए लकडी लेने की छूट है। यहां तक कि सिर पर लकडी ले जाकर बाजार में बेचने का अधिकार भी है। लेकिन लकडी बेच नहीं पाते हैं। वन विभाग के अत्याचार से हम लोग त्रस्त हैं। हम सब वन विभाग से दबकर जिन्दगी जी रहे हैं। मार भी खानी पड़ती है। हमारे ऊपर झूठे मुकदमे भी किये जाते हैं और जेल जाना पड़ता है। केस लड़ना पड़ता है। जंगल में कुल्हाडी लेकर घूम रहे लोगों से कुल्हाडी छीन ली जाती है। जबकि संविधान में हमें कुल्हाडी एक हथियार के रूप में मिली है, जंगल में जंगली जानवरों से सुरक्षा के लिये। जंगल के वनपाल, गांव के लोगों से मुर्गा, बकरा, दही, दूध, घी दबाव देकर खा लेते हैं। भय से लोग खिला देते हैं ताकि हमारे ऊपर किसी तरह का मुकदमा ना होने पाए। इस तरह से तरह-तरह से अत्याचार एवं शोषण किया जाता है।

यहां वन सेंचुरी (वन्यजीव अभ्यारण्य) और बाघ अभ्यारण्य की आड़ में विभाग द्वारा सारा जंगल कब्जा कर लिया गया है। अब कहां तो विनोबा जी का भूमि दान था, वहीं दूसरी ओर अब कहीं सरकार (वन विभाग) द्वारा जमीन छीनकर वृक्षारोपण कराया जा रहा है। वनों में निवास करने वाले लोगों के घर गिराकर वृक्षारोपण और वन में खेती करने वालों के खेतो में वृक्षारोपण करवाने का काम वन विभाग द्वारा किया जा रहा है। यही नहीं, आए दिन वनों में विभाग द्वारा जंगली जानवरों से हमारी आजीविका को बर्बाद करवाना ही वनविभाग का काम व मकसद हो गया है।

यह सब जिस विकास के नाम पर किया जा रहा है, हकीकत में वन विभाग ही उस विकास का असली रोड़ा है। यह (वन विभाग) वनों में कुछ नहीं बनाता है और न बनने देता है। स्कूल, अस्पताल, आगंनवाडी, उचित दर की दुकानें, बिजली, पानी, सड़क, दूरसंचार, लघु जलाशय, जल संचयन, अपांरपारिक उर्जा स्रोत, कौशल उन्नयन या व्यवसायिक प्रशिक्षण व  सामुदायिक केन्द्र आदि। वन विभाग जो सड़क बनाता भी है तो वह सडक जर्जर और दुर्घटनाग्रस्त रहती हैं।

राम सूरत कहते हैं कि आजादी के बाद से देखें तो आज तक वन विभाग के अत्याचार एवं जुल्म से ऊबकर कहे या विवश होकर, वन विभाग के खिलाफ आवाज उठानी पडी है। कहावत भी है, मरता क्या नहीं करता। तब हम लोगों ने छः सूत्रीय मांगों को लेकर कैमूर मुक्ति मोर्चा संगठन के बैनर तले दो दिवसीय धरने का आयोजन प्रखण्ड प्रागंण में किया था जिसमें 2 दिन तक रेंजर फोरेस्ट, प्रशासन, प्रखण्ड अफसरों को गुहार लगाते रह गये। लेकिन इन लोगों ने उनकी एक न सुनी। उल्टे उन्हें दमन, लाठी व गोली ही मिलीं हैं।

राम सूरत कहते हैं कि उन वन निवासियों की 6-सूत्री मांग निम्न हैं...
1) कैमूर पहाड को प्रशासनिक पुनर्गठन करते हुये पाँचवी अनुसूचित क्षेत्र घोषित करो।
2) छोटा नागपुर काश्तकारी अधिनियम को लागू करो।
3) पेशा कानून को तत्काल प्रभाव से लागू करो।
4) वनाधिकार कानून 2006 को तत्काल प्रभाव से लागू करो।
5) प्रस्तावित भारतीय वनाधिकार कानून 2019 को तत्काल वापस लो।
6) कैमूर पहाड से वन सेंचुरी (वन जीव अभ्यारण्य) और बाघ अभ्यारण्य को खत्म करो।

Related:

बिहार के कैमूर जिला में वनविभाग एवं पुलिस विभाग उत्पीड़न के खिलाफ आदिवासियों का प्रर्दशन

कैमूर: आदिवासियों ने हक-हकूक मांगा तो मिली गोली

बाकी ख़बरें